कर्मसिद्धान्त के अनेक तत्त्वों की उत्पत्ति का स्थान-णमोकार मन्त्र
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अनादिनिधन इस णमोकार मन्त्र में आठ कर्म, कर्मों के आस्त्रव के प्रत्यय-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग; बन्ध क्रिया और बन्ध के द्रव्य भाव भेद तथा उसके प्रभेद, कर्मों के करण, बनघ के चार प्रधान भेद, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, बन्ध, उदय, सत्त्व, चार गति, चार कषाय, चैदह मार्गणा, चैदह गुण-स्थान, पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य, त्रेसठ शलाका पुरूष आदि निहित हैं। स्वर, व्यंजन, पद आदि इस मन्त्र में निहित है। स्वर, व्यंजन, पद, अक्षर इनके संयोग, वियोग, गुणन आदि के द्वाराउक्त तथ्य सिद्ध किये जाते हैं। जिस प्रकार द्वादशांग जिनवाणी के समस्त अक्षर इस मन्त्र में निहित हैं,उसी प्रकार इसमें उक्त सिद्धान्त भी निहित हैं। यद्यपि द्वादशांग जिनवाणी के अन्तर्गत सभी तथ्य यों ही आ जाते हैं, फिर भी इनका पृथक् विचार कर लेना आवश्यक है। इस मन्त्र में

1 - णमो अरिहंताणं

2 - णमो सिद्धाणं

3 - णमो आइरियाणं

4 - णमो उवज्झायाणं

5 - णमो लोए सव्वसाहूणं- ये पाँच पद हैं।

विशेषपेक्ष्या

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1 - णमो

2 - अरिहंताणं

3 - णमो

4 - सिद्धाणं

5 - णमो

6 - आइरियाणं

7 - णमो

8 - उवज्झायाणं

9 - णमो

10 - लोए

11 - स्ववसाहूणं - ये ग्यारह पद हैं।

अक्षर इसमें 35, स्वर 34, व्यंजन 30 हैं। इस आधार पर-से निम्न निष्कर्ष निकलते हैं। 34 स्वर संख्या में से इकाइ्र, दहाई के अंकों को पृथक् किया तो 43 और 4 अंक हुए। व्यंजनों में 30 की संख्या को पृथक् किया तो, 3 और 0 हुए। कुल स्वर 34 और व्यंजन 30 की संख्या के योग को पृथक् किया तो 34$30=64; 6 और 4 हुए। इस मन्त्र के अक्षरों की संख्या को पृथकक् किया तो 3 और 5 हुए। अतः- 3 गुण 5 = 15 योग, 3 $ 5 = 8 कर्म, 5 - 3 = 2 जीव और अजीव तत्त्व, 5 » 3 = 1 लब्ध और शेष 2, मूल दो तत्त्व, अजीव कर्म के हटने पर लब्ध रूप शुद्ध जीव एक।

