।। अनन्तव्रतपर्व ।।

भाद्रपद मास मे अनन्त व्रत पर्व मनाने की जैन समाज मे विशेष प्रथा है। यह पर्व जैनों के समान हिंदुओ मे भी लोकप्रिय है। इस पर्व की जैन विधि इस प्रकार है-

विधिः-अनन्त व्रत भादो सुदी एकादशी से आरम्भ किया जाता है। प्रथम एकादशी को उपवास कर द्वादशी को एकाशन करें अर्थात मौन सहित स्वाद रहित, प्रासुक भोजन ग्रहण करे, सात प्रकार के गृहस्थों के अंतरोय का पालन करंे। त्रयोदशी को जिनाभिषेक, पूजनपाठ के पश्चात छाछ या छाछ मे जौ, बाजरा के आटे से बनाई गई महेरी का आहार ले। चतुर्दशी के दिन निषेध करे तथा सोना, चांदी या रेशम सूत का अनन्त बनाये, जिसमे चैदह गांठ लगाए।

प्रथम गांठ पर ऋषभ नाथ से लेकर अनन्तनाथ तक चैदह तीर्थकरों के नामो का उचारण, दूसरी गांठ पर तपसिद्धि, विनय सिद्धि, संयम सिद्धि, चारित्र सिद्धि, श्रुताभ्यास, निश्चयात्मक भाव, ज्ञान, बल दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरू लघुत्व और अव्या बाधत्व इन चैदह गुणो का चिन्तन, तीसरी पर उन चैदह मुनियो का नामोचारण जो मति, श्रुतअवधिज्ञान के धारी हुए है, चैथी पर अर्हन्त भगवान के चैदह देवकत अतिशयो का चिन्तन, पांचवी पर जिन वाणी के चैदह पूर्वो का चिन्तन, छठवी पर चैदह गुण स्थानो का चिन्तन, सातवी पर चैदह मार्गणाओ का स्वरूप, आठवी पर चैदह जीव समासो का स्वरूप, नौवी पर गंगादि चैदह नदियो का उच्चारण, दसवी पर चैदह राजू प्रमाण ऊंचे लोग का स्वरूप, ग्यारहवी पर चक्रवर्ती के चैदह रत्नों1 का, बारहवे पर चैदहस्वरो का, तेरहवी पर चैदह तिथियो का एवं चैदहवी गांठ पर अभ्यान्तर चैदह प्रकार के परिग्रह से रहित मुनियों का चिन्तन करना चाहिए। इस प्रकार अनन्त का निर्माण करना चाहिए।

1. गृहपति, सेनापति, शिल्पी, पुरोहित, स्त्री, हाथी, घोडा, चक्र, असि (तलवार), छत्र, दण्ड, मणि, धर्मऔर कांकिणी, ये चक्रवर्ती के चैदह रत्न है।

पूजा करने की विधि यह है कि शुद्ध कोरा घड़ा लेकर उसका प्रक्षाल करना चाहिए। पश्चात उस घड़े पर चन्दन, केशरआदि सुगन्धित वस्तुओ का लेप कर तथा उसके भीतर सोना, चांदी या तांबे के सिक्के रखकर सफेद वस्त्र से ढक देना चाहिए। घड़े पर पुष्प् मालाये डाल कर उसके ऊपर थाली प्रक्षाल करके रख देनी चाहिए। थाली के अनन्तव्रत का माडना और यंत्र लिखना, पश्चात आदि-नाथ से लेकर अनन्तनाथ तक चैदह भगवानों की स्थापना यंत्र पर की जाती है। अष्ट द्रव्य से पूजा करने के उपरान्त

‘ऊँ ह्नीं अर्हत्रमः अनन्त के वलिने नमः’

इस मंत्र को 108 बार पढ़ कर पुष्प चढ़ाना चाहिए अथावा पुष्पो से जाप करना चाहिए। पश्चातं ‘ऊँ झीं क्ष्वीं हंस अमृत वाहिने नमः’ अनेन मंत्रेणसुरभिमुद्रों धृत्वों उत्तम गन्धोदक प्रोक्षणं कुर्यात अर्थात- ऊँ झीं क्ष्वी हंस अमृतवाहिनेनमः इस मंत्र को तीन बार पढ़कर सुरभि मुद्रा द्वारा सुगंधित जल से अनन्तका सिंचन करना चाहिए। अनंत चैदह भगवान् की पूजाकरनी चाहिए।

‘ऊँ हृी अनन्ततीर्थकराय हृांहृीहृूंहृौं हृः आ उ साय नमः सर्वशांति तुष्र्टि सौभाग्यमा युरारोग्यै श्वर्यमष्ट सिद्धि कुरू कुरू सर्वविघ्नविनाशनंकुरू-कुरू स्वाह’

