|| विनय सम्पन्नता ||
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आत्मा के गुणों तथा निर्मल आत्म गुणधारी मुनीश्वर आदि का हृदय से सन्मान करना, विनय सम्पन्नता है।

मनुष्य जब किसी को अपने से अधिक महत्वशाली, गौरवपूर्ण समझता है तब उनको पूज्य आदरणीय समझ कर उनका हृदय से (ऊपर से दिखावटी नहीं) आदर करता है, उनके सामने नम्र हो जाता है इसी को विनय कहते हैं। विनय के कारण ही आत्मा में सम्यक्त्व, ज्ञान, चरित्र आदि गुणों को उदय और विकास हुआ करता है।

जो मनुष्य अभिमानी बन कर अपने से बड़े महत्वशाली पूज्य व्यक्तियों के सामने भी नम्र न हो उनका सम्मान नहीं करता उस पुरुष में किसी भी गुण का उदय नहीं होता और न गुरु ऐसे मनुष्य पर संतुष्ट तथा प्रसन्न होकर कोई विद्या प्रदान करते हैं।

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र आत्मा के सब से प्रधान गुण हैं इन ही गुणों के कारण आत्मा सब दुःख, चिंता व्याकुलता से छूट कर अजर अमर अविनासी हो जाती हैं, अतः इन तीनों गुणों को हितकारी समझ कर इन गुणों की अपने हृदय में मान्यता रखना, इनको उपादेय समझ कर इनकी ओर उन्मुख होना, इनको निर्दोष पालन करने का उद्यम करना रत्नत्रय की विनय है।

रत्नत्रय-धारक मुनि, उपाध्याय, आचार्य की विनय करना, उनके समीप आ जाने पर खड़ा हो जाना, झुक कर नम्रता के साथ हाथ जोड़, सिर झुका कर, उनको नमस्कार करना, उनको ऊँचे आसन पर बिठाना यदि वे विहार करें तो उनके पीछे चलना, यदि वे बोलें तो उसको ध्यान से सुनना, जैसा वे आदेश दें उसको ठीक पालन करना गुरु विनय है। इसी को उपचार विनय भी कहते हैं।

विनीत शिष्य पर गुरु सदा संतुष्ट और प्रसन्न रहते हैं। प्रसन्नता के कारण वे उस शिष्य को ज्ञान के सूक्ष्म रहस्य, अनेक प्रकार की विद्यायें तथा कलायें थोड़े से समय में सिखला देते हैं।

गुरु आर्यनंदी ने विनीत जीवनधरकुमार की विजय से संतुष्ट होकर उसको अक्षर विद्या, राजनीति तथा शस्त्र विद्या, मल्लविद्या थोड़े ही समय में सिखा कर उसे पारंगव बना दिया था जिससे जीवनधर ने बहुत यश लाभ और विजय प्राप्त की।

श्री धरसेन, आचार्य अपने पास आये हुए पुष्पदंत भूतबलि मुनि की विनय से प्रसन्न होकर दोनों को सिद्धांत का पूर्णज्ञान (जितना कि वे स्वयं जानते थे) करा दिया।

इस तरह विनय गुण मनुष्य को अनेक गुणों का पात्र बना देता है, विनय का ठीक आचरण करना ही विनय सम्पन्नता है।

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अभिमानी मनुष्य अपने बल, ज्ञान, धन, अधिकार आदि का अभिमान हृदय में रखकर अपने आप को बड़ा समझ लेता है। अपने बड़प्पन के मद में चूर रहकर वह अन्य गुणी मनुष्यों की अवहेलना तथा अपमान किया करता है, दूसरों को अपने से महान पूज्य समझना उनकी विनय करना उसको अनुचित प्रतीत होता है। ऐसे अविनयी व्यक्ति का पतन अवश्य होता है। अनेक अविवेकी पुरुष अपनी चंचल लक्ष्मी के अभिमान में आकर किसी भी गुणी की विनय करना अपना अपमान समझते हैं। ऐसे मनुष्य किसी अन्य व्यक्ति को दुर्भाग्यवश किसी विपत्ति में फँसा हुआ देखते हैं तो उन अभिमानियों को उस आपत्तिग्रस्त मनुष्य पर दया नहीं आती, अतः वे अभिमान वश उसकी सहायता नहीं करते, उलटे उसकी हँसी उड़ाते हैं। ऐसे अभिमानी मनुष्य को लक्ष्य करके एक कवि ने कहा है-

आपद् गतं हससि किं द्रविणान्ध मूढ।
लक्ष्मीः स्थिरा भवति नैव कदापि कस्य।
यत्किं न पश्यति घटी जलयन्त्रचक्रे।।
रिंक्ता भवन्ति भरिताः पुनरेवरिक्ताः।

