।। स्वाध्याय ।।

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अब आप जिनवाणी के दर्शन के लिये पहुँचेंगे। यहाँ पर शायद जिनवाणी को अघ्र्य चढ़ाने की ऐसी व्यवस्था नहीं है। जिनवाणी की व्यवस्था, विशेष रूप से मन्दिर जी में ही एक अलग अलमारी में हुआ करती है और वहाँ पर बड़े सुव्यवस्थित ढंग से ग्रन्थ रखे होते हैं । लेकिन हम जितने सुन्दर ढंग से जिनवाणी को विराजमान करेंगे, उतना ही पुण्य एवं परिणामों की विशुद्धि हमारी होगी। अब आप देख लो, आपके यहाँ पर जिनवाणी कैसे रखी हुई है? पूजा की जिनवाणी पढ़ने की जिनवाणी सारी अव्यवस्थित । एक आला, एक अलमारी ऐसी होनी चाहिये जो पूर्ण रूप से सुव्यवस्थित हो। जिसमें गद्दी चलती है, जिसमें आप शाम को शास्त्र पढ़ते हैं , वह गद्दी का ग्रन्थ कहा जाता है। ग्रन्थ का आसन अलग होना चाहिए।

आप गुरुद्वारे में चले जाइये, कितने सुव्यवस्थित ढंग से गुरुवाणी रखी रहती है। आप तारणपंथ के चैत्यालय में चले जाइये ; कितने अच्छे सुव्यवस्थित ढंग से परिमार्जित ढंग से, जिनवाणी का सम्माण करते हैं। कुरान शरीफ और बाइबिल को देख लीजिए । कितने अच्छे ढंग से रखते हैं। एक जैनी हैं , इतनी जिनवाणी है कि किन—किन को संभालते रहें कद्र नहीं करते हैंं । जिनवाणी का भी दर्शन करना चाहिए। जिस प्रकार से हम जिनेन्द्र भगवान को अध्र्य चढ़ाते हैं, उसी प्रकार से जिनवाणी को भी चार अनुयोगों के प्रतीक चार ढेरी में अघ्र्य चढ़ाना चाहिये। कैसे चढ़ाना चाहिये—

उदक चन्दन तन्दुल पुष्पवै:चरु सुदीप सुधूप फलार्घकै:।
धवल मंगल गान रवाकुले, जिन गृहे जिन शास्त्रमहं यजे।।
प्रथमं - करणं—चरणं - द्रव्यं नम: जलादि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।'

प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग को हमारा नमस्कार हो। हमारी जिनवाणी चार अनुयोग रूप है। आपकी चतुर्भुज चार अनुयोग धरें। जैसे—चार वेद हैं — अर्थवेद, यजुर्वेद, सामवेद और ऋग्वेद। ऐसे ही आचार्यों ने इनको भी वेद कहा है। जिनवाणी के माध्यम से सम्यक् ज्ञान की आराधना करनी चाहिये। जिनवाणी क्या है, शास्त्र क्या है और शास्त्र का क्या स्वरूप है ? स्वामी समन्तभद्र आचार्य देव कहते हैं—

अन्यून—मनति—रिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् ।
नि:संदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञान— मागमिन: ।।४२।।(रत्न. श्रा.)'

जिनवाणी कैसी होनी चाहिये जिसकी हम आराधना करते हैं ? ‘‘अन्यून—मनतिरिक्तं’’ - अर्थात् न्यूनता रहित और अधिकता रहित ‘‘याथातथ्यं’’ जैसी है उसी प्रकार से। विपरीतता रहित , सन्देह रहित यह जिनवाणी का, शास्त्र का स्वरूप है। आगम के ज्ञाता पुरुषों ने इसे शास्त्र का स्वरूप कहा है। ऐसी जिनवाणी का अध्ययन करना चाहिये, ऐसी जिनवाणी को पढ़ना चाहिये।

