चैथी ढाल

सम्यग्ज्ञान का लक्षण और उसका समय

(दोहा)

सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यगान।
स्व-पर अर्थ बहु धर्मजुत, जो प्रकटावन भान।।1।।

अन्वयार्थ:-(सम्यक् श्रद्धा) सम्यग्दर्शन (धारि) धारण करके (पुनि) फिर (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान क (सेवहु) सेवन करो; {जो सम्यग्ज्ञान} (बहु धर्मजुत) अनेक धर्मात्मक (स्वपर अर्थ) अपना और दूसरे पदार्थों का (प्रकटावन) ज्ञान कराने में (भान) सूर्य समान है।

भावार्थ:-सम्यग्दर्शन सहित सम्यग्ज्ञान को दृढ़ करना चाहिए। जिसप्रकार सूर्य समस्त पदार्थों को तथा स्वयं अपने को यथावत् दर्शाता है, उसीप्रकार जो अनेक धर्मयुक्त स्वयं अपने को (आत्मा को) तथा पर पदार्थों को1 ज्यों का त्यों बतलाता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं।

सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में अन्तर

(रोला छन्द)

सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधौ। लक्षण श्रद्धा जानप, दुहू में भेद अबाधौ।। ------------ 1. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्।
(प्रमेयरत्नमाला, प्र. उ. सूत्र-1)

सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई।
युगपत् होते हू, प्रकाश दीपकतैं होई।।2।।

अन्वयार्थ:- (सम्यक् साथै) सम्यग्दर्शन के साथ (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (होय) होता है (पै) तथापि {उन दोनों को } (भिन्न) भिन्न (अराधौ) समझना चाहिए; क्योंकि (लक्षण) उन दोनों के लक्षण {क्रमशः} (श्रद्धा) श्रद्धा करना और (जान) जानना है तथा (सम्यक्) सम्यग्दर्शन (कारण) कारण है और (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (कारज) कार्य है। (सोई) यह भी (दुहू में) दोनों में (भेद) अन्तर (अबाधौ) निर्बाध है। {जिसप्रकार} (युगपत्) एकसाथ (होते हू) होने पर भी (प्रकाश) उजाला (दीपकतैं) दीपक की ज्योति से (होई) होता है, उसीप्रकार।

भावार्थ:- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान यद्यपि एकसाथ प्रकट होते हैं, तथापि वे दोनों भिन्न-भिन्न गुणों की पर्यायें हैं। सम्यग्दर्शन श्रद्धागुण की शुद्धपर्याय है और सम्यग्ज्ञान की शुद्धपर्याय है। पुनश्चय, सम्यग्दर्शन का लक्षण विपरीत अभिप्राय रहित तत्वार्थश्रद्धा है और सम्यग्ज्ञान का लक्षण संशय1 आदि दोष रहित स्व-पर का यथार्थतया निर्णय है - इसप्रकार दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। तथा सम्यग्दर्शन निमित्तकारण है और सम्यग्ज्ञान नैमित्तिक कार्य है - इसप्रकार उन दोनों में कारण-कार्यभाव से भी अन्तर है।

1. संशय, विमोह, (विभ्रम-विपर्यय) अनिर्धार (अनध्यवसाय)।

-------------

प्रश्न:- ज्ञान-श्रद्धान तो युगपत् (एकसाथ) होते हैं तो उनमें कारण-कार्यपना क्यों कहते हो?

उत्तरः- ’’वह हो तो वह होता है’’ - इस अपेक्षा से कारण -कार्यपना कहा है। जिसप्रकार दीपक और प्रकाश दोनों युगपत् होते हैं, तथापि दीपक हो तो प्रकाश होता है; इसलिए दीपक कारण है और प्रकाश कार्य है। उसीप्रकार ज्ञान-श्रद्धान भी हैं।

(मोक्षमार्ग प्रकाशक (देहली) पृष्ठ 126)

जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता, तब तक का ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता।

- ऐसा होने से सम्यग्दर्शन, वह सम्यग्ज्ञान का कारण है।1

सम्यग्ज्ञान के भेद, परोक्ष और देशप्रत्यक्ष के लक्षण

तास भेद दो हैं, परोक्ष परतछि तिन माहिं।
मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनतैं उपजाहीं।।
अवधिज्ञान मनपर्यय दो हैं देश-प्रतच्छा।
द्रव्य क्षेत्र परिमाण लिये जानै जिय स्वच्छा।।3।।

अन्वयार्थ:-(तास) उस सम्यग्ज्ञान के (परोक्ष) परोक्ष और (परतछि) प्रत्यक्ष (दो) (भेद हैं) भेद हैं;(तिन माहिं) उनमें (मति श्रुत) मतिज्ञान और श्रुतज्ञान (दोय) ये दोनों (परोक्ष) परोक्षज्ञान हैं। {क्योंकि वे} (अक्ष मनतैं) इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से (उपजाहीं) उत्पन्न होते हैं। (अवधिज्ञान) अवधिज्ञान और (मनपर्जय) मनः पर्ययज्ञान (दो) ये दोनों ज्ञान (देश-प्रतच्छा)

1. पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य।
लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः।।32।।
सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनः
ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तम्मात्।।33।।
कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि।
दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम्।।34।।
- (श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव रचित पुरूषार्थसिद्धि-उपाय)

देशप्रत्यक्ष (हैं) है; {क्योंकि उन ज्ञानों से} (जिय) जीव (द्रव्य क्षेत्र परिमाण) द्रव्य और क्षेत्र की मर्यादा (लिये) लेकर (स्वच्छा) स्पष्ट (जानैं) जानता हे।

भावार्थ:- इस सम्यग्ज्ञान के दो भेद हैं - (1) प्रत्यक्ष और (2) परोक्ष उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान1 हैं, क्योंकि वे दोनों ज्ञान इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से वस्तु को अस्पष्ट जानते हैं। सम्यक्मति-श्रुतज्ञान स्वानुभवकाल में प्रत्यक्ष होते हैं, उनमें इन्द्रय और मन निमित्त नहीं हैं। अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान देशप्रत्यक्ष2 हैं, क्योंकि जीव इन दो ज्ञानों से रूपी द्रव्य को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक स्पष्ट जानता है।

सकल-प्रत्यक्ष ज्ञान का लक्षण और ज्ञान की महिमा

सकल द्रव्य के गुन अनंत, परजाय अनंता।
जानैं एकै काल, प्रकट केवलि भगवन्ता।।
ज्ञान समान न आन जगत में सुख कौ कारन।
इहि परमामृत जन्मजरामृति-रोग-निवारन।।4।।

1. जो ज्ञान इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से वस्तु को अस्पष्ट जानता है,उसे परोक्षज्ञान कहते हैं।

2. जो ज्ञान रूपी वस्तु को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक स्पष्ट जानता है, उसे देशप्रत्यक्ष कहते हैं।

