।। वीर शासन जयन्ती पर्व ।।

प्रथम ही उन्होंने सार्थक नाम को धारण करने वाले सामायिक प्रकीर्णक का वर्णन किया तदनन्तर चतुर्विशति, स्तंवन, पवित्र वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक तथा जिसमें प्रायः प्रायश्चित्त का वर्णन है ऐसी विषद्यका, इन चैदह प्रकीर्णकों का वर्णन किया। इसके बाद भगवान ने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पांच ज्ञानों का स्वरूप, विषय, फल तथा संख्या बतलाई और साथ ही यह बतलाया कि उक्त पांच ज्ञानों में प्रारम्भ के दो ज्ञान परोक्ष और अन्य तीन ज्ञारन प्रत्यक्ष है। तदनन्तर चैदह मार्गणा स्थान, चैदह गुणस्थान और चैदह जीवसमसा के द्वारा जीवद्रव्य का उपदेश किया। तत्पश्चात सत्, संख्या क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव और अल्पबहुत्व, इन आठ अनुयोगद्वारों से तथा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों से द्रव्य का निरूपण किया।

उन्होंने यह भी बतलाया कि पुद्गल आदिक द्रव्य अपने अपने लक्षणों से भिन्न-भिन्न है और सामान्य रूप से सभी उत्पाद व्यय तथा ध्रौवरूप त्रिलक्षण से युक्त हैं। शुभ अशुभ के भेद से कर्म बंध के दो भेद बतलाए, उनके प्रथक-पृथक कारण समझाये, शुभबंध सुंख देने वाला है और अशुभबंध दुःख देने वाला है, यह बतलाया। मोक्ष का स्वरूप, मोक्ष का कारण और अनन्तज्ञान आदि आठ गुणों का प्रकट हो जाना मोक्ष का फल है, यह समझाया तथा लोक और अलोक के लक्षण बतलाए। उपदेश श्रवण के अनन्तर सात ऋद्धियों से सम्पन्न गौतम गणधर ने जिनभाषित पदार्थ का श्रवण कर उपांग सहित द्वादशांग रूप श्रुतस्कन्ध की रचना की1।

भगवान् महावीर की वाणी वीतरागता से ओतप्रोत थी। संसारी जीवों की वचन वर्गणाये ंतो तालु, दन्त, ओष्ठ, मूर्धा, कण्ठ आदि से निकलती हैं, जो भाषा का माध्यम प्राप्त कर एक दूसरे को समझ में आती हैं, किंतु भगवान महावीर की वाणी ऐसी नहीं थी वह दंत, तालु, कण्ठ इत्यादि से न निकलकर सर्वांग उत्तमप्रदेशों से निकलती थी और वह भी निरक्षरी थी, केवल ओंकारमय थी। सभी प्राणी उसे अपनी अपनी भाषा में समझ लेते थे। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है-

अनात्मकार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम्।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते? 8।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार)

शास्ता अर्थात् धर्मोपदेश करने वाले अरहन्त भगवान अनात्मार्थ।

अर्थात अपनी खाति, लाभ पूजादिक प्रयोजन के बिना तथा शिष्यों के प्रति रागभाव के बिना सज्जनों को हितरूप शिक्षा देते हैं। जैसे मृदंग किंचित अपेक्षा नहीं करता है तात्पर्य यह कि संसारी जन जितना कार्य करते हैं उसमें उन्हें लोभ, प्रशंसा, यश आदि की अपेक्षा रहती है। भगवान अरहंत प्रयोजन के बिना ही जगत के जीवों को हितोपदेश देते हैं। जैसे मेघ प्रयोजन के बिना ही लोगों के पुण्योदय के निमित्त से विभिन्न स्थानों में गमन करता हुआ प्रचुर जल की वर्षा करता है जैसे ही भगवान आप्त भी लोगों के पुण्य के निमित्त से पुण्यदेशों में वहारकर धर्मामृत की वर्षा करते हैं क्योंकि सत्पुरूषों की चेष्टा परोपकार के 1. जिनसेनः हरिवंशपुराण 2/90-111 लिए हुआ करती है। जैसे कल्पवृक्ष तथा आम्रादि वृक्ष परोपकार के लिए ही फलते हैं। पर्वत प्रचुर सुवर्णादि सम्पदा को इच्छा के बिना ही जगत के लिए धारण करता है। समुद्र रत्नों को तथा गाय दूध को दूसरे के लिए धारण करती हैं। एवं दाता परोपकार के लिए धन को धारण करते है। संसार में जितने परोपकारी पदार्थ हैं वे इच्छा बिना ही लोगों के पुण्य के प्रभाव से प्रकट होते हैं। इसी प्रकार भगवान आप्त ने इच्छा के बिना ही लोगों के परोपकार के लिए धर्मरूप हितोपदेश किया। इसीलिए आचार्य समन्भद्र ने भगवान के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ कहा है-

सर्वान्तवत्तद् गुणमुख्य कल्पं
सर्वोन्शून्यं च मिथोनपेक्षम्।
सर्वापदामन्तकरं निरंतं
सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव।। युक्त्यनुशासन - 61

अर्थात आपका तीर्थ - शासन सर्वान्तवान है और गौण तथा मुख्य की कल्पना को साथ में लिए हुए है। जो शासन वाक्य धर्मों में पारस्परिक अपेक्षा का प्रतिपादन नहीं करता वह सर्व धर्मों से शून्य है अतः आपका ही यह शासन तीर्थ सर्व दुखों का अंत करने वाला है - यही निरंतर है और यही सब प्राणियों के अभ्युदय का कारण तथा आत्मा के पूर्ण अभ्युदय का साधक सर्वोदयतीर्थ है। भावार्थ यह कि आपको शासन अनेकांत के प्रभाव से सकल दुर्नयों (परस्पर निरपेक्ष नयों) अथवा मिथ्यादर्शनों का अंत करनें वाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवाद रूप मिथ्यादर्शन ही संसार में अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओं के कारण होते हैं, इसलिए इन दुर्नय रूप मिथ्यादर्शनों का अंत करने वाला होने से आपका शासन समस्त आपदाओं का अंत करने वाला है अर्थात जो लोग आपके शासन तीर्थ का आश्रय लेते हैं, उसे पूर्णतय अपनाते हैं, - उनके मिथ्या दर्शनादि दूर होकर समस्त दुख मिट जाते हैं, और वे अपना पूर्ण अभ्युदय, उत्कर्ष एवं विकास - सिद्ध करने में समर्थ हो जाते हैं1।

1. पं. जुगलकिशार जी कृत युक्त्यनुशासन का भावार्थ पृ. 85

प्रतिवर्ष वीर शासन जयन्ती को मनाते समय भगवान महावीर सर्वोदय तीर्थ की भावना को हृदय में अंकित कर उनकी वाणी का घर-घर में प्रचार और प्रसार करने का सतत यत्न करना प्रत्येक सत्पुरूष का कर्तव्य है, क्योंकि भगवान के इष्ट शासन से यथेष्ट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि वाला होकर मात्सर्य के त्याग पूर्वक युक्तिसंगत समाधान की दृष्टि से उनके इष्ट शासन का अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानश्रृंग खण्डित हो जाता है, सर्वथा एकान्त रूप मिथ्यामत का आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र होने पर भी सब ओर से भद्र बन जाता है-

कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः
त्वयि ध्रुवं खण्डित मानश्रृंग
भवत्यभद्रोपिसमन्तभद्रः।।
युक्त्यनुशासन 62