।। आहार शुद्धि ।।

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1 - आहार

इस शीर्षक के द्वारा यह बतलाने का प्रयत्न किया जा रहा है कि शुद्धता का मनुष्य के जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि बाहरी शुद्धता से ही श्रावक के मन में अंतरंग शुद्धता की उत्पत्ति होती है।

प्रायः लोग बोलचाल की भाषा में, शुद्धि को उपेक्षा की बात मान लेते है। परंतु हम यह नहीं सोच पाते कि इस शुद्धता का उपेक्षा करते-करते हम स्वयं न जाने कितने भवों/पर्यायों के लिए उपेक्षित हो जाते हैं।

आहार चर्या में 4 प्रकार की शुद्धि बोली जाती है।

1 - मन शुद्धि

2 - वचन शुद्धि

3 - काय शुद्धि

4 - आहार जल शुद्ध है।

क्रम में आहार जल की शुद्धि सबसे अंत में रखी गई है उसका कारण है कि आहार जल शुद्धि की आधारशिला मन, वचन, काय की शुद्धि है।

अतः यहां पर आहार शुद्धि का विस्तृत विवेचन देना उपयक्त लग रहा है। जिसके फलस्वरूप आप अपनी मन, वचन, काय की शुद्धि के निर्माण्या को दृढत्रता प्रदान कर सके।

आहार शुद्धि:-

इसके अंतर्गत 4 प्रकर की बातें आती है।

1 - द्रव्य शुद्धि

2 - क्षेत्र शुद्धि

3 - काल शुद्धि

4 - भाव शुद्धि

(1) द्रव्य शुद्धि

आहार चर्या को निर्दोष सम्पन्न कराने के लिए द्रव्य शुद्धि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि सभी प्रकार के द्रव्यों को शुद्ध करना ही आहारदाता के कला-कौशल की बात रहती है। अतः द्रव्यशुद्धि में निम्नलिखित पदार्थों की शुद्धि पर ध्यान देना जरूरी है।

(1) अन्न शुद्धि

भक्ष्य पदार्थों में अन्न गेहूं, दान, चावल आदि।

मसाले- जीरे-धनियां मिर्च हल्दी आदि

मेवा- काजू, किसमिस, बादाम, मुनक्का आदि पदार्थां की संशोधन विधि को अहिंसा के आधार पर विवेक के द्वारा सम्पन्न करना श्रावक का प्रथम कर्तव्य समझना चाहिए।

यदा सबसे पहले पदार्थ को देखना कि खाद्य है या नहीं। खाद्य है तो इसकी शुद्धि शक्य है या नहीं, कहीं घुना, गला तो नहीं है। यह ध्यान रखें कि संशोध्न में फल कम मिले और जीवों की विराधना अधिक हो तब ऐसे पदार्थों को प्रयोग में नहीं लाना चाहिए।

देखकर ही पदार्थों का ग्रहण करना और फिर विवेक से संशोधन कर धोना, सुखाना चाहिए। पश्चात् उपयुक्त बर्तन (डिब्बे) में व्यवस्थित रखना चाहिए।

तात्कालिक भोजन के प्रयोग में लाते समय पुनः संशोधित वस्तुओं का निरीक्षण करना चाहिए।

साबुत अन्न - जिनके दो दल होते हैं, उनका वर्षाकाल (चातुर्मास) में सावधानी पूर्वक उपयोग करना चाहिए।

सीमित वस्तुएं संग्रहीत करना चाहिए जिससे उनकी देखरेख होती रहे। इसलिए तो आचार्यों ने भोग उपभोग वस्तुओं के परिमाण बनाने की विधि कहीं है।

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(2) जल शुद्धि:-

जल शुद्धि में दो बातों पर ध्यान रखना आवश्यक रहता है। पहली जल को विवेक के साथ छानना और दूसरी बात जल से निकले (छन्ने) जीवों की रक्षा के निमित्त जीवानी करना।

पानी छानने की और जीवनी पुनः उस जल के स्त्रोत में डालने की विधि:-

सामग्री- एक स्वच्छ मोटा (जिससे पानी निकल जायें) रंगहीन, छिद्रहीन सूती पकड़ा जो 36 अंगुल लम्बा और 24 अंगुल चैड़ा होना चाहिए।

एक कड़ेदार बाल्टी एक रस्सी और एक कोपर होना चाहिए

विधि-

उपर्युक्त गुणों से युक्त छन्ने के द्वारा, सावधानी पूर्वक पानी छानना।

छानते समय इस बात का भी ध्यान रखना कि बिना छना पानी जमीन में न गिरने पावे।

इसके लिए चाहे तो अपने बर्तन के नीचे चैड़ा कोपर भी रख सकते हैं। जिससे अन छना (बिना छना) पानी कोपर में ही गिरे बाहर नहीं।

इसके बाद जब पात्र भर जावे तो उसे उठाकर कोपर के पानी को बाल्टी में डाल लें। फिर छने हुए पानी से कपड़े/छन्ना को बाल्टी के ऊपर इस तरह रखकर पर्याप्त मात्रा में पानी डालें जिससे जीवानी (जीवाणु) पूरी तरह छन्ने से निकलकर बाल्टी में चली जावें।

फिर छन्ने को बाहर सूखी जगह में निचोड़ लेवे। कभी बाल्टी में न निचोड़े। क्योंकि बाल्टी में निचोडत्रने से बिनछानी (जीवनी) के सारे जीव मर जायेगे। इस प्रकार विवेक पूर्वक पानी छन गया।

जीवनी पुनः जल स्त्रोत में डालने की विधि:-

बाल्टी के नीचे (पैंदी के बाजू में जो पट्टी होती है उसमें) छे कराकर एक लोहे का कड़ा डलवा लें। तथा बाल्टी की तली से ऊपर के कड़े के पर्यन्त की नाम बराबर दूर पर रस्सी में एक ै आकार का लोहे का कड़ा डाल लें। फिर रस्सी का एक सिरा नीचे के कड़े में बांधे। तथा ै वाला कड़ा बाल्टी के ऊपरी कड़े में फसायें ऐसा करके बाल्टी धीरे-धरे कुएं में डाले।

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