अन्वयार्थ:-{जिस ज्ञान से} (केवलि भगवन्ता) केवलज्ञानी भगवान (सकल द्रव्य के) छहों द्रव्यों के (अनन्त) अपरिमित (गुन) गुणों को और (अनन्ता) अनन्त (परजाय) पर्यायों को (एकै काल) एक साथ (प्रकट) स्पष्ट (जानैं) जानते हैं, {उस ज्ञान को} (सकल) सकल प्रत्यक्ष अथवा केवलज्ञान कहते हैं। (जगत में) इस जगत में (ज्ञान समान) सम्यग्ज्ञान जैसा (आन) दूसरा कोई पदार्थ (सुखकौ) सुख का (न कारन) कारण नहीं है। (इहि) यह सम्यग्ज्ञान ही (जन्मजरामृति-रोग-निवारन) जन्म, जरा {वृद्धावस्था} और मृत्युरूपी रोगों को दूर करने के लिए (परमामृत) उत्कृष्ट अमृत-समान है।

भावार्थ:-

1. जो ज्ञान तीनकाल और तीनलोकवर्ती सर्व पदार्थों (अनन्तधर्मात्मक सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों को) प्रतयेक समय में यथास्थित, परिपूर्ण रूप से स्पष्ट और एकसाथ जानता है,उस ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं; जो सकल प्रत्यक्ष है।

2. द्रव्य, गुण और पर्यायों को केवली भगवान जानते हैं, किन्तु उनके अपेक्षित धर्मों को नहीं जान सकते - ऐसा मानना असत्य है। तथा वे अनन्त को अथवा मात्र अपने आत्मा को ही जानते हैं, किंतु सर्व को नहीं जानते - ऐसा मानना भी न्यायविरूद्ध है। केवली भगवान सर्वज्ञ होने से अनेकान्तस्वरूप प्रत्येक वस्तु को प्रत्यक्ष जानते हैं। (लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, प्रश्न - 87)

3. इस संसार में सम्यग्ज्ञान के समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं है। यह सम्यग्ज्ञान ही जन्म, जरा और मृत्युरूपी तीन रोगों का नाश करने के लिए उत्तम अमृत-समान है।

ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश के विषय में अन्तर

कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान विन कर्म झरैं जे।
ज्ञानी के छिन में त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं ते।।

मुनिव्रत धार अनन्तबार ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायौ।।5।।

अन्वयार्थ:- {अज्ञानी जीव को} (ज्ञान बिना) सम्यग्ज्ञान के बिना (कोटि जन्म) करोड़ों जन्मों तक (तप तपैं) तप करने से (जे कर्म) जितने कर्म (झरैं) नाश होते हैं (ते) उतने कर्म (ज्ञानी के) सम्यग्ज्ञानी जीव के (त्रिगुप्ति तैं) मन, वचन और काय की ओर की प्रवृत्ति को रोकने से {निर्विकल्प शुद्ध स्वभाव से} (छिन में) क्षणमात्र में (सहज) सरलता से (टरैं) नष्ट हो जाते हैं। {यह जीव} (मुनिव्रत) मुनियों के महाव्रतों को (धार) धारण करके (अनन्तबर) अनन्तबार (ग्रीवक) नववें ग्रैवेयक तक (उपजायो) उत्पन्न हुआ, (पै) परंतु (निज आतम) अपने आत्मा के (ज्ञान बिना) ज्ञान बिना (लेश) किंचित्मात्र (सुख) सुख (न पायो) प्राप्त न कर सका।

भावार्थ:-मिथ्यादृष्टि जीव आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) के बिना करोड़ें जन्मो-भवों तक बालतप रूप उद्यम करके जितने कर्मों का नाश करता है, उतने कर्मों का नाश सम्यग्ज्ञानी जीव-स्वोन्मुख ज्ञात पने के कारण स्वरूपगुप्ति से - क्षणमात्र में सहज ही कर डालता है। यह जीव, मुनि के (द्रव्यलंगी मुनि के) महाव्रतों को धारण करके उनके प्रभाव से नववें ग्रैवेयक तक के विमान में अनन्तबार उत्पन्न हुआ, पंरतु आत्मा के भेदविज्ञान (सम्यज्ञान अथवा स्वानुभाव) के बिना जीव को वहां भी लेशमात्र सुख प्राप्त नहीं हुआ।

ज्ञान के दोष और मनुष्यपर्याय आदि की दुर्लभता

तातैं जिनवर-कथित तत्त्व अभ्यास करीजे।
संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे।।
यह मानुष पर्याय, सुकुल, सुनिवौ जिनवानी।
इह विध गये न मिले, सुमणि ज्यौं उदधि समानी।।6।।

अन्वयार्थ:- (तातैं) इसलिये (जिनवर-कथित) जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए (तत्त्व) परमार्थ तत्त्व का (अभ्यस) अभ्यास (करीजे) करना चाहिए और (संशय) संशय (विभ्रम) विपर्यय तथा (मोह) अनध्यावसाय {अनिश्चितता} को (त्याग) छोड़कर (आपो) अपने आत्मा को (लख लीजे) लक्ष्य में लेना चाहिए अर्थात् जानना चाहिए। {यदि ऐसा नहीं किया तो} (यह) यह (मानुष पर्याय) मनुष्य भव (सुकुल) उत्तम कुल और (जिनवानी) जिनवाणी का (सुनिवौ) सुनना (इह विध) ऐसा सुयोग (गये) बीत जाने पर, (उदधि) समुद्र में (समानी) समाये - डूबे हुए (सुमणि ज्यों) सच्चे रत्न की भांति {पुनः} (न मिलै) मिलना कठिन है।

भावार्थ:- आत्मा और परवस्तुओं के भेदविज्ञान को प्राप्त करने के लिए जिनदेव द्वारा प्रारूपित सच्चे तत्त्वों का पठन-पाठन (मनन) करना चाहिए ओर संशय1 विपर्यय2 तथा अनध्यवसाय3 इन सम्यग्ज्ञान के तीन दोषों को दूर करने के आत्मस्वरूप को जानना चाहिए; क्योंकि जिसप्रकार समुद्र में डूबा अमूल्य रत्न पुनः हाथ नहीं आता; उसीप्रकार मनुष्य शरीर, उत्तम श्रावककुल और जिनवचनों का श्रवण आदि सुयोग भी बीत जाने के बाद पुनः पुनः प्राप्त नहीं होते। इसलिये यह अपूर्व अवसर न गंवाकर आत्मस्वरूप की पहिचान (सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति) करके, यह मनुष्य-जन्म सफल करना चाहिए।

सम्यग्ज्ञान की महिमा और कारण

धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै।
ज्ञान आपकौ रूप भये, फिर अचल रहावै।।
तास ज्ञान को कारन, स्व-पर विवके बखानौ।
कोटि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ।।7।।

1. संशयः - विरूद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः = ’’इसप्रकार है अथवा इसप्रकार?’’ - ऐसा जो परस्पर विरूद्धतापूर्वक दो प्रकार रूप ज्ञान,, उसे संशय कहते हैं।

2. विपर्ययःः - विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः = वस्तुस्वरूप से विरूद्धतापूर्वक ’’यह ऐसा ही है’’ - इसप्रकार एकरूप ज्ञान का नाम विपर्यय है। उसके तीन भेद हैं - कारणविपर्यय, स्वरूपविपर्यय तथा भेदाभेदविपर्यय। (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 123)

