द्रव्यानुयोग और णमोकार मन्त्र
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जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस छह द्रव्यों का जीव, अजीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का एवं पुण्य-पापका निरूपण किया जाए, उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं। इस अनुयोग की दृष्टि से णमोकार महामन्त्र की विशेष महता है। णमोकार स्वयं द्रव्य है, शब्दों की दृष्टि से पुद्गल द्रव्य है और अर्थ की दृष्टि से शुद्धात्माओं का वर्णन करने के कारण जीवद्रव्य है। सम्यक्त्व की प्राप्ति का यह बहुत बड़ा साधन है। द्रव्यों के विवेचन से प्रतीत होताहै कि णमोकार मन्त्र का आत्मद्रव्य केसाथ निकटतम सम्बन्ध है तथा इसके द्वारा कल्याण का मार्ग किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता हैं इस मन्त्र में द्रव्य, तत्त्व, अस्तकाय आदि का निर्देश विद्यमान है।

जीव-आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है, अनन्त ज्ञानदर्शनवाला, अमूत्र्तिक , चैतन्य ज्ञानादिपर्यायों का कता्र, कर्मफलभोक्ता और स्वयं प्रभु है। कुन्दकुन्दाचार्य ने बतलाया है कि-‘‘जिसमें रूप, रस, गन्ध न हो तथा इन गुणों के न रहने से भी अव्यक्त है, शब्दरूप भी नहीं है, किसी भौतिक चिन्ह से भी जिसे कोई नहीं जान सकता, जिसका न कोई निर्दिष्ट आकार है, उस चैतन्य गुणविशिष्ट द्रव्य को जीव कहते हैं।’’ व्यवहार-नय से जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणों-द्वाराजीताहै, पहले जिया था और आगे जीवित रहेगा, उसे जीवद्रव्य तथा निश्चय नय की अपेक्षा से जिसमें चेतना पायी जाए, उसे जीवद्रव्य कहते हैं। णमोकार मन्त्र में वर्णित आत्माओं में उपर्युक्त निश्चय और व्यवहार दोनों ही लक्षण पाये जाते हैं। निश्चय नय-द्वारा वर्णित शुद्धात्मा अरिहन्त और सिद्ध की है। वे दोनों चैतन्य रूप हैं। ज्ञानादि पर्यायों के कर्ता और उनके भोक्ता हैं। आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्ठी की आत्माओं में व्यवहार-नय का लक्षण भी घटित होता है।

पुद्गल - जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाये जाएं उसे पुद्गल कहते हैं। इसके दो भेद हैं-अणु और स्कन्ध। अन्य प्रकार से पुद्गल के तेईस भेद माने गये हैं, जिनमें आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्माणवर्गणा- ये पाँच ग्रहाहृ वर्गणाएँ होती हैं। शब्द भाषावर्गणा का व्यक्त रूप है। अतः णमोकार मन्त्र के शब्द भाषावर्गणा के अंग हैं। ये वर्गणाएं द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य होती हैं। अतः णमोकार मन्त्र के शब्द पुद्गल द्रव्य हैं।

धर्म और अधर्म - ये दोनों द्रव्य क्रमशः जीव और पुद्गलों को चलने और ठहरने में सहायता करते हैं। णमोकार महामन्त्र का अनादि परम्परा से जो परिवर्तन होता आ रहा हे तथा अनेक कल्पकाल के अनेक तीर्थकरों ने इस महामन्त्र का प्रवचन किया है इसमें कारण ये दोनों द्रव्य हैं। इन द्रव्यों के कारण ही शब्द और अर्थ रूप परिण्मन करने में स्वयं परिवर्तन करते हुए इस मन्त्र को ये दोनों द्रव्य सहायता प्रदान करते हैं।

आकाश - समस्त वस्तुओं को अवकाश-स्थान प्रदान करता है। णमोकार मन्त्र भी द्रव्य है, उसे भी इसके द्वारा अवकाश-स्थान मिलता है। यह मन्त्र शब्दरूप में लिखित किसी काग़ज़ पर उसमें निवास करनेवाले आकाशद्रव्य के कारण ही स्थित है। क्योंकि आकाश का अस्तित्व पुस्तक, ताम्रपत्र, ताडपत्र, भोजपत्र, काग़ज़ आद सभी में है। अतः यह मन्त्र भी लिखित या अलिखित रूप में आकाश द्रव्य में ही वर्तमान है।

