पांचवीं ढाल

भावनाओं के चिंतवन का कारण, उसके अधिकारी और उसका फल

मुनि सकलव्रती बड़भागी भव-भोगनतैं वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिन्तैं अनुप्रेक्षा भाई।।1।।

अन्वयार्थ:- (भाई) हे भव्यजीव! (सकलव्रती) महाव्रती के धारक (मुनि) भावलिंगी मुनिराज (बड़भागी) महान पुरूषार्थी हैं, क्योंकि वे (भोगनतैं) संसार और भोगों से (वैरागी) विक्रत होते हैं और (वैराग्य) वीतरागता को (उपवन) उत्पन्न करने के लिए (माई) माता के समान (अपुप्रेक्षा) बारह भावनाओं का (चिन्तैं) चिंतवन करते हैं।

भावार्थ:- पांच महाव्रतों को धारण करनेवाली भावलिंगी मुनिाज महापुरूषार्थवान हैं; क्योंकि वे संसार, शरीर और भोगों से अत्यंत विरक्त होते हैं; और जिसप्रकार कोई माता पुत्र को जन्म देती है,उसीप्रकार ये बारह भावनाएं वैराग्य उत्पन्न करती है; इसलिये मुनिराज इन बारह भावनाओं का चिंतवन करते हैं।

भावनाओं का फल और मोक्षसुख की प्राप्ति का समय

इन चिन्तत सम-सुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागै।
जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिवसुख ठानै।।2।।

अन्वयार्थ:-(जिमि) जिसप्रकार (पवन के) वायु के (लागै) लगने से (ज्वलन) अग्नि (जागै) भभक उठती है, {उसीप्रकार} (इन) बारह भावनाओं का (चिंतत) चिंतवन करने से (सम-सुख) समतारूपी सुख (जागै) प्रकट होता है। (जब ही) जब (जिय) जीव (आतम) आत्मस्वरूप को (जानै) जानता है, (तब ही) तभी (जीव) जीव (शिवसुख) मोक्षसुख को (ठानै) प्राप्त करता है।

भावार्थ:- जिसप्रकार वायु लगने से अग्नि एकदम भभक उठत है, उसीपकार इन बारह भावनाओं का बारंबार चिंतवन करने से समता शांतिरूपी सुख प्रकट हो जाता है - बढ़ जाता है। जब यह जीव पुरूषार्थपूर्वक परपदार्थों से सम्बन्ध छोड़कर आत्मस्वरूप को जानता है, तब परमानन्दमय स्वस्वरूप में लीन होकर समतारस का पान करता है और अंत में मोक्षसुख प्राप्त करता है।।2।। {उन बारह भावनाओं का स्वरूप कहा जाता है -}

1- अनित्य भावना

जोबन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी।
इन्द्रिय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपलता चपलाई।।3।।

अन्वयार्थ:- (जोबन) यौवन, (गृह) मकान, (गौ) गाय-भैंस, (धन) लक्ष्मी, (नारी) स्त्री (हय) घोड़ा, (गय) हाथी, (जन) कुटुम्ब, (आज्ञाकारी) नौकर-चाकर तथा (इन्द्रिय-भोग) पांच इन्द्रियों के भोग-ये सब (सुरधनु) इन्द्रधनुष तथा (चपला) बिजली की (चपलाई) चंचलता-क्षणिकता की भांति (छिन थाई) क्षणमात्र रहनेवाले हैं।

भावार्थ:- यौवन, मकान, गाय-भैंस, धन-सम्पत्ति, स्त्री, घोड़ा-हाथी, कुटुम्बीजन, नौकर-चाकर तथा पांच इन्द्रियों के विषय - ये सर्व वस्तुएं क्षणिक हैं - अनित्य हैं - नाशवान हैं। जिसप्रकार इन्द्रधनुष ओर बिजली देखत ही देखते विलीन हो जाते हैं, उसीप्रकार ये यौवनादि कुछ ही काल में नाश को प्राप्त होते हैं। वे कोई पदार्थ नित्य और स्थायी नहीं हैं, अपितु निज शुद्धात्मा ही निज और स्थायी है।

ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतनवन करके, सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह ’’अनित्य भावना’’ है। मिथ्यादृष्टि जीव को अनित्यादि एक भी भावना यर्थाथ नहीं होती है।।3।।

1. अशरण भावना

सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि, काल दले ते।
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई।।4।।