3. अनध्यवसायः - किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः = ’कुछ है’ - ऐसा निर्णयरहित विचार, सो अनध्यवसाय है।

अन्वयार्थ:-(धन) पैसा, (समाज) परिवार, (गज) हाथी, (बाज) घोड़ा (राज) राज्य (तो) तो (काज) अपने काम में (न आवै) नहीं आते; किन्तु (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (अपको रूप) आत्मा का स्वरूप - {जो} (भये) प्राप्त होने के (फिर) पश्चात् (अचल) अचल (रहावै) रहता है। (तास) उस (ज्ञान को) सम्यग्ज्ञान का (कारन) कारण (स्व-पर विवेक) आत्मा और पर-वस्तुओं का भेदविज्ञान (बखानौ) कहा है, {इसलिए} (भव्य) हे भव्यजीवो! (कोटि) करोड़ों (उपाय) उपाय (बनाय) करके (ताको) उस भेदविज्ञान को (उर आनौ) हृदय में धारण करो।

भावार्थ:-धन-सम्पत्ति, परिवार, नौकर-चाकर, हाथी, घोड़ा तथा राज्यादि कोई भी पदार्थ आत्मा को सहायक नहीं होते; किंतु सम्यग्ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। वह एकबार प्रापत होने के पश्चात अक्षय हो जाता है - कभी नष्ट नहीं होता, अचल एकरूप रहता है। आत्मा और परवस्तुओं का भेदविज्ञान ही उस सम्यग्ज्ञान का कारण है; इसलिए प्रत्येक आत्मार्थी भव्यजीव को करोड़ों उपाय करके उस भेदविज्ञान के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए।

सम्यग्ज्ञान की महिमा और विषयेच्छा रोकने का उपाय

जे पूरब श्वि गये, जाहिं, अरू आगे जैहैं।
सो अब महिमा ज्ञान-तनी, मुनिनाथ कहै हैं।।
विषय-चाहदव-दाह, जगत-जन अरनि दझावै।
तास उपाय न आन, ज्ञान-घनघान बुझावै।।8।।

अन्वयार्थ:-(पूरब) पूर्वकाल में (जे) जो जीव (शिव) मोक्ष में (गये) गये हैं, {वर्तमान में} (जाहिं) जा रहे हैं (अरू) और (आगे) भविष्य में (जैहैं) जायेंगे (सो) वह (सब) सब (ज्ञान-तनी) सम्यग्ज्ञान की (महिमा) महिमा है - ऐसा (मुनिनाथ) जिनेन्द्रदेव ने (कहे हैं) कहा है। (विषय-चाह) पांच इन्द्रियों के विषयों की इच्छारूपी (दव-दाह) भयंकर दावानल (जगत-जन) संसारी जीवोंरूपी (अरनि) अरण्य-पुराने वन को (दझावैै) जला रहा है, (तास) उसकी शान्ति का (उपाय) उपाय (आन) दूसरा (न) नहीं है; {मात्र} (ज्ञान-घनघान) ज्ञानरूपी वर्षा का समूह (बूझावै) शान्त करता है।

भावार्थ:- भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों काल में जो जीव मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, होंगे और (वर्तमान में विदेह-क्षेत्र में) हो रहे है; वह इस सम्यग्ज्ञान का ही प्रभाव है - ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है। जिसप्रकार दावानल (वन में लगी हुई अग्नि) वहां की समस्त वस्तुओं को भस्म कर देता है, उसीप्रकार पांच इन्द्रियों सम्बन्धी विषयों की इच्छा संसारी जीवों को जलाती है - दुःख देती है; और जिसप्रकार वर्षा की झड़ी उस दावानल को बुझा देती है, उसीप्रकार यह सम्यग्ज्ञान उन विषयों को शान्त कर देता है - नष्ट कर देता है।

पुण्य-पाप में हर्ष-विषाद का निषेद और तात्पर्य की बात

पुण्य-पाप-फलमाहिं, हरख बिलखौ मत भाई।
यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसे फिर थाई।।
लाख बात की बात यही, निश्चय उर लाओ।
तोरि सकल जग दंद-फंद, नित आतम ध्याओ।।9।।

अन्वयार्थ:-(भाई) हे आत्मार्थी प्राणी! (पुण्य-फलमाहिं) पुण्य के फल में (हरख मत) हर्ष न कर और (पाप-फलमाहिं) पाप के फल में (विलखौ मत) द्वेष न कर {क्योंकि यह पुण्य और पाप} (पुद्गल परजाय) पुद्गल की पर्यायें हैं। {वे} (उपजि) उत्पन्न होकर (विनसै) नष्ट हो जाती हैं और (फिर) पुनः (थाई) उत्पन्न होती हैं। (उर) अपने अन्तर में (निश्चय) निश्चय से - वास्तव में (लाख बात की बात) लाखों बातों का सार (यही) इसीप्रकार (लाओ) ग्रहण करो कि (सकल) पुण्य-पापरूप समस्त (जगदंद-फंद) जन्म-मरण के द्वन्द्व {राग-द्वेष} रूप विकारी मलिन भाव (तोरि) तोड़कर (नित) सदैव (आतम ध्याओ) अपने आत्मा का ध्यान करो।

भावार्थ:-आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है कि धन, मकान, दुकान, कीर्ति, नीरोगी शरीरादि पुण्य के फल हैं, उनसे अपने को लाभ है तथा उनके वियोग से अपने हो हानि है - ऐसा न माने; क्योंकि परपदार्थ सदा भिन्न हैं, ज्ञेयमाात्र हैं, उनमें किसी को अनुकुल-प्रतिकूल अथवा इष्ट-अनिष्ट मानना, वह मात्र जीव की भूल है; इसलिये पुण्य-पाप के फल में हर्ष-शोक नहीं करना चाहिए।

यदि किसी भी परपदार्थ को जीव भला या बुरा माने तो उसके प्रति राग या द्वेष हुए बिना नहीं रहता। जिसने परपदार्थ - परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को वास्तव में हितकर तथा अहितकर माना है, उसने अनन्त परपदार्थों को राग-द्वेष करने योग्य माना है और अनन्त परपदार्थ मुझे सुख-दुःख के कारण हैं - ऐसा भी माना है; इसलिए वह भूल छोड़कर निज ज्ञानानंद स्वरूपक ा निर्णय करके स्वोन्मुख ज्ञाता रहना ही सुखी होने का उपाय है।

पुण्य-पाप का बन्ध वे पुद्गल की पर्यायें (अवस्थाएं) हैं। उनके हृदय उदय में जो संयोग प्राप्त हों, वे भी क्षणिक संयोगरूप से आते-जाते हैं। जितने काल तक वे निकट रहें, उतने काल भी वे सुख-दुःख देने में समर्थ नहीं है।

जैनधर्म के समस्त उपदेश का सार यही है कि - शुभाशुभभाव वह संसार है; इसलिये उसकी रूचि छोड़कर, स्वोन्मुख होकर निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक निज आत्मस्वरूप में एकाग्र (लीन) होना ही जीव का कत्र्तव्य है।

