|| भक्तामर स्तोत्र-मूल पाठ १ से १२ ||

भक्तामर स्तोत्र: मूल पाठ, अन्वयार्थ, पद्यानुवाद और अर्थ - अभिप्राय

मूल पाठ

(वसन्ततिलकावृत्तम्)

भक्तामर-प्रणत-मौलिमणि-प्रभाणा-
मुद्द्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम्।
सम्यक् प्रणम्य जिनपाद्युगं युगादा-
बालम्बनं भवजले पततां जनानाम्।।१।।

यः संस्तुतः सकल-वाड्.मयतत्वबोधा-
दुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः।
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय-चित्तहरैरुदारै
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम।।२।।

(युग्मम्)

        अन्वयार्थ -(भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणिप्रभाणाम्) भक्त देवों के झुके हुए मुकुट सम्बन्धी रत्नों की कान्ति के (उद्द्योतकम्) प्रकाशक (दलित-पाप-तमोवितानम्) पापरूपी अंधकार समूह को नष्ट करने वाले और (युगादौ) युग के प्रारम्भ में (भावजले) संसाररूपी जल में (पतताम्) गिरते हुए (जनानाम्) प्राणियों के (आलम्बनम्) आलंबन-सहारे (जिनपादयुगं) जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणों को (सम्यक्) अच्छी तरह से (प्रणम्य) प्रणाम करके।

        (यः) जो (सकल-वाड्.मय-तत्वबोधात्) समस्त द्वादशांग (शास्त्र) के ज्ञान से (उद्भूत-बुद्धि-पटुभिः) उत्पन्न हुई बुद्धि के द्वारा चतुर (सुरलोक-नाथैः) इन्द्रों के द्वारा (जगत्त्रितयचित्तहरैः) तीनों लोकों के प्राणियों के चित्त को हरने वाले और (उदारैः) उत्कृष्ट (स्तोत्रैः) स्तोत्रों से (संस्तुतः) जिनकी स्तुति की गई थी (तम्) उन (प्रथमम्) पहले (जिनेन्द्रम्) जिनेन्द्र ऋषभदेव की (अहम् अपि) मैं भी (किल) निश्चय से (स्तोष्ये) स्तुति करूँगा।।१-२।।

पद्यानुवाद
(श्री पंडित हेमराज कृत)
आदि पुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार।
धरम धुरंधर परम गुरु, नमों आदि अवतार।।
सुरनत-मुकुट रतन छवि करें, अन्तर पाप तिमिर सब हरें।
जिन पद वन्दों मन वच काय, भवजल पतित-उधरन सहाय।।
श्रुत-पारग इन्द्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव।
शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभु की वरनों गुनमाल।।
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अर्थ - अभिप्राय

        कर्मभूमि के प्रारम्भ में, भूख-प्यास से पीडि़त प्रजा को, जिन्होंने उसके निवारण का मार्ग दिखाया और धर्म का उपदेश देकर पाप के प्रसार को रोका, भक्तियुक्त देवों ने आकर चरण-कमलों को नमस्कार किया। उनके चरणों के नखों की कान्ति से देवों के मस्तकों के मुकुटों में लगी हुई मणियाँ और भी अधिक चमकने लगती थी। ऐसे प्रथम जिनेन्द्र ऋषभदेव के चरणों में प्रणाम करके मैं उनकी स्तुति करूँगा।

        समस्त शास्त्रों के तत्वज्ञान से उत्पन्न होने वाली निपुण बुद्धि द्वारा अतीव चतुर बने हुए देवेन्द्रों ने तीन लोक के चित्त को हरण करने वाले, अनेक प्रकार के गंभीर एवं विशाल स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की है, आश्चर्य है, उन प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभु की मैं स्तुति करना आरम्भ करता हूँ।

मूल पाठ
बुद्धया विनाऽपि विबुधार्चितपादपीठ!
स्तोतं समुद्यत-मतिर् विगत-त्रपोऽहम्।
बलं विहाय जलसंस्थितमिन्टुबिम्ब-
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्।।३।।

        अन्वयार्थ -(विबुधार्चित-पादपीठ!) देवों के द्वारा जिनके चरण रखने की चैकी पूजित है, ऐसे हैं जिनेन्द्र! (विगत-त्रपः) लज्जारहित (अहम्) मैं (बुद्धया विना अपि) बुद्धि के बिना भी (स्तोतुम्) स्तुति करने के लिये (समुद्यतमतिः) तत्पर हो रहा हूँ। (बालम्) बालक-अज्ञानी को (विहाय) छोड़कर (अन्यः) दूसरा (कः जनः) कौन मनुष्य (जल-संस्थितम्) जल में स्थित-रहे हुए (इन्दुबिम्बन्) चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को (सहसा) बिना विचारे (ग्रहीतुम्) पकड़ने की (इच्छति) इच्छा करता है ? अर्थात् कोई भी नहीं करता।।३।।

पद्यानुवाद
विबुध-वंद्यपद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन।
जल-प्रतिबिम्ब बुद्ध को गहै, शशिमंडल बालक ही चहै।।
अर्थ - अभिप्राय

        मैं (मानतुंग आचार्य) बुद्धिविहीन (अल्प बुद्धि), देवों से अर्चित हैं चरण कमल जिनके, ऐसे है जिनेन्द्रदेव! आपकी स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ है। यह मेरी बाल-चेष्टा है, क्योंकि जल में पड़े हुए चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक के सिवाय पकड़ने की अन्य कौन चेष्टा कर सकता है ? अर्थात् कोई भी नहीं। उसी प्रकार आपके अगम्य गुणों का वर्णन करने का प्रयास बाललीला के समान ही है।

मूल पाठ
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र! शशांककान्तान्,
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या।
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्रचक्रं,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्।।४।।

         अन्वयार्थ -(गुणसमुद्र!) हे गुणों के सागर! (बुद्धया) बुद्धि से (सुरगुरु-प्रतिमः अपि) वृहस्पति के समान भी (कः) कौन पुरुष (ते) आपके (शशांककान्तान्) चन्द्रमा के समान सुन्दर (गुणान्) गुणों को (वक्तुं) कहने में (क्षमः) समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं। (वा) अथवा (कल्पान्तकालपवनोद्धत-नक्रचक्रम्) प्रलयकाल के अंधड़ से विक्षुब्ध मगरमच्छों का समूह जिसमें उछल रहा हो, ऐसे (अम्बुनिधिम्) समुद्र को (भुजाभ्याम्) भुजाओं से (तरीतुम्) तैर कर पार करने में (कः अलम्) कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं।।४।।

