।। द्वितीय आवश्यक कर्म‘गुरू उपास्तिः ।।

मद मदन-कषायारातयो नोपशांता,
न च विषयविरक्तिर्जन्मदुखान्न भीतः।
न तनुसुख विरागो विद्यते यस्य जनतो-
र्भवति जगति दीक्षा तस्य भुक्त्यै न मुक्त्यै।

जिनके अभिमान, काम-क्रोधादि कषाय आदि शत्रु शांत नहीं हुए हैं, जिनकी इन्द्रियजन्य विषय-भोगों से विरक्त नहीं हुई है, जो जन्म-मरणादि के दुख से भयभीत नहीं है, शरीर सम्बंधी सुख से जिन्हें वैराग्य नहीं हुआ है ऐसे प्राणियों की दीक्षा संसार में मात्र उदरपूर्ति के लिए ही है, मुक्ति-प्राप्ति के लिए नहीं। ऐसे अर्थात विषयों में लगे हुए गुरू का तो हमें दूर से ही त्याग कर देना है।

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इन समस्त दोषों से रहित जो सच्चे अनेकान्तवादी है वही गुरू हैं। जैसे दिनकर के रहते हुए अंधकार नहीं रह सकता उसी प्रकार गुरू के रहते हुए देश में अधर्म, अन्याय, अनैतिकता, उत्पीड़न, जघन्याचरण और जघन्य विचार तथा पाप नहीं आ सकते। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के प्रतीक वे महान गुरू देव के कोने-कोने में विहार कर भव्य जीवों को उपदेशामृतपान कराते रहते हैं वही सच्चे गुरू हैं। ऐसे महात्यागी, महाप्रभावी, तपस्वी, कल्याण भवन के मणि-स्तम्भ, मोक्षमार्ग के नेता, परमयोगी गुरूओं की नित्य भक्ति, सेवा, वन्दना, करते रहना। यही कहलाती है गुरू-उपासना।

आज भी सच्चे गुरू हैं क्या?

कुछ लोगों का कहना है कि आजकल सच्चे गुरूओं का अभाव है; पर यह उनका मात्र एक भ्रम है कि आजकल सच्चे गुरू नहीं है। कभी अपने जीवन में सच्चे गुरू की खोज करने वे निकले ही नहीं। अगर निकलते तो मिल जाते कहीं न कहीं सच्चे गुरू, उन्हें। सच्चे गुरू की खोज के लिए अगर हमारी दृष्टि निर्मल है तो खोजते रहें एक दिन पा जायेंगे सद्गुरूदर्शन। अगर हमारी भावना दूषित है, अपवित्र है, गुणों से शून्य है, तो सच्चे गुरू की खोज करना कठिन ही है, क्योंकि लोक में कहावत हैं - ‘‘चोर के लिए सब चोर ही चोर।’’ जब हम स्वयं ही दूषित हैं, अपवित्र हैं, गुण रहित हैं तो दूसरों में भी हमें मात्र दूषण ही नजर आयेंगे, गुण हीन ही प्रतीत होंगे, अशुचिता ही दिखाई देगी।

मेरी मान्यता

आज से कुछ दिन पूर्व तक मेरी स्वतः की यह मान्यता थी कि आजकल सच्चे गुरूओं का अभाव है, क्योंकि मैं लोगों से उनकी त्रुटियां, अनेक गलतियां सुनता रहता था। कानों सुनी बात को ही मानकर मैंने गुरूओं की आरे से मोड़ लिय था अपने को; परंतु मन में कभी-कभी यह भावना जागृत होती थी कि कुछ दिन मुनियों के साथ रहकर अनुभव किया जाय कि यह बात सत्य है क्या? कानों सुनी बात झूठ भी हो सकती है, किसी कारणवश भी सुनाई जा सकती है।

नहीं किया लोगों की बात का विश्वास मैंने और तारीख 6.9.1971 ईस्वी को चल पड़ा गुरू-परीक्षा के लिए, आत्म-कल्याण हेतु। काफी समय पर्यन्त कई जगह जाकर देखा उन परम दिगम्बर मुनियों को जो अठ्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं कुछ समय साथ रहकर उनकी दिनचर्या देखी, उनसे सभी प्रकार की बातचीत की, तो मैं इस निर्णय पर पहुंचा कि यह मानना हमारा बिलकुल गलत है कि आज सच्चे मुनि हैं ही नहीं और यह भी मानना गलत ही होगा कि आजकल जितने साधु के बाने में हैं; वे सच्चे हैं। जो सच्चे हैं उन्हें सच्चे मानकर अपना हितपथ खोजना है और जो सच्चे नहीं हैं, उनकी ओर से अपने आपको मोड़ लेना है। आज भी सच्चे गुरू विद्यमान है।

कालदोष

आचार्यों ने कहा है कि मुनि पंचम काल के अंत समय तक पाये जायेंगे। परंतु कालदोष के कारण संहनन हीन होंगे, इसलिये मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। यहां से तपस्या करके भी उन्हें स्वर्गादि सद्गतियों की प्राप्ति ही होगी और वहां से आकर जो निकट भव्य हैं वे मोक्ष प्राप्त करेंगे।

