।। द्वितीय आवश्यक कर्म‘गुरू उपास्तिः ।।

गुरू उपासक

करना चाहते है अगर गुरू-उपसना तो अपनी दृष्टि को मोड़ ले गुरूओं की ओर। आज भी सच्चे गुरूओं से भरी पड़ी है भारत भूमि। जिन गुरूओं की कर दोंगे भक्ति शुरू, तो जोे कुछ भी उनमें दोष नजर आते हैं वे भाग जायेंगे। गुरू-भक्ति में लीन हो जायेंगा यह मन, यह तन, तो मिथ्या-भ्रांति भाग उठेगी। हो जायेगा उजाला सम्यग्ज्ञान रूपी दीप का गुरू के आलम्बल से।

जिस प्रकार प्रत्येक दिन अपने शरीर प्रत्येक दिन अपने शरीर की रक्षा करने के लिए, इससे काम लेने के लिए, कुछ भोजन आदि पदार्थों की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार हमें अपनी आत्म जागृति के लिए एक सच्चे मार्गदशर््क ज्ञानी गुरू की आवश्यकता है, क्योंकि जिस प्रकार कुलाल कच्ची मिट्टी का घड़ा बना के तैयार कर देता है उसी प्रकार अज्ञानी-मूर्ख मनुष्य को गुरू ज्ञानी बनाकर मोक्षमार्ग पर लगा देता है; इसलिए हम बताए गये गुरू के सच्चे उपासक जगा लें गुरूभक्ति सच्चे मन से अपने हृदय में, तभी कहलायेंगे सच्चे उपासक।

गुरूभक्त्या वयं सार्द्ध द्वीपद्वितयवर्तिनः।
वन्दामहे त्रिसंड्ख्योन नवकोटिमुनिश्ररान्।।
(कातंत्र)

हम सब गुरू भक्ति में लीन होकर पष्ठम गुण-स्थान से लेकर चतुर्दश गुण-स्थान पर्यन्त तीन कम नवकोटि मुनिराजों को मन, वचन, कर्म से नमस्कार करते हैं।

गुरूभक्ति जग में बड़ी, सब सुख कारण जाण।
पाप नशे गुण अनुभवें, अंतिम पद निर्वाण।।24।।
जीवन कैसा भार बन गया,
लगता है उपहार बन गया।
औरों का आधार बन गया,
कुछ को ये अभिशाप बन गया।
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