।। षष्ठ आवश्यक कर्म: दान ।।

द्रव्य कैसा हो?
जैसा हो आहार जल, वैसा ही हो ध्यान।
जैसा होता बीज है, वैसा ही फल जान।।99।।

साधुओं को चोरी और अनीति से कमाये हुए धन का दान दिया जायेगा तो क्या वह अपना आत्म-कल्याण कर सकते हैं? सही मार्गदर्शन दे सकते हैं? कभी नहीं। आजकल सुनने में आता है कि साधुओं में झगड़े होते हैं। क्या कभी यह भी विचार यिका है कि इसका कारण क्या है? अगर पुण्य की प्राप्ति के लिए तथा पात्र के कल्याण के लिए दान देना है तो कम-से-कम क्यों न दें परंतु सही द्रव्य का ही दान दें। अगर पात्र को भ्रष्ट करने के लिएये या नाम कमाने केलिए ही दान देना है तो चाहे जैसा दें। पर मात्र नाम के लिए दिया हुआ दान फलदायी अर्थात पुण्य का कारण नहीं होगा और जरा सा भी भावों के साथ दिया हुआ दान अपूर्व पुण्य का कारण होता है। इसी के सम्बंध में एक छोटा-सा दृष्टांत यहां बताया जा रहा है।

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दृष्टांत

काफी समय पूर्व की बात है। हस्तिनापुर नगर में एक धनपाल सेठजी थे। उनके पूर्व पुण्य के कारण अटूट सम्पदा थी परंतु न जाने किस पाप कर्म के उदय से लड़का एक ही था, वह भी पागर जैसा। सेठजी को दानवीर की पदवी मिली हुई थी, क्योंकि दूसरा सेठ एक हजार का दान करता तो वह स्वाभाविक दो हाजर का करते। कोई एक लाख मुद्रा, खर्च करके मंदिर या धर्मशाला का निर्माण कराये तो वह दूना द्रव्य खर्च कर बनावाते ।

घर में पैसा होने के कारण सेठजी के पुत्र धर्मपाल का विवाह भी अच्दे घर में हो गया। कुछ दिन के पश्चात् सेठजी तो स्वर्गस्थ हो गये ओर धर्मपाल को कुछ ज्ञान नहीं था, इसलिये उसने सेठजी के एकत्रित किये हुए समस्त धन को समाप्त कर दिया यहां तक कि घर में एक पैसा ीाी नहीं रहा। एक दिन उस लड़के की धर्मपत्नी ने कहा अपने पति से कि आपने सब पैसा बर्बाद करदिय, अब खाने ाके घर में कुछ भी नहीं है। अब आप ऐसा करो - मेरे पीहर चले जाओं। वहां का जो राजा है वह पुण्य की गिरवी रखकर पैसा देता है। आपके पिताजी ने अनेक प्रकार के दान दे-देकर अपूर्व पुण्य को प्राप्त किया है। उसमें से कुछ गिरवी रख आना और पैसा ले आना। धर्मपाल भोलाभाला था।इसलिए पत्नी के कहने के अनुसार चल दिया। रास्ते में खाने के लिए कुछ दाल-चावल ले गया। कुछ दूर वन में जाकर देखता है तो भीड़ लगी हुई है। समीप में गया, तो देखा एक महा मुनिराज विराजे हुए हैं और श्रावकों को दान के फल का उपदेश दे रहे हैं। उसने उपदेश सुनकर जो पास में खिचड़ी थी वह समीप में बनते हुए एक चैके में दे दी। उस श्राविका ने भी दान-चावलों की खिचड़ी बना ली और धर्मपाल से भी कहा कि आप भी स्नान कर लीजिये ओर मुनिराज को आहर देने के लिए आ जाइये उसने ऐसा ही किया। मुनिराज भी कर्मयोग से उसके पास आकर ही खड़े हो गय। उन सबने नवधा भक्तिपूर्वक मुनिराज को पड़गाहकर आहार दिया। आहार देते समय धर्मपाल को जो आनन्द आ रहा था; वह अकथनीय है। मुनिराज के आहार के बाद श्रावकों ने धर्मपाल को भोजन करने के लिए कहा। उसने मना भी किया परंतु उन्होंने कहा हमारा मुख्य कर्तव्य है कि आपको घर से भोजन किये बिना नहीं जाने दें।उसे मजबूरी वश भोजन करना पड़ा। मन में विचार करता हुआ आगे बए़ा और सोचने लगा कि आज का दिन तो अच्छा ही है जिसमें मैंने मुनिराज को आहार दे दिया। परंतु मुझे कुछ फल नहीं मिल सकता, क्योंकि मेरी जरा सी ािचड़ी थी, उससे अधिक मैं खा आया।