सम्यक्चारित्र का समय और भेद तथाअ अहिंसाणुव्रत और सत्याणुव्रत का लक्षण

सम्यज्ञानी होय, बहुरि दिढ़ चारित लीजै।
एकदेश अरू सकलदेश, सु भेद कहीजै।।
त्रसहिंसा को त्याग, वृथा थावर न संहारै।
पर-वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै।।10।।

अन्वयार्थ:- (सम्यग्ज्ञानी) सम्यग्ज्ञानी (होय) होकर (बहुरि) फिर (दिढ़) दृढ़ (चारित) सम्यक्चारित्र (लीजै) का पालन करना चाहिए; (तसु) उसके {उस सम्यक्चारित्र के} (एकदेश) एकदेश (अरू) और (सकलदेश) सर्वदेश {ऐसे दो} (भेद) भेद (कहीजै) कहे गये हैं। {उनमें} (त्रसहिंसा को) त्रस जीवों को हिंसा का (त्याग) करना और (वृथा) बिना कारण (थावर) स्थावर जीवों का (न संहारै) घात न करना {वह अहिंसा-अणुव्रत कहलाता है} (पर वधकार) दूसरारें को दुःखदायक, (कठोर) कठोर {और} (निंद्य) निंदनीय (वयन) वचन (नहिं उचारै) न बोलना {वह सत्य-अणुव्रत कहलाता है}।

भावार्थ:-सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके सम्यक्चरित्र प्रकट करना चाहिए। उस सम्यक्चारित्र के दो भेद हैं -

1. एकदेश (अणु, देश, स्थूल) चारित्र और

2. सर्वदेश (सकल महा,सूक्ष्म) चारित्र।

उनमें सकल चारित्र का पालन मुनिराज करते हैं और देशचारित्र का पालन श्रावक करते हैं। इस चैथी ढाल में देशचारित्र का वर्णन किया गया है। सकलचारित्र का वर्णन छठवीं ढाल में किया जायेगा। त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का सर्वथा त्याग करके निष्प्रयोजन स्थावर जीवों का घात न करना, सो 1अहिंसा अणुव्रत है। दूसरे के प्राणों को घातक, कठोर तथा निंदनीय वचन न बोलना (तथा दूसरों से न बुलवाना, न अनुमोदनाः सो सत्य-अणुव्रत है)।

अचैर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणाणुव्रत तथा दिग्व्रत का लक्षण

जलन-मृतिका विन और नाहिं कछु गहै अदत्ता।
निज वनिता विन सकल नारिसौं रहै विरत्ता।।
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै।
दश दिश गमन प्रमाण ठान, तसु सीम न नाखै।।11।।

1. टिप्पणी

1. अहिंसाणुव्रत का धारण करनेवाला जीव ’’यह जीव घात करने योग्य है, मैं इसे मारूं’’ - इसप्रकार संकलप सहित किसी त्रस जीव की संकल्पी हिंसा नहीं करता; किंतु इस व्रत का धारी आरम्भी, उद्योगिनी तथा विरोधिनी हिंसा का त्यागी नहीं होता।

2. प्रमाद और कषाय में युक्त होने से जहां प्राणघात किया जाता है, वहीं हिंसा का दोष लगता है; जहं वैसा कारण नहीं है, वहां प्राणघात होने पर भी हिंसा का दोष नहीं लगता। जिसप्रकार - ्रपमदारहित मुनि गमन करते हैं; वैद्य - डाॅक्टर करूणाबुद्धिपूर्वक रोगी का उपचार करते हैं; जहां सामनेवाले का प्राणघात होने पर भी हिंसा का दोष नहीं है।

अन्वयार्थ:-(जल-मृतिका विन) पानी और मिट्टी के अतिरिक्त (और कछू) अन्य कोई वस्तु (अदत्ता) बिना दिये (नाहिं) नहीं (ग्रहे) लेना {उसे अचैर्याणुव्रत कहते हैं} (निज) अपनी (वनिता विन) स्त्री के अतिरिक्त (सकल नारिसौं) अन्य सर्व स्त्रियों से (विरता) विरक्त (रहे) रहना {वह ब्रह्मचर्याणुव्रत है} (अपनी) अपनी (शक्ति विचार) शक्ति का विचार करके (परिग्रह) परिग्रह (थोरो) मर्यादित (राखै) रखना {सो परिग्रहपरिमाणाणुव्रत है} (दश दिश) दशों दिशाओं में (गमन) जाने-आने की (प्रमाण) मर्यादा (ठान) रखकर (तसु) उस (सीम) सीमा का (न नाखै) उल्लंघन न करना {सो दिग्व्रत है}।

भावार्थ:- जन-समुदाय के लिए जहां रोक न हो तथा किसी विशेष व्यक्ति का स्वामित्व न हो - ऐसे पानी तथा मिट्टी जैसी वस्तु के अतिरिक्त परायी वस्तु (जिस पर अपना स्वामित्व न हो) उसके स्वामी के दिये बिना न लेना (तथा उठाकर दूसरे को न देना), उसे अचैर्याणुव्रत कहते हैं। अपनी विवाहित स्त्री के सिवा अन्य सर्व स्त्रियों से विरक्त रहना, सो ब्रह्मचर्याणुव्रत है। (पुरूष को चाहिए कि अनय स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री समान माने तथा स्त्री को चाहिए कि अपनी स्वामी के अतिरिक्त अन्य पुरूषों को पिता, भाई तथा पुत्र समान समझे)।

अपनी शक्ति और यौगयता का ध्यान रखकर जीवनपर्यन्त के लिए धन-धान्यादि बाह्य-परिग्रह का परिमाण (मर्यादा) बांधकर उससे अधि की इच्छा न करे, उसे परिग्रहपरिमाणाणुव्रत1 कहते हैं। दशो-दिशाओं में जाने-आने की मर्यादा निश्चित करके जीवनपर्यंत उसका उल्लंघन न करना, सो दिग्व्रत है। दिशाओं की मर्यादा निश्चित की जाती है, इसलिए उसे दिग्व्रत कहा जाता है।

देशव्रत (देशावगाशिक) नामक गुणव्रत का लक्षण

1. टिप्पणी

1. ये पांच (अहिंसा, सत्य अचैर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण) अणुव्रत हैं। हिंसादिक को लोक में भी पाप माना जाता है; उनका इन व्रतों में एकदेश (स्थूलरूप से) त्याग किया गया है; इसी कारण वे अणुव्रत कहलाते हैं।

2. निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक प्रथम दो कषायों का अभाव हुआ हो, उस जीव को सच्चे अणुव्रत होते हैं। जिसे निश्चयसम्यग्दर्शन न हो, उसके व्रतों को सर्वज्ञ ने (अज्ञानव्रत) कहा है।

ताहू में फिर ग्राम गली, गृह बाग बजारा।
गमनागमन प्रमाण ठान अन, सकल निवारा।।12।।
(पूर्वार्द्ध)