स्वामी समन्तभद्र आचार्य अपने समय के उद्भट , न्यायशास्त्र के शास्त्री रहे हैं। कुन्दकुन्द आचार्य से भी ज्यादा उन्होंने ख्याति प्राप्त की और प्रभावना की। इसलिये शिलालेखों में ऐसा मिलता है कि वह आगामी काल में तीर्थंकर होगें , उनके सम्यक् ज्ञान की परिभाषा , उनके सम्यक् दर्शन की परिभाषा और चारित्र की जो व्याख्या है, इतनी व्यापक और बहुआयामी है कि आप उसे किसी भी द्रव्य , क्षेत्र, काल और भाव की स्थिति में लगा सकते हैं। बड़ी व्यापक परिभाषाओं को उन्होंने अवतरित किया है। परिभाषा का मतलब प्रमाण—नय, निक्षेप, आगम अनुमान आदि से जो सुसज्जित हो, वह परिभाषा है। यानि प्रमाणित भाषा को परिभाषा कहते हैं। व्यापक भाषा को परिभाषा कहते है। चारों अनुयोगों में सबसे पहले प्रथमानुयोग है। प्रथमानुयोग का क्या स्वरूप है ? स्वामी समन्तभद्र आचार्य अपनी भाषा में बताते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ के अन्दर अपनी बात कहते हैं—

प्रथमानुयोग—मर्थाख्यानं, चरितं पुराण—मपि पुण्यम् ।
बोधि—समाधि—नधानं , बोधति बोध: समीचीन: ।।४३।। (रत्न.श्रा.)'

प्रथमानुयोग पुराण पुरुषों का, ऐतीहासिक पुरुषों का चारित्र व्याख्यायित करता है। प्रथमानुयोग पुराण पुरुषों का चरित्र बतलाता है। जिनका जीवन चरित्र पढ़ने से, सुनने से क्या होता है ? ‘‘बोधि समाधि निधानं।’’ बोधि का मतलब सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, समाधि का मतलब समता रूप परिणाम, निधान का अर्थ खजाना जो सम्यक्ज्ञान और समता रुप परिणाम का खजाना है। इसलिये इसे बौद्धिक पुरुषों ने सम्यक् ज्ञान कहा है । प्रथमानुयोग ऐसा अनुयोग है जो हर परिस्थिति में व्यक्ति को सम्बल बनाता है।

आज का व्यक्ति आत्महत्या सबसे ज्यादा क्यों करता है ? दु:ख के कारण, क्लेश के कारण अपवाद के कारण । उसे कुछ दिखता नहीं है और वह मर जाता है। प्रथमानुयोग हमें सम्बल देता है। सीता ने कभी आत्महत्या करने की बात नहीं सोची, द्रौपदी ने मरने की बात नहीं सोची, अनन्तमती, मैना सुन्दरी ने आत्महत्या नहीं की। सेठ सुदर्शन और वारिषेण ने आत्महत्या नहीं की। आप लोग क्यों करते हैं? क्योंकि आप लोगों को अपने कर्म सिद्धान्त के ऊपर विश्वास नहीं है। करणानुयोग के ऊपर विश्वास नहीं है। कितना—कितना अपवाद हुआ सीता का, कितना—कतना कष्ट उठाया, कितने सुख और समृद्धि में पली बालिका और शादी होने के बाद जीवन भर दु:ख ही दु:ख देखा । सुख की एक कणिका भी नहीं थी। और आप लोगों के लिये ऐसा कौन—सा दु:ख है ? कौन— सा आपको बनवास हो रहा है, कौन—सा आपका अपवाद हो रहा है ? और अपवाद से तो आप डरते ही नहीं हैं । सीधी—सीधी कहते हैं कि जब प्यार किया तो डरना क्या? और बेचारी सीता ने तो कुछ किया ही नहीं था।

