।। चतुर्थ आवश्यक कर्म: संयम ।।

जीव हिंसा उसे कहते हैं जिन कार्यों के द्वारा हम किसी का दिल दुखाते हैं, उसके मन को किसी प्रकार की ठेस पहुंचाते हैं। अतः यथायोग्य प्राणिसंयम के पालनार्थ उपर्युक्त सभी हिंसादि क्रियाओं का त्याग कर अपने को ले चलें मुक्ति-पथ की ओर।

सम्पूर्ण संयम का पालन तो वही शूर-वीर कर सकते हैं जिन्होंने जीत लिया हैं पांच इन्द्रिय और मन को, अपना लिया है पांच पापों का त्याग करके महाव्रतों को, करते हैं पांचों समितियों कापूर्णतया पालन, हो गई हैं जिनकी तीनों गुप्ति वश में, पालन करते हैं जो षट् आवश्यक कर्मों को, तपते रहते हैं द्वादश तपों को निरंतर कहीं एकान्त निर्जन वन में, समभाव को अपना कर कर दिया है राग द्वेष का त्याग, अपना लिया है दिगम्बरत्व को, परंतु एक देश संयम का पालन तो हम भी बड़ी आसानी से कर सकते हैं, जिसके द्वारा हमारे जीवन के किसी भाग में हानि होना सम्भव नहीं, जिधर देखें उधर ही लाभ दिखाई देता है।

संयम ख्याति के लिए नहीं
ख्याति लाभ को छोड़ के, सहज धरे जो भाव।
सच्चा संयम है वहीं, धरि मत चूके दाव।।54।।

संयमलोकेषणाा, ख्याति-लाभ, अपनी पूजा-सतुति करने के लिए नहीं, वह तो है उस अलौकिक, अक्षय शांति के हेतु, जिसके लिए कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा, चक्रवर्ती इन्द्रादि भी तरसते रहते हैं। संयम का पालन करने पर सुख-शांति नहीं मिलती तो समझ लें कि अभी वास्तव में संयम का पालन किया ही नहीं। संयमी भव्य जीवों के चेहरे पर तो वह तेज दमकने लगता है, शांति झलकने लगती है, जिसका कथन करना किसी साधारण आदमी के हाथ की बात नहीं। जो समस्त जीवों को परिवार मानकर चलता है, उनके प्रति वात्सल्य प्रकट करता है, करूणाभाव से सदा उन्हें देखता है, वह संयमरूपी नौका में बैठ भवसागर से पार उतरता है। उसी समय मुक्ति-कन्या पहना देती है वरमाला उसके गले में।

संयम सहित करो तप ज्ञानी, मिले मुक्ति रानी।
इस दुल्हन की यही सहेली, जानें सब ज्ञानी।।
कर्मों के उदय में विवेक नहीं खोना,
हर किसी के सामने बैठकर नहीं रोना।
धैर्य और धर्म को अपना संबल बनाओ,
आखिर होगा तो वही जो भाग्य में है होना।
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