मुनि का आचार और णमोकार मन्त्र
jain-img160

मुनि पंच महाव्रत, पाँंच समिति, पाँच इन्द्रियजय, षट् आवश्यक, स्नानत्याग, इन्तधवन का त्याग, पृथ्वी पर शयन, खड़े होकर भोजन लेना, दिन में एक बार शुद्ध निर्दोष आहार लेना, नग्न रहना, और केशलुंच करना इस अट्ठाईस मूल गुणों का पालनकरते हैं। ये मध्य रात्रि में चार घउ़ी निद्रा लेते हैं, पश्चात् स्वाधय करते हैं। दो घड़ी रात शेष रह जानेपरस्वाध्याय समाप्त कर प्रतिक्रमण करते हैं। तीनों सन्ध्याओं में जिनदेव की वन्दना तथा उनके पवित्र गुणों का स्मरण करते हैं। कायोत्सर्ग करते समय हृदयकमल में प्राणवायु के साथ मन का नियमन करके ‘‘णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उबज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं’’ मन्त्र का प्राणायाम की विधि से नौ बार जप करे हैं। कोयोत्सर्क के पश्चात् स्तुति, वन्दना आदि क्रियाएं करते हैं। इन क्रियाओं में भी णमोकार मन्त्र के ध्यान की उन्हें आवश्यकता होती है। दैवसिक प्रतिक्रमण के अन्त में मुनि कहता है-‘‘पंचमहाव्रत-पंचसमिति-पंचेन्रिदयरोध-लोचादिषडावश्यकक्रिया अष्टाविंशाति-मूलगुणाः उत्तमक्षमामार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि दशलाक्षणिको धर्म, अष्टादशशीलसहस्त्राणि, चतुर-शीतिललक्षगुणाः, त्रयोदशाविधं चारित्रं, द्वादशविधं तपश्चेति सकलम् अर्हत्सिद्धा-चार्योपाध्यायसर्वसाधुसाक्षिकं सम्यक्त्वपूर्वकं दृढव्रतं समारूढं ते मे भवतु।

अथ सर्वातिचारविशुद्यर्थं दैवसिक-प्रतिक्रमणक्रियायां कृतदोष-निराकरणार्थं पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतम् आलोचनासिद्ध-भक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं-इति प्रतिज्ञाप्य णमो अरिहंताणं इत्यादि सामायिक-दण्डकं पठित्वा कायोत्सर्ग कुर्यात्।’’