अपवाद हो गया तो घबरा गये मर गये । कायर व्यक्ति मरा करते हैं। संसार में यदि सबसे ज्यादा पाप है तो वह आत्महत्या है। आत्मघाती महापापी। जिसके यहाँ कोई आत्महत्या करता है, उसके यहाँ छ: महीने तक सूतक लगता है। छ: महीने तक वह दान नहीं दे सकता, पूजा नहीं कर सकता शुभ क्रियाओं द्वारा। मालूम होना चाहिये कि प्रथमानुयोग हमें सम्बल देता है। अच्छे—अच्छे मुनिराजों के लिये जब समाधि मरण का समय आता है, तब समयसार नहीं सुनाया जाता है। उस समय प्रथमानुयो सुनाया जाता है। समाधि मरण के अन्त समय प्रथमानुयोग अन्तरंग के सम्बल को अवतरित करता है । खोई हुयी शक्ति और साहस को जाग्रत करता है।

धन्य—धन्य सुकुमाल महामुनि कैसे धीरजधारी।
एक स्यालनी युग बच्चायुत पांव भख्यो दुखकारी।।
यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी
तो तुम्हरे जिय कौन दु:ख है मृत्यु महोत्सव भारी ।।'

प्रथमानुयोग यह बतलाता है कि उन्होंने ऐसे दुख को कैसे सहन किया ? उनके शरीर को छार—छार कर दिया, लेकिन इतना दुख सहन कर गये और तुम इतने से दु:ख से घबरा गये। धिक्कार है। मानसिक रोग आज के समय में अधिक क्यों हो रहे हैं अधिक व्यक्तियों ने धार्मिक पुस्तके पढद्यना बिल्कुल बन्द कर दिया है। मैग्जीन, अखबार, नॉबिल, जिनसे टैंशन बनता है, जिनसे हमारे जीवन में सन्देह की भूमिकायें तैयार हो जाती है ऐसी चीज तो पढ़ेंगे। लेकिन जिनसे हमारे जीवन के सन्देह धुलते हैं। जिनके पढ़ने से हमारे जीवन के सन्देह दूर होते हैं, ऐसी पुस्तके पढ़ने के लिये हमारे पास समय नहीं है।

जिन्दगी में चार ग्रंथों को जरूर पढ़ना चाहिए। एक सम्यक्त्व कौमदी, एक धर्म परीक्षा। प्रथमानुयोगी सम्बन्धी बात बता रहा हूँ। राजा श्रेणिक चरित्र, प्रद्युम्न चरित्र ! इन चार ग्रंथों को यदि आप पढ़ लेंगे तो आपके जीवन में आधे से ज्यादा क्या ? साढ़े निन्यानवे परसेन्ट अन्धेरा भाग जायेगा। यह मैं बड़े विश्वास के साथ कहता हूँ। जो भी धर्म की मान्यताओं में हमारी विपरीत बुद्धि घुस गई है वो अपने आप उजागर हो जायेगा। जब लालटेन जल जायेगी, उजाला हो जायेगा तब आपको वस्तु स्थिति अपने आप व्यक्त हो जायेगी।

इन चारों ग्रंथों के अन्दर आपको इतने नजदीक में ले जाकर बैठा दिया है कि आप अपने आप को पा लो। समय होना चाहिये। ज्यादा बड़े—बड़े ग्रंथ नहीं हैं, छोटे—छोटे ग्रंथ हैं। सम्यक्त्व कौमुदी, धर्म परीक्षा, श्रेणिक चरित्र और प्रद्युम्न चरित्र। ऐसा लगेगा कि यह हमारे जीवन की कहानी है और पढ़ते—पढ़ते यह आभास हो जायेगा कि यह हमारी ही कहानी है। हम स्वयं इसके पात्र हैं तो आपके अन्दर के बैठे सारे भ्रम टूट जायेंगे। प्रथमनानुयोग बहुत कुछ देता है। अपने जीवन में चार ग्रंथों को जरूर पढ़ लेना समय निकाल करके। यह प्रथमानुयोग बताता है। करणानुयोग क्या बताता है? स्वामी समन्तभद्र आचार्य देव ही करणानुयोग को व्यवस्थित करते हैं।

लोकालोक विभत्ते—र्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतिनां च।
आदर्श—मिव तथामति—रवैति—करणानुयोगं चं।।४।। (रत्न श्रा.)'