पद्यानुवाद
गुन समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुरगुरु पावें पार।
पलय पवन उद्धत जलजन्तु, जलधि तिरै को भुज बलवन्तु।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे गुण सिंधु! देवों के गुरु बृहस्पति के समान बुद्धि वाले भी आपके चन्द्रमा के सदृश कांति वाले उज्ज्वल गुणों को कहने मे समर्थ नहीं है, तो अन्य कौन समर्थ है ? जैसे प्रलयकाल के प्रचंड पचन से उछलते हुए मगरमच्छों से युक्त समुद्र को दो भुजाओं से तैरने के लिए कौन पुरुष समर्थ हो सकता है? अर्थात् कोई भी नहीं।

मूल पाठ
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः।
प्रीत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रं,
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम्।।५।।

         अन्वयार्थ -(मुनीश!) हे मुनियों के स्वामी! (तथापि) तो भी (सः अहम्) वह अल्पज्ञ मैं (विगतशक्तिः अपि) शक्तिरहित होते हुए भी (भक्तिवशात्) भक्ति के वश (तव) आपकी (स्तवम्) स्तुति (कर्तुम्) करने के लिए (प्रवृत्तः) तैयार हुआ हूँ। (मृगी) बेचारी हिरनी (आत्मवीर्य अविचार्य) अपनी शक्ति का विचार किये बिना केवल (प्रीत्या) वात्सल्य प्रीति के वश (निजशिशोः) अपने बच्चे की (परिपालनार्थम्) रक्षा के लिए (किम्) क्या (मृगेन्द्रं न अभ्येति) सिंह के सामने नहीं अड़ जाती है ? अर्थात् अड़ ही जाती है।।५।।

पद्यानुवाद
सो मैं शक्तिहीन थुति करूँ, भक्ति भाववश कछु नहिं डरूँ।
ज्यों मृगि निज सुत पालत हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत।।
अर्थ - अभिप्राय

        ऐसा होते हुए भी (तो भी) हे मुनीश! वही मैं, शक्ति नहीं होने पर भी भक्ति के वश से आपकी स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ हूँ, जैसे हिरणी समर्थ नहीं होने पर भी वात्सल्यवश अपने बच्चे को बचाने के लिए वह सिंह का सामना करती है।

मूल पाठ
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम,
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्।
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र-चारु-कलिकानिकरैकहेतुः।।६।।

         अन्वयार्थ -(अल्पश्रुतम्) मैं अल्पज्ञ हूँ, अतएव (श्रुतवताम्) विद्वानों की (परिहास-धाम) हँसी के स्थान-पात्र (माम्) मुझे (त्वद्भक्तिः एव) आपकी भक्ति ही (बलात्) जबर्दस्ती (मुखरीकुरुते) वाचाल कर रही है (किल) निश्चय से (मधौ) वसंत ऋतु में (कोकिलः) कोयल (यत्) जो (मधुरम् विरौति) मीठे शब्द करती है (तत् च) और वह (आम्रचारुकलिकानिकरै कहेतुः) आम की सुन्दर मंजरी के समूह के कारण ही करती है।।६।।

पद्यानुवाद
मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तुव भक्ति बुलावै राम।
ज्यों पिक अम्ब-कली परभाव, मधु ऋतु मधुर करै आराव।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! जैसे वसन्त ऋतु में आम की मंजरी का निमित्त पाकर कोयल मधुर वचन बोलती है, वैसे ही मैं भी आपकी भक्ति के निमित्त को पाकर आपकी स्तुति करने हेतु वाचाल हा रहा हूँ। अन्यथा मैं तो अल्पज्ञानी हूँ और ज्ञानियों के सामने उपहास का पात्र हूँ।

        वसन्तऋतु में कोयल मधुर स्वर में कुहूकती है, क्योंकि उसके सामने आम्रवृक्षों के रसदार मंजरियों के गुच्छे होते हैं। स्वाभाविक है कि जब अपने सामने कोई अत्यन्त प्रिय वस्तु (जैसे कि रसदार आमों का बौर) हो तो स्वर में अपने आप मधुरता आ जाती है, ठीक उसी प्रकार आपकी भक्ति के विचार मात्र से ही मेरी वाणी में इतनी मधुरता आ रही है।

मूल पाठ
त्वत्संस्तवेन भवसन्तति-सन्निबद्धं
पपं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्।
आक्रान्त-लोकमलिनीलमशेषमाशु
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमंधकारम्।।७।।

         अन्वयार्थ -(त्वत्संस्तवेन) आपकी स्तुति से (शरीर-भाजाम्) प्राणियों के (भवसन्तति-सन्निबद्धम) अनेक जन्म-परंपरा से बँधे हुए (पापम्) पापकर्म (आक्रान्त-लोकम्) सम्पूर्ण लोक में फैले हुए (अलिनीलम्) भौंरो के समान काला (शार्वरम्) रात्रि का (अशेषम् अंधकारम्) संपूर्ण अंधकार (सूर्यांशुभिन्नम् इव) जैसे सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी तरह पूर्वबद्ध कर्म (क्षणात्) क्षणभर में (आशु शीघ्र ही(क्षयम् उपैति) नष्ट हो जाते हैं।।७।।

पद्यानुवाद
तुम जस जंपत जन छिन माहिं, जनम जनम के पाप नशाहिं।
ज्यों रवि उगै फटै तत्काल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल।।
अर्थ - अभिप्राय

         जैसे रात्रि का समस्त लोक में फैले हुए भ्रमर के समान काले रंग वाला घोर अंधकार सूर्य की किरणों से शीघ्र समूल नष्ट हो जाता है, वैसे ही हे प्रभु! आपकी स्तुति करने से देहधारियों के अनेक भवों से संचित अर्थात् बँधे हुए पाप क्षणभर में नष्ट हो जाते है।

        जिस प्रकार सूर्य की किरण से रात्रि का सघन काला अंधकार पौ फटते ही विलीन हो जाता है, उसी प्रकार आपके दर्शन-स्मरणरूपी सम्यक्त्व की किरण से मिथ्यात्वरूपी अन्धकार क्षणभर में नष्ट हो जाता है। मिथ्यात्व तो तभी तक था, जब तक कि हृदय में जिनेन्द्र भक्ति का प्रखर प्रकाश नहीं था। मानव हृदय में श्री जिनेन्द्रदेव के गुणों का प्रकाश होते ही उसमें प्रच्छन्न समस्त सांसारिक पापकर्म तुरन्त ही समाप्त हो जाते हैं। वस्तुतः मानव हृदय में जब अपने आदर्श के गुणों का आलोक भर जाता है तो फिर कल्मषरूपी अन्धकार वहाँ कैसे ठहर सकता है ? भला कहीं एक म्यान में दो तलवारें रह सकती है - अर्थात् कभी नहीं।