इस उद्धरण से स्पष्ट है कि मुनिराज सर्व अतिचारकी शुद्धि के लिए दैवसिक प्रतिक्रमण करते हैं,उस समय सकल कर्मों के विनाश के लिए भावपूजा, वन्दना और स्तवन करते हुए कायोत्सर्ग क्रिया करते हैं तथा इस क्रिया में णमोकार मन्त्र का उच्चारण करना परमावश्यक होता है। नैश्कि प्रतिक्रमण के समय भी ‘‘सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं नैशिकप्रतिक्रमणक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण भावपूजा-वन्दनास्तवसमेतं प्रतिक्रमणभक्तिकायोत्सर्गं करोभ्यहम्’’ पढ़कर णमोकार मन्त्ररूप दण्डक को पढ़कर कायोत्सर्ग की क्रिया सम्पन्न करताहै। पाक्षिक प्रतिक्रमण के समय तो अढ़ाई द्वीप, पन्द्रह कर्मभूमियों में जितने अरिहन्त, केवलीजिन, तीर्थंकर, सिद्ध, धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, धर्मनायक, उपाध्याय, साधु की भक्ति करते हुए इस मन्त्र के 27 श्वासोच्छवासों में 9 जाप करने चाहिए। प्रतिक्रमण दण्डक आरम्भ में ही ‘‘णमो अरिहंताणं’’ अदि णमोकार मन्त्र के साथ ‘‘णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं, णमो परमोहिजिणाणं, णमो सव्वोहिजिणाणं, णमो अणंतोहिजिणाणं, णमो मोहबुद्धीणं, णमो बीजबुद्धीणं, णमो पादाणुसारीणं, णमो संभिण्णसोदारणं, णमो सयंबुद्धाणं, णमो पत्तेयबुद्धाणं, णमो बोहियबुद्धाणं’’ आदि जिनेन्द्रों को नमस्कार करते हुए प्रतिक्रमण के मध्य में अनेक बार णमोकार मन्त्र का ध्यान किया गया है। प्रत्येक महाव्रत की भावना को दृढ़ करने के लिए णमोकार मन्त्र का जाप करना आवश्यक समझा जाता है। अतः ‘‘प्रथमं महाव्रतं सर्वेषां व्रतधारिणां सम्यक्त्वपूर्वक दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु’’ कहकर ‘‘णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं’’ आदि मन्त्र का 27 श्वासोच्छ्वासों में नौ बार जाप किया जाता है। प्रत्येक महाव्रत की भावना के पश्चात् यह क्रिया करनी पड़ती है। अतिक्रमण में आगे बढ़ने पर ‘‘अइचारं पाड्डिक्कमामि णिंदामि गरहांदि अप्पणं वोस्सरामि जाव अरहंताणं भयवंताणं णमोक्कारं करेमि पज्जुवासं करेमि ताव कायं पावकम्मं दुच्चरिणं वोस्सरामि। णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं’’ रूप से कायोत्सर्ग करताहै। वार्षिक प्रतिक्रमण क्रिया में तो णमोकार मन्त्र के जाप की अनेक बार आवश्यकता होती है। मुनिराज की कोई भी प्रतिक्रमण किया इस णमोकार मन्त्र के स्मरण के बिना सम्भव नहीं है। 27 श्वासोच्छ्वासों में इस महामन्त्र का 9 बार उच्चारण किया जाता है।

इसी प्रकार प्रातःकालीन देववन्दना के अनन्तर मुनिराज सिद्ध, शास्त्र, तीर्थंकर, निर्वाण, चैत्य और आचार्य आदि भक्तियों का पाठ करते हैं। प्रत्येक भक्ति के अन्त मेें दण्डक-णमोकार मन्त्र का नौ बार जाप करते हैं। यह भक्तिपाठ 48 मिनिट तक प्रातःकाल में किया जाता है। पश्चात् स्वाध्याय आरम्भ करते हैं। मुनिराज शास्त्र पढ़ने के पूर्व नौ बार णमोकार मन्त्र तथा शास्त्र समाप्त करने के पश्चात् नौ बार णमोकार मन्त्र का ध्यान करते हैं। इतना ही नहीं, गमन करने, बैठने, आहार करने, शुद्धि करने,उपदेश देने, शयन करने आदि समस्त क्रियाओं के आरम्भ करने के पूर्व और समस्त क्रियाओं की समाप्ति के पश्चात् नौ बार णमोकार मन्त्र का जाप करनापरम आवश्यक माना गया है। षट् आवश्यकों के पालने में तो पद-पद पर इस महामन्त्र की आवश्यकता है। मुनिधर्म की ऐसी एक भी क्रिया नहीं है, जो इस महामन्त्र के जाप बिना सम्पन्न की जा सके। जितनी भी सामान्य या विशेष क्रियाएं हैं, वे सब इस महामन्त्र की आराधनापूर्वक ही सम्पन्न की जाती है। किन्तु भावलिंगी मुनि अपनी भावनाओं को निर्मल करता हुआ इस मन्त्र की अराधना करता है तथा सामायिक काल में इस मन्त्र का ध्यान करताहुआ अपनी कर्मों की निर्जरा करताहै। पूज्यपाद स्वामी ने पंचगुरू भक्ति में बताया है कि मुनिराज भक्तिपाठ करते णमोकार मन्त्र का आदर्श सामने रखते हैं, जिससे उन्हें परम शान्ति मिलती है। मन एकाग्र होता है और आत्मा धर्ममय हो जाती है। बतलाया गया है:

jain-img161
जिनसिद्धसूरिदेशकसाधुवरानमलगूणगणोपेतान्।
पंचनमस्करपदैस्त्रिसन्ध्यमभिनौमि मेक्षलाभाय।।6।।
अर्हत्सिद्धाचार्योंपाध्यायाः सर्वसाधवः।
कुर्वन्तु मंगलाः सर्वे निर्वाणपरमश्रियम्।।8।।
पान्तु श्रीपादपद्मानि पंचानां परमेठिनाम्।
ललितानि सुराधीशचूडामणिमरीचिभिः।।10।।
असहा सिछ्धाइरिया उवज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी।
एयाण णमुक्कारा भवे भवे मम सुहं दिंतु।।

अर्थात-निर्मल पवित्र गुणों से युक्त अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधु को मैं मोक्ष-प्राप्ति के लिए तीनों सन्ध्याओं में नमस्कार करता हूँ। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंचपरमेष्ठी हमारा मंगल करे, निर्वाण पद की प्राप्ति हो। पंचपरमेष्ठियों के वे चरण कमल रक्षा करें, जो इन्द्र के नमस्कार करने के कारण मुकुटमणियों से निरन्तर उद्भासित होते रहते हैं। पंचपरमेष्ठी को नमस्कारकरने से भव-भव में सुख की प्राप्ति होती है। जन्म-जन्मान्तर का संचित पाप नष्ट हो जाता है और आत्मा निर्मल निकल आता है। अतः मुनिराज अपनी प्रत्येक क्रिया के आरम्भ और अन्त में इस महामन्त्र का स्मरण करते हैं।

प्रवचनसार में कुन्दकुन्द स्वामी ने बताया है कि जो अरिहन्त के आत्मा को ठीक तरह से समझ लेता है, वह निज आत्मा को भी द्रव्य-गुण पर्याय से युक्त अवगत कर सकता है। णमोकार मन्त्र की आराधना स्थिर संचित पाप को भस्म करनेवाली है। इस मन्त्र के ध्यान से अरिहन्त और सिद्ध की आत्मा का ध्यान किया जाता है, आत्मा कर्मकलंक से रहित निज स्वरूप को अवगत करने लगता है। कहा गया है:

जो जाणदि अरिहंत दव्वत्त पज्जयत्तेहिं।
सो जागणदि अप्पाण्ं मोहो खलु जादु तस्स लयं।।80।। -अ. 1

‘‘यो हि नामार्हन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्यायत्वैः परिच्छिनत्ति स खल्वात्मानं परिच्छिनत्ति, उभयोरादिनिश्चयेनाविशेषात्। अर्हतोऽपि पाककाष्ठागतकार्त-स्वरस्येव परिस्पष्टमात्मरूपं ततस्तत्परिच्छेदे सर्वात्मपरिच्छेदः। तत्रान्वयो द्रव्यं, अन्वयं विशेषणं गुणः अन्वयव्यतिरेकाः पर्यायाः।’’ अर्थात् जो अरिहन्त को द्रव्य, गुण और पर्याय रूप से जानता है, वह अपने आत्मा को जानता है, और उसका मोह नष्ट हो जाता है। क्योंकि जो अरिहन्त का स्वरूप है, वही स्वभाव दृष्टि से आत्मा का भी यथार्थ स्वरूप है। अतएव मुनिराज सर्वदा इस महामन्त्र के स्मरण-द्वारा अपने आत्मा में पवित्रता लाते हैं।

सामाधि की प्राप्ति के लिए प्रयत्नवाले साधक मुनि तो इसी महामन्त्र की आराधना करते हैं। अतः मुनि के आचार के साथ इस महामन्त्र का विशेष सम्बन्ध है। जब मुनिदीक्षा ग्रहण की जाती है, उस समय इसी महामन्त्र के अनुष्ठान-द्वारा दीक्षाविधि सम्पन्न की जाती है।