लोक और आलोक की व्यवस्था को करणानुयोग बताता है। करणानुयोग को गणितानुयोग भी कहते हैं जो लोक और आलोक की व्यवस्था को, चारों गतियों की व्यवस्था को बताता है। कैसे‘आदर्श मिव’ मतलब दर्पण के समान स्पष्ट रूप से बतलाता है। वह करणानुयोग कहलाता है। करण कहते हैं परिणाम को, भावों को, किस व्यक्ति के किस प्रकार के परिणाम हैं, भाव है और उसे उन परिणामों का, क्या कैसा फल मिलेगा ? यह करणानुयोग बतलाता है, करणानुयोग हमारी आन्तरिक व्यवस्था को बतलाता है। आठ प्रकार के कर्मों की व्यवस्था को बतलाता है। लोक और अलोक के विभाग को, लोक और अलोक की व्यवस्था को बतलाता है। चरणानुयोग क्या बतलाता है?

गृहमेध्य—नगाराणां, चारित्रोत्पत्ति—वृद्धि—रक्षाङ्गम्।
चरणानुयोग—समयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति।।४५।। (रत्न श्रा.)'

गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा कितने सुन्दर शब्द दिये हैं स्वामी समन्तभद्र आचार्य ने। चारित्र की उत्पत्ति वैâसे हो, चारित्र की वृद्धि वैâसे हो और चारित्र की रक्षा कैसे हो ? इन तीनों को बताने वाला चरणानुयोग है। और द्रव्यानुयोग क्या बतलाता है?

जीवाजीव—सुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्ध मोक्षौ च।
द्रव्यानुयोग दीप: श्रुत—विद्यालोक—मातनुते।।४६।। (रत्न. श्रा.)'

द्रव्यानुयोग जीव और अजीव तत्त्वों की, सात तत्त्वों की व्यवस्था को बतलाने वाला पुण्य और पाप की व्यवस्था को करने वाला द्रव्यानुयोग कहलाता है। द्रव्यानुयोग तो अन्तिम चरण है जहाँ आपको केवल उन तत्त्वों की अनुभूति करना है। जहाँ आपको कुछ भी नहीं करना है। कत्र्तापने से आपकी बुद्धि, कत्र्ता और भोक्तापने से बुद्धि ऊपर बढ़ गयी। केवल वहाँ पर चारित्र का जो फल है, चारित्र का जो रस है, उनका जो अनुपान कर रहा है, वह है द्रव्यानुयोग।

ये चारों अनुयोग हमारे जीवन में जब तक अवतरित नहीं होंगे, तब तक मोक्ष मार्ग बन नहीं सकता है। क्योंकि सम्यक् ज्ञान चारों अनुयोगों का आधार लेकर चलता है। बहुत से लोग यह कह देते हैं कि प्रथमानुयोग में तो राजा रानी की कहानी है इसके पढ़ने से हमारा उद्धार नहीं हो पायेगा। लेकिन उस राजा रानी की कहानी में भी कहानी छिपी है।

एक बार घटना घटी। एक माँ अपने दो बच्चों के साथ बाजार जा रही थी। गुड़िया छोटी थी इसलिये उंगुली पकड़कर चल रही थी और उसका लड़का थोड़ा बड़ा थां वह तो आगे—आगे चल रहा था उछलता—कूदता। थोड़ी दूर आगे जाकर वह बच्चा किसी कारण से गिर गया और जब बच्चे गिर जाते हैं तो सभी जानते हैं कि वह क्या करते हैं ? रोते हैं, और उनके पास काम ही क्या है ? और कब रोते हैं? जब उन्हें कोई सम्भालने वाला, देखने वाला हो तब ज्यादा रोते हैं। वैसे खेलते में गिर जायें तो नहीं रोयेंगे, क्योंकि उन्हें वहाँ पुचकारने वाला कोई नहीं होता है।

