।। पंचम आवश्यक कर्म: तप ।।

सामायिक कर्म को समाप्त करके मुनिराज ने मुनि व श्रावक धर्म का उपदेश करते हुए पुण्य, पाप और वस्तु-स्वभाव को बताया। अपनी शक्ति के अनुसार सभी ने नियम व्रत ग्रहण किये ओर नमस्कार कर खड़े होकर चल दिये नगर की ओर। मुनिराज अकेले रह गये। उस समय वह सप्त-व्यसनी भी मुनिराज के समीप आकर बैठ गया ओर कहने लगा स्वामिन! मुझे भी कुछ व्रत देकर पवित्र कीजिए। मुनिराज ने कहा-क्या काम करते हो? उसने उत्तरदिया-स्वामी जी जुआ खेलता हूं, चेरी करता हूं और ऐसे ही कई काम करता हूं। मुनिराज ने उसस कहा कि तू बस एक नियम ल ेले कि मंदिर जी में जाकर स्वाध्याय करके ही भोजन करूंगा, परंतु एक बात ध्यान में रखने की है कि जो कुछ शास्त्र में पढ़ों, उसके ऊपर मनन अवश्य करना। फलस्वरूप असीम आनन्द की प्राप्ति होगी।

स्वाध्याय का व्रत लेकर घर आया और मंदिर जाकर स्वाध्याय भी करने लगा प्रतिदिन, परंतु भूल गया मनन करना। जुआ आदि भी खेलता रहा और स्वाध्याय भी करता रहा। इस प्रकार काफी लम्बा समय व्यीत हो गया, एक दिन जुआ खेलते हुए उसे समय अधिक हो गया। आकर देखता है मंदिर के किवाड़ बंद हो गयें, दश्ज्र्ञन तो बाहर से जालियों में से कर लिये परंतु शास्त्र बाहर न होने े कारण खड़ा है स्वाध्याय करने की चिन्ता में। अकस्मात जेव में हाथ जाता है तो उसमें निकली एक ताश की गड्डी और निकलता भी क्या जुआरी की जेब सें