मूल पाठ
मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात्।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु
मुक्ताफल-द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः।।८।।

         अन्वयार्थ -(नाथ!) हे स्वामिन्! (इति मत्वा) ऐसा मानकर ही (मया तनुधिया अपि) मुझ मन्द-बुद्धि के द्वारा भी (तव) आपका (इदम्) यह (संस्तवनम्) स्तवन (आरभ्यते) प्रारम्भ किया जाता है कि (तव प्रभावात्) आपके प्रभाव से वह (सताम्) सज्जनों के (चेतः) चित्त को उसी तरह (हरिष्यति) हरण करेगा (ननु) निश्चय ही जैसे (उद-बिन्दुः) जल-बिन्दु (नलिनीदलेषु) कमलिनी के पत्तों पर (मुक्ताफल-द्युतिम्) मोती के समान कांति को (उपैति) प्राप्त होता है।।८।।

पद्यानुवाद
तुव प्रभाव तैं कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मनहार।
ज्यों जल कमल पत्र पै परै, मुक्ताफल की द्युति विस्तरै।।
अर्थ - अभिप्राय

        मुझ अल्पज्ञ द्वारा रचित यह साधारण स्तोत्र भी आपके प्रभाव से सज्जन पुरुषों के मन को अवश्य ही हरण करेगा, जैसे कमलिनी के पत्तों पर पड़ी हुई जल की बूँद भी उन पत्तों के प्रभाव से मोती के समान शोभा पाती है।

        हे प्रभो! जिस प्रकार कमलिनी के पत्ते पर पड़ा हुआ ओस-बिन्दु उस पत्ते के स्वभाव एवं प्रभाव से मोती के समान आभा बिखेरकर दर्शकों के चित्त को आह्लादित करता है, उसी प्रकार मुझमंद बुद्धि के द्वारा किया हुआ यह स्तवन भी आपके प्रताप, प्रभाव एवं प्रसाद से सज्जन पुरुषों के चित्त को प्रफुल्लित करेगा।

        गुणगायन भले ही मंद बुद्धि के द्वारा किया जा रहा है, परन्तु उसमें आपके गुणों का ही पुट आद्यन्त विद्यमान है तो आश्चर्य नहीं कि मेरा यह लघु स्तोत्र भी महान् चमत्कारी बनकर सत्पुरुषों के हृदय को प्रफुल्लित करने मे समर्थ होगा। ओस की बूँद का भी कोई महत्व होता है? परन्तु वही बूँद जब कमलिनी के पत्र पर पड़ जाती है तब स्वभावतः ही वह मोती का रूप धारण करके दर्शकों के मन को मोहित करती है। आखिर उस पानी की बूँद को मोती की आभा देने में किसका हाथ है ? कमलिनी के पत्ते का ही क्या यह स्वाभाविक प्रभाव नहीं है ? अर्थात् अवश्य है। उसी तरह स्तुति में निहित सारा चमत्कार जिनवर के परम प्रसाद का परिणाम है। इसमें मेरा कुछ भी नहीं है।

        भव्य जीवों के वचनरूपी जल-कण मिथ्यात्व मल-मैल के हटते ही गुणानुवादरूपी पत्ते भी उस पानी पर फैले हुए हैं। हे भगवन्! मेरी आत्मा पर कर्मों के आवरण है। उसमें यथार्थ स्वरूप होना असम्भव है, तब भी पौद्गलिक शब्दों से मेरे द्वारा जो स्तवन हो रहा है, वह संतों-सज्जनों को संतुष्ट करेगा।

मूल पाठ
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्त-दोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति।
दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव
पद्याकरेषु जलजानि विकाशभांजि।।९।।

         अन्वयार्थ -(अस्तसमस्तदोषम्) सम्पूर्ण दोषों से रहित (तव स्तवनम् आस्ताम्) आपका स्तवन तो दूर रहा,किन्तु (त्वत् संकथा अपि) आपकी पवित्र कथा भी (जगताम्) जगत् के जीवों के (दूरितानि) पापों को (हन्ति) नष्ट कर देती है। (सहस्त्रकिरणः) सूर्य (दूरे) दूर रहता है, पर उसकी (प्रभा एव) प्रभा ही (पद्माकरेषु) सरोवरों में (जलजानि) कमलों को (विकाश-भांजि) विकसित (कुरुते) कर देती है।।९।।

पद्यानुवाद
तुम गुन महिमा हत दुख-दोष, सो तो दूर रहो सुख पोष।
पाप विनाशक हैं तुम नाम, कमल विकासी ज्यों रविधाम।।
अर्थ - अभिप्राय

        सूर्योदय होना तो दूर रहा, परन्तु उसकी अरुण-प्रभा ही सरोवरों के कमलों को खिला देती है। उसी प्रकार हे भगवन्! आपके निर्दोष स्तवन करने का क्या महत्व बताऊँ ? आपके नाम का केवल उच्चारण ही संसारी जीवों के समस्त पापों का विनाश कर देता है। अर्थात् सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका पवित्र कीर्तन तो बहुत दूर की बात है, मात्र आपकी चरित्र-चर्चा ही जब प्राणियों के पापों को समूल नष्ट कर देती है, तब स्तवन की अचिन्त्य शक्ति का तो कहना ही क्या ?

        सूर्य पृथ्वी के धरातल से कोसों दूर अपने स्थान पर अवस्थित है तो भी अपनी प्रभा से सरोवरों के कमलों को खिला देता है। अर्थात् आपकी चर्चा तो सूर्य की प्रभा के सदृश है और आपका स्तवन प्रत्यक्ष रविमंडल ही है।

मूल पाठ
नात्यद्भुतं भुवनभूषण! भूतनाथ।
भूतैर गुणैर् भवि भवन्तमभिष्टुवन्तः।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं यः इह नात्मसमं करोति।।१॰।।

         अन्वयार्थ -(भुवनभूषण!) हे संसार के भूषण! (भूतनाथ!) हे प्राणियों के स्वामी! (भूतैः गुणैः) सच्चे गुणों के द्वारा (भवन्तम् अभिष्टुवन्तः) आपकी स्तुति करने वाले पुरुष (भुवि) पृथ्वी पर (भवन्तः) आपके (तुल्याः) समान (भवन्ति) हो जाते हैं (इदम् अत्यद्भुतं न) यह बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। (वा) अथवा (तेन) उस स्वामी को (किम्) क्या प्रयोजन है ? (यः) जो (इह) इस लोक में (आश्रितम्) अपने आश्रित जन को (भूत्या) सम्पति-ऐश्वर्य से (आत्मसमम्) अपने बराबर (न करोति) नहीं कर देता।।१॰।।