लेकिन उसको मालूम है कि मम्मी पीछे आ रही है, अगर गिर गया तो रोयेगा। तो फिर कुछ मिलेगा खाने—पीने को। अगर बाजार में बच्चे रोयें तो मम्मी की हालत देखो। जब वह लड़का गिर गया,तब मम्मी उसके पास पहुँची तो वह रो रहा था। बेटा,कहाँ लगी है,तू क्यों रो रहा है ?कहीं तुझे लगी तो नहीं ? रो रहा है, चुप हो जा। वह क्यों चुप होने का? माँ क्या करती हैं? देखो, अभी दो—चार दिन पहले गुड़िया गिर गयी थी, उसके चोट लग गयी थी, पर वह इतनी नहीं रोयी, जितने तुम रो रहे हो। चुप हो जाओ। तुम्हें तो लगी नहीं और तुम इतने रो रहे हो।

लेकिन वह कहाँ मानने वाला, माँ को झुँझलाहट आती है और वह कहती है—ठीक लगी, तुम बहुत परेशान करते हो गुड़िया को, अब और करोगे गुड़िया को परेशान! बच्चा क्यों चुप होने का! फिर माँ दूसरा फार्मूला अपनाती है देखभाल कर चलता नहीं है, गिर पड़ा है तो रोता है। देखभाल कर चलता तो क्यों गिरता ? अब किसके लिये रो रहा है ? अब वह फिर रो रहा है।

अब माँ क्या करती है ? उसे गोदी में लेती है और कहती है कि मेरा बेटा तो राजा बेटा है। राजा बेटा होकर रोता है। अब वह क्या गधा बेटा बनना चाहेगा सड़क के ऊपर? वह नहीं बनना चाहता गधा बेटा। बच्चा चुप हो जाता है।

प्रथमानुयोग क्या है? कल गुड़िया गिर गयी थी, उसे खून निकल आया था, उसके चोट लग गयी थी, वह इतनी नहीं रोयी और तुम इतना ज्यादा रो रहे हो, यह प्रथमानुयोग है करणानुयोग क्या है? तुम गुड़िया को सताते थे, मारते थे, चिढ़ाते थे, उसका फल है कि तुम गिरे। यह है करणानुयोग? चरणानुयोग क्या है? देखभाल कर चलते नहीं हो तो दोष किसका है? इसका नाम है चरणानुयोग। और द्रव्यानुयोग क्या है? कि मेरा बेटा तो राजा बेटा है। आत्मा के कभी लगती नहीं है, चींटी मर गई। घोड़ा वूâद गया। बच्चे खुश हो गये, उसका नाम है द्रव्यानुयोग।

पहले से ही अगर राजा बेटा बन जाओ तो क्या होगा? जैसा आज हो रहा है, वैसा ही होगा। ‘मैं रानी और तू रानी, कोन भरेगा वुँâआ का पानी।’ इन चारों अनुयोगों का अध्ययन कीजिए, चारों अनुयोगों का स्वाध्याय कीजिए। एक प्रश्न आ जाता है कि महाराज हम कुछ जानते ही नहीं है। हम इतने पढ़े—लिखे नहीं हैं, विद्वान नहीं हैं। इसलिये हमारे आचार्यों ने बड़ी व्यवस्था की है। स्वाध्याय को अन्तरंग तप के अन्दर रखा है। स्वाध्याय परमं तप: और उस स्वाध्याय के भेद किये हैं।