ताश की गड्डी को लेकर ही बैठ गया यह विचर करके कि कोई आकर मंदिरजी को खोलेगा तभी स्वाध्याय करके यहां से जायेंगे। इस प्रकार से विचार करते हुए वह देख्ता है ताश की ओर तो एक बूंद वाला, जिसे इक्का कहा जाता है वह दिखाई दिया। बस देर ही क्या थी मात्र निमित मिलने की, हो गया मनन शुरू। विचार करने लगा इक्के कोदेखते हुए कि जैसे इस इक्के में एक बूंद है वैसे ही मेरी आत्मा भी त्रिकाल निर्बाध् अकेली है, परंतु आत्मा का स्वभाव तो मुक्त है, मैं संसार में क्यों? इक्के को हटाते ही आ जाते है दो बूंद वाला ताश जिसे देखते ही कहने लगा, यह दुग्गी बता रही है कि आत्मा तो अकेली है परंतु राग और द्वेष यह दो शत्रु उसके पीछे लगे हुए हैं। इसलिए आत्मा संसार में ही चक्कर खा रही है। फिर से सोचने लगा कि राग-द्वेष आत्मा के स्वभाव तो हैं नहीं परंतु फिरभी क्यों पीछे पड़े हुए हैं? ऐसा विचार करते हुए दुग्गी को हटाकर चैकी पर रखा, निकल आया तीन बूंद वाला ताश। उसे देखते ही मन में विचार हो उठा कि राग-द्वेष मुझसे अलग होते तो कैसे मैंने अभी तक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को नहीं अपनाया, सच्चे देव, शास्त्र गुरू पर श्रद्धा नहीं की, तीन गुप्तियों को वश में नहीं किया, तीन मूढ़ताओं में ही लगा रहा। उस ताश को हटाते ही निकल आई चैकी। उसे देखते ही मन में विचार आया कि कैसे तो आत्म मोक्ष जाती और कैसे रत्नत्रय की प्राप्ति व रागद्वेष का अभाव होता; क्योंकि अभी तक इन अनादिकालीन चार कषायों की ओर तो हमारी कभी दृष्टि ही नहीं गई। इनके ही कारण जीव अपने स्वभाव को भूलकर चतुर्गति में भ्रमण कर रहा है; मोक्ष के अविनाशी सुख को भूला हुआ है, विष सम भोगों के वशीभूत होकर उस ताश को हटाते ही निकल आता है पांच बूंद वाला ताश। उसे देखते हुए म नही मन कहने लगा कि चतुर्गति का चक्कर छूटता कैसे? अभी तक तो मैंने पांच पापों का भी त्याग नहीं किया, पांच इन्द्रियों को वश में नहीं किया, पांच अणुव्रत, पांच महाव्रतों को ही नहीं अपनाया, पांच समितियों का पालन भी नहीं किया, पंचपरावर्तनों को भी नहीं जाना; ऐसा विचार करते हुए उस ताश को चैकी पर रख दिया ओर देखने लगा छह बूंद वाले ताश की ओर। उसे देखते ही विचार हो उठा कि पंच पापादि छूटते तो कैसे? न तो हमने अभी तक छह काय के जीवों की रक्षा की, न छह आवश्यक कर्मों का पालन किया, न छह द्रव्यों के स्वरूप को ही समझा, न छह लेश्याओं को ही जाना; ऐसा चिन्तन करते हुए रखदिया उस ताश को अैर देखने लगा सात बूंद वाले ताश की ओर । उसे देखते-देखते सोचा कि षडावश्यकादिकों का आचरण करता तो कैसे? अीाी तक तो मैंने सप्त व्यसनों का ही त्याग नहीं किया, सप्त प्रकार के जो ीाय होते हैं इनका त्याग नहीं किया, सप्त नरकों के दुखों को नहीं जाना, सप्त तत्वों का जैसा का तैसा श्रद्धाान नहीें किया; ऐसा विचार करते हुए उस ताश को रख दिया और निकल आया आठ बंूद वाला ताश। उसे देखते ही मन में विचार हो उठा कि सप्त तत्वादि का ज्ञान होता कैसे? अभी ततक मैंने अपने आपको अष्ट मदों की ओर से तो मोउ़ा ही नहीं, अष्ट कर्मों को अहितकारी जान उनके क्षय करने का उपाय भी किया नहीं। इस प्रकार का मन में चिन्तन करते हुए अठ बूंद वाले ताश को रख दिया चैकी के ऊपर और देखने लगा नौ बूंद वाले ताश की ओर। देखते ही विचार करने लगा कि शंकादिक दोषों को छोड़ अष्ट कर्मों से मुक्त कैसे होता, अीाी तक मैंने नौ पदार्थें को ही नहीं जाना, नोकषायों का त्याग नहीं किया, नौ शील की बाड़ों को न जाना। इसी कारण से आत्मा ने आज तक अपने सही स्थान को न अपनाया, मुक्ति-पद को प्रापत नहीं किया। ऐसा चिन्तन करते हुए उस ताश को हटाते ही निकल आया दस बूंद वाला ताश और उसे देखते ही कहने लगा उपने आपसे कि नौ पदार्थों आदि का ज्ञान कहां से होता, अभी तक तो मैंने जो आत्मा के निजी गुण् हैं ब्रह्मचर्यादि दस धर्म उनको अपने आचरण में लाया ही नहीं; ऐसा विचार करते हुए रख दिया उस ताश्ज्ञ को और निकल आया गुलाम, जिसकी कल्पित एकादश बूंद मानी जाती है। उसे देखते ही सोचने लगा कि आत्मा के निजी दस धर्मों को मैं जीवन में लाता तो कैसे? अभी तक मैंन जो श्रावक की एकादश प्रतिमाएं होती हैं उनको ही अपने आचरण में नहीं लाया, आत्म-सिद्धि होती भी तो कहां से? ऐसा विचार करते हुए उस ताश को रख दिया चैकी पर और उखने लगा उस ताश की ओर, जिसे बेगम कहते हैं। उसे कल्पना से बारह बूंद मानते हैं। उसी समय विचार करने लगा कि एकादश प्रतिमाओं का पालन मैं करता तो कैसे? अीाी तक न तो मैंने द्वादश अनुप्रेक्षाओं को जाना, न द्वादश प्रकार के तपों का पालन किया न व्रतों को आचरण में लाया। ऐसा विचर करते हुए रख दिया वह ताश चैकी के ऊपर और निकल आया वह ताश जिसे बादशाह कहते हैं, जिसकी कल्पना से तेरह बूंद मानते हैं। उसकी ओर देखते ही निकलता शुरू हो गये आंखोें में से आंसू और करने लगा विचार अपने मन में कि राग-द्वेष नष्ट कैसे होते, रत्नत्रय की प्राप्ति कहां से होती? चारों गतियों सेपरे कैसे होता? पंचपरावर्तनों से कैसे छूटता? छः द्रव्यों के स्वरूप को कहां से जानता? सप्त तत्वों का श्रद्धान कैसे होता? अष्ट कर्मों से मुक्त कैसे होता? नौ पदार्थों को कैसे जानता? दस धर्मों का पालन कहां से करता? एकादश शत्रुओं पर विजय प्रापत कैसे होती? द्वादश तपों कातप, अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन कहां से रकता? अभी तक आत्मा को निर्मल कर मुक्त बना देने वाले तेरह प्रकार के चारित्र को तो सम्यक् श्रद्धा के साथ मैंने धारण किया ही नहीं! अगर कभी इन पूर्वोक्त व्रतादिको का पालन भी किया ते मात्र दिखावे के लिए ही, लोक में ख्याति प्राप्त करने के लिए ही, आत्मचिन्तन के लिए नहीं, मुक्ति-पथ की ओर चलने के लिए नहीं। इन ज्ञान रहित मात्र क्रियाओं से ही क्या मुझे मुक्ति मिल सकती है? कभी नहीं। उसके लिए तो लगा देना होगा मन, वचन और तन। तब कहीं होगी प्रतीति आत्म-गुणों की।