अन्वयार्थ:-’ (फिर) फिर (ताहू में) उसमें {किन्हीं प्रसिद्ध-प्रसिद्ध} (ग्राम) गांव (गली) गली (ग्रह) मकान (बाग) उद्यान तथा (बाजारा) बाजार तक (गमनागमन) जाने-आने का (प्रमाण) माप (ठान) रखकर (अन) अन्य (सकल) सबका (निवारा) त्याग करना {उसे देशव्रत अथवा देशावगाशिक व्रत कहते हैं}।

भावार्थ:- दिग्व्रत में जीवनपर्यन्त की गई जाने-आने के क्षेत्र की मर्यादा मे ंभी (घड़ी, घण्टा, दिन, महीना आदि काल के नियम से) किसी प्रसिद्ध ग्राम, मार्ग, मकान तथा बाजार तक जाने-आने की मर्यादा करके उससे आगे की सीमा में न जाना, सो देशव्रत कहलाता है।।11।।

(पूर्वार्द्ध)

अनर्थदण्डव्रत के भेद और उनका लक्षण

काहू की धनहानि, किसी जय-हार न चिन्तै।
देय न सो उपदेश, होय अघ वनज कृषी तैं।।12।।
(उत्तरार्द्ध)
कर प्रमाद जल भूमि वृक्ष पावक न विराधै।
असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधै।।
राग-द्वेष-करतार, कथा कबहूं न सुनीजै।
और हु अनरथ दंड, हेतु अघ तिन्हैं न कीजै।।13।।

अन्वयार्थ:-

1. (काहू की) किसी के (धनहानि) धन के नाश का (किसी) किसी की (जय) विजय का {अथवा} (हार) किसी की हार का (न चिन्तै) विचार न करना {उसे अपध्यान-अनर्थदंडव्रत कहते हैं।}

2. (वनज) व्यापार और (कृषि तैं) खेती से (अघ) पाप (होय) होता है; इसलिये (सो) उसका (उपदेश) उपदेश (न देय) न देना {उसे पापोपदेश - अनर्थदंडव्रत कहा जाता है।}

3. (प्रमाद कर) प्रमाद से {बिना प्रयोजन} (जल) जलकायिक (भूमि) पृथ्वीकायिक, (वृक्ष) वनस्पतिकायिक, (पावक) अग्निकायिक {ओर वायुकायिक} जीवों का (न विराधै) घात न करना {सो प्रमादचर्या-अनर्थदंडव्रत कहलाता है।}

4. (असि) तलवार, (धनु) धनुष्य, (हल) हल {आदि} (हिंसोपकरण) हिंसा होने में कारण भूत पदार्थों को (दे) देकर (यश) यश (नहिं लाधै) न लेना {सो हिंसादान-अनर्थदंडव्रत कहलाता है।}

5. (राग-देश-करतार) राग और द्वेष उत्पन्न करनेवाली (कथा) कथाएं (कबहूं) कभी भी (न सुनीजै) नहीं सुनना {सो दुःश्रुति अनर्थदंडव्रत कहलाता है।} (और हु) तथा अन्य भी (अघहेतु) पाप के कारण (अनरथ दंड) अनर्थदंड हैं (तिन्हैं) उन्हें भी (न कीजै) नहीं करना चाहिए।

भावार्थ:-

1. किसी के धन का नाश, पराजय अथवा विजय आदि का विचार न करना, सो पहना अपध्यान-अनर्थदंडव्रत कहलाता है।1

2. हिंसारूप पापजनक व्यापार तथा खेती आदि का उपदेश न देना, वह पापोदेश-अनर्थदंडव्रत है।

3. प्रमादवश होकर पानी ढोलना, जमीन खोदना, वृक्ष काटना, आग लगाना - इत्यादि का त्याग करना अर्थात् पांच स्थावरकाय के जीवों की हिंसा न करना, उसे प्रमादचर्या-अनर्थडंदव्रत कहते हैं।

1. अनर्थदंड दूसरे भी बहुत से हैं। पांच तो स्थूलता की अपेक्षा से अथवा विग्दर्शनमात्र है। वे सब पापजनक हैं, इसलिए उनका त्याग करना चाहिए। पापजनक निष्प्रयोजन कार्य अनर्थदंड कहलाता है।

4. यश प्राप्ति के लिए, किसी के मांगने पर हिंसा के मांगने पर हिंसा के कारणभूत हथियार न देना, सो हिंसादान-अनर्थदंडव्रत कहलाता है।

5. राग-द्वेष उत्पन्न करने वाली विकथा और उपन्यास या श्रृंगारिक कथाओं के श्रवण का त्याग करना, सो दुःश्रुति-अनर्थदंडव्रत कहलाता हे।।13।।

सामायिक, प्रोषध, भोगोपभोपरिमाण और अतिथिसंविभागव्रत

धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये।
परव चतुष्टयमाहिं, पाप तज प्रोषध धरिये।।
भोग और उपभोग, नियमकरि ममत निवारै।
मुनि को भोजन देय फेर, निज करहि अहारै।।14।।

अन्वयार्थ:- (उर) मन में (समताभाव) निर्विकल्पता अर्थात् शल्य के अभाव को (धर) धारण करके (सदा) हमेंशा (सामायिक) सामायिक (करिये) करना {सो सामायिक शिक्षाव्रत है;} (परव चतुष्टयमाहिं) चार पर्व के दिनों में (पाप) पापकार्यों को छोड़कर (प्रोषधो) प्रोषधोपवास (धरिये) करना {सो प्रोषधोपवास शिक्षव्रत है;} (भोग) एकबार भोगा जा सके - ऐसी वस्तुओं का तथा (उपभोग) बारम्बार भोगा जासके - ऐसी वस्तुओं का (नियमकरि) परिमाण करके - मर्यादा रखकर (ममत) मोह (निवारै) छोड़ दे {सो भोग - उपभोगपरिमाणव्रत है;} (मुनि को) वीतरागी मुनि को (भोजन) आहार (देय) देकर (फेर) फिर (निज अहारै) स्वयं भोजन करे {सो अतिथिसंविभागव्रत कहलाता है।}

भावार्थ:- स्वोन्मुखता द्वारा अपने परिणामों को स्थिर करके प्रतिदिन विधिपूर्वक सामायिक करना, सो सामायिक शिक्षाव्रत है।

1. प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी के दिन कषाय और व्यापारादि कार्यों को छोड़कर (धर्मध्यानपूर्वक) प्रोषधसहित उपवास करना, सो प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहलाता है।

2. परिग्रहपरिमाण - अणुव्रत में निश्चय की हुई भोगपभा्रक की वस्तुओं में जीवनपर्यंत के लिए अथवा किसी निश्चित समय के लिए नियम करना, सो भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रत कहलाता है।

3. निग्र्रंथ मुनि आदि सत्पात्रों को आहार देने के पश्चात् स्वयं भोजन करना, सो अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत कहलाता है।।14।।

निरतिचार श्रावकव्रत पालन करने का फल

बारह व्रत के अतीचार, पन-पन न लगावै।
मरण-समय संन्यास धारि तसु दोष नशावै।।
यों श्रावक-व्रत पाल, स्वर्ग सोलह उपजावै।
तहंतें चय नरजन्म पाय, मुनि ह्यै शिव जावै।।15।।