अन्वयार्थ:- (सुर असुर खगाधिप) देवों के इन्द्र, असुरों के इन्द्र और खगेन्द्र {गरूड़, हंसं (जेते) जो-जो हैं, (ते) उन सबका (मृग हरि ज्यों) जिसप्रकार हिरन को सिंह मार डालता है, उसीप्रकार (काल) मृत्यु (दले) नाश करता है। (मणि) चिन्तामणि आदि मणिरत्न, (मंत्र) बड़े-बड़े रक्षामंत्र; (तंत्र) तंत्र, (बहु होई) बहुत से होने पर भी (मरते) मरनेवाले को (कोई) वे कोई (न बचावै) नहीं बचा सकते।

भावार्थ:- इस संसार में जो-जे देवेन्द्र, असुरेन्द्र, खगेन्द्र (पक्षियों के राजा) आदि हैं, उन सबका- जिसप्रकार हिरन को सिंह मार डालता है, उसीप्रकार - काल (मृत्यु) नाश करता है। चिंतामणि आदि मणि, मंत्र ओर जंत्र-तंत्रादि कोई भी मृत्यु से नहीं बचा सकता।

यहां ऐसा समझना कि निज आत्म ही शरण है; उसके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं हे। कोई जीव अन्य जीव की रक्षा कर सकने में समर्थ नहीं है; इसलिये पर से रक्षा की आशा करना व्यर्थ है। सर्वत्र-सदैव एक निज आत्मा ही अपना शरण है। आत्मा निश्चय से मरता ही नहीं; क्योंकि वह अनादि अनन्त है - ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह ’’अशरण भावना’’ है।।4।।

2. संसार भावना

चहुंगति दुःख जीव भरै है, परिवर्तन पंच करै है।
सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा।।5।।

अन्वयार्थ:- (जीव) जीव (चहुंगति) चार गति में (दुःख) दुःख (भरै है) भोगता है और (पंचपरिवर्तन) पांच परावर्तन - पांच प्रकार से परिभ्रमण (करै है) करता है। (संसार) संसार (सब विधि) सर्व प्रकार से (असारा) सार रहित है, (यामें) इसमें (सुख) सुख (लगारा) लेशमात्र भी (नाहिं) नहीं है।

भावार्थ:- जीव के अशुद्ध पर्याय वह संसार है। अज्ञान के कारण जीव चार गति में दुःख भोगता है अैर पांच (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव तथा भाव) परावर्तन करता रहता है, किंतु कभी शांति प्राप्त नहीं करता; इसलिये वास्तव में संसारभाव सर्वप्रकार से सार रहित है, उसमें किंचित्मात्र सुख नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार सुख की कल्पना की जाती है, वैसा सुख का स्वरूप नहीं है और जिसमें सुख मानता है, वह वास्तव में सुख नहीं है; किंतु वह परद्रव्य के आलम्बनरूप मलिनभाव होने से आकुलता उत्पन्न करनेवाला भाव है। निज आत्मा ही सुखमय है, उसके ध्रुवस्वभाव में संसार है ही नहीं - ऐसा स्वोन्मुखता - पूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता में वृद्धि करता है, वह ’’संसार भावना’’ है।।5।।

3. एकत्व भावना

शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगै जिय एक हि ते ते।
सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी।।6।।

अन्वयार्थ:- (जेते) जितने (शुभ-अशुभ करमफल) शुभ और अशुभ कर्म के फल है, (ते ते) वे सब (जिय) यह जीव (एक हि) अकेला ही (भौगे) भोगता है; (सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथ देनेवाले (न होय) नही होते। (सब) यह सब (स्वारथ के) अपने स्वार्थ के (भीरी) सगे (हैं) हैं।

भावार्थ:- जीव का सदा अपने स्वरूप से ओर पर से विभक्तपना है; इसलिये वह स्वयं ही अपना हित अथवा अहित कर सकता है, पर का कुछ नहीं कर सकता है। इसलिये जीव जो भी शुभ या अशुभ भाव करता है, उनका फल (आकुलता) वह स्वयं अकेला ही भोगता है; उसमें अन्य कोई - स्त्री, पुत्र, मित्रादि सहायक नहीं हो सकते; क्योंकि वे सब परपदार्थ हैं और वे सब पदार्थ जीव को ज्ञेयमात्र हैं, इसलिए वे वास्तव में जीव के सगे-सम्बन्धी हैं ही नहीं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हें अपन मानकर दुःखी होता है। पर के द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर पर के साथ कर्तृत्व-ममत्व का अधिकार माना है; वह अपनी भूल से ही अकेला दुःखी होता है।