पद्यानुवाद
नहिं अचंभ जो होंहि तुरंत, तुमसे तुम गुण वरणत सन्त।
जो अधीन को आप समान, करै न सो निन्दित धनवान।।
अर्थ - अभिप्राय

        संसार में जो स्वामी अपने आश्रित सेवक को वैभव देकर अपने जैसा समृद्ध नहीं बनाता, उस स्वामी की सेवक को क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं, किन्तु हे भुवनभूषण! हे जगन्नाथ ! जो भव्य पुरुष आपकी स्तुति करते हैं वे आपके ही सदृश हो जाते हैं, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है।

        हे भुवनभूषण भूतनाथ! आपमें विद्यमान वास्तविक विपुल गुणों का कीर्तन करने वाले भव्य भक्त यदि आप जैसे ही प्रभु बन जाते हैं तो इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं। क्योंकि इस लोक में जो धनीमानी श्रीमन्त हैं वे भी अपने आश्रित सेवकों को विपुल आर्थिक साहयता देकर अपने ही समान समृद्धिशाली बना लेते हैं। तात्पर्य यह है कि जो भक्त जिनेन्द्र प्रभु का गायन करता है वह कभी अनाथ बनकर संसार-सागर में गोते नहीं खाता अपितु अपने प्रभु के समान ही अक्षय पद को प्राप्त कर लेता है। भक्त कहता है कि मैं आपका प्रशस्त कीर्तन कर रहा हूँ वह नियम से कालांतर में सिद्ध पद को प्राप्त करायेगा।

        इस काव्यछंद में साम्यवाद और समाजवाद के प्रतिष्ठापन की झलक मिलती है।

मूल पाठ
दृष्ट्वा भवन्तनिमेषविलोकनीयं,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः।
पीत्वा पयः शशिकरद्युति-दुग्धसिन्धोः,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं कः इच्छेत्।।११।।

         अन्वयार्थ -(अनिमेषविलोकनीयम्) बिना पलक झपकाये - एकटक देखने के योग्य (भवन्तम्) आपको (दृष्ट्वा) देखकर (जनस्य) मनुष्य के (चक्षुः) नेत्र (अन्यत्र) दूसरी जगह (तोषम्) संतोष (न उपयाति) नहीं पाते। (दुग्ध-सिन्धोः) क्षीर-सागर के (शशिकरद्युति) चन्द्रमा के समान कान्ति वाले (पयः) पानी को (पीत्वा) पीकर (कः) कौन पुरुष (जलनिधेः) समुद्र के (क्षारं जलम्) खारे पानी को (रसितुम् इच्छेत्) पीना चाहेगा ? अर्थात् कोई नहीं।।११।।

पद्यानुवाद
इकटक जन तुमको अविलोय, अवर विषै रति करै न सोय।
को करि क्षीर जलधि जल पान, क्षार नीर पीवै मतिमान।।
अर्थ - अभिप्राय

        चन्द्र-किरणों के समान कांति वाले क्षीर सागर का दुग्ध के समान मधुर जल का पान करके कौन पुरुष लवण समुद्र के खारे जल को पीने के लिये इच्छा करेगा ? कोई भी पीना नहीं चाहेगा। वैसे ही हे भगवन्! जो पुरुष अपलक दृष्टि से दर्शनीय आपको एक बार अच्छी तरह से देख लेते हैं, उनकी दृष्टि फिर अन्य देवों में संतोष नहीं प्राप्त करती है।

        हे देवाधिदेव! आप इतने अणिक स्वरूपवान हैं कि जिसकी आँखों में आप एक बार भी समा जाते हैं निरन्तर ही आपको टकटकी लगाकर देखता ही रह जाता है। उसके पलक तक भी नहीं झपकते; फिर अन्य देवी-देवताओं की ओर देखने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अर्थात् जो एक बार भी आपके दर्शन कर लेता है उसके चक्षुओं को जगत् के अन्य पदार्थों को देखने से संतोष प्राप्त नहीं होता। क्षीरसागर के सुस्वादु मधुर, निर्मल, शीतल दुग्धोपम जल को पी चुकने के बाद ऐसा कौन पुरुष होगा जो लवण समुद्र के खारे पानी को पीने की इच्छा करेगा ? अर्थात् कोई नहीं। इसी प्रकार ऐसी प्रशांत भव्य वीतराग मुद्रा का अवलोकन करने के बाद विलासी विकृत मुद्रा को देखकर कौन भला मानुष प्रसन्न होगा ? तीनों लोकों में सर्वोत्कृष्ट दर्शनीय तŸव यदि कोई है तो एक मात्र वीतराग परमात्मा ही हैं।

मूल पाठ
यैः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं,
निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललामभूत!
तावन्त एव खलु तेप्यणवः पृथिव्यां,
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति।।१२।।

         अन्वयार्थ -(त्रिभुवनैकललामभूत!) हे त्रिभुवन के एक मात्र आभूषण! (त्वम्) आप (यैः) जिन (शांतराग-रुचिभिः) शांतरस से उज्ज्वल (परमाणुभिः) परमाणुओं से (निर्मापितः) रचे गये हैं (खलु) निश्चय ही (पृथिव्याम्) पृथ्वी पर (ते अणवः अपि) वे अणु भी (तावन्त एव) उतने ही थे (यत्) क्योंकि (ते समानम्) आपके समान (अपरं रूपम्) दूसरा रूप (न हि अस्ति) नहीं है।।१२।।

पद्यानुवाद
प्रभु तुम वीतराग गुणलीन, जिन परमाणु देह तुम कीन।
हैं तितने ही ते परमाणु, यातै तुम सम रूप न आनु।।
अर्थ - अभिप्राय

        तीनों लोकों में अद्वितीय सुन्दर रूप के धारक भगवन्! शांत-रस की कान्ति वाले जिन मनोहर परमाणुओं से आपके शरीर का निर्माण हुआ है, वे परमाणु इस लोक में बस उतने ही थे। क्योंकि अधिक होते तो आप जैसा रूप औरों का भी दिखाई देता, यही कारण है कि संसार मे आपके समान अन्य कोई सुन्दर रूप वाला व्यक्ति दिखाई नहीं देता है।

        हे जगत् भूषण! जिन पुद्गल परमाणुओं से आपका शरीर विनिर्मित है वे राग-द्वेषरहित वीतराग गुण वाले थे और संसार मे वैसे पुद्गल परमाणु उतने ही थे जिनसे आपके शरीर की रचना हुई है। यही कारण है कि आपके समान रूप वाला जग में कोई दूसरा नहीं दिखाई देता। यदि उससे अधिक होते तो आपके समान दूसरा रूप भी होना चाहिए था, पर दूसरा रूप है नहीं। इस प्रकार आप तीन लोकों के श्रृंगार है; आपकी दिव्य देह अद्वितीय सौन्दर्य से परिपूर्ण है। आपके मुख-मंडल पर प्रशांत रस से अनुप्राणित तेज बिम्बित है, क्योंकि आपका अन्तस् समरस से सराबोर है, अस्तु आपका शरीर परम औदारिक देदीप्यमान है। वस्तुतः आपका रूप अद्भुत, अनुपम और निरुपमेय है।

