|| आचार्य-भक्ति ||
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साधु संघ के अधिनायक आचार्य कहलाते हैं, वे गुरुओं में मुख्य होते हैं, उनकी भक्ति करना आचार्य भक्ति है।‘

‘आचार्य‘ एक पद है जो कि मुनि संघ के सबसे अधिक तपस्वी, अनुभवी, देश, क्षेत्र काल भाव के ज्ञाता, पाँच आचारों के पालक, प्रायश्चित शास्त्र के जानकर महान् मुनि को समस्त मुनियों की अनुमति से प्रदान किया जाता है। संघ के समस्त मुनि आचार्य की आज्ञानुसार चर्या करते हैं। नवीन मुनि-दीक्षा आचार्य ही देते हैं। मुनिजन आचार्य महाराज के समक्ष अपने दोषों की आलोचना करते हैं और उनको उनकी शक्ति अनुसार प्रायश्चित भी आचार्य ही देते हैं। इसके सिवाय संघ में यदि कोई साधु बीमार हो जाये तो उसकी वैयावृत्य (सेवा) का प्रबंध भी आचार्य ही करते हैं। द्रव्य क्षेत्र काल भाव का अनुमान करके आचार्य ही अपने मुनि संघ को किसी स्थान पर ठहरने और कितने समय ठहरने तथा वहां से कब और किस ओर विहार करने का आदेश देते हैं। यदि किसी स्थान पर संघ के ऊपर आता हुआ कोई भीषण उपद्रव देखते हैं तो उस समय मुनि संघ मंे उस उपद्रव के समय समस्त मुनियों का कर्Ÿाव्य निधोरण भी आचार्य ही करते हैं। तथा किसी मुनि को संघ से पृथक करना किसी को अपने संघ में सम्मिलित करना भी आचार्य के ही अधिकार की बात है। यदि कोई मुनि समाधिमरण ग्रहण करना चाहे तो आचार्य महाराज ही उसकी शारीरिक योग्यता, उसकी परिषह सहन करने की क्षमता तथा उसके स्वास्थ्य आदि बातों का विचार करके उसको समाधिमरण की अनुमति देते हैं।

इस तरह आचार्य अपने मुनि संघ के नायक होते हैं। जिस तरह बिना नायक के घर की व्यवस्था, समाज की दशा और देश की अवस्था बिगड़ जाती हैं, छिन्न भिन्न हो जाती हैं, उसी तरह बिना आचार्य के मुनि संघ में भी अनेक तरह की समस्याएँ आ खड़ी होती हैं, उन्हें सुलझाकर पथप्रदर्शन करने के लिये मुनि संघ का नायक होना परम आवश्यक है।

आचार्य महाराज को मुनिसंघ की व्यवस्था के लिये अपना बहुत सा अमूल्य समय देना पड़ता है जिसको कि वे आत्मध्यान, स्वाध्याय आदि स्वार्थ (आत्मशुद्धि) साधन में लगा सकते हैं, इसके सिवाय नायक होने के कारण उनको अपने संघ के साधुओं की व्यवस्था के लिये थोड़ा बहुत चिन्तातुर भी होना पड़ता है जिससे कि राग द्वेष के साधुओं की व्यवस्था के लिये थोड़ा बहुत चिंतातुर भी होना पड़ता है जिससे कि राग द्वेष का अंश भी उनको लगा करता है। इस कारण आचार्य पद पर रहते हुए उनको मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। वे जब अपने स्थान के योग्य किसी अन्य अनुभवी तपस्वी मुनि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके स्वयं साधु के रूप में आकर निद्र्वन्द्व तपस्या नहीं करते तब तक उनको मुक्ति प्राप्त नहीं होती। इस प्रकार आचार्य एक पद है जिसको कि किसी सुयोग्य व्यक्ति द्वारा सर्व संघ की अनुमति से परोपकार बुद्धि से ग्रहण किया जाता ह ै औश्र किसी समय आत्म-कल्याण की उत्कृष्ट भावना से परित्याग भी किया जाता है।

आचार्य महाराज वैसे तो अन्य साधुओं के समान २८ मूल गुणों का आचरण करते हैं, किंतु उनके सिवाय उनके ३६ गुण उनमें और भी माने गये हैं। १२ तप, १॰ धर्म ५ आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति।

६ प्रकार के बहिरंग और ६ प्रकार के अन्तरंग तपों को निर्दोष रूप से आचार्य अन्य मुनियों की अपेक्षा विशेष ये आचरण करते हैं।

