।। आहार दान का महत्व ।।

प्राचीन आचार्यो मे महान दार्शनिक आत्र समन्तभद्र ने रत्न करण्डक श्रावकाचार मे दाता, विधि, पात्र और दान महत्वपूर्ण संक्षिप्त विवेचन करते हुए कहते हैं-

नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहिन शुद्धेन
उपसूनारम्भाणा-मार्याणमिष्यतेदानम् ।।113।।

सप्त व्यसन के त्याग से शुद्धि श्रद्धा तुप्टि आदि सप्त गुणो से युक्त श्रावक के द्वारा प्रतिग्रहण उच्च स्थान आदि नवधा भक्ति पूर्वक चक्की चूल्हा आदि पांच सूनाओ से और कृषि आदि पट् आरंभो से रहित आर्यों का/ मुनि आर्यों का आदि सुपात्रो का यथा योग्य जो आहार दान औपध दान आदि के द्वारा आदर सत्कार किया जाता है वह दान है।

आहार दान के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कार्तिक भानु प्रेक्षा मे कहा है-

भोयण दाणे दिण्णेतिण्णिदि दाणाणिहोंति दिण्णाणि।
मुक्ख तिसाए बाहीदिणे दिणेहोंति देहीणं।।
jain temple293

भोजन दान देने पर तीन दान दिये होते है क्यो कि प्राणियो को भूख व प्यास रूपी व्याधि प्रति दिन होती है।

भोयण बलेणसाहू सत्थंसेवेदिरत्तिदिवसंपि।
भोयण दाणेदिण्णे पाणावि य रक्ख्यिा होंति।।

भोजन के बल से ही साधु रात दिन शास्त्र का अध्ययन करते है और भोजन दान देने पर प्राणों की भी रक्षा होती है।

1 . आहार दान से -

विद्या, धर्म, तप, ज्ञान, मोक्ष सभी नियम से दिया हुआ जानो!

2 .

;पद्ध ‘भुक्खसमा ण हु-वाही’ - भूख के समानव्याधि नही है

;पपद्ध अण्णसमाणं च ओसहं णत्थि
- (और) अन्न के समान औषधि नहीं
;पपपद्ध तम्हातद्दाणेण य
इसलिए - उस (आहार) दान से
;पअद्ध आरोयत्तंह वेदिण्णंआरोग्य ही दिया जानो!

3 . यह शरीर आहार मय है, आहार न मिलने से नियम से नही टिक सकता अतः जिसने आहार दिया उसने शरीर ही दिया जानो।