इसका आशय यह नहीं है कि अपनी मनमानी चर्या करने लग जायें। कोई कहें कि ऐसा नहीं करना चाहिए मुनियों को, तो धड़ाके के साथ बोल उठें कि पंचम काल है। पंचमकाल का अर्थ यह नहीं है कि मनमानी करें, बहीखाते साथ रखें परिग्रह साथ रखें, पैसा एकत्रित करें। यह अवश्य है कि कालदोष के कारण मुनि जंगल में हनीं रह सकते, शक्तिहीन होने के कारण पर्वतों के शिखर पर ग्रीष्म ऋतु में ध्यान नहीं कर सकते। आज के दिगम्बर मुनि ग्राम और शहरों की धर्मशाला और मंदिर में रहकर आज भी घोर तपस्या करते हैं। बाईस परीषहों को सहते हैं, द्वादश प्रकार के तप तपते हैं, तेरह प्रकार के चारित्र का पालन सम्यग्दर्शन-ज्ञान के साथ करते हैं। दो-दो महीनों के उपवास करने वाले तो अभी भी देखे जा रहे हैं। एक मीने का उपवास हमारे गुरूजी ने भी किया है और आचार्य निर्मलसागर जी के परम शिष्य श्री मुनि चारित्रसागर जी ने इस भादवे के पूरे महीने के अंदर एक भी बार पानी नहीं लिया। देखों परम ज्ञानी, परम तपस्वी आचार्य विद्यासागर जी महाराज को जो साक्षात वैराग्यमूर्ति 36 घण्टें 24 घण्टें एकासन से ध्यान-साधन में लीन रहते हैं और भी ऐसे अनेक साधु हैं जो ध्यान, अध्ययन में ही रहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि सच्चे मार्ग दर्शक गुरू जहां-तहां आज भी विचरण कर रहे हैं।

दो सच्ची घटनाएं
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कुछ दिन पूर्व मुरैना में एक मुनिराज आये हुए थे। सांयकाल ही सामायिक करने के लिए मुनिराज शीतकाल में भी खुले मैदान में ईंटों के ऊपर रखी हुई एक पाषाण शिला पर विराजमान थे। श्री मुनिराज जी सामायिक में लीन हो गये। कुछ समय के पश्चात एक कोई भोला श्रावक आया। उसने विचार किया कि मुनि महाराज को सर्दी लगती होगी। उसी समय घर से लाके, एक कोयले की दहकती हुई सिगड़ी उस पटिया के नीचे रख दी जिसके ऊपर मुनिराज ध्यानारूढ़ थे कुछ समय के बाद दहकती हुई सिगड़ी से पटिया लाल सुर्ख हो गयी, परंतु मुनिराज अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए। उसी पत्थर के ऊपर जलते रहे।

इसी प्रकार आरा में एक घटना घटी थी। एक कमरे के अंदर दो मुनिराज सामायिक के लिए विराजमान थे। मौसम सर्दी का था। इसलिए कमरे में कुछ घास भी पड़ा था। न जाने कैसे वहां जलती हुई लालटेन से घास में आग लग गई, मुनिराज ध्यान में लीन थे। अग्नि ने उनके शरीर को जलाना शुरू कर दिया परंतु मुनिराज ध्यान से विचलित न हुए। पास के कमरे में एक क्ष्ुल्लकजी थे, उन्होंने उठते हुए धुयें को देखा और उसी समय आकर देखा तो मुनिराज के शरीर को आग जला रही हैं उठाकर बाहर लायें, परंतु अग्नि मुनि महाराज को डिगा न सकी। अगर वे सच्चे मुनि नहीं होते तो कौन देखता था वहां? अग्नि लगते ही बाहर निकल आते। महान् विद्वान; त्यागी कई हुए हैं और वर्तमान में भी है। हम उनके नजदीक जाकर देखें तो मालूम होगा उनके साधुत्व का। अपने में गुण ग्रहण के भाव आ जाये ंतो मिल सकते हैं सच्चे गुरू आज भी।

चतुथर्् काल जैसे गुरू क्यों नहीं?

आजकल चतुर्थ काल जैसे गुरू क्यों नही देखने में आते, इसका मूल कारण हम ही है। पंचमकाल के प्रारम्भ में ही श्रावक अपने धर्म का पूर्णतया पालन करते थे, तो उस समय मुनि भी अपने चारित्र का पालन पूर्णतया करते थे। आज श्रावकों ने अपना धर्म छोड़ दिया, पथ-भ्रष्ट होते जा रहे हैं उस हालात में गुरूओं की स्थिति क्या पूर्ण सत्य रह सकती हैं? कभी नहीं। आज मुनियों को जो आहार दिया जा रहा है, कभी हमने विचार किया कि कैसे पैसे का आहार दे रहे हैं? कहीं चोरी, अन्याय, बेईमानी से तो कमाया हुआ पैसा नहीं है। अगर हमारा आहार-पानी मुनि के पेट में शुद्ध नहीं जाता तो मुनि शुद्ध होते हुए भी अपने भावों को शुद्ध नहीं रख सकते। किसी ने कहा है कि जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन। ‘‘जैसा पिओ पानी, वैसी बोले बानी।’’ एक मुनिराज को किसी ने चोरी से लाये हुए धान्य का आहार दे दिया था, तो वे उसी के घर से खूंटी पर टंगे हुए स्वर्णहार को ले जंगल में चले गये। जब आहार का असर कम हुआ तब मुनिराज को आकुलता हुई और अपने गुरू से कहा, मैंने तो आज चोरी कर ली। गुरू जी ने उसी समय श्रावक को बुलाकर मालूम किया तो धान्य चोरी का था। इससे यह स्पष्ट हुआ कि पुद्गल का पुद्गल पर और भावों पर असर पड़ता है। इस बात का निर्णय हम स्वतः कर सते हैं कि हमारे भाव व द्रव्य आज कितने पवित्र हैं। जितने भाव और द्रव्य पवित्र होंगे, उतने ही मुनियों के होंगे, क्योंकि जैसा बीज होगा, फल भी वैसा ही प्राप्त होगा।

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