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काल - इस द्रव्य के निमित्त से वस्तुओं की अवस्थाएँ बदलती हैं। पर्यायों का विकार दूर होने से शररी पर इनका इतना अधिकार हो जाता है कि पूर्ण अहिंसक हो जाने पर भोजन की भी इन्हें अवश्यकता नहीं रहती। समदृष्टि हो जाने से सांसारिक प्रलोभन अपनी ओर खींच नहीं पाते हैं। द्रव्य और पर्याय उभय दृष्टि से शुद्ध परमात्म स्वरूप ये आत्मा होते हैं। जैन संस्कृति का मुख्य उद्देश्य निर्मल आत्मतत्त्व को प्राप्त कर शाश्वत सुख-निर्वाण लाभ है। शुद्धात्माओं का आदर्श सामने रहने से तथा शुद्धात्माओं के आदर्श का स्मरण, चिन्तन और मनन करने से शुद्धत्व की प्राप्ति होती है, जीवन पूर्ण अहिंसक बनता है। स्वामी समन्तभद्र ने अपने बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में शीतलनाथ भगवान की स्तुति करते हुए कहा है:

सुखाभिलाषानलदाहमूचर््िछत मनो निजं ज्ञानमयामृताम्बुभिः।
व्यदिध्ययस्त्वं विषदाहमोहितं यथा भिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहम्।।
स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः।
त्वमार्य नक्तंदिवमप्रमत्तवानजागरेवात्मविशुद्धवत्र्मनि।।

अर्थात् - जैसे वैद्य या मन्त्रविद् मन्त्रों के उच्चरण, मनन और ध्यान से सर्प के विष से सन्तप्त मूच्र्छा को प्राप्त अपने शरीर को विषरहित कर देता है, वैसे ही आपने इन्द्रिय-विषयसुख की तृष्णारूपी अग्नि की जलन से मोहत, हेयोपादेय के विचारशून्य अपने मन को आत्मज्ञानमय अमृत की वर्षा से शान्त कर दिया है। संसार के प्राणी अपने इस जीवन को बनाये रखने और इन्द्रियसुख को भोगने की तृष्णा से पीडि़त होकर दिन में तो नाना प्रकार के परिश्रम कर थक जाते हैं और रात होने पर विश्राम करते हैं। किन्तु हे प्रभो! आप रात-दिन प्रमादरहित होकर आत्मा को शुद्ध करने वाले मोक्ष मार्ग में जागते ही रहते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि पंचपरमेष्ठी का स्वरूप शुद्धात्मामय है अथावा शुद्धात्मा की उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील आत्माएँ हैं। इनकी समस्त क्रियाएँ आत्माधीन होती हैं स्वावलम्बन इनके जीवन मे पूर्णतया आ जाता हैं क्योकि र्कमादिमल से छुटकर अनन्तज्ञानादि गुणो के स्वामी होकर आत्मानन्द मे नित्य मगन रहना, यही जीवन का सच्चा प्रयोजन हैं । पंचपरमेष्ठी की आत्माएँ इन प्रयोजनों को सिद्ध कर लेती हैं या इनकी सिद्धि के लिए प्रयत्नशील हैं। आत्मा अनादि, स्वतः सिद्ध, उपधिहीन एवं निर्दोष है। अस्त्र-शास्त्रों से इसका छेदन नहीं हो सकता, जलप्लावन से यह भीग नहीं सकता, आग से जल नहीं सकता, पवन से सूख नहीं सकता और धूप से कभी निस्तेज नहीं हो सकता है। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यक्त्व, अगुरूलघुत्व आदि आठ गुण इस आत्मा में विद्यमान हैं। ये गुण इस आत्मा के स्वभाव हैं, आत्मा से अलग नहीं हो सकते हैं। णमोकार मन्त्र में प्रतिपादित पंचमेष्ठी उक्त गुणों को प्राप्त कर लेेता हैं अथावा पंचपरमेष्ठियों में से जिन्होंने उन गुणों को प्राप्त नहीं भी किया है वे प्राप्त करने का उपक्रम करते हैं। इस स्थूल शरीर के द्वारा वे अपनी आत्मा-साधना में सर्वदा संलग्न रहते हैं।

ये अहिंसा के साथ तप और त्याग का अनिवार्य रूप से पालन करते हैं, जिससे राग-द्वेष आदि मलिन वृत्तियों परसहज में विजय पाते हैं। इनके आचार और विचार दोनों शुद्ध होते हैं। आचार की शुद्धि के कारण ये पशु, पक्षी, मनुष्य, कीट, पतंग, चींटी आदि त्रस जीवों की रक्षा के साथ पार्थिव, अलीय, आग्नेय, वायवीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणियों तक की हिंसा से आत्मौपम्य की भावना द्वारा पूर्णतया निवृत्त रहते हैं। विचार-श्ुद्धि होने से इनकी साम्यदृष्टि रहती है; पक्षपात, राग, द्वेष, संकीर्णता इनके पास फटकने भी नहीं पाती। प्रमाण और नयवाद के द्वारा अपने विचारों का परिष्कार कर ये सत्य दृष्टि को प्राप्त करते हैं।