हे धनमद में चूर मनुष्य! तू किसी अन्य मनुष्य पर आई हुई विपत्ति को देखकर हँसता क्यों है। जिस पर तू इतना फूला फिरता है वह तेरी लक्ष्मी सदा तेरे पास न रहेगी, वह कभी एक जगह स्थिर नहीं रहती है। तू कुए में पड़ी हुई पानी की रहट को चलता हुआ नहीं देखता? जिसमें पानी का भरा हुआ पात्र खाली होता जाता है और खाली पात्र पानी से भरते जाते हैं।

मनुष्य में बड़प्पन-पूज्यता-मान्यता अभिमान करने से नहीं आती है। बड़प्पन लाने के लिए मनुष्य को विनय भाव को ग्रहण करना पडता है। विनयशील बनकर मनुष्य जब तक गुरुजन-सेवा, लोक-सेवा नहीं करता तब तब ‘बडा‘ नहीं बन पाता।

व्यवहार में देखा जाता है उडद या मूंग का ‘बडा‘ तब बन पाता है जबकि उडद अनेक कष्ट सह कर सेवा के लिये तैयार होता है। उडद को चक्की में दलकर दो-दो टुकड़े (दाल) किये जाते हैं, फिर उस दाल को पानी में भिगोया जाता है, पानी में भिगोकर उसका छिलका उतारा जाता है। तदनन्तर उस दाल को पत्थर पर पीसकर उसकी पिट्ठभ् बनाई जाती है। उसके बाद उसमें नमक, मिर्च आदि मसाले मिलाकर उसको गर्म तेल में तला जाता है, इतने कष्ट सह लेने के बाद वह उड़द ‘बडा‘ हो पाता है। उड़द यदि इतने कष्ट सहन न करे अपने अभिमान में चूर रहे तो वह कदापि ‘बड़ा‘ नहीं बन सकता।

इसी प्रकार मनुष्य को भी बडा बनने के लिये विनय भाव ग्रहण करके कष्टों को अपनाते हुए धार्मिक सेवा, समाज सेवा, जनता की सेवा करनी चाहिए।

विनय के चार भेद किये गये हैं-

ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः (तत्वार्थसूत्र)

अर्थात्- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय तथा उपचार विनय।

सातों तत्वों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके भगवान् की वाणी के अनुसार उनका यथार्थ श्रद्धान करना, परमपूज्य अर्हन्त भगवान् जिनवाणी तथा निग्र्रन्थ का शुद्ध हृदय से सत्य श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने पर आत्मा की अनुभूति होना निश्चय सम्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शन को आत्मा-उन्नति का मूल कारण समझ कर आदर भाव के साथ पालन करना, बढ़ाना, उसमें रंचमात्र दोष न लगाना, सम्यग्दर्शन के आठों अंगों का यथाविधि पालन करना सम्यग्दर्शन का विनय है।

ज्ञान से ही विवेक जाग्रत होता है, भेद विज्ञान ज्ञान का ही एक निखरा हुआ रूप है, वह भेद विज्ञान ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का मूल साधन है। यदि हृदय में शरीर और आत्मा का भेद ज्ञान न हो तो सम्यग्दर्शन का उदय होता ही नहीं, इस दृष्टिकोण से ज्ञान का महत्व सम्यग्दर्शन से भी अधिक प्रमाणित होता है ज्ञान आत्मा की सदा प्रकाशमान ज्योति है, इस ज्योति का प्रकाश अधिक बढ़ाने का अभ्यास करना चाहिए।

ज्ञान को बढाने के लिए प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों का खूब स्वाध्याय करना चाहिए, दूसरों को पढाना चाहिए। पढे हुए पाठ का मनन करना चाहिए। शुद्ध बोलना चाहिए, शुद्ध लिखना चाहिए, शास्त्रों की विनय करनी चाहिए उनको शुद्ध होकर विनय के साथ चैकी पर विराजमान करके ओंकार पाठ या मंगलाचरण पढने के बाद स्वाध्याय करें। स्वाध्याय करने के बाद वस्त्र में ठीक तरह लपेट कर यथास्थान विराजमान कर दें।

अपने ज्ञान को बढ़ा कर केवल ज्ञान प्राप्त करने की भावना रखें यह सब ज्ञान विनय है।

सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान हो जाने पर भी जब तक आत्मा व्रत, समिति, गुप्त आदि का निर्दोष पालन नहीं करता तब तक कर्मों से मुक्ति होकर आत्मा की शुद्धि नहीं हो पाती। इस कारण आत्मशुद्धि का साक्षात्कारण सम्यक् चारित्र है।

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