।। श्रावक के मूलगुण ।।

मूल गुण का अर्थ है - प्रधान गुण या बीजभूत गुण। मूल का अर्थ होता है उसी प्रकार जड़। जिस प्रकार जड़ के बिना वृक्षा की वृद्धि, स्थिति, फलोत्पत्ति असम्भव है उसी प्रकार मूल गुणों के बिना श्रावक की स्थिति, वृद्धि, सार्थकता (फलोत्पत्ति) असम्भव है अर्थात् मूल गुणों के अभाव में श्रावक श्रावक नहीं हो सकता। श्रावक पद के लिए अनिवार्यभूत गुणों को मूलगुण कहते हैं। श्रावक के मूलगुण आचार्यों ने इस प्रकार से कहे हैं:-

प्रथम-

5 प्रकार के उदम्बर फल 8बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर बराबर अंजीर) और 3 मकार (मद्य, मांस, मधु) का त्याग।

दूसरी प्रकार -

पांचों पापों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) का स्थूल त्याग अर्थात् पांच अणुवतों (अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचैर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रह परिमाणाणुव्रत) का पालन करना और 3 मकार का त्याग करना।

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तीसरी प्रकार -

1. मद्य त्याग,

2. मांस त्याग,

3. मधु त्याग,

4. 5 प्रकार के उदम्बर फल का त्याग,

5. नित्य देव दर्शन करना,

6. रात्रि भोजन का त्याग,

7. छना हुआ जल ही प्रयोग करना,

8. जीवों पर दया करना।

1 मद्य का त्याग -

शराब का त्याग। सड़े-गले पदार्थों (महुआ, अनाज, फल-फूलों या अन्य पदार्थों को सड़ाकर जिसमें अनन्त जीव राशि पैदा हो जाती हैं ऐसे पदार्थों) से निर्मित जिसमें असंख्यात जीवों के कलेवरों का रस है ऐसी अपवित्र, मादक धर्म, विवेक, यश, पवित्रता, धन, शरीर, प्रतिष्ठ आदि को नष्ट करने वाली अनंत दुःखों की हेतु, नरकादि दुर्गति की कारण भूत सभी प्रकार की (इंगलिश, देशी, दारू, बीयर, रम इत्यादि) शराबों का तथा ऐसी औषधियों का जिनमें मद्य का अंश भी हो, जीव पर्यंत त्याग करना मद्य त्याग नामक मूल गुण है।

2 मांस का त्याग -

दो इन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक औदारिक शरीर धारी सभी जीवों के मृत कलेवर को मांस की संज्ञा है। अत्यंन्त घृणित पाप का पुंज, नरकादि दुःखों का कारण भूत मांस सज्जनों को दूर से ही छोड़ देना चाहिए। अण्डा भी मांस कहलाता है। इसके सेवन करने वालों में उपदेश सुनने की भी पात्रता नहीं है। मांस एव अण्डा के त्याग के साथ ही सुधी श्रावक को उन पदार्थों का भी त्याग कर देना चाहिए, जिस में त्रस जीवों की उत्पत्ति हो चुकी हो जो पदार्थं मर्यादा के बाहर हैं जैसे-24 घंटे से अधिक समय वाला अचार 48 मिनट से अधिक समय वाला नवनीत, घुना हुआ अनाज, सड़ी गली सब्जी व फल, रात्रि भोजन इत्यादि पदार्थों का त्यग करना भी अनिवार्य है। सुधी श्रावक को मांस खाना तो दूर रहा वे मांसाहारी व्यक्तियों की संगति भी न करें, मांसाहारी की पाप पूर्ण क्रियाओं की कभी अनुमोदना न करें। सुधी श्राविकाओं को निर्दोष मांस त्याग व्रत का पालन करने के लिए खून से मिश्रित लिपिस्टिक, नेलपाॅसि, चर्बी युक्त क्रीमों व साबुन का भी त्याग कर देना चाहिए अन्यथा मांस खाने के बारबर दोष लगता है। अज्ञानता वश हुए कार्य से कम पाप बंध एवं जान बूझ कर किये निंद्य कार्य से तीव्र पाप बंध होता है। अतः मांस का त्याग श्रावक का दूसरा अनिवार्य मूल गुण है।