‘‘वाचना—पृच्छनानुपेक्षाम्नाय धर्मोपदेश:’’'

यह तत्त्वार्थसूत्र का सूत्र है। यदि आपको कुछ आता है तो वाचना भी स्वाध्याय है। पृच्छना, किसी से धर्म सम्बन्धी प्रश्न पूछना भी स्वाध्याय है। अनुप्रेक्षा, सुने हुये को / पढ़े हुये को बार—बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है यह भी स्वाध्याय है।

आम्नाय—आम्नाय का मतलब क्या है? आप तो दो ही आम्नायें जानते हैं—एक तेरह पन्थी और दूसरी बीस पन्थी। दिगम्बर और श्वेताम्बर। इन आम्नाओं से स्वाध्याय का कोई मतलब नहीं है, कोई सम्बन्ध नहीं है। आम्नाय शब्द का अर्थ है शुद्धता। शब्दों को, ग्रंथ को शुद्धिपूर्वक पढ़ना, व्याकरण को शुद्धिपूर्वक पढ़ना। छन्द, समास, सन्धि का ध्यान रखते हुए ग्रंथ का विश्लेषण करना—पढ़ना आम्नाय नाम का स्वाध्याय है।

प्राचीन काल की प्रणाली रही। प्रेस तो थे नहीं। एक व्यक्ति पढ़ता था और सौ व्यक्ति लिखते थे, प्रतिलिपियाँ बनाते थे। तो जिनके आम्नाय नाम का स्वाध्याय होता था वह व्यक्ति उच्चारण करता था और बाकी के व्यक्ति लिखते थे, ऐसे लोगों को आचार्यों ने उच्चारणाचार्य की उपाधि से सम्बोधित किया है। वीरसेन आचार्य ने ‘धवला’ टीका के अन्दर जगह—जगह उच्चारणाचार्य का अभिमत दिया है, उल्लेखन किया है। अमुक बात उच्चारणाचार्य के मत से इस प्रकार से कही है— आपने बहुत प्रकार के आचार्यों के नाम सुने होंगे। हम बहुत से विद्वानों को यह बात बताते हैं और वह ताज्जुब में होते हैं। ऐलाचार्य, बालाचार्य, गणधराचार्य, निर्यापकाचार्य यह तो आपने नाम सुने होंगे। लेकिन उच्चारणाचार्य का नाम आपने बहुत कम सुना होगा अगर जानते भी होंगे तो उसकी व्याख्या और वयवस्था को नहीं जान पाये। उच्चारण करना भी स्वाध्याय है।

धर्मोपदेश—आचार्यो ने बताया कि धर्मोपदेश में चार प्रकार की कथाओं को कहना ही धर्मोपदेश है। आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी। चार प्रकार की कथाओं को करना धर्मोपदेश है। वहाँ बैठकर हमें स्वाध्याय करना चाहिये। स्वाध्याय हमें क्या सिखाता है। हेय को छोड़ना और उपादेय को ग्रहण करना। चार अनुयोग हमें क्या सिखाते हैं?

अनुयोगों को पढ़ने से क्या होता है? प्रथमानुयोग पढ़ने से संवेग जाग्रत होता है और करणानुयोग पढ़ने से प्रशमता आती है यानि कषायों का उपशमन होता है। चरणानुयोग, अनुकम्पा, करुणा, दया गुण बतलाता है और द्रव्यानुयोग आस्तिक्य गुण को प्रकट करता है। संवेग, प्रशम, अनुकम्पा और आस्तिक्य यह चार सम्यक्त्व के लक्षण हैं।

जब हम प्रथमानुयोग पढ़ते हैं तो हमारे अन्दर क्या है? संवेग अवतरित होता है, हम कहाँ हैं यह बात हमारे मानस में आ जाए कि हम कहाँ है? समझ लो, वहीं से उजाला शुरू हो गया। इस विश्व के अन्दर हमारा कितना सा अस्तित्व हैं? जैसे—समुन्द्र के अन्दर एक बूँद का अस्तित्व है। अपने अस्तित्व की स्वीकारता जहाँ हो जाए, वहीं आस्तिक्य गुण है। जहाँ व्यक्ति अपने गुणों को पहचान लें, वहीं अस्तिक्य गुण है।