संसार में और मोक्ष में यह जीव अकेला ही है - ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि जीव निज शुद्ध आत्मा के साथ ही सदैव अपना एकत्व मानकर अपनी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्व की वृद्धि करता है, वह ’’एकत्व भावना’’ है।।6।।

4. अन्यत्व भावना

जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।
तो प्रकट जुदे धन धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत रामा।।7।।

अन्वयार्थ:-(जिय-तन) जीव और शरीर (जल-पय-ज्यों) पानी और दूध की भांति (मेला) मिले हुए हैं, (पै) तथापि (भेला) एकरूप (नहिं) नहीं हैं, (भिन्न-भिन्न) पृथक्-पृथक् हैं (तो) फिर (प्रकट) जो बाह्य में प्रकट रूप से (जुदे) पृथक् दिखई देते हैं - ऐसे (धन) लक्ष्मी, (धामा) मकान, (सुत) पुत्र और (रामा) स्त्री आदि (मिलि) मिलकर (इक) एक (क्यों) कैसे (है्य) हो सकते हैं?

भावार्थ:- जिसप्रकार दूध ओर पानी एक आकाश - क्षेत्र में मिले हुए हैं, परंतु अपने-अपने गुण आदि की अपेक्षा से दोनों बिलकुल भिन्न-भिन्न हैं; उसीप्रकार यह जीव और शरीर भी मिले हुए - एकाएक दिखाई देते हैं, तथापि वे दोनों अपने-अपने स्वरूपादि की अपेक्षा से (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से) बिलकुल पृथकृ-पृथक् हैं तो फिर प्रकटरूप से भिन्न दिखाई देनेवाले - ऐसे मोटरगाड़ी, धन, मकान, बाग, पुत्र-पुत्री, स्त्री आदि अपने साथ कैसे एकमेक हो सकते हैं? अर्थात् स्त्री-पुत्रादि कोई भी परवस्तु अपनी नहीं है - इसप्रकार सर्व पदार्थों को अपने से भिन्न जानकर, स्वसन्मुखतपूर्वक सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागता की वृद्धि करता है, वह ’’अन्यत्व भावना’’ है।।7।।

5. अशुचि भावना

पल रूधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली।
नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करे किम यारी।।8।।

अन्वयार्थ:- (जो) (पल) मांस (रूधिर) रक्त (राध) पीव और (मल) विष्टा की (थैली) थैली है, (कीकस) हड्डी, (वसादितैं) चरबी आदि से (मैली) अपवित्र है और जिसमें (घिनकारी) घृणा-ग्लानि उत्पन्न करनेवाले (नव द्वार) नौ दरवाजे (बहैं) बहते हैं (अस) ऐसे (देह) शरीर में (यारी) प्रेम-राग (किमि) कैसे (करै) किया जा सकता है?

भावार्थ:- यह शरीर तो मांस, रक्त, पीव, विष्टा आदि की थैली है और वह हड्डी, चर्बी आदि से भरा होने के कारण अपवित्र है तथा नौ द्वारों से मैल बाहर निकलता है - ऐसे शरीर के प्रति मोह-राग कैसे किया जा सकता है? यह शरीर ऊपर से तो मक्खी के पंख समान पतली चमड़ी में मढ़ा हुआ है; इसलिए बारह से सुन्दर लगता है, किन्तु यदि उसके भीतरी हाल तक विचार किया जाय तो उसमें अपवित्र वस्तुएं भरी हैं; इसलिए उसमें ममत्व, अहंकार या राग करना व्यर्थ है।

यहां शरीर को मलिन बतलाने का आशय - भेदभाव द्वारा शरीर के स्वरूप का ज्ञान कराके, अविनाशी निज पवित्र पद में रूचि करना है, किन्तु शरीर के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न कराने का आशय नहीं। शरीर तो उसके अपनी स्वभाव से ही अशुचिमय है और यह भगवान आत्मा निजस्वभाव से ही शुद्ध एवं सदा शुचिमय पवित्र चैतन्य पदार्थ है। इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्मा की सन्मुखता द्वारा अपनी पर्याय में शुचिता की (पवित्रता की) वृद्धि करता है वह ’’अशुचि भावना’’ है।।8।।

