।। दिगम्बर जैन समाज की उत्पत्ति ।।

jain temple330

धर्म शाश्वत रहने वाली आत्मा की वस्तु है, जबकि जातियाॅं समय समय पर किन्हीं परिस्थितियों से निर्मित होने वाली होती है। चैबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के अनुयायियों की परंपरा आजतक अनवरत-रूप से चली आ रही है। इसकी निरन्तरता में अनेकांे महापुरूषों, धर्माचार्यों, मनीषियों एवं समाज सेवियों का अनन्य योगदान रहा है। इसके बहुआयामी स्वरूप के निर्माण में जैनों की अवान्तर-जातियों ने भी सहनीय भूमिका निभायी है।

अनेक बार जैनतरों को यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि जैन कोई जाति मात्र है जबकि वास्वतिकता यह है कि जैन मूलतयाः एक धर्म है। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने जैन धर्म के अनुयायियों को तीन वर्णों में विभाजित किया था एवं तत्पश्चात चक्रवर्ती भरत ने चार वर्षों की अवधारणा को स्वीकृति प्रदान कर दी थी। वैदिक वर्ण व्यवस्था ने ही कलान्तर में जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया था। जैन धर्म में जाति प्रथा का प्रचलन कई रूपों में है। जातिय-आधारों पर दिगम्बर व श्वेताम्बर में विभाजित है और दिगम्बर जैन समाज पुनः बीसपंथी व तेरहपंथी में बटा हुआ है। जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों में संघ भेद, साधु सन्यासीयों के संघ, गण व गच्छों में विभाजन से जैन समाज भी जातियों व उप-जातियों में विभाजित हो गया।

समय की प्रगति के अनुसार कई वशं प्रगट हुए जिनमें इक्ष्वाकुवंश, सूर्यवंश, चंद्रवंश, हरिवंश, यदुवंश आदि अनेक अति विख्यात हुए। नाथवंशी भगवान महावीर के निर्वाण के 470 वर्ष 5 माह के व्यतीत होने पर सूर्यवंशी वीर विक्रमादित्य भारत वर्ष में उज्जैनी के अति विख्यात राजा हुए। उन्होंने अपने राज्यारोहण पर जो संवत् चलाया वह अब भी विक्रम संवत् के नाम से बराबर व्यवहार में प्रचलित है। उस समय मानव समाज अनेक उपवंशों में बंटने लगा था और कई उपवंशों को लेकर जातियां प्रगट होने लगी थी यहां तक कि भगवान महावीर के झंडे में रहनेवाले जैन धर्मावलंबी भी 84 जातियों में बंट चुके थे। इसी समय विक्रम संवत् में राजस्थान के खण्डेलगिरी प्रदेश में सूर्यवंशी, क्षत्रिय कुलभूषण, चैहान मंडलीक राजा राज्य करता था। जिनके राज्य में 83 अन्य क्षत्रिय कुल उत्पन्न राजा अधीन थे। इस समय खण्डेला प्रदेश में चारों ही वर्णों के लोग जैन धर्म के श्रद्धानी हो गये। राजधानी का नाम खण्डेला होने से खण्डेलवाल कहलाये। खण्डेला नगर राजधानी के राजपूतों और महाराज कुल का गौत्र तो शाह रखा गया और शेष 83 अधीनस्थ रजवाडो के क्षत्रियों के गौत्र उनके ग्रामों के नामानुसार पृथक-पृथक नियत किये गये। वर्तमान में जो दिगम्बर जैन धर्मानुयायी खण्डेलवाल पाये जाते हैं वे सब मूलतः क्षत्रिय है जिन्होनें अपनी कुल परंपरा को अभी तक निभाया और जैन धर्म नहीं छोडा।

दिगम्बर                श्वेताम्बर

jain temple331
फोटो
jain temple332

दिगम्बर मुनि निर्वस्त्र रहते हैंतथा मूर्तियों का श्रृंगार नहीं किया दुपट्रटा एवं मुंह जाता है।

श्वेताम्बर मुनि धोती,पट्टी धारण करते हैं तथा मूर्तियों का श्रृंगार किया जाता है

धार्मिक विरासत

टेबल

हम नहीं दिगम्बर श्वेताम्बर,
तेरहपंथी स्थानकवासी।
हम एक पथ के अनुयायी,
हम एक देव के विश्वासी।
अपना ध्वज एक, अपना मंत्र एक,
अपने देव एक।
हम जैनी अपना धर्म जैन,
इतना ही परिचय केवल हो।
हम यही कामना करते हैं
आने वाला कल ऐसा हो।