मूल पाठ
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि-बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय-शंकरत्वात्।


धाताऽसि धीर! शिवमार्गविधेर् विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि।।२५।।

         अन्वयार्थ -(विबुधार्चित बुद्धि-बोधात्) आपकी बुद्धि का बोध-ज्ञान, देवों अथवा विद्वानों द्वारा पूजित होने से (त्वमेव) आप ही (बद्धः) बुद्ध हैं। (भुवनत्रय-शंकरत्वात्) तीनों लोकों में सुख-शांति करने के कारण (त्वम्) आप ही (शंकरः असि) शंकर-महादेव हैं। (शिवमार्गविधेः विधानात्) मोक्षमार्ग की विधि का विधान करने से (धीर!) हे धीर! (त्वमेव) आप ही (धाता असि) विधाता-ब्रह्या हैं और (भगवन्!) हे भगवन्! (व्यक्तम्) स्पष्टतः (त्वमेव) आप ही (पुरुषोत्तमः असि) पुरुषों में उत्तम-विष्णु हैं।।२५।।

पद्यानुवाद
तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमान तैं,
तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रयी विधान तैं।
तुही विधात है सही सुमोख पंथ धार तैं,
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचार तैं।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे प्रभो! आपके केवलज्ञान की गणधरों ने अथवा देवों ने पूजा की है, अतः आप ही ‘बुद्धदेव‘ हैं। आप लोकत्रय जीवों का आत्म-कल्याण करने वाले हैं, इसलिए आप ही शंकर हैं। हे धीर, आपने रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग का सत्यार्थ उपदेश दिया है, अतः आप ही विधाता-ब्रह्या हैं। हे भगवन्! उपरोक्त गुणों से विभूषित होने के कारण आप ही साक्षात् पुरुषश्रेष्ठ श्रीकृष्ण हैं, अर्थात् बुद्ध, शंकर (महादेव), ब्रह्या और श्रीकृष्ण आदि को संसारी जीव देवों के नाम से पुकारते हैं, परन्तु अद्वितीय लोकोत्तर गुणों से विभूषित होने के कारण आप ही सच्चे देव हैं।

        वस्तु में तीन गुण पाये जाते हैं - (१) उत्पाद, (२) व्यय, और (३) ध्रौव्य। उनका सच्चा स्वरूप बताने वाले और उस मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा का कल्याण करके संसार को जग-जाल से छुड़ाने का, मार्ग का दिग्दर्शन कराने वाले वास्तव में आप ही हैं। हे प्रभु! आपको संसार कितने ही नामों से याद करता है, परन्तु वे वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होने से अन्यथा रूप में भी मानने लगे हैं; जो एक भ्रांति है। आपने वस्तु का स्वरूप जैसा देखा, जाना, अनुभव किया, उसका वैसा ही विधान विधिपूर्वक जन-कल्याण के लिये बनाया इसलिए आप ही बुद्ध, विष्णु, महेश और कृष्ण है।

मूल पाठ
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ!
तुभ्यं नमः क्षितिलामलभूषणाय।
तुभ्यं नमस्त्रिजगत्ः परमेश्वराय
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय।।२६।।

         अन्वयार्थ -(नाथ!) हे स्वामिन्! (त्रिभुवनार्तिहराय) तीनों लोकों की पीड़ा-दुःख को हरण करने वाले (तुभ्यं नमः) आपको नमस्कार हो। (क्षितितलामल-भूषणाय) भूतल के निर्मल आभूषण रूप (तुभ्यं नमः) आपको नमस्कार हो। (त्रिजगतः परमेश्वराय) तीनों जगत् के परमेश्वर रूप (तुभ्यं नमः) आपको नमस्कार हो और (जिन!) हे जिनेश्वर! (भवोदधि-शोषणाय) संसार-समुद्र को सुखाने वाले (तुभ्यं नमः) आपको नमस्कार हो।।२६।।

पद्यानुवाद
नमों करूं जिनेश तोहि आपदा-निवार हो,
नमों करूं सुभुरि भूमि-लोक के सिंगार हो।
नमों करूं भवाब्धि-नीर-राशि-शोष हेतु हो,
नमों करूं महेश तोहि मोखपंथ देतु हो।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! तीन लोकों की पीड़ा को हरने वाले! आपको नमस्कार है। भूतल अर्थात् भूमंडल के निर्मल आभूषण! आपको नमस्कार है। तीन जगत् के परमेश्वर! आपको नमस्कार है। हे जिनेन्द्र! भव सागर के सुखाने वाले अर्थात् जीवों को मोक्ष पहुँचाने वाले! आपको नमस्कार है।

        जीव चारों गतियों की चैरासी लाख योनियों में राग-द्वेष, मिथ्यात्व, मोहान्धकार आदि के कारण भ्रमण करता है, उसके दूर करने में भगवान आप निमित्त हैं इसलिए आपको नमस्कार करता हूँ। हे प्रभु! आप तो अनन्त गुणों के भंडार हैं, आपके उज्ज्वल गुणों को देवताओं, महात्माओं, विद्वानों द्वारा बखान करना प्रायः असम्भव है फिर मेरे जैसे अल्पज्ञ द्वारा आपके गुणों का वर्णन करना सम्भव नहीं है। रत्न, माणिक, मोतियों के आभूषण जगत् के रागी प्राणियों के श्रृंगार हैं, लेकिन जिसे अपनी आत्मा का बोध हो गया, जो पूर्ण रूप से प्रकट होने पर ‘केवलज्ञान‘ कहलाता है, वही उसका आभूषण है। असल में सर्वज्ञता वह आभूषण है जो अद्वितीय है, उसकी प्राप्ति के हेतु आप हैं अस्तु आपको नमस्कार करता हूँ। आवागमन-जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा दिलाने वाले! आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

मूल पाठ
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै-
स्त्वं संश्रितो निवकाशतया मुनीश-