अन्वयार्थ:- जो जीव (बारह व्रत के) बारह व्रतों के (पन-पन) पांच-पांच (अतिचार) अतिचारों को (न गलावै) नहीं लगाता और (मरण-समय) मृत्यु-काल में (सन्यास) समाधि (धार) धारण करके (तसु) उनके (दोष) दोषों को (नशावै) दूर करता है, वह (यों) इसप्रकार (श्रावक-व्रत) श्रावक के व्रत (पाल) पालन करके (सोलह) सोलहवें (स्वर्ग) स्वर्ग तक (उपजावै) उत्पन्न होता है {और} (तहंतैं) वहां से (चय) मृत्यु करके (नरजन्म) मनुष्यपर्याय (पाय) पाकर (मुनि) मुनि (है्य) होकर (शिव) मोक्ष (जावै) जाता है।

भावार्थ:- जो जीव श्रावक के ऊपर कहे हुए बारह व्रतों का विधिपूर्वक जीवनपर्यंत पालन करते हुए नके पांच-पांच अतिचारों को भी टालता है और मृत्युकाल में पूर्वापार्जित दोषों का नाश करने के लिए विधिपूर्वक समाधिमरण (सल्लेखना1) धारण करके उसके पांच अतिचारों को भी दूर करता है, वह आयु पूर्ण होने पर मृत्यु प्राप्त करके सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है। फिर देवायु पूर्ण होने पर मनुष्य भव पाकर, मुनिपद धारण करके मोक्ष (पूर्ण शुद्धता) प्राप्त करता है।

सम्यक्चारित्र की भूमिका में रहनेवाले राग के कारण वह जीव स्वर्ग में देवपद प्राप्त करता है। धर्म का फल संसार की गति नहीं है, किंतु संवर-निर्जरारूप शुद्धभाव है; धर्म की पूर्णता वह मोक्ष है।

चैथी ढाल का सारांश

सम्यग्दर्शन के अभाव में जो ज्ञान होता है, उसे कुज्ञान (मिथ्याज्ञान) कहा जाता है। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात वही लक्षण सम्यग्ज्ञान कहलाता है। इसप्रकार यद्यपि ये दोनों सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान साथ ही होते है; तथापि उनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं और कारण-कार्यभाव का अन्तर है अर्थात् सम्यग्दर्शन का निमित्तकारण है।

1. क्रोधादि के वश होकर विष, शस्त्र अथवा अन्नत्यग आदि से प्राणत्याग किया जाता है, उसे ’आत्मघात’ कहते है। ’सल्लेखना’ में सम्यग्दर्शनसहित आत्मकल्याण (धर्म) के हेतु से काया और कषाय को कृश करते हुए सम्यक् आराधनापूर्वक समाधिमरण होता है; इसलिये वह आत्मघात नहीं, किन्तु धर्मध्यान है।

जो स्वयं को और परवस्तुओं को स्वन्मुखतपूर्वक यथावत् जाने, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है; उसकी वृद्धि होने पर अंत में केवलज्ञान प्राप्त होता है सम्यग्ज्ञान के अतिरिक्त सुखदायक वस्तु अन्य कोई नहीं हैं ओर वही जन्म, जरा तथा मरण का नाश करता है। मिथ्यादृष्टि जीव को सम्यग्ज्ञान के बिना करोड़ों जन्म तक तप तपने से जितने कर्मों का नाश होता है, उतने कर्म सम्यग्ज्ञानी जीव के त्रिगुप्ति से क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं। पूर्वकाल में जो जीव मोक्ष गये है; भविष्य में जायेंगे और वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र से जा रहे हैं - वह सब सम्यग्ज्ञान का प्रभाव है। जिसप्रकार मूसलाधार वर्षा वन की भयंकर अग्नि को क्षणमात्र में बुझा देती है, उसीप्रकार यह सम्यग्ज्ञान विषय-वासना को क्षणमात्र मंे नष्ट कर देता है।

पुण्य पाप के भाव वे जीव के चारित्रगुण की विकारी (अशुद्ध) पर्यायेंु हैं; वे रहंट के घड़ों की भांति उल्टी-सीधी होती रहती है; उन पुण्य-पाप के फलों में जो संयोग प्राप्त होते हैं, उनमें हर्ष-शोक करना मूर्खता है। प्रयोजनभूत बात तो यह है कि पुण्य-पाप, व्यवहार और निमित्त की रूचि छोड़कर स्वसन्मुख होकर सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

आत्मा और परवस्तुओं का भेदविज्ञान होने पर सम्यग्ज्ञान होता है। इसलिए संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (तत्त्वार्थों का अनिर्धार) का त्याग करके

1. न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते।
ज्ञानान्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात्।।38।।

अर्थ:- अज्ञानपूर्वक चारित्र साम्यक् नहीं कहलाता, इसलिए चारित्र का आराधन ज्ञान होने के पश्चात् कहा है। (पुरूषार्थसिद्धयुपाय गाथा - 38) 

तत्त्व के अभ्यास द्वारा सम्यग्ज्ञान प्रापत करना चाहिए; क्योंकि मनुष्यपर्याय, उत्तम श्रावक कुल और जिनवाणी का सुनना आदि सुयोग - जिसप्रकार समुद्र में डूबा हुआ रत्न पुनः हाथ नहीं आता, उसीप्रकार - बाराम्बार प्राप्त नहीं होता। ऐसा दुर्लभ सुयोग प्राप्त करके सम्यग्धर्म प्राप्त न करना मूर्खता है।  

सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके 1फिर सम्यक्चारित्र प्रकट करना चाहिए; वहां सम्यक्चारित्र की भूमिका में जो कुछ भी राग रहता है, वह श्रावक को अणुव्रत और मुनि को पंचमहाव्रत के प्रकार का होता है; उसे सम्यग्दृष्टि पुण्य मानते हैं।  

जो श्रावक निरतिचार समाधि-मरण को धारण करता है, वह समतापूर्वक आयु पूर्ण होने से योग्यतानुसार सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होता है और वहां से आयु पूर्ण होने पर मनुष्यपर्याय प्राप्त करता है; फिर मुनिपद प्रकट करके मोक्ष में जाता है। इसलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्र का पालन करना, वह प्रत्येक आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है।  

निश्चय सम्यक्चारित्र ही सच्चा चारित्र है - ऐसी श्रद्धा करना तथा उस भूमिका में जो श्रावक और मुनिव्रत के विकल्प उठते हैं, वह सच्चा चारित्र नहीं, किंतु चारित्र में होनेवाला दोष है; किंतु उस भूमिका में वैसा राग आये बिना नहीं रहता और उस सम्यक्चारित्र में ऐसा राग निमित्त होता है; उसे सहचर मानकर व्यवहार सम्यक्चारित्र कहा जाता है। व्यवहार सम्यक्चारित्र को सच्चा सम्यक्चारित्र मानने की श्रद्धा छोड़ देना चाहिए।  

