।। तृतीय आवश्यक कर्म:स्वाध्याय ।।

मात्र शास्त्रों को पढ़ लेना, कानों से सुन लेना, नमस्कार कर लेना ही स्वाध्याय नहीं है। स्वाध्याय तो तब ही कहा जा केगा जबकि शास्त्र को पढत्रकर जो कुछ हित की बात प्राप्त हुई, उसे अपना लिया जाय और जो अहित की हो उसे उसी समय त्याग दिया जाय। यही है शास्त्र पढ़ने का आशय। इसलिए सदगुरूओं के द्वारा रचे हुए शास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना स्वाध्याय कहा जाता है, क्योंकि उनके निमित्त से हमें आत्म गुणों की प्राप्ति होती है।

स्वाध्याय-काल

कुछ लोगों का कहना है कि जब हमारे पास समय हो उसी समय स्वाध्याय करना शुरू कर देना चाहिए, यही उसका समय है। परंतु यह बात ठीक नहीं, क्योंकि खेत में बीचज समय पर डालने से फलदायी होता है, उसी प्रकार समय पर किया हुआ स्वाध्याय ही समय को (आत्मा को) प्राप्त कराने में समर्थ हो सकेगा। छोटी-मोटी पुस्तकों का पठन-पाठन व आत्म गुणों का चिन्तन तो हम रह समय कर सते हैं चाहे दिन हो अथवा रात परंतु सैद्धांतिक ग्रंथों का स्वाध्याय तो समय से ही करना चाहिए। अकाल में स्वाध्याय करने का निषेष करते हुए आचार्य इन्द्रनन्दि ने ‘नीतिसार’ में लिखा है -

सिद्धांते वाच्यमाने स्याद्यदि मेघस्य गर्जनम्।
विद्युतो दर्शनं चापि तदानध्यययनं मतम्।।109।।
भानोरूदयतो न डोद्विकं स्वाध्यायगोचरः।
ततो मुनिः प्रवर्तेत योगयकृत्येषु नित्यशः।।110।।

भावार्थ - सिद्धांत शास्त्र के पढ़ते समय यदि बादल गरजें अथवा बिजली चमके तो सिद्धांत ग्रन्थ न पढ़ना। सूर्य उदय के दो घड़ी बाद स्वाध्याय करें तत्पश्चात ही अन्य आवश्यक कार्यों में मुनि प्रवृत्ति करें।

आचार्यों ने अकाल दिन-रात में चार समय बताया है जो सामायिक का समय है उसे ही अकाल समय कहते हैं। उस समय सिद्धांत ग्रन्थों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, क्योंकि लाभ हो ही नहीं सकता, आगम-निषिद्ध है इसलिये हानि अवश्य हो सती हैं। इसलिये निजपथ को खोजने वाले भव्य जीवों को स्वाध्याय समय पर ही करना चाहिए।उसाक मनन हर क्षण कर सकते हैं।

स्वाध्याय विनय के साथ

स्वाध्याय करते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि जिनवाणी काा कहीं अविनय तो नहीं हो रहा क्योंकि जिससे हमें कुछ लेना है, उसी का अविनय करें तो घोर परिश्रम करनेपर भी कुछ नहीं प्राप्त होाग। स्वाध्याय भी स्व की खोज के लिए किया जाता है। अगर उसका विनय न किया तो एक तो विनय गुण की हानि होगी ओर द्वितीय स्वाध्याय करने पर भी स्व का ज्ञान नहीं होगा। अगर होगा भ, तो मात्र शास्त्र ज्ञान, शब्द ज्ञान। आगम-ज्ञान होने से मात्र पण्डित बन सकते हैं सुख तो आत्म-ज्ञान होने पर ही प्रापत होगा, इसलिए शास्त्रविनय के लिए स्वाध्याय से पूर्व एक चैकी पर साफ कपड़ा बिछाकर, उसके ऊपर शास्त्र जी को विराजमान कर, नमस्कार कर तत्पश्चात मंगल मंत्र बोलते हुए शास्त्र जी को खोलें और मंगलाचरा बोलें। जितने समय स्वाध्यााय करें उतने समय एक आसन से बैठें और फालतू चर्चा न करें न सुनें। स्वाध्याय करने के पश्चात शास्त्र को यथास्थान विरारजमान करें व भक्तिपूर्वक नमस्कार कर किये हुए स्वाध्याय का मनन, चिंतन, करते रहें, आचरण में लाने का प्रयत्न करें। यह सब कहलती है शास्त्र-विनय। विनय बिना विद्या के नही आती, विद्या के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना मुक्ति-लक्ष्मी नहीं मिलती, मुक्ति लक्ष्मी के बिना सुख नहीं मिलता।इसलिए धर्म सम्बंध समस्त कार्य विनय के ाथ होने चाहिए, अगर सुख चाहते हैं तो।

स्वाध्याय के भेद
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आचार्याों ने स्वाध्याय के पांच भेद बताये हैं, उनका हमें अच्छी प्रकार से ज्ञान होना चाहिये। आचार्य श्री उमास्वामीने ‘तत्वार्थ सूत्र’ में इस प्रकार कहा है स्वाध्याय के भेद करते हुए -

वाचनापृच्छनाऽनुप्रेक्षाम्नायधर्मोंपदेशाः।।25।। अ009।।
अर्थ -

1 वाचना - आत्मकल्याण के लिए निर्दोष ग्रन्थों का स्वयं पढ़ना, दूसरों को बताने अथवा पढ़ाने के लिए पढ़ाना, वाचना नामक स्वाध्याय है

