।। चतुर्थ आवश्यक कर्म: संयम ।।

जो लीन हैं आत्म-ध्यान में, उनकी चाहे करते रहो भक्ति गा-गा के, बजा-बजा के, चाहे कोई देते रहो गाली, बोलते रहो शब्द, किंतु कर्णेन्द्रिय के पूर्ण विजेता, महात्मा आदर्श गुरू न तो भक्त द्वारा की गयी अनेक प्रकार की भक्ति के ऊपर ही ध्यान देेते हैं और न निंदक के द्वारा अनेक प्रकार की दी गयी गाली पर ही। करूणाभाव से आर्शीवाद देते समय दोनों के प्रति उनकी एक ही दृष्टि रहती है।

इच्छाओं का निरोध होने से हो गया है मन वश में जिनके, पूर्णतया पालन करते हैं प्रणि संयम का, ऐसे महाव्रतों से विभूषित, पंचसमितियों व तीन गुप्तियों का निर्वाह करने वाले पूर्ण संयम गुरूओं की शरण में जाके हमें भी जो उनमें गुण हैं उन्हें अपनाने का उपाय करना चाहिए, संयमी बनने का प्रयत्न करना चाहिए। एकदेश संयम का स्वरूप दिखाते हुए यहां इन्द्रिय संयम को बताया जाता है।

किसी विषय का त्याग?
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अब करना है उपाय क्रम से अपने को संयमी बनाने का। यहां इन्द्रियविषयों को दो भागों में विभाजित किया जाता है, एक तो आवश्यक, और दूसरा अनावश्यक। माना कि आवश्यक इन्द्रिय विषय को नहीं छोड़ा जा सकता, परंतु अनावश्यक को छोड़ने में क्या आपत्ति है अर्थात कुछ भी नहीं; क्योंकि इनके त्याग से हमारे शरीर या गृहस्थी आदि में भी किसी प्रकार की बाधा आने वाली नहीं। अगर मोड़ लें अपने मन को तो अवश्य ही इन्द्रिय विषयों के चक्कर से बचा जा सकता है, जो कि हमारे जीवन में अत्यंत दुखदायी हैं। जिसके कारण् हमंे सदैव व्याकुल रहना पड़ता है, विवेकबुद्धि भी नष्ट हो जाती है, हिताहित का ज्ञान शून्य हो जाता है। अगर कुछ प्रयत्न किया जाय, तो पूर्ण रूप से न सही, परंतु आंशिक रूप से इन्द्रिय-विजय बन जाओगे।

इन्द्रिय विजय किसे कहते हैं?
पंचेन्द्रिय को रोध कर, सोध सही निज भाव।
इन्द्रिय संयम है यही, प्रगटावे निज भाव।।39।।

इन्द्रिय विषय से मात्र वे ही नहीं लेने, जो शरीर के नेत्रादि से दिखते हैं, परंतु है तो हमारे अंतरंग का वही विकारभाव जिसके कारण न जाने क्यों अपने आप इन नेत्रादि इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये अर्थात जाने हुए पदार्थों व विषयों की ओर रूचिपूर्वक झुक जाते हैं। जिसके कारण कि उन-उन पदार्थों व विषयों का उन-उन इन्द्रियों से ग्रहण करते समय हमारे अंदर स्वतः ही कुछ-कुछ आनन्द जैसा आने लगता है और उस प्रकार का भाव आ जाने पर जिसके बार-बार ग्रहण करने की इच्छा उठती रहती है। कहते हैं वही और लाओ, इसी में आनन्द आता है, इस प्रकाार मन व इन्द्रिय की लपटता को कहते हैं विषय-वासना। आवश्यक विषय भी छोड़े जा सकते हैं परंतु इच्छाओं का विरोध होने पर। इच्छा, वांछा, लालसा, रागभावपूर्वक शरीररादि की ओर विशेष रूचि रखना, आनन्द लेना ही कहा जाता है इन्द्रिय-विजय। एक-एक इन्द्रिय के वश होके प्राणी अपने प्राण खो बैठते हैं। हमारी न जाने क्या गति होगी। कहा भी है -

अलि पतंग मृग मीन गज इन्हें एक ही आंच।
तुलसी बाकी कौन गति जाके पीछे पांच।।
स्पर्शनेन्द्रिय संयम
क्यों करि तन में रमि रहे, जला राग की आग।
ये पुद्गल निश्चय गले ममता इससे त्याग।।40।।

सर्वप्रथम यहां स्पर्शनेन्द्रिय के विषय का वर्णन किया जा रहा है। इसके दो विषय हैं। एक तो यवह जिसमें सर्दी-गर्मी का भान करते हुए सुख-दुख का अनुभव करना। दूसरा है कोमल, कठोर, चिकनी व रूखी वस्तुओं को स्पर्श करके अपने को सुखी-दुखी मानना। पहला जो इन्द्रिय-विषय है, हो सकता है अपनी कमजोरी के कारण उसका त्याग न कर सकें। गर्मी के दिनों में हवा आदि के बिना न रहे सकें, सर्दी के दिनों में वस्त्रादि के बिना न रह सकें। परंतु सुन्दर कीमती सिल्क, नायलोन, टेरालीन, फोम, जरी व ऊनी वस्त्र, मखमली गद्दे, सोफासेट आदि वस्तुएं और अनेक प्रकार के वर्तमान जेवर, आभूषण, ऐशोआरामदायक पदार्थ तथा अन्य इसी प्रकार की कोमल व शरीर को सजाने के अभिप्राय से अपनाई गई वस्तुएं और शरीर को मलकर धोने के लिए अनेक प्रकार के साबुन, शरीर चिकना, चमकीला, सुगन्धित बनाने के लिए तेल, इत्र, क्रीम, पाउडर आदि अनावश्यक इन समस्त वस्तुओं का त्याग कर दे ंतो हमारी क्या हानि होगी? कुछ भी नहीं, लाभ अवश्य होगा। दिन-रात पैसा कमाने की राह खोजते रहे हैं, शांति क्षणभर भी नहीं मिलती, धर्म-ध्यान के लिए समय नही । इन सबका मल कारण है ये अनावश्यक लालसायें और उनमें व्यर्थ खर्च।