दोषैरुपात्त-विविधाश्रय-जातगर्वैः,
स्वप्नान्तरेऽपि न कआचिदपीक्षितोऽसि।।२७।।

         अन्वयार्थ -(मुनीश!) हे मुनियों के स्वामी! (यदि नाम) यदि (निरवकाशतया) अन्य स्थल में अवकाश न मिलने के कारण (अशेषैः गुणैः) समस्त गुण (त्वम्) आपके (संश्रितः) आश्रित हो गये हैं, इसलिए (उपात्त-विविधश्रय-जातग्र्वैः) अनेक जगह आश्रय प्राप्त होने के कारण जिन्हें गर्व हो गया है, उन (दोषैः) दोषों के द्वारा (स्वप्नान्तरेऽपि) सपने में भी (कदाचित् अपि) कदापि (न ईक्षितः असि) आप नहीं देखे गये हैं, तो (अत्र) इस विषय में (कः विस्मयः) क्या आश्चर्य है ? कुछ भी नहीं।।२७।।

पद्यानुवाद
तुम जिन पूरण गुणगण भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे।
ओर देवगण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे मुनीश्वर! समस्त सद्गुणों ने आपमें सघन आश्रय पाया है अतएव दोषों को आपमें जरा-सा भी स्थान नहीं मिला। फलस्वरूप उन्होंने अन्य अनेक देवताओं में स्थान प्राप्त किया और इसलिए वे गर्व को प्राप्त हो गये हैं। फिर भी वे स्वप्न में भी कभी आपको लौटकर देखने को नहीं आये सो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है ? जिसे अन्यत्र आद मिलेगा, वह भला आश्रय न देने वाले व्यक्ति के पास लौटकर क्यों आयेगा ?

        संसार के समस्त सद्गुणों और दुर्गुणों की तुलना करते हुए समझाया है कि वीतरागता जैसे गुणों को सरागी देवों तथा अन्य मिथ्यात्वी लोगों ने अपनी शरण में नहीं लिया इसलिए वह सब सद्गुण उनका आसरा छोड़कर आपकी शरण में आ गये हैं तथा दुर्गुणों को अन्य सरागी देवों और मिथ्यादृष्टि लोगों का आसरा मिल जाने से उनको इस बात का गर्व हो गया मालूम होता है कि यदि एक स्थान पर हमें शरण न मिली तो क्या हुआ हमंे तो शरण में लेने वाले संसार में बहुत से देव हैं इसलिए वे दुर्गुण आपके पास स्वप्न में भी नहीं आयंे तो इसमें कौन अचम्भे वाली बात हैं।

मूल पाठ
उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख-
माभाति रुपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोललसत् किरणमस्ततमोवितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति।।२८।।

         अन्वयार्थ -(उच्चैरशोकतरु-संश्रितम्) ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित तथा (उन्मयूखम्) जिसकी किरणें ऊपर को फैल रही हैं, ऐसा (भवतः अमलम् रूपम्) आपका उज्ज्वल रूप (स्पष्टोल्लसत्किरणम्) जिसकी किरणें स्पष्ट रूप से शोभायमान हैं और (अस्त तमोवितानम्) जिसने अंधकार-समूह को नष्ट कर दिया है, ऐसे (पयोधरपाश्र्ववर्ति) मेघ के निकट विद्यमान (रवेः बिम्बम् इव) सूर्य के बिम्ब की तरह (नितान्तम्) अत्यन्त (आभाति) शोभित होता है।।२८।।

पद्यानुवाद
तरु अशोक तल किरण उदार, तुम तन शोभित है अविकार।
मेघ-निकट ज्यों फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे वीतराग प्रभो! समवसरण में ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान, चमकती और ऊपर की ओर फैलती हुई किरणों वाला आपका निर्मल स्वरूप ऐसा भव्य प्रतीत होता है, जैसा कि स्वरूप से चमकती हुई किरणों वाला एवं अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाला सूर्य का बिम्ब सघन मेघों के समीप शोभित होता है। भगवान ऋषभदेव का पीतवर्ण सूर्य बिम्ब के सदृश है और अशोक वृक्ष मेघ के सदृश नीलवर्ण-युक्त। अशोक वृक्ष के सान्निध्य से ऋषभदेव का स्वतः तेजस्वी रूप और अधिक तेजस्वी दिखाई देने लगता है।

        भगवान के केवलज्ञान होने के पश्चात् समवसरण में इन्द्र आठ प्रातिहार्यों की रचना करता है, जिसमें सबसे पहला प्रातिहार्य है - अशोक वृक्ष। किसी विशेष महिमा का ज्ञान कराने वाले एक चिन्ह को जिसका निर्माण इन्द्र करता है, उसे प्रातिहार्य कहते हैं। समवसरण में अशोक वृक्ष तीर्थंकर विशेष की अपेक्षा से उनके शरीर की अवगाहना के अनुपात से बारह गुणा ऊँचा होता है। अशोक वृक्ष के नीचे बैठने से आकुलता दूर होती है और शांति प्राप्त होती है। आजकल भी अशोक वृक्ष की छाल औषधियों में काम आती है।

मूल पाठ
सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।
बिम्बं वियद् विलसंदशुलता-वितानं
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्त्ररश्मेः।।२९।।

         अन्वयार्थ -(मणिमयूखशिखाविचित्रे) रत्नों की किरणों के अग्र भाग से चित्र-विचित्र (सिंहासने) सिंहासन पर (तव) आपका (कनकावदातम्) सोने की तरह उज्ज्वल (वपुः) शरीर (तुंगोदयाद्रि-शिरसि) ऊँचे उदयाचल के शिखर पर (वियद्-विलसदंशुलता-वितानम्) आकाश में जिसकी किरणरूपी लताओं का समूह शोभायमान है, उस (सहस्त्ररश्मेः) सूर्य के (बिम्बम् इव) मंडल की तरह (विभ्राजते) सुशोभित हो रहा है।।२९।।

पद्यानुवाद
सिंहासन मणि किरण विचित्र, तापर कंचन वरण पवित्र।
तुम तन शोभित किरण विथार, ज्यों उदयाचल रवि तमहार।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! जिस प्रकार ऊँचे उदयाचल पर्वत के शिखर पर आकाश में प्रकाशमान किरणरूपी लताओं के विस्तार से युक्त सूर्य का बिम्ब शोभा को प्राप्त होता है, उसकी प्रकार जड़े हुए बहुमूल्य रत्नों की किरण प्रभा से शोभित ऊँचे सिंहासन पर आपका स्वर्ण के समान देदीप्यमान स्वच्छ शरीर शोभा को प्राप्त हो रहा है।

