।। श्रुत पंचमी पर्व ।।

1. जीव स्थान

इस खण्ड में गुणस्थान और मार्गणास्थानों का आश्रय लेकर सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगद्वारों से तथा प्रकृति समुत्कीत्र्तना, स्थान समुत्कीत्र्तना, तीन महा दण्डक, जघन्यस्थिति, उत्कृष्ट स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति -आगति इन नौ चूलिकाओं के द्वारा जीव की विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। रारगद्वेष और मिथ्यात्व भाव को मोह कहते हैं। मन, वचन, काय, के निमित्त से आत्मप्रदेशों के चंचल होने को योग कहते हैं। इन्हीं मोह और योग के निमित्त से दर्शन ज्ञान, चारित्र रूप आत्मगुणों की विकासक्रम रूप अवस्थाओं को गुण स्थान कहते हैं। वे गुणस्थान चैदह हैं-1-मिथ्यात्व 2- सासादन 3-मिश्र 4- अविरत सम्यग्दृष्टि 5- देश संयत 6- प्रमत्त संयत 7- अप्रमत्त संयत 8- अपूर्वकरण संयत 9- अनिवृत्तकरण संयत 10- सूक्ष्मसांपराय संयत 11- उपशान्तमोह, छद्मस्था 12- क्षीणमोह क्षद्मस्थ 13- संयोग केवली 14- अयोगकेवली।

2. खुदाबन्ध

इसमें कर्मबंधक के रूप में जीव की प्ररूपणा इन ग्यारह अनुयोगद्वारों द्वारा की गई है- 1- एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व 2- एक जीव की अपेक्षा काल 3-एक जीव की अपेक्षा अंतर 4- नाना जीवों की अपेक्षाा भगविचय 5- द्रव्य प्रमाणानुगम 6- क्षेत्रानुगम 7- स्पर्शनानुगम 8- नाना जीवों की अपेक्षा काल 9- नाना जीवों की अपेक्षा अंतर 10- भागाभागानुगम और 11- अल्पबहुत्वानुगम। इन अनुयोगद्वारों के प्रारम्भ में भूमिका के रूप में बंध के सत्व की प्ररूपणा की गई है, और अंत में सभी अनुयोगद्वारों की चूलिका रूप से अल्पबहुत्व महादण्डक दिया गया है।

3. बंधस्वामित्वविचय

इस खण्ड में कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों के बंध करने वाले स्वामियों का विचय अर्थात् विचार किया गया है।

4. वेदनाखण्ड

इसमें छह अनुयोग द्वारों में वेदना नामक दूसरे अनुयोग का विस्तान से वर्णन किया गया है।

5. वर्गणाकण्ड

महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के 24 अनुयोगद्वारों में स्पर्श, कर्म और प्रकृति ये तीन अनुयोगद्वार स्वतंत्र है और भूतबलि आचार्य ने इनका स्वतंत्र रूप से ही वर्णन किया है तथापि छठे बंध अनुयोगद्वार के अंतर्गत बंधनीय का अवलम्बन लेकर पुदगल वगणाओं का विस्तान से वर्णन किया गया है और आगे के अनुयोगद्वारों का वर्णन आचार्य भूतबलि ने नहीं किया है, इसलिए स्पर्श अनुयोगद्वार से लेकर बंधन अनुयोगद्वार तक का वर्णित अंश वर्गणाखण्ड नाम से प्रसिद्ध हुआ।

6. महाबंध

षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड में कर्मबंध का संक्षेप से वर्णन किया गया है, अतः उसका नाम खुदाबंध या क्षुद्रबंध प्रसिद्ध हुआ, किंतु छठे खण्ड में बंध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चारों प्रकार के बंधनों का अनेक अनुयोग द्वारों से विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है, इसलिए इसका नाम महाबंध रखा गया।

षट्खण्डागम के टीकाकार

विक्रम की 9 वीं शताब्दी और शक संवत् की 8 वी शताब्दी में आचार्य वीरसेन जैनदर्शन के दिग्गज विद्वान आचार्य थे। षटखण्डागम ग्रन्थ की रचना के आठ सौ वर्ष बाद आप ही एक ऐसे अद्वितीय आचार्य हुए हैं कि षटखण्डामग पर धवला नामक टीका लिखकर एक अद्वितीय कार्य किया। यह टीका बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण है तथा सेकडों वर्षों से मूड बिद्री में ताड पत्रों पर लिखी हुई सुरक्षित है। कषय प्राभृत के रचयिता गुणधर स्वामी हैं। यतिवृषभस्वामी ने चूर्णिसूत्रों द्वारा उसे स्पष्ट किया है। आचार्य वीरसेन के गुरू का नाम एलाचार्य था। उनके पास ही उन्होंने सिद्धांत ग्रन्थों का अध्ययन किया था। कषाय पाहुड की जयधवला टीका लिखने के पश्चात वे स्वर्गस्थ हो गए, तब उनके अनन्यतम शिष्य जिनसेन ने 40 हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर एक अनुपम उदाहरण जगत के समक्ष रखा। अपने गुरू वीरसेनाचार्य की महिमा बतलाते हुए जिनसेन स्वामी ने कहा कि षट्खण्डागम में अनकी वाणी अस्खलित रूप से प्रवर्तती थी। उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञान को देखकर किसी भी बुद्धिमान् को सर्वज्ञ की सत्ता में शंका नहीं रही थी। वीरसेन स्वामी की धवलाटीका ने षट्खण्डागम सूत्रों को चमका दिया। जिनसेन ने उन्हें कवियों का चक्रवर्ती तथा अपने आपके द्वारा परलोक का विजेता कहा है।

नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार भगवान महावीर की 29 वी पीढी में अर्हदबलि मुनिराज हुए। तीसवीं पीढी में माघनंदी मुनिराज हुए। माघनंदी स्वामी के दो शिष्य थे 1-जिनसेन 2-धरसेन। जिनसेन स्वामी के शिष्य श्री कुन्कुन्दाचार्य और धरसेन स्वामी के शिष्य श्री पुष्पदन्त और भूतबलि थे। इस हिसाब से धरसेन स्वामी तीर्थकर वर्द्धमान की 31 वी पीढी में हुए और कुन्दकुन्द स्वामी तथा पुष्पदंत, भूतबलि आचार्य 32 वीं पीढी में हुए, इसलिए धरसेन स्वामी आचार्य कुन्दकुन्द के काकागुरू होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द तथा पुष्पदंत एवं भूतबलि आचार्य गुरूभ्लाई होते हैं। षटखण्डागम सूत्र पर जो अनेकों टीकायें रची गई हैं, उनमें सबसे पहली टीका परिकर्म है।

उस परिकर्म की रचना कौण्डकौण्डपुर में श्री पद्नन्दि मुनि (आचार्य कुन्दकुन्द) ने की थी। षटखण्डागम के छह खण्डों में से प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नामक बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका में वीरसेन स्वामी ने अपने कथन की पुष्टि के लिए कितने ही स्थानों पर परिकर्म के कथन का उल्लेख किया है। षटखण्डागम में छह खण्ड हैं, उनमें छठे खण्ड का नाम महाबंध है, इसकी टीका खूब विस्तृत है और वही महाधवल के रूप में प्रसिद्ध है। इस महाबंध की भी ताडपत्र पर लिखी हुई प्रति मूडबिद्री के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है।

षट्खण्डागम और कषयप्राभृत दोनों सिद्धांतग्रन्थों पर अनेकों टीकायें रची गयी हैं, जिनमें षट्खण्डागम की धवला टीका, कषाय प्राभृत के चूर्णिसूत्र एवं जयधवला टीका तथा महाबंध पर महाधवला नामक टीका उपलब्ध है, अन्य टीकायें उपलब्ध नहीं है। इन टीकाओं का विवरण निम्नलिखित है-

टीका के नाम आचार्य श्लोक प्रमाण श्ताब्दी , परिकर्म आचार्य कुन्दकुन्द 12000 द्वितीय शताब्दी

पद्धति आचार्य शामकुण्ड 12000 तृतीय शताब्दी , चूडामणि आचार्य तुम्बुलुराचार्य 91000 चैथी शताब्दी

----- आचार्य तार्किक 48005 पंचम शताब्दी

समंतभद्राचार्य

व्याख्याप्रज्ञप्ति आचार्य वप्पदेव गुरू 8000 षष्ठ शताब्दी

धवला आचार्य वीरसेन 72000 आठवी शताब्दी

महाधवला आचार्य श्रीजिनसेन नवमी शताब्दी

निष्कर्ष

अपर्युक्त विवरण से ज्ञान होता है कि आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने षटखण्डागम ग्रन्थ की रचना कर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चतुविध संघ के सथ उसकी पूजा की थी, जिससे श्रुतपंचमी तिथि दिगम्बर जैनों में प्रख्यात हो गई। ज्ञान की आराधना का यह महान पर्व हमें वीतरागी संतों की वाणी की आराधना और प्रभावना का संदेश देता है। इस दिन धवल, महाववलादि ग्रन्थें को विराजमान कर महामहोत्सव के साथ उनकी पूजा करना चाहिए। श्रुतपूजा के साथ सिद्धभक्ति और शांतिभक्ति का भी इस दिन पाठ करना चाहिए। विशेष विधान करना हो तो निम्न मंत्र की 108 आहुतियां देनी चाहिए। ‘‘ऊँ अर्हन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयंकरि श्रुतज्ञानज्वालासहस्त्र प्रज्वलिते सरस्वति अस्माकं पापं हन हनद ह दह कां की कूं कौं कः क्षीरवरधवले अमृतसम्भवे वं व हूं हूं फट् स्वाहा।’’