1. मुनि जो समस्त परिग्रहों से रहित होते हैं, नग्न दिगम्बर होते हैं, दिन में एक बार खडे होकर अपने हाथ में शुद्ध आहार लेते हैं, 28 मूलगुणों का पालन करते हैं, पीछी कमंडल रखते हैं, उन्हें मुनि कहते हैं। इनकी नमोस्तु कहकर नमस्कार करना चाहिए।

2. आर्यिका जो पीछी कमंडल रखती है। सिर्फ एक साडी पहनती है, मुनियों की तरह महाव्रतों का पालन, केशलोंच तथा बैठकर हाथ में आहार ग्रहण करती हैं। इनको वंदामि कहकर नमस्कार करना चाहिए।

3. ऐलक जो केवल एक लंगोट मात्र रखते हैं, पीछी कमंडल रखते हैं। केशलोंच तथा बैठकर हाथ में आहार ग्रहण करते हैं, ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं। इनको नमस्कार करते समय इच्छामि बोलना चाहिए।

4. क्षुल्लक जो पीछी कमंडल रखते है। केवल एक लंगोट तथा एक छोटा दुपट्टा पहनते हैं। बैठकर कटोरे में आहार ग्रहण करते हैं, केशलोंच करते हैं या कैंची से भी बाल बना सकते हैं, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं। इनको नमस्कार करते समय इच्छामि कहना चाहिए।

5. क्षुल्लिका जो क्षुल्लक की तरह सभी क्रियाएॅं करती हैं। एक साडी और एक चद्दर रखती हैं। इनको नमस्कार करते समय इच्छामि कहना चाहिए।

विशेषः अन्य प्रतिमाधारी श्रावक व श्राविकाओं को वंदना तथा अन्य साघर्मी भाई-बहनों को जय जिनेन्द्र कहना चाहिए।

फोटो

चातुर्मास साधना एवं वर्षायोग

आगम-ग्रन्थों में साधु के दस कल्पों का उल्लेख मिलता है। इन दस कल्पों के नाम है - अचेलकत्व, उद्दिष्ट-आहार-त्याग, सत्याग्रह, राजपिण्ड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासैकवासिता और पद्म। पद्म नामक दसवें स्थितिकल्प में वर्षायोग या चातुर्मास समाहित है।

चातुर्मास अर्थात् शुक्ल 14 से कार्तिक कृष्ण 14 तक वर्षाकाल के चार महिनों में इन दिगम्बर जैन साधुओं की जो वास्तव में अतिथि यात्रिक होते हैं, की बाह्य यात्रा को विराम लग जाता है।

वर्षायोग में वे अपनी समस्त बाह्य वृत्तियों को सब और से समेट कर उसे अध्ययन, शिक्षा का पुनः पुनः चिंतन, मनन और आत्मसात्करण करते हैं। अन्तर्यात्रा का पर्व है यह चातुर्मास पर्व।

दिगम्बर जैन साधु अहिंसा, सत्य, आस्तेय ब्रहम्चर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों का निरतिचार पालन करते हैं। उनमें से अहिंसा महाव्रत की दृष्टि से यह वर्षायोग काल अत्यंत महत्वपूर्ण है। भावहिंसा से तो साधु दूर रहते ही है द्रव्य हिंसा की संभावना जहां तक हो टालने के उद्देश्य से भी जैन साधु वर्षा काल में स्थावर-वनस्पतिकायिक तथा जल कायिक जीवों की रक्षा के लिए तथा पूरी सावधानी के बावजूद त्रसजीवों ;छोटे छोटे कीडे मकोडोद्ध की ंिहंसा की संभावना से बचाव करना वर्षायोग चातुर्मास का दूसरा उद्देश्य है।

धर्म महल के चार स्तम्भ है आध्यात्मिक संस्कार, सामाजिक संगठन, स्वास्थ और स्वच्छता। इस चातुर्मास में इन चारों उद्देश्यों की पूर्ति होती है। चातुर्मास का स्वास्थ से भी अभिन्न सम्बन्ध है। यह स्थापित सत्य है कि वर्षाऋ़तु में मनुष्य की जठराग्नि मंद पड जाती है इस कारण भारतीय दर्शनों के अनुसार सभी धर्मों में वर्षा काल के चारों महीनों में विभिन्न व्रतों का विधान किया गया है। जैसे में अष्टान्हिका, पर्यूषण सोलह कारण व्रत है।

वर्षायोग सद्गृहस्थों को धर्म-साधना के लिए एक अच्छा अवसर प्रदान करता है। उन्हें साधुओं के प्रवचन सुनने, आहार-दान देने, उनकी वैयावृति करने और संयम धारण करने के अनेक प्रेरक क्षण प्राप्त होते है। इन क्षणों मंे उनके पुण्य में वृद्धि होती है तथा पाप-भार हल्का होता है। जीवन की संस्कारित करने के लिए वर्षायोग एक वरदान के समान है।

2
1