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कुछ समय में वह राज दरबार में पहुंचा और कहने लगा कि मैं कुछ पुण्य गिरवी रखने आया हूं। मन्त्री जी ने कहा - अच्छा लाओ लिखकर दे दो। धर्म कांटे पर आपके पुण्य को तौलकर पैसा दे दिया जायेगा। उसने ऐसा ही किया। अपने पिताजी के द्वारा दिये गये दान में से कुछ का नाम लिखकर धर्मकांटे पर रखा, तो धर्मकांटे का पलडद्या झुका भी नहीं। इस पर मंी ने कहा कि यह दान तो मात्र नाम के लिए दिया है। इसका फल कुछ भी नहीं है। धर्मपाल ने उत्तेजना में आकर पिताजी के किये हुए समस्त दान को लिखकर धर्मकांटे पर चढ़ा दिया, रंतु फिर भी कांटा झुका नहीं। मंत्री ने कहा कि यह भी दान मात्र नाम के लिए ही दिया गा है, पिताजी का दिया हुआ दान तुम्हारे काम नहीं आ सकता तुमने जो कुछपुण्य किया हो उसे और आजमा लो। धर्मपाल ने कहा कि मैंने तो जीवन में धर्म जैसा कोई काम ही नहीं किया। आज मुनिराज को आहार जरूर दिया। परंतु उसमें तो पुण्य होने का सवाल ही पैदा नहीं होता; क्योंकि जितनामेरा अन्न था उसस ेअधिक में जीम आया। मन्त्री ने कहा फिर भी उसे आजमा लीजिये, आहारदान का फल अटूट होता है। उसने लिखकर धर्मकांटे पर रखा तो मन्त्री कहने लगा कि जितना तुम्हारा यह पुण्य है उतना पैसा तो हमारे खजाने में भी नहीं है परंतु तुम्हें जितना चाहिये उतना ले जाओ। उसने विचार किया कि जब मेरे पल्ले इतना पुण्य है तो लक्ष्मी अपने आप आयेगी, मैं यहां से क्यों लूं? ऐसा विचार कर चल दिया अपने नगर की ओर। घर पहहुंचने से पूर्व ही उसके मकान की एक दीवार टूटकर गिर पड़ी जिसमें अटूट सम्मत्ति थी उसे पाकर वह बड़ा खुशर हुआ। यह सब आहार-दान का प्रभाव है; ऐसा विचार करने लगा।

यह था भावना का फल। सेठजी ने करोड़ों रूपये दान में लगा दिये, परंतु फल कुछ भी नहीं। धर्मपाल ने जरा-सी खिचड़ी का आहार देकर ही उस पुण्य को प्राप्त कर लिया जिसके सामने राजसम्पदा भी कुछ नहीं अतः मुमक्षुजनों को चायिे कि ख्याति-लाभ की लालसा को त्यागकर दान दें।

दान की महिमा अपरम्पार है। जो दान किसी कारणवश न दे सकें तो कारित और अनुमोदना अवश्य करें। आचार्योग्ं ने शास्त्रों में यहां तक लिख दिया है कि जिस घर में से सुपात्र को दान नहीं दिय जात है वह घर, घर नहीं शमशन के समान है, उसका मालिक मुर्दे के समान है, और परिवार के सदस्य काक, चील के समान हैं, जो दिन-प्रतिदिन उस शव को चोंच मारकर चूंटते रहते हैं।

भारत में सर्वप्रथम सम्राट-चक्रवर्ती महाराज हुए हैं। वे अपने श्रावक धर्म का पूर्णतया पालन करते थे। षट्आवश्यक कर्मों में यह दान भी आवश्यक कर्म है। महाराज भरत भी प्रतिदिन पात्र को दान देकर ही भोजन करते थे। उन्होंने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना ही इसलिए की थी, कि मुनिराज तो नगर में आहार लेने के लिए रोज आते नहीं हैं और पात्र को आहार देना जरूरी है।

निष्कर्ष

इस मनुष्य जन्म की प्राप्ति हमें किसी महान् पुण्य के कारण हुई है। इसमें आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल, निरोगी काय, सत् पुरूषों की संगति, यह सब उत्तमनिमित्त मिलने पर भी जो दान, पूजादि उत्तम आचरा नहीं करता है। उसे आचार्यों ने पशु समान माना है इसलिये श्रावक को दानादि शुभ कर्म अवश्य करना चाहिये।

दान धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
दान करो निश-दिन सभी, त्याग नाम और मान।।100।।

श्रवक के इस भव व परभव में सुखदायी षटवश्यक कर्मों का संक्षेप में कथन किया। यह आवश्यक कर्म इसलिए कहे जाते हैं कि इसका पालन करने से ही मनुष्य को श्रावककहा जाता है। जिस प्रकार मकान की छत पर चढ़ने के लिए प्रथम सीढ़ी पर पैर रखना आवश्यक होता है, ठीक उसी प्रकारमोक्ष-महल पर चढ़ने के लिए प्रथम सीढत्री है - षट् आवश्यक कर्म। जो श्रावक षट् आवश्यक कर्मों का पालन नहीं करता है वह श्रावकपने को प्राप्त नहीं हो सकता और जिसे सम्यक्ज्ञान नहीं होगा उसे सम्यक्चारित्र नहीं हो सकता तथा सम्यक्चारित्र के बिना मुथ्कत-पथ की ओर नहीं चल सकते। अतः हम अपने आवष्यक कर्मों को न भूलेंट आवश्यक कर्मों का पालन करना; जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का पालन करना है।

वीर नि. सं. 2501 में मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी (दिनांक 25 दिसम्बर 1974) को जयपुर नगर में दीवान अमरचन्द जी के मन्दिर में क्षु. सन्मतिसागर द्वारा लिखित यह श्रावकों के षट् आवश्यक को संक्षेप से विवेचन करने वाला ‘मुक्ति-पथ की ओर’ नामक कृति का द्वितीय भाग सम्पूर्ण हुआ।

द्वितीय अध्याय पूर्ण हुआ

ऊँ शांति

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