6. आस्त्रव भावना

जो योगन की चपलाई, तातैं ह्व आस्त्रव भाई।
आस्त्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हें निरवेरे।।9।।

अन्वयार्थ:- (भाई) हे भव्यजीव! (योगन की) योगों की (जो) जो (चपलाई) चंचलता है, (तातैं) उससे (आस्त्रव) आस्त्रव (ह्ैव) होता है और (आस्त्रव) वह आस्त्रव (घनेरे) अत्यन्त (दुःखकार) दुःखदायक है, इसलिए (बुधिवन्त) बुद्धिमान (तिन्हैं) उसे (निरवेरे) दूर करें।

भावार्थ:- विकारी शुभाशुभभावरूप जो अरूपी दशा जीव में होती है, वह भाव-आस्त्रव है और उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणों का स्वयं-स्वतः आना (आत्मा के साथ एक क्षेत्र में आगमन होना) सो द्रव्य-आस्त्रव है। (उसमें जीव की अशुद्ध पर्यायें निमित्तमात्र हैं।)

पुण्य और पाप दोनों आस्त्रव और बन्ध के भेद हैं।

पुण्य:- दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत आदि शुभराग सरागी जीव को होते हैं; वे अरूपी अशुभ भाव हैं और वह भावपुण्य है। तथा उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणों का स्वयं-स्वतः आना (आत्मा के साथ एक क्षेत्र में आगमन होना), सो द्रव्यपुण्य है। (उसमें जीव की अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र है।)

पाप:- हिंसा, असत्य, चोरी इत्यादि जो अशुभभाव हैं; वह भावपाप है और उस समय कर्मयोग्य पुद्गलों का आगमन होना, सो द्रव्यपाप है। (उसमें जीव की अशुद्ध पर्यायें निमित्त हैं।)

परमार्थ से (वास्तव में) पुण्य - पाप (शुभाशुभ) आत्मा को अहितकर हैं तथा वह आत्मा की क्षणिक अशुद्ध अवस्था है। द्रव्य पुण्य-पाप तो परवस्तु हैं, वे कहीं आत्मा का हित-अहित नहीं कर सकते - ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीव को होता है और इसप्रकार विचार करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य के अवलम्बन के बल से जितने अंश में आस्त्रवभाव को दूर करता है उतने अंश में उसे वीतरागता की वृद्धि होती है; उसे ’’आस्त्रव भावना’’ कहते हैं।।9।।

7. संवर भावना

जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना।
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके।।10।।

अन्वयार्थ:-(जिन) जिन्होंने (पुण्य) शुभभाव और (पाप) अशुभभाव (नहिं कीना) नहीं किये तथा मात्र (आतम) आत्मा के (अनुभव) अनुभव में {शुद्ध उपयोग में} (चित) ज्ञान को (दीना) लगाया है, (तिनही) उन्होंने ही (आवत) आते हुए (विधि) कर्मों को (रोके) रोका है और (संवर लहि) संवर प्राप्त करके (सुख) सुख का (अवलोके) साक्षात्कार किया है।

भावार्थ:- आस्त्रव का रोकना, सो संवर है। सम्यग्दर्शनादि द्वारा मिथ्यात्वादि आस्त्रव रूकते हैं। शुभपयोग तथा अशुभोपयोग दोनों बन्ध के कारण हैं - ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव पहले से ही जानता है। यद्यपि साधक को निचली भूमिका में शुद्धता के साथ अल्प शुभाशुभभाव होते हैं; किंतु वह दोनों को बन्ध का कारण मानता है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य के आलम्बन द्वारा जितने अंश में शुद्धता करना है उतने अंश में उसे संवर होता है, और वह क्रमशः शुद्धता में वृद्धि करके पूर्ण शुद्धता (संवर) प्राप्त करता है। यह ’’संवर भावना’’ है।।10।।

8. निर्जरा भावना

निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना। तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै।।11।।

अन्वयार्थ:- जो (निज काल) अपनी-अपनी स्थिति (पाय) पूर्ण होने पर (विधि) कर्म (झरना) खिर जाते हैं, (तासों) उससे (निज काज) जीव का धर्मरूपी कार्य (न सरना) नहीं होता; किन्तु (जो) {निर्जरा} (तप करि) आत्मा के शुद्ध प्रतपन द्वारा (कर्म) कर्मों का (खिपावै) नाश करती है, {वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा} (सोई) वह (शिवसुख) मोक्ष का सुख (दरसावै) दिखलाती है।