2 पृच्छना - सत्पथ की ओर गमन करने के लिए, मार्ग व पदार्थों का स्वरूप निश्चय करना तथा संशय निवारणार्थ प्रश्न पूछना, पृच्छना नामक, स्वाध्याय का द्वितीय भेद है।

3 अनुप्रेक्षा - मन की स्थिरता कायम रखने के लिए, निश्चित किये हुए वस्तु स्वभाव व पदार्थ स्वरूपक ा बार-बार मनन-चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।

4 आम्नाय - चित्त रोककर शांतिदायक पाठों को शुद्धतापूर्वक पढ़ना, याद करना, धोकना, मनन करना अम्नाय नामक स्वाध्याय है।

5 धर्मोंपदेश - सत्य की खोज करने के लिए मार्ग तथा संदेह निवृत्ति के लिए पदार्थ का स्वरूप कहना तथा श्रोताओं की सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र में प्रवृत्ति के लिए धर्मोपदेश करना, प्रवचन देना, यह कहलाता है धर्मोंपदेश, स्वाध्याय का पांचवां अंग है। इस प्रकार स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है। मन, वचन, काय से इस स्वाध्याय में रत रहना ही खोज है आत्मा की, प्राप्ति है सुख की, बार (वारगा) है अशुभ को रोकने की।

स्वाध्याय किन ग्रन्थों का?

हमें सही मार्गदर्शन वे ही शास्त्र दे सकते हैं, जिनके रचयिताओं ने सही मार्ग प्राप्त किया हैं जिन्होनंे अपने को भली प्राकर जान, कर्ममन से परे हो संसार को भी जान लिया है, ऐसे भगवान जिनेन्द्र देव द्वारा कहे हुए, किया है चार ज्ञान के धारक गणधरों ने अर्थ जिनका और संसार-शरीर-भाोगों से विरक्त ऐसे 36 मूलगुणों के धारी आचार्यों ने की जिनकी रचना ऐसे सद्शास्त्र हैं, स्वाध्याय करने योगय। इनके अतिरिक्त रागवर्धक, एकानतपोषक, मिथ्यात्व से परिपूर्ण कुशास्त्रों को पढ़ने से हमारे अंदर एकांत आ जाता है। इसी प्रकार मुक्ति-पथ गामी, वीतरागी, आचार्यों के ग्रन्थाों को पढ़ने-सुनने, अनुभव करने से दिखने लगे सच्चा मार्ग, उत्पन्न हो उठेगी भावों में वीतरागता, हो जायेगा उसी समय भेदज्ञान। इसलिये आचार्यों द्वारा और उनके अनुसार ही जो ग्रन्थों की रचना की गयी हो मात्र वही शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य है। आचार्यों ने उन सब ग्रन्थों को चार भागों मं विभाजित किया है - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग। इन चारों का स्वाध्याय किये बिना अनेकांत हमारे में नहीं आ सकता। इसलिए चारों अनुययोगों का स्वाध्याय करना आवश्यक है। अब आगे चारों अनुयोगों का वर्णन किया जाता है।

चारों ही अनुयोग हैं, वीतरागता सेतु।
जो धारें क्रम से इन्हें, करते हैं जिन हेतु।।30।।
प्रथमानुयोग का स्वाध्याय क्यों?

कथानुयोग, जिसको सबसे पहले होने के कारण प्रथमानुयोग कहते हैं इसका स्वाध्याय इसलिए आवश्यक है कि इसमें महापुरूषों के जीवन-चरित्र का वर्णन किया गया है, जिसको पढत्रकर यह पता लगता है कि एक पापी, व्यसनी मनुष्य भी सदाचार का आश्रय लेकर अपने जीवन का उत्थान कर सकता है, मोड सकता है पापों की ओर से अपने को और कर सकता है मुक्ति को प्राप्त क्रम-2 से तथा एक धार्मात्मा मनुष्य भी पापादि कार्यें को करने से दुर्गति का पात्र बन सकता है, पथ-भ्रष्ट होकर संसार-उटवी में भटक सकता है। साथ ही इसमें दुर्बोध तत्वों को साकार रूप दे दिया है। इसलिए इसका स्वाध्याय कर बालबुद्धि भ धर्म के रहस्य को समझकर उसे अपने जीवन में उतार सकता है। कथानक इतने रोचक होते हैं कि पढ़ते-पढ़ते मन कभी नहीं कहता कि बस, ज्यों-ज्यों पढ़ते जाते हैं त्यों-त्यों ही इच्छा बेल बढ़ती जाती है। कथानक मात्र कथानक ही नहीं, यह उन महापुरूषों की गौरव गाथा है, जिन्होंने अपने पुरूषार्थ के बल से समस्त शत्रुओं को जीत मुक्तिवधू को प्राप्त किया है।ऐसे महापुरूषों का चरित्र पढ़ने से जाग उठता है पुरूषार्थ और मोड़ लिया जाता है अपने को पापों की ओर से। कष्ठाअें व दुर्गतियों से भयभीत होकर लगा दिया जाता है मन को धर्मकार्यों में, व्रत-आचरणों में, आत्म-चिन्तन में, मुक्ति-लक्ष्मी से मिलने के लिए। इसलिए हमें प्रथमानुयोग के महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, वरांगचरित्रादि ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।

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