णमोकार मन्त्र में निरूपित आत्माओं का एकमात्र उद्देश्य मानवता का कल्याण करना है। ये पाँचों ही प्राणिमात्र के लिए परम उपकारी हैं। अपने जीवन के त्याग, तपश्चरण, तत्त्वज्ञान और आचरण द्वारा समस्त प्राणियो का हित-साधन करते हैं। उनकी कोई भी क्रिया, किसी भी प्राणी के लिए बाधक नहीं हो सकती है। ये स्वयं संसार-भ्रमण-जन्म, मरण के चक्र से छुटकारा प्राप्त करते हैं तथा अन्य जीवों को भी अपने शारीरिक या वाचनिक प्रभाव द्वारा इस संसार-चक्र से छूट जाने का उपाय बतलाते हैं। अतएव णमोकर मन्त्र जैन संस्कृति का अन्तरंग रूप भावशुद्धि-सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्आचरण आदि के साथ है। इस मन्त्र के आदर्श से तप और त्याग के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा, अहिंसा और अपरिग्रह को आचरण में उतारने की शिक्षा, विश्वबन्धुत्व और आत्मकल्याणा की कामना उत्पन्न होती है। इस महामन्त्र में व्यक्ति की अपेक्षा गुणों की महत्ता दी गई है। अतः यह रत्नत्रयरूप संस्कृति की प्राप्ति के लिए साधक को आगे बढ़ाता है। उसके सामने पंचपरमेष्ठियों का आचरण प्रस्तुत करता है, जिससे कोई भी व्यक्ति आत्मा को संस्कृत कर सकता है। आत्मा का सच्चा संस्कार त्याग द्वारा ही होता है। इससे राग-द्वेषों का परिमार्जन होता है और संयम की प्रवृत्ति भी प्राप्त होती है। अन्तरंग आत्मा को रत्नत्रय के द्वारा ही सजाया जाता है, इसके बिना आत्मा का संस्कार कभी भी सम्भव नहीं। णमोकारमन्त्र का आदर्श अरूपी, अकर्मा, अभोक्ता, चैतन्यमय, ज्ञानादि परिणामों का कर्ता और भोक्ता को अनुभूति में लाना है। जिस प्रशम गुण-कषाय भाव से आत्मा में परमानन्द आया, वह भी इसी के आदर्श से मिलता है। अतः जैन संस्कृति का वास्तविक आदर्श इस महान् मन्त्र द्वारा ही प्राप्त होता है।

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बाहृ जैन संस्कृति सामाजिक एवं पारिवारिक विकास, उपसना-विधान, साहित्य, ललितकलाएँ, रहन-सहन, खान-पान आदि रूप में है। इन बाहृ जैन संस्कृति के अंगों के साथ भी णमोकार मन्त्र का सम्बन्ध है। उक्त संस्कृति के स्थूल अवयव भी इसके द्वारा अनुप्राणित हैं। निष्कर्ष यह है कि इस महामन्त्र के आदर्श मूल प्रवृत्तियों, वासनाओं और अनुभूतियों को नियन्त्रित करने में समर्थ हैं। नैतिक जीवन-बुद्धि द्वारा नियन्त्रित इन्द्रिय-परता इस आदर्श का फल है। अतएव निवृत्ति-प्रधान जैन संस्कृति की प्रप्ति इस महामन्त्र द्वारा होती है। अतः णमोकार मन्त्र का आदर्श, जिसके अनुकरण का जीवन के आदर्श का निर्माण किया जाता है, त्याग और पूर्ण अहिंसकमय है। इस मन्त्र से जैन संस्कृति की सारी रूप-रेखा सामने प्रस्तुत हो जाती है। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी किस प्रकार अपने विकारों के त्याग और जीवन के नियन्त्रण से अपने आत्मा को संस्कृत कर चुके हैं। संस्कृति का एक स्पष्ट मान चित्र अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु का नाम स्मरण करते ही सामने प्रस्तुत हो जाता है। इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकत है कि व्यक्ति की अन्तरंग ओर बहिरंग रूपाकृति ही उसका आदर्श है, यह आदर्श अन्य व्यक्ति की अन्तरंग ओर बहिरंग रूपाकृति ही उसका आदर्श है, यह आदर्श अन्य व्यक्तियों के लिए जितना उपयोगी एवं प्रभावोत्पादक हो सकता है, उस व्यक्ति की संस्कृत को उतना ही प्रभावित कर सकता है। पंचपरमेष्ठी द्वारा स्वावलम्बन और स्वातन्त्रय के भाव जाग्रत होते हैं। कत्र्तापने की भावना, जिसके कारण व्यक्ति परमुख्पेक्षी रहता है ओर अपने उद्धार एवं कल्याण के लिए अन्य की सहायता की अपेक्षा करता रहता है, जैन संस्कृति के विपरीत है। इस महामन्त्र को आदर्श स्वयं ही अपने पुरूषार्थ द्वारा साधु अवस्था धारण कर सिद्ध अवस्था प्राप्त करने की और संकेत करता है। अतएवं णमोकार मन्त्र जैन संस्कृति का सच्चा और स्पष्ट मानचित्र प्रस्तुत कर देता है।