भावार्थ:- अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्मों का खिर जाना तो प्रतिसमय अज्ञानी को भी होता है; वह कहीं शुद्धि का कारण नहीं होता, परंतु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा अर्थात् आत्मा के शुद्ध प्रतपन द्वारा जो कर्म खिर जाते हैं, वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है। तदनुसार शुद्धि की वृद्धि होते-होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है, तब जीव शिवसुख (सुख की पूर्णतारूप मोक्ष) प्राप्त करता है। ऐसा जानता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्य के आलम्बन द्वारा जो शुद्धि की वृद्धि करता है, वह ’’निर्जरा भावना’’ है।।11।।

9. लोक भावना

किनहू न करौ न धरै को, षड् द्रव्यमयी न हरै को।
सो लोकमाहिं बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता।।12।।

अन्वयार्थ:-इस लोक को (किनहू) किसी ने (न करौ) बनाया नहीं है (को) किसी ने (न धरै) टिका नहीं रखा है, (को) कोई (न हरै) नाश नहीं कर सकता; {और यह लोक} (षड् द्रव्यमयी) छह प्रकार के द्रव्यस्वरूप है - छह द्रव्यों से परिपूर्ण है (सो) ऐसे (लोकमाहिं) लोक में (बिन समता) वीतरागी समता बिना (नित) सदैव (भ्रमता) भटकता हुआ (जीव) जीव (दुख लहै) दुःख सहन करता है।

भावार्थ:- ब्रह्मा आदि किसी ने इस लोक को बनाया नहीं है; विष्णु या शेषनाक आदि किसी ने इसे टिका नहीं रखा है तथा महादेव आदि किसी से यह नष्ट नहीं होता; किन्तु यह छह द्रव्यमय लोक स्वयं से ही अनादि-अनन्त है; छहों द्रव्य नित्य स्व-स्वरूप से स्थित रहकर निरन्तर अपनी नई-नई पर्यायों (अवस्थाओं) से उत्पाद-व्ययरूप परिणमन करते रहते हैं। एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का अधिकार नहीं है। यह छह द्रव्य वरूप लोक, वह मेरा स्वरूप नहीं है। वह मुझसे त्रिकाल भिन्न है, मैं उससे भिन्न हूं; मेरा शाश्वत चैतन्य-लोक ही मेरा स्वरूप है - ऐसा धर्मी जीव विचार करता है और स्वोन्मुख्ता द्वारा विषमता मिटाकर, साम्यभाव-वीतरागता बढ़ाने का अभ्यास करता है। यह ’’लोक भावना’’ है।।12।।

10. बोधिदुर्लभ भावना

अंतिम-गीवकलौं की हद, पायो अनन्त विरियां पद।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ।।13।।

अन्वयार्थ:- (अंतिम) अंतिम-नववें (ग्रीवकलौं की हद) ग्रैवेयक तक के (पद) पद (अनन्त विरियां) अनन्तबार (पायो) प्राप्त किये, तथापि (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (न लाधौ) प्राप्त न हुआ; (दुर्लभ) एसे दुर्लभ सम्यग्ज्ञान को (मुनि) मुनिराजों ने (निज में) अपने आत्मा में (साधौ) धारण किया है।

भावार्थ:- मिथ्यादृष्टि जीव मंद कषाय के कारण अनेक बार ग्रैवेयक तक उत्पन्न होकर अहमिन्द्रपद को प्राप्त हुआ है, परंतु उसने एकबार भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया; क्योंकि सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना वह अपूर्व है; उसे तो स्वोन्मुखता के अनन्त पुरूषार्थ द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और ऐसा होने पर विपरीत अभिप्राय आदि दोषो का अभाव होता है।

सम्यग्दर्शन-ज्ञान के आश्रय से ही होते हैं। पुण्य से, शुभराग से, जड़ कर्मादि से नहीं होते। इस जीव ने बाह्य संयोग, चारों गति के लौकिक पद अनन्तबार प्राप्त किये हैं, किन्तु निज आत्मा का यथार्थ स्वरूप स्वानुभव द्वारा पत्यक्ष करके उसे कभी नहीं समझा, इसलिये उसकी प्राप्ति अपूर्व है।