स्पेर्शनेन्द्रिय-संयम का पालन तो हमारे बुजुर्ग सही रूप से करते थे। उनके पास अनावश्यक खर्च का तो कोई प्रश्न ही नही उठता था। उनके लिये दो धेती, दो कुरते काफी थे। अधिक-से-अधिक तीन, एक कहीं आने-जाने के लिए। माताओं के पास भी दो जोडा से अधिक लहंगे लुंगड़ी नहीं थे। आभूषण उनके पास होते थे सोने-चांदी के परंतु ठोस, जब मन आये बेच लो, पूरी की पूरी रकम तैयार है। तेल-साबुल आदि अनावश्यक खर्चों का तो नाम नहीं था। स्पर्शनेन्द्रिय के किसी विषय में आसक्त नहीं थे। पैसा कमाने की भी अधिक चिनता नहीं थी, एक कमाता, दस खाते परंतु कमी नहीं आती, क्योंकि वह सब संयमी थे।

आज हम लोग तो स्पर्शनेन्द्रिय विषय खोजने में हित मानते हैं। कई जोड़ी पेन्ट, शर्ट, सूट हमारी अटेचियों में भरे पड़े हुए है, फिर भी बाजार में किसी नई डिजायन का कपड़ा आया, बस देर ही क्या है, पैसा नहीं है, तो उधार ही सही, परंतु उसी समय खरीद कर सिलायेंगे। शरीर के सुन्दर दिखाने के लिए सुबह होते ही दाढ़ी बनायेंगे, बूट पालिस करेंगे, तेल-साबुनादि के द्वारा स्नान कर क्रीम, पाउडर, सेन्ट आदि अनेक सजावट कर देखेंगे अपने चेहरे को कि हम कितने सुन्दर हैं।

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आज हमारी माताएं भी स्पर्शनेन्द्रिय को सजाने के ही साधन जुटाने में अपने अमूल्य समय को व्यर्थ खो बैठती हैं। इन्द्रिय संयम के विषय में तो कभी विचार ही नहीं करतीं, अनावश्यक इच्छाओं को जन्म देती रहती हैं। अगर पास में पचास साड़ी है। फिरभी किसी सहेली को नई डिजाइन की साड़ी पहने देख लेंगी तो उसी दिन पतिदेव से पेसे लेकर नई साड़ी खरीदकर लायेंगी अगर पैसा नहीं दिया किसी कारणवश पतिजी ने तो नाराज हो जायेंगी, खाना नहीं बनोंगी। वे आज के दिखावटी जेवर को पसंद करेंगी, चाहे उसमें कांच ही क्यों न हों, उसके बेचने पर आधे ही पैसे क्यों न आयें, सोने के पुराने जेवर से तो नफरत जैसी हो गयी है, अगर वह घर में है भी तो तुडवाकर उसमें नगीने आदि जड़वाकर दिखवटी बनवायेगी। शरीर को सुंदर बनाये रखने के लिए तेल, साबुन, क्रीम, पाउडर आदि से अलमारी भरी पड़ी रहती हैं फिर भी उनकी इच्छा पूरी नहीं होती, बाजार जाने पर कुछ न कुछ लेकर आती हैं। कभी यह नहीं है, कभी वह नहीं हैं, इसी चिंता में अपना समय पूर्ण कर देना ही मात्र कर्तव्य हो गया है।

सभी परिवार की इच्छाओं की पूर्ति करने में हम भूल गये अपना सुख-दुख। चैबीसों घण्टे आर्त-रौद्र ध्यान में ही निकल जाता है, न क्षण भर शांति मिलती हैं न मित्रों से मिलने का समय, न कर सकते हैं प्रेम से अपने बच्चों के साथ बातचीत। लगे रहते हैं चैबीसों घण्टे धन कमाने में। क्या यही है नरभव का सार? हमसे तो वह पशु अच्छा है जो दिन में चारा खाकर रात्रि में आनन्द से जुगाली करता है। हमें तो दिन-रात चैन ही नहीं।

कुछ लोग कहते हैं कि अंतरंग शुद्धि चाहिये, बाहृ दिखावे से होता ही क्या है? जब तक बाहृ शुद्धि नहीं होती तब तक अंतरंग शुद्धि हो ही नहीं सकती और अंतरंग शुद्धि होगी तो बाहृ आवश्यक होगी- जैसे शरीर में ममत्व हटने पर उसके विषयों की इच्छा ही नहीं उत्पन्न होगी तो फिर क्यों कर उन्हें अपनाया जायेगा। जब हम कर देंगे शुरू चलना मुक्तिपथ की ओर समझ लेंगे स्पर्शनोन्द्रिय के संयम का महत्व तो उसी समय आवश्यक व अनावश्यक सभी विषय छूट जायेंगे और अपना लेंगे स्पर्शनेन्द्रिय सम्बंधी संयम को।

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