।। कर्म फल देते हैं क्या? ।।

करिष्यामि करिष्यामि करिष्यामि चिन्तया।
मरिष्यामि मरिष्यामि मरिष्यामि विस्मृतम्।ं

किसी नीतिकार ने कहा कि ‘करूंगा-करूंगा’ इस प्रकार ऊहापोह करते-करते दीर्घसूत्री मनुष्य भूल जाता है कि कभी मरना भी पड़ेगा। अतः निकला हुआ श्वास फिर लौटे य नहीं लौटे, यह मानकर अपने को निश्चयबुद्धि से कार्य-संलग्न करने वाला ही जीवन-संग्राम में विजयी होता है। क्योंकि -

न कश्यित् कस्य जानाति कि कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान।।

नीतिकार कहते हैं कि जिस कार्य को तुम कल करना चाहते हो उसे आज ही कर लो क्योंकि बीच समुद्र में चलती हुई नौका का भरोसा नहीं और न जाने इस श्वास का आना हो या न हो। अतः हितोपदेश में कहा है-

अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत।।

जब किसी को पढ़ना हो या धन कमाना हो तो ‘मैं अजर अमर हूं’’ इस भावना से कार्य में प्रवृत्त हो, किंतु जब धर्म का आचरण करना हो तो सोचे कि मृत्यु मेरे केशों को पकड़ कर खड़ी हुई है। अर्थात ‘शुभस्य शीघ्रम्’ - धर्म के विचार उठें तो तुरंत उन्हें कार्यान्वित करें।

दुःखों का सामना

अनादिकाल से संसार में आकार हमने सब कुछ किया, परंतु अपने कर्तव्य का पालन (धर्माचरण) नहीं किया। इसलिये अभी तक चारों गति, चैरासी लाख योनि में अनेक प्रकार के दुःख उपार्जन करते रहे हैं।

जब हमें निगोद में रहना पड़ा तो वहां एक श्वास के अन्दर अष्टादश तक जन्म-मरण करने पड़े। किसी समय अगर निगोद से निकलना हुआ तो एकेन्द्रिय के शरीर में घोर दुख सहने पड़े। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और सैनी-असैनी पंचेन्द्रियों के शरीर में रहकर हजारों वर्ष व्यतीत किए। अनन्त दुख उठाने पड़े। नरकों की भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मारन-ताडन का कौन वर्णन करने में समर्थ है? अर्थात कोई नहीं। कीाी देवगति किसी पुण्योदय से मिली तो वहां भी दुखित जीवन ही व्यतीत किया।

किसी शुभ कर्म के फल से कभी मनुष्य गति की प्राप्ति की तो शरीर रोगी, अंगहीन, धनहीन, कुटुम्बहीन आदि अवस्था प्राप्त की,उसमें भी सुख का लेश न देखा। अब यह मनुष्य जन्म न जाने कितने विशाल पुण्योदय से प्राप्त हुआ। अगर इसे पाकर नहीं किया चलना शुरू मुक्ति-पथ की ओर, तो वही घोर दुखों का सामना फिर से करना होगा, तीन कोटि पूर्व अधिक दो हजार सामगर के बाद वहीं जाना होगा जहां पर श्वास के उठारहवें भाग में जन्म-मरण होता है। इन दुखों से अगर अपना बचाव करना चाहते हैं, तो मोड़ लें पर की ओर से अपने को अपनी ओर, शुरू कर दें चलना- मुक्ति-पथ की ओर। इस नर जन्म को पाकर भी अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया तो यह नर भव पाया न पाया समान ही है। अतः जैसे बने तैसे हमें सम्यदग्र्शन अवश्य ही प्राप्त करना है और यथायोग्य अपने दैनिक आवश्यक कार्यों को भी करना है। सम्यग्दर्शन का स्वरूप आगे बताया जायेगा।

दुख से जो बचना चहै, ज्ञान-चक्षु ले खोल।
करनी सम्यक् साथ कर, मन अन्दर से बोल।।3।।

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