स्वरो में -3 गुण 4 = 12 अविरति, 3 $ 4 = 7 तत्त्व, 4 - 3 = 1 प्रधानता की अपेक्षा जीव। पाँच यह पंचास्तिकायं स्वर $ व्यंजन $ अक्षर = 34 $ 30 $ 35 = 99, फल योग 9 $ 9 = 18, इनसे योगान्तर 1 $ 8 = 9 पदार्थ । 99 » 2 = 34 लब्ध ओर 3 शेष, 3 $ 1 = 4 गति, कषाय, बिकथा विशेषापेक्षया 11 पद, सामान्यापेक्षया। 34 स्वर, 30 व्यजन, 35 अक्षर इन पर-से विस्तार किया तो 34: 30 = 64 गुण 5 = 320 » 30 = 9 लब्ध और 14 शेष। यह 14 संख्या गुणस्थान और मार्गण की है। अथवा 64 गुण 11 = 704 » 30 = 23 लब्ध, 14 शेष। यही शेष संख्या गुणस्थान और मार्गणा है। नियम यह है कि समस्त स्वर और व्यंजनों की संख्या को सामान्य पदसंख्या से गुणा कर स्वरकी संख्या का भाग देने पर शेष तुल्य गुणस्थान और मार्गणा अथवा समस्त स्वर और व्यंजनों की संख्या को विशेषपद संख्या से गुणा कर व्यंजनों की संख्या का भाग देने पर शेष तुल्य गुणस्थान और मार्गणा की संख्या आती है। छह द्रव्य औरछह काय के जीवों की संख्या निकलाने के लिए यह नियम है कि समस्त स्वर और व्यंजनों की संख्या (64) को व्यंजनों की संख्या से गुणा कर विशेष पद संख्या का भाग देने पर शेष तुल्य द्रव्यों की तथा जीवों के काय की संख्या अथवा समस्त स्वर और व्यंजनों की संख्या को स्वर संख्या से गुणा कर सामान्य पदसंख्या काभाग देने पर शेष तुल्य द्रव्यों की तथा जीवों के काय की संख्या आती है। यथा 64 गुण 30 = 1920 » 11 = 174 लब्ध, 6 शेष, यही शेष तुल्य द्रव्य और काय की संख्या है। अािवा 64 गुण 34 = 2176 » 5 = 434 लब्ध, 6 शेष। यही शेष प्रमाण द्रव्य और काय की संख्या है। इस महामन्त्र में कुल मात्राएं 58 हैं। प्रथम पद के ‘णमो अरिहंताणं’ में = 1 $ 2 $ 1 $ 1 $ 2 $ 2 $ 2 = 11, द्वितीय पद ‘णमो सिद्धाणं’ में = 1 $ 2 $ 1 $ 2 $ 2 = 8, तुतीय पद ‘णमो आइरियाणं’ में = 1 $ 2 $ 2 $ 1 $ 1 $ 2 $ 2 = 11, चतुर्थ पद ‘णमो उवज्झायाणं’ में = 1 $ 2 $ 1 $ 2 $ 2 $ 2 $ 2 =12, पंचम पद ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ में = 1 $ 2 $ 2 $ 2 $ 2 $ 1 $ 2 $ 2 $ 2 = 16, समस्त मात्राओं का योग = 11 $ 8 $ 11 $ 12 $ 616 = 58। इस विश्लेषण से समस्त कर्म-प्रकृतियों का योग निकलता है। यह जीव कुल 148 प्रकृतियों को बांधता है। मात्राएं $ स्वर $ व्यंजन $ विशेषपद $ सामान्यपद का गुणन = 58 $ 34 $ 30 $ 11 $ 15 = 148। इन 148 प्रकृतियों में 122 प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं और बन्ध योग्य 120 प्रकृतियाँ हैं। उनका क्रम इस प्रकार है-58 $ 64 = 122 ये ही उदय योग्य हैं। क्योंकि 148 में से 26 निम्न प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं। स्पर्श दे 20 की जगह 4 का ग्रहण किया जाता है, इस प्रकार 16 प्रकृतियाँ घट जाती हैं और पाँचों शरीरों के पाँच बन्धन पाँच संघातों का ग्रहण नहीं किया गया है। इसप्रकार 26 घटने से 122 उदय में तथा बन्ध में दर्शनमोहनीय की एक ही प्रकृति बँधती है और उदय में यही तीन रूप में परिवर्तित हो जाती है। कहा गया है:

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जंतेण कोद्दवं वा पढमुवसम्मभावजंतेण।
मिच्छं दव्वं तु विधा असंखगुणहीणदव्वकमा।।
-कर्मकाण्ड

अर्थात् - प्रथमोपशमसम्यक्त्वपरिणामरूप यन्त्र से मिथ्यात्वरूपी कर्मद्रव्य द्रव्य-प्रमाण में क्रम से असंख्यातगुणा-असंख्यातगुणा कम होकर तीन प्रकार का हो जाता है। अर्थात् बन्ध केवल मिथ्यात्व प्रकृति का होता है और उदय में वही मिथ्यात्व तीन रूप में बदल जाता है। जैसे धान े चावल, कण और भूसा ये तीन अंश हो जाते हैं अर्थात् केवल धान उत्पन्न होता है, पर उपयोगकाल में उसी धान के चावल, कण और भूसा ये तीन अंश हो जाते हैं। यही बात मिथ्यात्व के सम्बन्ध में भी है।