        सिंहासन का अर्थ है उत्कृष्ट आसन। सिंहासन की शोभा उस पर बैठने वाले से होती है न कि सिंहासन पर बैठने वाले की। संसार में साधारण मनुष्य की बाह्य विभूति को देखकर हम उसके पुण्य का या पद का अनुमान लगाते हैं, परन्तु जहाँ साक्षात् तीर्थंकर भगवान विराजमान हों उनके पुण्य की पराकाष्ठा का, उनके परम पद का भान भी हमें बाहरी विभूतियों से मिलता है। भगवान समवसरण में रत्नजडि़त सिंहासन पर चार अंगुल अधर अंतरिक्ष में विराजमान होते हैं। वह सिंहासन भी उनकी विभूतियों का एक प्रतीक है। रत्नजडि़त सिंहासन तो देदीप्यमान है ही; परन्तु भगवान के परम औदारिक शरीर के विराजने से और भी अधिक देदीप्यमान हो जाता है।

        सिंहासन की तुलना उदयाचल पर्वत से तथा भगवान की उपमा तेजस्वी सूर्य से की है, जिसके उदय होने पर अँधेरा दूर हो जाता है, उसी प्रकार भगवान के केवलज्ञान प्रकट होने पर समवसरण में आने वाले प्राणियों का मिथ्यात्व और मोहान्धकाररूपी अँधेरा दूर हो जाता है। भगवान का सिंहासन कमल के आकार का होता है। उस सिंहासन पर भगवान चार अंगुल अधर अंतरिक्ष में विराजमान होते हैं।

मूल पाठ
कुन्दावदात-चलचामर-चारुशोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधोतकान्तम्।
उद्यच्छशांक-शुचिनिर्झर-वारिधार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम्।।३॰।।

         अन्वयार्थ -(कुन्दावदातचलचामरचारुशोभम्) कुन्द के फूल के समान स्वच्छ श्वेत चंचल चामरों के द्वारा जिसकी शोभा सुन्दर है, ऐसा (तव) आपका (कलधौतकान्तम्) सोने के समान कमनीय (वपुः) शरीर (उद्यच्छशांकशुचि-निर्झर-वारिधारम्) जिस पर चन्द्रमा के समान निर्मल झरने के जल की धारा उछल-बह रही है, उस (सुरगिरेः शातकौम्भम् उच्चैस्तटम् इव) मेरु पर्वत के सोने के बने हुए ऊँचे तट की भांति (विभ्राजते) शोभायमान होता है।।३॰।।

पद्यानुवाद
कुन्दु पुहुप सित-चम ढुरंत, कनक-वरन तुम शोभंत।
ज्यों सुमेरु तट निर्मल कांति, झरना झरै नीर उमगांति।।
अर्थ - अभिप्राय

        जैसे उदित होते हुए चन्द्रमा के समान झरनो की निर्मल जलधाराओं से सुमेरु का सुवर्णमयी ऊँचा शिखर शोभा पाता है, वैसे ही देवताओं के द्वारा दोनों ओर ढुरने वाले कुन्द पुष्प के सदृश श्वेत चँवरों की सुन्दर शोभा से युक्त आपका स्वर्ण कान्ति वाला दिव्य देह भी अत्यन्त सुन्दर शोभा को प्राप्त हो रहा है। सुवर्णमय सुमेरु पर्वत के दोनों तरफ मानो निर्मल जल वाले दो झरने झरते हों, इस प्रकार से भगवान के सुवर्ण शरीर पर दो उज्ज्वल चँवर ढुर रहे हैं।

        भगवान के सुन्दर शरीर का वर्णन सोने के समान सुमेरु पर्वत से और सफेद चँवरों की तुलना उगते हुए चन्द्रमा के समान उज्ज्वल गिरते हुए जल के झरने, अर्थात् जलधारा से की गई है। इस मोह दृश्य को देखकर जगत् के प्राणी का मन तो प्रफुल्लित होता ही है, ज्ञानी पुरुष को यह भी संकेत मिलता है कि जो प्रभु के चरणों में गिरेंगे, उनकी शरण लेंगे वह नियम से ऊपर उठेंगे ही ज्से यह ढुलते हुए चँवर। इस प्रकार समवसरण (विशेष धर्मसभा जिसमें प्रभु की दिव्य ध्वनि खिरती है) में यक्षेन्द्रों द्वारा कुंद पुष्प के समान सफेद चैंसठ चँवर जब भगवान के तपे हुए सोने के समान शरीर पर ढुरते हैं, तब आपके शरीर की कान्ति और भी बढ़ जाती है और ऐसा प्रतीत होता जैसे सुमेरु पर्वत के दोनों ऊँचे किनारों से चन्द्रमा के समान उज्ज्वल जल के झरने झरते हों।

मूल पाठ
छत्रत्रयं तव विभाति शशांककान्त-
मुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकर-प्रतापम्।
मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभं,
प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम्।।३१।।

         अन्वयार्थ -(शशांककान्तम्) चन्द्रमा के समान सुन्दर (स्थगित-भानुकर-प्रतापम्) सूर्य की किरणों के संताप को रोकने वाले तथा (मुक्ताफलप्रकारजाल-विवृद्धशोभम्) मोतियों के समूह की जाली-झालर से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले (तव उच्चैः स्थितम्) आपके ऊपर स्थित (छत्र-त्रयम्) तीन छत्र (त्रिजगतः) तीनों लोक के (परमेश्वरत्वम्) स्वामित्व को (प्रख्यापयत्) प्रगट करते हुए से (विभाति) प्रतीत होते हैं।।३१।।

पद्यानुवाद
ऊँचे रहैं सूर-दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपै अगोप।
तीन लोक की प्रभुता कहैं, मोती झालर सों छवि लहैं।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे भगवन्! आपके मस्तक के ऊपर जो तीन छत्र है वे तीन जगत् के स्वामित्व को प्रकट करते हैं। वे छत्र चन्द्रमा के समान ऊपर उठे हुए रमणीय श्वेत वर्ण वाले हैं, रोक दिया है जिन्होंने सूर्य की किरणों के आतप (प्रताप) को और मोतियों की झालरों के समूह से, ऐसे वे बड़े ही शोभायमान हो रहे हैं।

        संसार में भी पुण्यशाली सम्राटों के सिर पर एक छत्र होता है जो उनके विशेष पुण्य के वैभव को प्रकट करता है, परन्तु यहाँ परम वीतरागी, सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान के सिर पर तीन छत्र, एक के ऊपर एक जिनमें मणिमुक्ताओं की झालर लगी हुई है, जो सूर्य के तेज प्रकाश को (गर्मी को) रोके हुए हैं; यह सूचित करते हैं कि आप तीन लोक-ऊध्र्व, मध्य और अधो (पाताल) के स्वामी है। ऐसा पुण्य हरेक प्राणी का नहीं होता, परन्तु यह तीर्थंकर भगवान के पुण्य के बाह्य वैभव का सूचक है। साधारण मनुष्य वर्षा और गर्मी से बचने के लिए छतरी का उपयोग करता है। उसे हाथ में लेकर चलना पड़ता है। राजा, महाराजा, सम्राट के वैभव को बताने के लिए एक छत्र को भी सेवक हाथ में लेकर चलता है, परन्तु भगवान के सिर पर यह तीन छत्र अंतरिक्ष मंे अपने आप चलते हैं। यह उनके पुण्य का वैभव तो है ही, साथ ही साथ यह भी सूचित करता है कि भगवान तीन लोकों के सम्राट् हैं।