चैथी ढाल का भेद-संग्रह

काल :निश्चयकाल और व्यवहारकालद्ध अथवा भूत, भविष्य और वर्तमान। 

चारित्र : मोह-क्षोभरहित आत्मा के शुद्ध परिणाम, भावलिंगी श्रावकपद तथा भावलिंगी मुनिपद। 

ज्ञान के दोष : संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (अनिश्चितता)। 

दिशा : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय-अण्नेय, ऊध्र्व और अधो - ये दस हैं। 

पर्वचतुष्टय : प्रत्येक मास की दो अष्टमी तथा दो चतुर्दशी। 

मुनि : समस्त व्यापार से विरक्त, चार प्रकर की आराधना में तल्लीन, निग्र्रन्थ और निर्मोह - ऐसे सर्व साधु होते हैं। (नियमसार, गाथा - 76)। वे निश्चयसम्यग्दर्शन सहित, विरागी होकर, समस्त परिग्रह त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके अंतरंग में शुद्धोपयोग द्वारा अपने आत्मा का अनुीाव करते हैं। परद्रव्य में अहंबुद्धि नहीं करते। ज्ञानादि स्वभाव को ही अपना मानते हैं; परभावों में ममत्व नहीं करते। किसी को इष्ट-अनिष्ट मानकर उसमें राग-द्वेष नहीं करते। हिंसादि अशुभ बार छठवें गुणस्थान में आते हैं, तब उन्हें अट्ठाईस मूलगुणों को अखण्डित रूप से पालन करने का शुीा-विकल्प आता है। उन्हें तीन कषायों के अभावरूप निश्चय-सम्यक्चारित्र होता है। भावलिंगी मुनि को सदा नग्न-दिगम्बर दशा होती है; उसमें कभी अपवाद नहीं होता। कभी भी वस्त्रादि सहित मुनि नहीं होते।  

विकथा : स्त्री, आहार, देश और राज्य - इन चार की अशुभभावरूप कथा, सो विकथा है। 

श्रावकव्रत : पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - ऐसे बारह व्रत है। 

रोगत्रय : जन्म, जरा और मृत्यु।

हिंसा : (1) वास्तव में रागादि भावों का प्रकट न होना, सो अहिंसा है और रागादि भावों की उत्पत्ति होना, सो हिंसा है - ऐसा जैनशास्त्रों का संक्षिप्त रहस्य है। (2) संकल्पी, आरम्भ, उद्योगिनी और विरोधिनी - ये चार अथवा द्रव्यहिंसा और भावहिंसा - ये दो। 

चैथी ढाल का लक्षण - संग्रह

अणुव्रत : (1) निश्चयसम्यग्दर्शन सहित चारित्रगुण की आंशिक शुद्धि होने से (अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानीय कषायों के अभावपूर्वक) उत्पन्न आत्मा की शुद्धिविशेष को देशचारित्र कहते हैं। श्रावकदशा में पांच पापों का स्थूलरूप - एकदेश त्याग होता है, उसे अणुव्रत कहा जाता है। 

अतिचार : व्रत की अपेक्षा रखने पर भी उसका एकदेश भंग होना, सो अतिचार है। 

अनध्यवसाय (मोह) ’कुछ है’, किन्तु क्या है,उसके निश्चयरहित ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। 

अनर्थदंड : प्रयोजनरहित मन, वचन, काय की ओर की अशुीाप्रवृत्ति। 

अनर्थदंडव्रत :प्रयोजनरहित मन, वचन, काय की ओर की अशुभप्रवृत्ति। 

अनर्थदंडव्रत : प्रयोजनरहित, मन, वचन, काय की ओर की अशुभ-प्रवृत्ति का त्याग। 

अवधिज्ञान : द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव की मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को स्पष्ट जाननेवाला ज्ञान। 

उपभोग :जिसे बारम्बार भोगा जा सके - ऐसी वस्तु। 

गुण : द्रव्य के आश्रय से,उसके सम्पूर्ण भाग में तथा उसकी समस्त पर्यायों में सदैव रहे, उसे गुण अथवा शक्ति कहते हैं। 

गुणव्रत : अणुव्रतों को तथा मूलगुणों को पुष्ट करनेवाला व्रत। 

पर :आत्मा से (जीव से) भिन्न वस्तुओं को पर कहा जाता है। 

परोक्ष :जिसमें इन्द्रियादि परवस्तुएं निर्मित्तमात्र हैं - ऐसे ज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहते हैं। 

प्रत्यक्ष ; (1) आत्मा केे आश्रय से होनेवाला अतीन्द्रिय ज्ञान है। (2) अक्षप्रति - अक्ष = आत्मा अथवा ज्ञान; प्रति = (अक्ष के) सन्मुख - निकट 

पर्याय : गुणों के विशेष कार्य को (परिणमन को) पर्याय कहते हैं। 

भोग : वह वस्तु जिसे एक ही बार भोगा जा सके। 

मतिज्ञान : (1) पराश्रय की बुद्धि छोड़कर दर्शन-उपयोगपूर्वक स्वसन्मुखता से प्रकट होने वाले निज-आत्मा के ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। (2) इन्द्रियां और मन जिसमें निमित्तमात्र हैं - ऐसे ज्ञान  

को मतिज्ञान कहते हैं।

महाव्रत : हिंसादि पांच पापों का सर्वथा त्याग। (निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान और वीतरागचारित्ररहित मात्र व्यवहारव्रत के शुभभाव को महाव्रत नहीं कहा है, किंतु बालव्रत - अज्ञानव्रत कहा है।) 

मनःपर्ययज्ञान : द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की मर्यादा से दूसरे के मन में रहे हुए सरल अथवा गूढ रूपी पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान। 

1. द्रव्य, गुण पर्यायाों को केवलज्ञानी भगवान जानते हैं, कंतु उनके अपेक्षित धर्मों को नहीं जान सकते - ऐसा मानना, सो असत्य है। और वह अनन्त को अथवा मात्र आत्मा को ही जानते हैं, किंतु सर्व को नहीं जानते हैं - ऐसा मानना भी न्याय की विरूद्ध है। (लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, प्रश्न 87, पृष्ठ 26) केवलज्ञानी भगवान क्षायोपशमिक ज्ञानवाले जीवों की भांति अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप क्रम से नहीं जानते, किन्तु सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को युगपत् (एकसाथ) जानते हैं। इसप्रकार उन्हें सब कुछ प्रत्यक्ष वर्तता है। (प्रवचनसार, गाथा, 21 की टीका-भावार्थ।) अति विस्तार से बस होओ, अनिवारित (रोका न जा सके ऐसा - अमर्यादित) जिसका विस्तार है - ऐसा प्रकाशवाला होन ेसे क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान) अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्व को जानता है। (प्रवचनसार, गाथा 47 की टीका।  

टिप्पणी:- श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान से सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य में निश्चित और क्रमबद्ध पर्यायें होती हैं - उलटी-सीधी नहीं।  

केवलज्ञान जो तीनकाल और तीनलोकवर्ती सर्व पदार्थों को (अनन्तधर्मात्मक 1सर्व-गुण-पर्यायों को) प्रत्येक समय यथास्थित, परिपूर्णरूप से स्पष्ट और एकसाथ जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं।  