बोधि अर्थात् निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता; उस बोधि की प्राप्ति प्रत्येक जीव को करना चाहिए। सम्यग्यदृष्टि जीव स्व-सन्मुखतपूर्वक ऐसा चिंतवन करता है और अपनी बोधि और शुद्धि की वृद्धि का बारम्बार अभ्यास करता है। यह ’’बोधि-दुर्लभ भावना’’ है।13।।

11. धर्म भावना

जो भाव मोहतैं न्यारे, दृग-ज्ञान-व्रतादिक सारे।
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारे।।14।।

अन्वयार्थ:- (मोह तैं) मोह से (न्यारे) भिन्न, (सारे) साररूप अथवा निश्चय (जो) जो (दृग-ज्ञान-व्रतादिक) दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय आदिक (भाव) भाव हैं, (सो) वह (धर्म) धर्म कहलाता है। (जबै) जब (जिय) जीव (धारै) उसे धारण करता है, (तब ही) तभी वह (अचल सुख) अचल सुख - मोक्ष (निहारै) देखता है - प्राप्त करता है।

भावार्थ:- मोह अर्थात् मिथ्यादर्शन अर्थात् अतत्त्वश्रद्धान; उससे रहित निश्चयसम्यग्दश्ज्र्ञन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (रत्नत्रय) ही साररूप धर्म है। व्यवहार रत्नत्रय वह धर्म नहीं है - ऐसा बतलाने के लिए यहां गाथा में ’’सारे’’ शब्द का प्रयोग किया है। जब जीव निश्चय रत्नत्रयस्वरूप धर्म को स्वाश्रय द्वारा प्रकट करता है, तभी वह स्थिर, अक्षयसुख (मोक्ष) प्राप्त करता है। इस प्रकार चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वोन्मुखता द्वारा शुचि की वृद्धि बारम्बार करताहै। वह ’’धर्म भावना’’ है।।14।।

आत्मानुभवपूर्वक भावलिंगी मुनि का स्वरूप

सो धर्म मुनिनकरि धरिये, तिनकी करतूत उचरिये।
ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी।।15।।

अन्वयार्थ:- (सो) ऐसा रत्नत्रय (धर्म) धर्म (मुनिनकरि) मुनियों द्वारा (धरिये) धारण किया जाता है, (तिनकी) उन मुनियों की (करतूत) क्रियाएं (उचरिये) कही जाती है, (भवि प्रानी) हे भव्यजीवों! (ताको) उसे (सुनिये) सुनो और (अपनी) अपे आत्मा के (अनुभूति) अनुभव को (पिछानी) पहिचानो।

भावार्थ:- न्ष्चियरत्नत्रयस्वरूप धर्म को भावलिंगी दिगम्बर जैन मुनि ही अंगीकार करते हैं, अन्य कोई नहीं। अब, आगे उन मुनियों के सकलचारित्र का वर्णन किया जाता है। हे भव्यो! उन मुनिवरों का चारित्र सुनो और अपने आत्मा का अनुभव करो।।15।।

पांचवी ढाल का सारांश

ये बारह भावनाएं चारित्रगुण का आंशिक शुद्ध पर्यायें हैं; इसलिए वे सम्यग्दृष्टि जीव को ही हो सकती है। सम्यक् प्रकार से ये बारह प्रकार की भावनाएं भाने से वीतरागता की वृद्धि होती है; उन बारह भावनाओं का चिंतवन मुख्यरूप से तो वीतरागी दिगम्बर जैन मुनिराज को ही होता है तथा गौण रूप से सम्यग्दृष्टि को होाता है। जिसप्रकार पवन के लगने से अग्नि भभक उठती है, उसीप्रकार अन्तरंग परिणामों की शुद्धता सहित इन भावनाओं का चिंतवन करने से समताभाव प्रकट होता है और उससे मोक्षसुख प्रकट होता है। स्वोन्मुखतापूर्वक इन भावनाओं से संसार, शरीर और भोगों के प्रति विशेष उपेक्षा होती है अैर आत्मा के परिणामों की निर्मलता बढ़ती है। (इन बरह भावनओं का स्वरूप विस्तार से जानना हो तो ’स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा’ ’ज्ञानार्णव’ आदि ग्रन्थों का अवलोकर करना चाहिए।)