मूल पाठ
गंभीरताररवपूरित-दिग्विभाग-
स्त्रैलोक्यलोक-शुभसंगम-भूतिदक्षः।
सद्धर्मराजजयघोषण-घोषकः सन्,
खे दुन्दुभिध्र्वनति ते यशसः प्रवादी।।३२।।

         अन्वयार्थ -(गंभीरताररवपूरित-दिग्विभागः) गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं के विभाग को पूर्ण करने वाली (त्रैलोक्यलोकशुभसंगम-भूतिदक्षः) तीन लोक के जीवों को शुभ सम्पत्ति प्राप्त कराने में निपुण-समर्थ और (सद्धर्मराज-जयघोषक-घोषकः) सद्धर्म के अधिपति की जय घोषण करने वाली (दुन्दुभिः) दुन्दुभि (ते) आपके (यशसः) यश का (प्रवादी सन्) कथन करती हुई (खे) आकाश में (ध्वनति) शब्द कर रही है।३२।।

पद्यानुवाद
दुन्दुभि शब्द गहर गंभीर, चहुं दिश होय तुम्हारे धीर।
त्रिभुवन-जन शिव संगम करै, मानूं जय जय रव उच्चरै।।
अर्थ - अभिप्राय

        आकाश में देवता दुन्दुभि बजाते हैं, तब उसके शब्द, सुन्दर, गंभीर, उच्च स्वर से दसों दिशाएँ गूँज जाती हैं, उससे ऐसा अनुभूत होता है कि वह तीन लोकों के प्राणियों को कल्याण-प्राप्ति के लिये आह्वाहन कर रहा है और भगवान ही सच्चे धर्म का निरूपण करने वाले हैं। इस प्रकार से भगवान के यश को वह संसार में विस्तारता हुआ बजता रहता है।

        जब भगवान ने मोह राजा पर विजय प्राप्त कर ली तभी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्मों ने भगवान का साथ छोड़ दिया और वह पूर्ण रूप से वीतराग, सर्वज्ञ, अनंत चतुष्टय के धारी बन गये और अब इस संसार को छोड़कर शाश्वत सुख के साम्राज्य का स्थान-मोक्ष में जाने की तैयारी में हैं तभी महाबली मोह राजा ने वहाँ कैसा व्यंग्य कसा है। राजा मोह कहता है कि मेरा तीन लोकों में राज्य स्थापित है। जो भी प्राणी नरक निगोद से लगाकर सर्वार्थसिद्ध तक जहाँ भी जाना चाहे भेजता हूँ। वहाँ की सुविधानुसार सब प्रकार की सेवा करता हूँ। मेरे नौकर-चाकर उनकी मदद करते हैं। यदि कोई मेरा कहा न माने तो मैं संसार से निकालकर बाहर कर देता हूँ। उनकी सारी विभूति छीन ली जायेगी, न वहाँ शरीर होगा, न शरीर सम्बन्धी भोग की सामग्री। उनको ऐसे स्थान पर भेज दिया जायेगा जहाँ वह शाश्वत बने रहेंगे। कोई भ्रम न रहे अतएव गन्धर्वों के द्वारा यह घोषणा करवा रहा हूँ कि ‘‘जो भी प्राणी भविष्य मंे मेरी अवज्ञा करेगा उसको भी यही सजा दी जायेगी।।‘‘

मूल पाठ
मन्दार-सुंदर-नमेरु-सुपारिजात-
संतानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा।
गन्धोदबिंदु-शुभमन्द-मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतित ते वचसां ततिर्वा।।३३।।

         अन्वयार्थ -(गन्धोदबिंदु-शुभ-मन्दमरुत्प्रपाता) सुगंधित जल-बिंदुओं और उत्तर मन्द-मन्द बहती हुई हवा के साथ गिरने वाली (उद्धा) श्रेष्ठ और (दिव्या) मनोहर (मन्दार-सुंदर-नमेरु-सुपारिजात-संतानकादि-कुसुमोत्करवृष्टिः) मन्दार, सुंदर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पतरुओं के पुष्प-समूह की वृष्टि (ते) आपके (वचसाम्) वचनों की (ततिः वा) पंक्ति की तरह (दिवः पतित) आकाश से गिरती है।।३३।।

पद्यानुवाद
मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्टि।
देव करैं विकसित दल सार, मानों द्विज पंकति अवतार।।
अर्थ - अभिप्राय

        हे नाथ! आपके समवसरण अर्थात् धर्मसभा विशेष में गंधोदक की बूँदों से पवित्र मन्द पवन के झोंकों से बरसने वाली देव-कृत पुष्प वर्षा, बड़ी ही सुन्दर मालूम होती है। उसमें मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात और संतानक आदि कल्पवृक्षों के मनोहर सुगंधित पुष्प् निरन्तर झड़ते रहते हैं। ये पुष्प जब आकाश से बरसते हैं तो ऐसा मालूम होता है, मानो आपके वचनों की दिव्य पंक्तियाँ ही बरस रही हों।

        समवसरण में जो कल्पवृक्षों के फूलों की वर्षा होती है उनका मुख ऊपर की ओर होता है। यह विशेषता है। भगवान की दिव्य ध्वनि की तुलना आचार्यश्री ने कल्पवृक्षों के फूलांे से की है। समवसरण बारह भागों में विभक्त होता है जहाँ गणधर, साधु, साध्वी, देव, देवांगनाएँ, मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी अपने-अपने स्थान पर बैठकर भगवान का उपदेश सुनते हैं। भगवान की वाणी जो धारा प्रवाह खिरती है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि पक्षी भी पंक्तिबद्ध आपकी वाणी को सुनने को आते हैं। भगवान के बाह्य पुण्य की विशेषत तो देवगण द्वारा समवसरण की संरचना, उसकी सुन्दरता आदि तो इन आठ प्रातिहार्यों से मालूम पड़ती है। इसके साथ-साथ संत-महात्माओं, मुमुक्षओं का मन भगवान की वाणी को सुनकर आनन्द विभोर हो जाता है और उस वाणी को अपने हृदय-पटल पर उतारकर, उस पर श्रद्धा करके, आचरण के साथ अपना जीवन सफल बनाते हैं।