इस प्रकार चिन्तन व मनन करते-करते हो गया विरक्त-संसार शरीर और भोगों की ओर से। हो आया स्मरण गुरू से लिए स्वाध्याय और मनन के नियम का। कहने लगा मन में कि गुरूजी ने दो नियम दिये थे-स्वाध्याय और उसके ऊपर मनन। अभी तक मात्र स्वाध्याय ही करता रहा, मनन की ओर कभी ध्या नही नहीं दिया अगर जब से स्वाध्याय करता आया हूं, तब से ही मनन भी करना शुरू कर देता तो अभी तक मैं इन अकरणीय कर्मों से कब का ही मुक्त हो गया होता।

तोड़ दिया मोह कुटुम्बी और मित्रजनों से, मोड़ लिया मुख मन की ओर, करने के लिए खोज उन परम दिगम्बर ऋषिराज की। निर्जन वन में प्रवेश करते ही एक शिलातल पर बैठे मिल ही गये परम गुरूदेव। उन्हें देखते ही भीग गया आनन्द-आश्रुओं में और गिर पड़ा चरणों में, करने लगा अपनी निन्दा और कहने लगा नाथ! मुझे अशरण को भी शरण दीजिए, अभी तक मैं अपने को भूलकर पर को अपना मानकर इस भावसागर में गोते खाता आया हूं। आ गया आपकी शरण में, मुझे इन घोर दुखों से बचा लीजिए। कुछ दिन पूर्व मेरे ऊपर परम उपकार कर आपने मुझे जो स्वाधयाय के पीछे, आज हो गया मनन स्वामिन्! ऐसा कहते हुए कर दिया दोनों प्रकार के संग का त्याग गुरू साक्षी से, कर लिया धारण तेरह प्रकार के चारित्र को, हो गया विभूषित मूलगुणें से, अपना लिया उस दिगम्बर वेष को, जो राग-द्वेष से रहित आत्मा को कर्ममल से रहित करने वाला है। अब हो गया पूर्ण-आनन्द में लीन, करने लगा ध्यान की सिद्धि आत्मा को मुक्त बनाने के लिए। कुछ ही दिनों में असहनीय तप के द्वारा दहन कर दिया चार घतिया कर्मों को ओर हो गया कवेलज्ञान को प्राप्त। तत्पश्चात कुछ काल व्यतीत होने पर आयु कर्म को समाप्त कर, कर लिया प्राप्त मुक्तिवधू को, बना लिया अपनी आत्मा को पुरूषार्थ के बल से अशरीरी, हो गया मुक्त कर्मों से, कर लिया उस अक्षय पद कोप्राप्त, जिसके लिए बड़े-2 महारा चक्रवर्त घोर परिश्रम करते हैं।

इस कल्पित दृष्टिांत से स्पष्ट हो गयाकि मात्र स्वाध्याय करने से स्वानुीााव हो सकेगा। स्वानुभाव प्राप्ति का कारण है मनन, चिन्तन और तद्रूप आचारण। स्वाध्याय किये बिना ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकेगी। परंतु स्वाध्याय तभी कार्यकारी होगा जब हम पर की निन्दादि को त्याग विकल्पों को रोकेंगे। स्वाध्याय तपक ा कथन करते हुए ‘स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा’ में भी इसी प्रकार कहा है -

परतत्तीणिरवेक्खों दुट्ठवियप्पाण णासगणसमत्थों।
तच्चविणिच्चयहेदु सज्झाओज्झाणसिद्धियरो। ।।459।।

जो महापुरूष पर की निन्दा नहीं करत हैं, सांसारिक किसी वस्तु की बांछा नहीं करते हैं और मन में उठने वाले खोटे विकल्पों को नष्ट करके पढ़ते हैं शास्त्र, उने ही तत्वों का निश्चय करने क कारण स्वाध्याय नामक तप होता हैं इस स्वाध्याय से बए़कर कोई तप नहीं है, क्योंकि इसके बिना किये सभी तप निष्फल हैं।

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