‘‘परद्रव्यन सौ भिन्न आप में रुचि सम्यक्त्व भला है।’’'

करणानुयोग में प्रशमता आती है कषायों का उपशमन होता है। नहीं, हमें कषायें नहीं करनी हैं, इसका......अनुभव होता है। हमें नहीं करना है ऐसा पाप। अन्तरंग में करणानुयोग की व्यवस्था अपने आप जाग्रत हो जाती है।

चरणानुयोग बचाता है। किसको ? उस विशुद्धि को, जिस परिणाम को, जिस सम्यक्त्व को आपने प्राप्त किया है, उसकी सुरक्षा करने वाला कवच है चरणानुयोग।

द्रव्यानुयोग प्रकाश है। फैल रहा है वहाँ केवल अनुभूति—अनुभूति है। जहाँ शब्द विराम ले जाते हैं, शरीर विराम ले जाता है, वचन विराम ले जाते हैं, वहाँ द्रव्यानुयोग फलित होता हैं तो स्वाध्याय हमारे दैनिक जीवन में निरन्तर आ सकता है। आप यह मत समझिये कि ग्रंथ पढ़ने से ही स्वाध्याय होगा। स्वाध्याय हमें हेय और उपादेय की बात समझाता है। इसके अलावा स्वाध्याय में है ही नहीं कुछ।

आपने गणेश प्रसाद वर्णी जी का नाम सुना होगा। उनकी धर्ममाता चिरौंजाबाई एक दिन गेहूँ बीन रही थीं। अकस्मात् वर्णी जी कहीं से घूमकर आये। मनुष्य में एक खासियत है, कोई भी व्यक्ति काम कर रहा हो तो उसे देख रहे हैं कि वह काम कर रहा है फिर भी हम पूछते हैं कि क्या काम कर रहे हो? सब आँखों के अन्धे हैं। पूछ लिया, धर्ममाता चिरौंजाबाई से कि आप क्या कर रही हैं? माँ जी कहती हैं—बेटा मैं स्वाध्याय कर रही हूँ। वर्णी जी को गुस्सा आ गया। माँ जी आप गेहूँ बीन रही हैं और आप कह रही हैं कि स्वाध्याय कर रही हूँ। आप झूठ बोलना कब से सीख गयीं?

माता चिरौजाबाई बड़ी विदुषी महिला थीं। अपने समय की बड़ी विदुषी महिला रही हैं। उन्होंने समाज का बड़ा सहयोग किया है। अगर धर्ममाता चिरौंजाबाई नहीं होती तो वर्णी जी भी नहीं होते, यह ध्यान रखना। वर्णी जी को बनाने में धर्ममाता चिरौंजाबाई का बहुत बड़ा हाथ है। आप वर्णी जी की ‘‘मेरी जीवन गाथा’’ पढ़िये। उन्होंने अपनी आत्मकथा अपने हाथों से लिखी। जैनियाँ की उन्होंने कितनी ठोकरें खायी हैं क्योंकि वे बेचारे जैन कुल में पैदा नहीं हुए थे। उन्होंने जैनधर्म को प्राप्त करने के लिये अपना तन, मन, धन सब कुछ न्यौछावर कर दिया। तब इतनी विशुद्धि कर पाये और अन्त में दिगम्बर साधु बनकर समाधिमरण को प्राप्त किया। सम्यक् दृष्टि जीवात्मा थी वर्णी जी की। वर्णी जी भी जैन रामायण, पद्मपुराण सुनकर, पढ़कर जैन बन गये थे। यह है प्रथमानुयोग की महिमा।