इसी तरह उत्तम शिक्षा आदि १॰ धर्मों का आचरण भी अन्य साधुओं की अपेक्षा आचार्य का श्रेष्ठ होता है।

छह आवश्यक यद्यपि अन्य मुनि भी पालते हैं, परंतु आचार्य इनको आदर्श रूप में आचरण करते हैं।

आत्म-शुद्धि की विशेष कारणभूत ३ गुप्तियों का परिपालन भी आचार्य इनको आदर्श रूप में आचरण करते हैं।

आचार्य के ५ भेद हैं-(१) दर्शनाचार, (२) ज्ञानाचार, (३) चारित्राचार, (४) तपाचार, (५) वीर्याचार। इन पांचों आचारों आचार्य पद की एक मुख्य विशेषता है। आचार्य नाम भी इन पांच आचारों के आचरण के कारण हैं।

दर्शनाचार:-सम्यग्दर्शन का निर्दोष, दृढ़ता के साथ आचरण करना दर्शनाचार है। सम्यग्दर्शन आत्म-शुद्धि की मूल भूमिका है, यदि इसमें जरा भी शिथिलता आ जा वे तो आचार्य अन्य साधुओं को मुक्ति मार्ग पर किस प्रकार चला सकता है, अतः आचार्य का ‘दर्शनाचार‘ आदर्श होता है।

ज्ञानाचार:-जैन सिद्धांत का पूर्ण ज्ञान तथा साथ ही अन्य सिद्धांतों का परिज्ञान, तर्क व्याकरण, साहित्य आदि का असाधारण ज्ञान होना ज्ञानाचार है। आचार्य महान् ज्ञानी होते हैं, जैन सिद्धांत की सिद्धि आर अन्यमत के खंडन में अति निपुण होते हैं, अवसर आने पर शास्त्रार्थ करके जैनधर्म की प्रभावना करते हैं, शास्त्र निर्माण करते हैं। यह सब ज्ञानाचार की विशेषता है।

चारित्राचार:- उनका चारित्र निर्दोष होता है। पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति इस तेरह प्रकार के चारित्र का जैसा अच्छा आचरण आचार्य महाराज के होता है, उतना अच्छा आचरण संघ के अन्य किसी साधु का नहीं होता। यही उनका चारित्राचार है।

तापाचार:- बारह प्रकार के तपों में से वे कठोर तप करने के असाधारण अभ्यासी होते हैं। अतः तपाचार भी उनका श्रेष्ठ होता है।

वीर्याचार:- कठोर परिषह, भयानक उपसर्ग सहन करने से, निर्जन भयानक स्थान में ध्यान लगाने से, दुर्द्धर विकट तपस्या करने से तथा और भी विकट परिस्थितियों से वे कतराते नहीं है, सिंह के समान उनकी मनोवृत्ति सदा निर्भय रहती है। इन विशेषताओं के कारण आचार्य में वीर्याचार माना जाता है।

गुरु के तीन भेद है- आचार्य, उपाध्याय और साधु। इनमें आत्म-शुद्धि के साधन की दृष्टि से देखा जाय तो साधु श्रेष्ठ होते हैं क्योंकि ये समस्त संकल्प विकल्प से मुक्त होकर आत्म-साधना करते हैं, परंतु लोक-कल्याण की दृष्टि से विचार किया जावे तो आचार्य का पद सबसे उच्च है। क्योंकि मुनि संघ की सुव्यवस्था करके वे मुनियों का नहीं, अपितु संसार का महान् उपकार करते हैं। अत एवं अर्हन्त, सिद्ध भगवान् के बाद आचार्य परमेष्ठी का पद रखा गया है।

उन आचार्य माहराज की भक्ति करना आचार्य-भक्ति है। अर्हंत भगवान् को साक्षात् अभाव में मोक्षमार्ग का नेता आचार्य ही तो होता है। उनकी आज्ञा का पालन करना, उनका हृदय से सम्मान करना, उनको ऊँचे आसान पर बैठाना, उनको हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर नमस्कार करना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनके आते ही खड़े हो जाना, उनके बैठ जाने पर उनकी अनुमति से बैठना, उनके चरण स्पर्श करना, उनके पैर दबाना, थकावट दूर करने के लिये उनके हाथ पैर, पीठ आदि दबाना आचार्य भक्ति है।