इस मंत्र से प्रत्येक भगवान की पूजा के अनन्तर अध्र्य चढाना चाहिए। ऊँ हृींहृं स अनन्त केवली भगवान् धर्म श्री बलायु रारोग्यै श्वर्याभिवृद्धिं कुरू कुरू स्वाहा इस मंत्र को पढ़कर अनन्त पर चढ़ाए हुए पुष्पों की आशिका एवं

‘ ऊँ हीं अर्हत्रम सर्वकर्म बंधन विमुक्ताय नमः स्वहा’

इस मंत्र कोपढ़कर शांति जल की आशिका लेनी चाहिए। इस व्रत में ‘ ऊँ हृीं अर्हंहं स अनन्त केवलि ने नमः मंत्र का जाप करना चाहिए। पूर्णिमा को पूजन के पश्चात अनन्त को गले या भुजा मे धारण करे

अनन्त व्रत की कथा-जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र मे कौशल नामक देश है। यह अयोध्या नगरी के पास पद्म खण्ड नाम का ग्राम था। उस ग्राम मे सोम शर्मा नाम क ब्राह्मण था। उस ब्राह्मण की सोमिल्या नामक स्त्री थी। ब्राह्मण बड़ा दरिद्र था। दरिद्रता के कारण वह देश देशांतर मे भिक्षा मांगता हुआ अनन्तनाथ का समवसरण था। वहां पर देवत था मनुष्य सभी हर्षित हो रहे थ। ब्राह्मण भी उसे देखकर हर्षित हुआ और समवसरण मे वन्दना के लिए गया। उसने भगवान की वन्दना कर गणधर से पूछा कि मैंने कौन सा पाप किया है। जिससे मै निर्धन हूं और मेरा शरीर रोग ग्रस्त रहता है ? गणधन ने कहा कि तुम सुख दायक अनन्तव्रत का पालन करो। ब्राह्मण ने उस व्रत की विधि पूछी। गणधन ने व्रत की विधि बतलाई और कहा कि इस व्रत का चैदह वर्ष पालन करना चाहिए ताकि उस से पाप कर्म दग्ध हो जांय। चैदह वर्ष बाद उद्यापन करना चाहिए। उद्यपान की विधि इस प्रकार है-

शुद्ध कोरा घड़ा लेकर उसे धो लेना चाहिए। पश्चात श्री खण्ड, केशर आदि सुगंधित वस्तुओ का लेपन उस घड़े पर करना चाहिए। सुवर्ण, चांदी या पंचरत्न की पुडिया उस घडे मे छोड़नी चाहिए। घडे को श्वेत वस्त्र से आच्छादित कर उसे पुष्पमालाये पहना देनी चाहिए। अनन्तर घड़े के ऊपर एक बड़ी थाली प्रक्षाल करके रखना, उस थाली मे श्रीखण्ड से अनन्त यंत्र लिख कर अथवा स्वस्तिक लिख कर चैबीसी प्रतिमा विराजमा नकरना चाहिए। गांठ दिया हुआ अनन्त पहली थाली मे ही रखा जाता है अथवा चैकी पर ही चैदह मण्डल का वृत्ताकार मांडला बना लेना, प्रत्येक मण्डल मे चैदह चैदह कोष्ठक बनाना। मण्डल के मध्य मे चैबीसी प्रतिमा विराजमान कर पूजन करना चाहिए। प्रत्येक कलश की पूजा मे नारियल चढाना चाहिए तथा प्रत्येक कोष्ठकर पर सुपाडी। जल यात्रा, अभिषेक, सकली करण, अंगन्यास के पश्चात् उद्यापन की पूजा करनी चाहिए। पूजनोपरांत संकल्प, पुण्याह वाचन, शांति पाठ और विसर्जन करना चाहिए। उद्यापन के पश्चात 14 श्रावको को भोजन कराना चाहिए। यदि उद्यापन की शक्ति न हो दोगूने दिनव्रत करना चाहिए ।

ब्राह्मण ने विधि पूर्वक व्रत किए। व्रत के प्रभाव से उसके दुःख नष्ट हो गये। अन्तकाल उसने सन्यास धारण कर स्वर्ग पाया। चैथे स्वर्ग की महाऋद्धि उसे प्राप्त हुई। उसकी स्त्री भी समाधि मरण कर वहीं देवी हुई अनन्तर देव अपनी आयु पूर्ण कर अनन्तवीर्य नामक राजा हुआ तथा देवी उसकी पट्टरानी हुई। जिन दीक्षा लेकर अनन्तवीर्य उसी भाव से मुक्ति को प्राप्त हुए और उनकी रानी स्त्री लिंग छोेड कर अच्युतस्वर्ग मे देव हुई। स्वर्ग की आयु पुर्ण कर वह मध्य लोक मे मनुष्य शरीर धारण कर मोक्ष को प्राप्त हो गई। इसी प्रकार अन्य जीव भी इस व्रत का पालन कर मोक्ष लाभ कर सकते है।