अनित्यदि चिंतवन द्वारा शरीरादि को बुरा जानकर, अहितकारी मानकर, उनसे उदास होने का नाम अनुप्रेक्षा नहीं है; क्योंकि यह तो जिसप्रकार पहले किसी को मित्र मानता था, तब उसके प्रति राग था और फिर उसके अवगुण देखकर उसके प्रति उदासीन हो गया। उसीप्रकार पहले शरीरादि से राग था, किन्तु बाद में उनके अनित्यादि अवगुण देखकर उदासीन हो गया; परंतु ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है। किन्तु अपने तथा शरीरादि के यथावत् स्वरूप को जानकर, भ्रम का निवारण करके, उन्हें भला जानकर राग न करना तथा बुरा जानकर द्वेष न करना - ऐसी यथार्थ उदासीनता के हेतु अनित्याता आदि का यथार्थ चिंतवन करना ही सच्ची अनुप्रेक्षा है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 229- श्री टोडरमल स्मारक ग्रन्थमाला से प्रकाशित)।

पांचवी ढाल का भेद-संग्रह

अनुप्रेक्षा भावना : अन्त्यि, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि,, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म- ये बारह अनुप्रेक्ष के भेद हैं।

इन्द्रियों के विषय : स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और श्ज्ञब्द - ये पांच हैं।

निर्जरा :के चार भेद है:- अकाम, सविपाक, सकाम, अविपाक।

योग : द्रव्य और भाव।

परिवर्तन : पांच प्रकार हैं:- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव।

मलद्वार : दो कान, दो आंखे, दो नासिक छिद्र, एक मुंह तथा मल-मूत्रद्वार दो - इस प्रकार नौ।

वैराग्य : संसार, शरीर और भोग - इन तीनों से उदासीनता।

कुधातु : पीव, लहू, वीर्य, मल, चर्बी, मांस और हड्डी आदि सात।

पांचवीं ढाल का लक्षण-संग्रह

अनुप्रेक्षा (भावना) : भेदज्ञानपूर्वक संसार, शरीर और भोगादि के स्वरूपक बारम्बार विचार करके उनके प्रति उदासीनभाव उत्पन्न करना।

अशुभ उपयोग : हिंसादि में अथवा कषाय, पाप और व्यसनादि निन्दापात्र कार्यों में प्रवृत्ति।

असुरकुमार : असुर नामक देवगति-नामकर्म के उदयवाले भवनवासी देव।

कर्म : आत्मा रागादि विकाररूप से परिणामित हो तो उसमें निमित्तरूप होने वाले जड़कर्म-द्रव्यकर्म।

गति : नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यरूप जीव की अवस्था विशेष को गति कहते है; उसमें गति नामक नामकर्म निमित्त है।

ग्रैवेयक : सोलहवें स्वर्ग से ऊपर और प्रथम अनुदिशा से नीचे, देवों को रहने के स्थान।

देव : देवगति को प्राप्त जीवों को देव कहते हैं। वे अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वाशित्व - इन आठ सिद्धि (ऐश्वर्य) वाले होते हैं। उनके मनुष्य समान आकारवाला सप्त कुधातु रहित सुन्दर वैक्रियक शरीर होता है।

धर्म : दुःख से मुक्ति दिलानेवाला निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग; जिससे आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है। (रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र।)

धर्म के भिन्न भिन्न लक्षण : (1) वस्तु का स्वभाव वह धर्म; (2) अहिंसा; (3) उत्तमक्षमादि दश लक्षण और (4) निश्चयरत्नत्रय।

पाप : मिथ्यादर्शन, आत्माकी विपरीत समझ, हिंसादि अशुभभाव सो पाप है।

पुण्य : दया, दान, पूजा, भक्ति, व्रतादि के शुभभाव; मंदकषाय, वह जीव के चारित्रगुण की अशुभ दशा है। पुण्य-पाप दोनों आस्त्रव हैं, बन्धन के कारण हैं।

बोधि : सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता।

मुनि : (साधु परमेष्ठी):- समस्त व्यापार से विमुक्त, चार प्रकार की आराधना में सदा लीन, निग्र्रन्थ और निर्मोह - ऐसे सर्व साधु होते हैं। समस्त भावलिंगी मुनियों को नग्न दिगम्बर दशा तथा साधु के 28 मूलगुण होते हैं।

योग : मन, वचन, काया के निमित्त से आत्म के प्रदेशों का कम्पन होना, उसे द्रव्ययोग कहते हैं। कर्म और नोकर्म के ग्रहण में निमित्तरूपज व की शक्ति को भावयोग कहते हैं।