इस प्रकार णमोकार मन्त्र बन्ध, उदय और सत्त्व की प्रकृतियों की संख्या पर समुचित प्रकाश डालता है। कुल प्रकृति संख्या 148, बन्ध संख्या 120, उदय संख्या 122 और सत्त्व संख्या 148 इसी मन्त्र में निहित है। 120 संख्या निकालने का क्रम यह हैं-34 स्वर, 30 व्यंजन बताये गये हैं। 3 गुण 4 = 12, 3 गुण 0 = 0 गुणनशील के अनुसार शून्य को दस मान लेने पर गुणनफल = 120।

30, 3 $ 0 = 3 रत्नत्रय संख्या; 3 गुण 0 = 0 कर्माभावरूप-मोक्ष। 30 $ 34 = 64, 6 गुण 4 = 24 तीर्थंकर, 3 गुण 4 = 12 चक्रवर्ती, 64 $ 35 = 99, 9 $ 9 = 18, 8 $ 1 = 9 नारायण, 9 पतिनारायण, 9 बलदेव इस प्रकार कुल 24 $ 12 $ 9 $ 9 = 63, शलाका पुरूष। 58 मात्राएं, इनके विश्लेषण-द्वारा 5 $ 8 = 13 चारित्र, 5 गुा 8 = 40, 4 $ 0 = 4 प्रकार के बन्ध-प्रकृति, प्रदेश स्थिति और अनुभाग। प्रमाण के भेद-प्रभेद भी इसमें निहित हैं। प्रमाण के मूलभेद दो हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। 5 » 3 = 1 ल. शेष 2, यही दो भेद वस्तु के व्यवस्थापक प्रमाण के भेद हैं। परोक्ष में पाँच भेद-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, 3 नुमान और आगमरूप पाँच भेद - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, 3 नुमान और आगमयप पाँच पद हैं। नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेदों के साथ नैगम, संग्रह, व्यवहार, कजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत। ये सात भी 3 $ 7 = 7 रूप में विद्यमान हैं। इस प्रकार इस महामन्त्र में कर्म बन्धक सामग्री-मिथ्यात्व 5, अविरति 12, प्रमाद 15, कषाय 25 और योग 15 की संख्या भी विद्यमान है। साथ ही कर्म बन्धन से मुक्त करानेवाली सामग्री 5 समिति, 3 गुप्ति, 5 महाव्रत, 22 परीषहजय, 12 अनुप्रेक्षा और 10 धर्म की संख्या भी निहित है। 10 धर्म की संख्या तथा कर्मों के 10 करणों की संख्या निम्न प्रकार आती है। 35 अक्षरों का विश्लेषण सामान्य पदो ंके साथ किया तो 3 गुण 5 = 15 - 5 पद = 10। इस मन्त्र के अंकों में द्वादशांग के पृथक्-पृथक् पदों की संख्या भी निहित है, आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्यायनांग आदि अंगों की पदसंख्या क्रमशः अठारह हजार, छत्तीस हज़ार, बयालीस हज़ार, एक लाख् चैसठ हज़ार, दो लाख अट्ठाईस हज़ार, पाँच सौ छप्पन हज़ार, ग्यारह लाख सत्तर हज़ार, तेईस लाख अट्ठाईस हज़ार, बानबे लाख चवालीस हज़ार, तिरानवे लाख सोलह हज़ार और एक करोड़ चैरासी लाख परद हैं। इन सब संख्याओं की उत्पत्ति इस महामन्त्र से हुई है। दृष्टिवाद के पदों की संख्या भी इस मन्त्र में विद्यमान है।