3 मधु का त्याग -

मधु शहद को कहते हैं। शहद मधु मक्ख्यिों द्वारा पुष्पों के पराग से निर्मित होता है किन्तु जिस छत्ते में वे पराग से निर्मित होता है किन्तु जिस छत्ते में वे पराग इकट्ठा करती हैं वही वे अपना मलोत्सर्ग करती हैं उसी में असंख्यात मधु मक्ख्यिों का जन्म होता रहता है। भल लोग आग जलाकर छत्ता तोड़ कर (छत्ते को निचोड़ कर) मधु ले आते है। जिसमें असंख्यात जीवों को निचोड़ दिया जाता है। ऐसा घृणित शहद सुधी जनों को दूर से ही त्याज्य है। शहद की 1 बूंद के सेवन से 7 से 12 गांवों को जलाने के बराबर पाप लगता है। अतः मधु का त्याग प्रत्येक श्रावक के लिए अनिवार्य है।

4 उदम्बर फलों का त्याग -

5 प्रकार के उदम्बर फलों (बड़, पीपल, ऊमर, कठुमर, पाकर बराबर अंजीर) का त्याग जीवन पर्यन्त करना क्यों कि इन फलों में असंख्यात त्रस जीवों का समूह विद्यमान रहता है जब इन फलों को कोई तोडत्रता है तो उसमें अनेकों छोटे-छोटे जीव उड़ते से दिखायी देते हैं। विवेकी जन भूलकर भी असंख्यात जीवों के घात का पाप उदम्बर फल खाकर नहीं करते। यदि आप उदम्बर फलों को नहीं जानते हों तो आपको कभी अनजान फलों का सेवन नहीं करना चाहिए। अनजान फलों का भी सुधी श्रावक सेवन नहीं करते।

5 नित्य देव दर्शन करना -

वीतरागी, सर्वत्र, हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान के श्रद्धा, समर्पण व भक्ति के दर्शन करना देव दर्शन है। जिन दर्शन ही निज दर्शन का कारण है। उन्हें देख कर हमें भी अपने स्वरूप को पाने की भावना जाग्रत होती है। जिन बिम्ब रूपी दर्पण में हमें अपने पाप भी दृष्टिगोचर होते हैं जिससे हम पापों से मुक्त भी हो सकते हैं। जिन मूर्ति को देखकर साक्षात् जिनेन्द्र भगवान के दर्शन (पूजा भक्ति) समस्त पापों को नष्ट करने वाले, सातिशय पुण्य बंध के हेतु दुःखों को नाश करने वाले एवं सुखों के सृजन हार होते हैं। सुधी श्रावक को नित्य ही देव दर्शन करना चाहिए।

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6 रात्रि भोजन का त्याग -

सूर्योदय होने से 2 या 1 घड़ी के बाद तथा सूर्यास्त के 2 या 1 घड़ी पूर्व ही श्रावक को अपना भोजन करना चाहिए रात्रि में भोजन करना मांस खाने के बराबर हैएवं रात्रि में पाीन पीना रक्तपानवत् दोषप्रद है। ऐसा कथन अनेकों जैनेत्तर ग्रन्थों में भी आया है। जैन ग्रन्थों में रात्रि भाोजन का सर्वथा निषेध ही यिका है। रात्रि में बना भोजन भी नहीं करना चाहिए। दिन में बना भोजन दिन में ही करना चाहिए। जो लोग रात्रि में भोजन बनाकर दिन में भी करते हैं तब भी उन्हें रात्रि भोजन के बराबर ही पाप लगता है। अतः सुधी श्रावकों को चारों (खाद्य, स्वाद्य, लेह्वय, पेय) प्रकार का भोजन रात्रि में निषिद्ध है।

1. खद्य - जिसे खाया जाए तथा जो उदर पूर्ति का मूल तत्व है वह खाद्य भोजन है। जैसे - दाल, रोटी, चावल, लड्डू, बर्फी, फल मेवा इत्यादि।

2. स्वाद्य - स्वाद्य भोजन वह है जिसको स्वाद के लिए खाया जाता है। जैसे सौंफ, इलायची, लौंग, सुपारी इत्यादि।

3. लेह्यय - चाटकर सेवन किये जाने वाले पदार्थ लेह्यय पदार्थ कहलाता हैं। जैसे - रबड़ी, हलुवा आदि।

4. पेय - पीने योग्य पदार्थ पेय कहलाते हैं। जैसे - पानी, दूध, फलों का रस, छाछ इत्यादि

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