शुभ उपयोगा : देवपूजा, स्वाध्याय, दया, दानादि, अणुव्रत-महाव्रतादि शुभभावरूप आचरण।

सकलव्रत : 5 महाव्रत, 5 समिति, 6 आवश्यक, 5 इन्द्रियजय, केशलोंच, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़े-खड़े आहार, दिन में एक बार आहार तथा नग्नता आदि का पालन - सो व्यवाहर से सकलव्रत है और रत्नत्रय की एकतारूप आत्मस्वभाव में स्थिर होना, सो निश्चय से सकलव्रत है।

सकलव्रती : (सकलव्रतों के धारक) रत्नत्रय की एकतारूप स्वभाव में स्थिर रहनेवाले महाव्रत के धारक दिगम्बर मुनि वे निश्चय सकलव्रती हैं।

अन्तर प्रदर्शन

1. अनुप्रेक्षा और भावना पर्यायवाची शब्द है; उनसे कोई अन्तर नहीं है।

2. धर्मभावना में तो बारम्बार विचार की मुख्यता है और धर्म में निज गुणों में स्थिर होने की प्रधानता हे।

3. व्यवहार सकलव्रत में तो पापों का सर्वदेश त्याग किया जाता है और व्यवहार अणुव्रत में उनका एकदेश त्याग किया जाता है। इतना इन दोनों में अन्तर है।

पांचवीं ढाल की प्रश्नावली

1. अनित्याभावना, अन्यत्वभावना, अविपाकनिर्जरा, अकामनिर्जरा, अशरणभावना, अशुचिभावना, आस्त्रवभावना, एकत्वभावना, धर्मभावना, निश्चयधर्म, बोधिदुर्लभभावना, लोकभावना, संवरभावना, सकामनिर्जरा, सविपाकनिर्जरा आदि के लक्षण समझाओ।

2. महाव्रत में और अणुव्रत में, अनुप्रेक्षा में और भावना में, धर्म में और धर्मद्रव्य में, धर्म में और धर्मभावना में तथा एकत्वभावना और अन्यत्वभावना में अन्तर बतलाओ।

3. अनुप्रेक्षा, अनित्यता, अन्यत्व अैर अशरणपने का स्वरूप दृष्टान्त सहित समझाओ।

4. अकाम निर्जरा का निष्प्रयोजनपना, अचल सुख की प्रप्ति, कर्म के आस्त्रव का निरोध, पुण्य के त्याग का उपदेश और सांसारिक सुखों की असारता आदि के कारण बतलाओ।

5. अमुक भावना का विचार और लाभ, आत्मज्ञान की प्राप्ति का समय और लाभ, औषधि सेवन की सार्थकता-निरर्थकता, बारह भावनाओं के चिंतवन से लाभ, मंत्रादि की सार्थकता और निरर्थकता। वैराग्य की वृद्धि का उपाय, इन्द्रधनुष तथा बिजली का दृष्टान्त क्या समझाते हैं? लोक का कर्ता-हर्ता मानने से हानि, समता न रखने से हानि, सांसार-सुख का परिणाम और मोक्ष-सुख की प्राप्ति का समय- आदि का स्पष्ट विर्ण करो।

6. अमुक शब्द, चरण तथा छंद का अर्थ-भावार्थ समझाओ। लोक का नक्शा बनाओ और पांचवी ढाल का सारांश कहो।

नित पीज्यो धी धारी, जिनवाणी सुधा-सम जानिके।।टेक।।

वीर मुखारविंदतैं प्रकटी, जन्म-जरा भयटारी।
गौतमादि गुरू-‘उर घट व्यापी, परम सुरूचि करतारी।।1।।

सलिल समान कलिल-मलगंजन, बुधमनरंजन हारी।
भंजन विभ्रम धूलि प्रभंजन, मिथ्या जलद निवारी।।2।।

कल्याणकतरू उपवनधरिनी, तरनि भवजलतारी।
बंधविदारन पैनी छैनी, मुक्ति-नसैनी सारी।।3।।

स्वपरस्वरूप प्रकाशन को यह, भानुकला अविकारी।
मुनिमनकुमुदिनि-मोदनशशिभा, शमसुखसुमन सुवारी।।4।।

जाके सेवत बेवत निजपद, नसतत अविद्या सारी।
तीन लोकपति पूजत जाको, जान त्रिजग-हितकारी।।5।।

कोटि जीभ सों महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी1।
‘दौल‘ अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारन हारी।।6।।