विपर्यय : विपरीत ज्ञान। जैसे कि - सीप को चांदी जानना और चांदी को सीप जानना। अथवा - शुभस्त्रव से वास्तव में आत्महित मानना; देहादि परद्रव्य को स्व मानना अपने से भिन्न न मानना।  

व्रत : विपरीत ज्ञान। जैसे कि - सीप को चांदी जानना और चांदी को सीप जानना। अथवा - शुभस्त्रव से वास्तव में आत्महित मानना; देहादि परद्रव्य को स्व रूप मानना, अपने से भिन्न न मानना।  

शिक्षाव्रत : मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा देनेवाला व्रत। 

श्रुतश्रान : (1) मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थों के सम्बन्ध में अन्य पदार्थाों को जाननेवाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। (2) आत्मा की शुद्ध अनुभूतिरूप श्रुताज्ञान को भावश्रुतज्ञान कहते हैं।  

संन्यास :(सल्लेखना) आत्मा का धर्म समझकर अपनी शुद्धता के लिए कषायों को और शरीर को कृश करना (शरीर की ओर का लक्ष्य छोड़ देना), सो समाधि अथवा संलेखना कहलाती है।  

संशय :विरोधसहित अनेक प्रकारों का अवलम्बन करनेवाला ज्ञान; जैसे कि - यह सीप होगी या चांदी? आत्मा अपना ही कार्य कर सकता होगा या पर का भी? देव-गुरू-शास्त्र, जीवादि सात तत्त्व आदि का स्वरूप ऐसा ही होगा? - अथवा जैसा अन्य मत में कहा है, वैसा? निमित्त अथवा शुभराग द्वारा आत्मा का हित हो सकता है या नहीं?  

चैथी ढाल का अन्तर-प्रदर्शन

1. दिग्व्रत की मर्यादा तो जीवनपर्यंत के लिए है; किन्तु देशव्रत की मर्यादा घड़ी, घण्टा आदि नियत किये हुए समय तक की है।  

2. परिग्रहपरिमाणव्रत में परिग्रह का जितना प्रमाण (मर्यादा) किया जाता है, उससे भी कम प्रमाण भोगोपभोगपरिमाणव्रत में किया जाता है।  

3. प्रोषध में तो आरम्भ और कषाय-कषायादिक त्याग करने पर भी एकबार भोजन किय जाता है; जबकि उपवास में अन्न, जल, खाद्य और स्वद्य - इन चारों आहारों का सर्वथ त्याग होता है। प्रोषध-उपवास में आरम्भ, विषय-कषाय और चारों आहारों का त्याग तथा उसके अगले दिन और पारणे के दिन अर्थात् पिछले दिन भी एकाशन किया जाता है।  

4. भोग तो एक ही बार भोगने योग्य होता है, किंतु उपभोग बारम्बार भोगा जा सकता है। (आत्मा परवस्तु को व्यवहार से भी नहीं भोग सकता; किन्तु मोह द्वारा मैं इसे भोगता हूं - ऐसा मानता है और तत्सम्बन्धी राग को, हर्ष-शोक को भोगता है। यह बतलाने के लिए उसका कथन करना, सो व्यवहार है।)  

चैथी ढाल की प्रश्नवाली

1. अचैर्यव्रत, अणुव्रत, अतिचार, अतिथिसंविभाग, अनध्यवसाय, अनर्थदंड, अनर्थदंडव्रत, अपध्यान, अवधिज्ञान, अहिंसाणुव्रत, उपभोग, केवलज्ञान, गुणव्रत, दिग्व्रत, दुःश्रुति, देशव्रत, देशप्रत्यक्ष, परिग्रह - परिमाणाणु-व्रत, परोक्ष पापोपदेश, प्रत्यक्ष, प्रमादचार्य, प्रोषध-उपवास, ब्रह्मचर्याणुव्रत, भाोगोपभोगपरिमाणव्रत, भोग, मतिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, विपर्यय, व्रत, शिक्षाव्रत, श्रुतज्ञान, सकलप्रत्यक्ष, सम्यग्ज्ञान, सत्याणुव्रत, सामायिक,संशय, स्वस्त्री-संतोषव्रत तथा हिंसादान आदि के लक्षण बतलाओ।  

2. अणुव्रत, अनर्थदण्डव्रत, काल, गुणव्रत, देशप्रत्यक्ष, दिशा, परोक्ष, पर्व, पात्र, प्रत्यक्ष, विकथा, व्रत, रोगत्रय, शिक्षाव्रत सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान के दोष और संलेखना दोष - आदि के भेद बतलाओ।  

3. अणुव्रत, अनर्थदण्डव्रत, गुणव्रत - ऐसे नाम रखने का कारण; अविचन ज्ञानप्रप्ति, ग्रैवेयक तक जाने पर भी सुख का अभाव, दिग्व्रत, देशव्रत, पापोपदेश - ऐसे नामों का कारण, पुण्य पाप के फल में हर्ष-शोक का निषेध, शिक्षाव्रत नाम का कारण, सम्यग्ज्ञान, ज्ञान, ज्ञानों की परोक्षता-प्रत्यक्षता-देशप्रत्यक्षमता और सकलप्रत्यक्षता आदि के कारण बतालाओ।  

4. अणुव्रत और महाव्रत में, दिग्व्रत और देशव्रत में, परिग्रह-परिमाणव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत में, प्रोषध और उपवास में तथा प्रोधधोपवास में, भोग और उपभोग में, यम और नियम में, ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश में तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में क्या अन्तर है, वह बतलाओ।  

5. अनध्यवसाय, मनुष्यपर्या आदि दुर्लभता, विपर्यय, विषय-इच्छा, सम्यग्ज्ञान और संशय के दृष्टान्त दो।  

6. अनर्थदण्डों का पूर्ण परिमाण, अविचल सुख का उपाय, आत्मज्ञान की प्राप्ति का उपाय, जन्म-मरण दूर करने का उपाय, दर्शन और ज्ञान में पहली उत्पत्त्;धानिदक से लाभ न होना, निरतिचार श्रावकव्रत-पालन से लाभ, ब्रह्मचर्याणुव्रती का विचार भेदविज्ञान की आवश्यकता, मनुष्यपर्याय की दुर्लभता तथा उसका सफलता का उपाय, मरणसमय का कर्तव्य; वैद्य-डाॅक्टर के द्वारा मरण हो, तथापि अहिंसा, शुत्र का सामना करना - न करना, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्ज्ञान होने का समय और उसकी महिमा, संल्लेखना की विधि और कर्तव्य, ज्ञान के बिना मुक्ति तथा सुख का अभाव, ज्ञान का फल तथा ज्ञानी-अज्ञानी का कर्मनाश और विषयें की इच्छा को शांत करने का उपाय- आदि का वर्णन करो।  

7. अचल रहनेवाला ज्ञान, अतिथिसंविभाग का दूसरा नाम, तीन रोगों का नाश करनेवाली वस्तु, मिथ्यादृष्टि मुनि, वर्तमान में मुक्ति हो सके - ऐसा