।। नवध भक्ति ।।

ऊँ ह्मूँ/ ह्मौं/हः प0 पू0 मुनीन्द्र श्री (नाम..............) अष्ट कर्म दहनाय धूंप निर्वपामीति स्वाहा। (शुद्ध धूप चढ़ना/खेना चाहिए)
ऊँ ह्मूँ/ ह्मौं/हः प0 पू0 मुनीन्द्र श्री (नाम..............) मोक्ष फल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा। (अखण्ड शुचि सरस फल चढ़ाना चाहिए)
ऊँ ह्मूँ/ ह्मौं/हः प0 पू0 मुनीन्द्र श्री (नाम..............) अनर्घपद प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। (आठों द्रव्यों को मिलाकर अर्घ चढ़ाना चाहिए)

‘‘निर्मल जल सा मन है जिनका, चंदन से है दिव्य वचन।
अक्षत सम अक्षत श्रद्धा है, सूमनों हम सुन्दर तन।।
वैवेद्य चरित्र ज्ञान है दीपक, वसुविधि करते धूप दहन।
ध्यान सुफल है अर्घ समाधि, करते मुमकों नित्य नमन।।
अनर्घ पद की प्राप्ति हेतु, मेरा अर्घ समर्पित है।
इस जीवन क्या सौ सौ जीवन, गुरूवर तुम्हें समर्पित है।।
ऊँ ह्मूँ/ ह्मौं/हः प0 पू0 आचार्य श्री/उपध्याय श्री/मुनि श्री........ (नाम..............) महाराजाय अनर्घंपद प्राप्ताये महा अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।

नोट- अनुकूलता हो तो लघु शांति पाठ व विसर्जन पाठ भी बढ़ सकते हैं।

5 नमस्कार- पूजन करने के उपरान्त दोनों हाथों को जोड़कर गवासन से बैठकर तीन आवर्त सहित तीनों यागों से नमस्कार करना चाहिए। यदि आचार्य परमेष्ठी/उपध्याय परमेष्ठी/साधु परमेष्ठी है तो ‘‘नमोऽस्तु महारा जी’’,

यदि आर्यिका माता जी हैं तो ‘‘वंदामि माता जी’’,
यदि ऐलक-क्षुल्लक जी हैं तो ‘‘इच्छामि महाराज जी’’,
क्षुल्लिका माता को भी ‘‘इच्छामि माताजी,’’ ऐसा कहना चाहिए।
ब्रह्मचारी/ब्रह्मचारिणी को ‘‘वंदना भैया जी/दीदी जी,’’ ऐसा कहना चाहिए।

6 मन शुद्धि - चैके वाले मन शुद्धि बोले तथा मन को शुद्धि ही रखें। मन में कोई असद् विकल्प न लावें।

7 वचन शुद्धि - वचन शुद्धि बोले/वचनों का प्रयोग कम से कम करें सीमित, हितकारी, प्रिय/आवश्यक वच नही बोलें। अनावश्यक चर्चाए न करें।

8 काय शुद्धि - कुल/जाति/वस्त्र/शरीर आदि की शुद्धि-काय शुद्धि बोलकर प्रकट करना चाहिए।

9 आहार जल शुद्धि- आहार जल की शुद्धि बोलकर पात्र को यह विश्वास दिलाएं कि सभी पदार्थ शुद्ध, प्रासुक, भोज्य/ग्रहण करने के योग्य हैं।

इसके उपरान्त आहार ग्रहण हेतु निवेदन करें -

‘‘हे स्वामिन् मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि आहार जलं शुद्ध है,
मुद्रा छोड़ कर अंजुलि बनाकर आहार ग्रहण करें।’’

इस प्रकार भक्ति करना ‘‘नवधा भक्ति’’ कहलाता है। सत्पात्रों की उक्त नवध भक्ति अनविार्य होती है यदि एक भी भक्ति कम होती है तो वे आहार ग्रहण नहीं कर सकते। ऐसी आगम की आज्ञा है।

जिज्ञासा 41. आर्यिका माता जी की नवध भक्ति किस प्रकार की जाती है? समझाने की कृपा करें।

समाधन- आर्यिकाओं का पड़गाह करते समय उन्हें ‘हे माताजी वन्दामि वन्दामि वन्दामि अत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ.................... ऐसा कहना चाहिए।

jain temple201

1 - आर्यिका जी का पड़गाहन करते समय परिक्रमा भी लगाई जाती है,

2 - आर्यिकाओं की नवधा भक्ति करते समय पाद प्रक्षालन व पूजन को भी आवश्यक माना जाता। अष्ट द्रव्य से पूजन किया जाता है जिस संघ की जैसी परम्परा हो श्रावक को वैसा ही करना चाहिए। इससे सम्यक्तव व देश चारित्र में कोई दोष भी नहीं आता, अतः श्रावक को हटवादी नहीं बनाना चाहिए।

3 - नमस्कार करते समय आर्यिकाओं को वंदामि कहें। आर्यिकाएं भी आहार करपात्र में ही बैठकर ग्रहण करती हैं। शेष भक्ति पूर्ववत् जानना चाहिए। ऐलक जी, क्षुल्लकजी, क्षुल्लिका जी परमेष्ठी नहीं, उत्कृष्ट श्रावक-श्राविका हैं आर्यिका माता जी भी परमेष्ठी नहीं किन्तु उपचार से महाव्रती कही जाती हैं ऐलक जी, क्षुल्लक जी, क्षुल्लिका जी उपचार से भी महाव्रती नहीं हैं अतः इनकी नवध भक्ति आचार्य, उपाध्याय, साधु (मुनियों) के समान नहीं की जा सकती। बिना भक्ति के भी ये आहार ग्रहण नहीं कर सकते। अतः पदोचित भक्ति करना चाहिए।

1 - पड़गाहन करते समय बोलें...........................‘‘हे स्वामिन् इच्छामि इच्छामि इच्छामि इच्छामि..... ‘‘क्षुल्लिका जी’’ हैं तो हे माता इच्छामि इच्छामि इच्छामि इच्छामि.....इत्यादि बोलें।

2 - आर्यिका माता जी 16 हाथ की एक साड़ी मात्र रखती हैं जबकि क्षुल्लिका जी एक साड़ी के अलावा एक चादर और रखती हैं।

3 - ऐलक जी क्षुल्लक जी व क्षुल्लिका जी का पड़गाहन करते समय परिक्रमा नहीं लगाई जाती तथा पाद प्रक्षालन का गंधेदक भी नहीं लिया जाता। न ही इनकी पूरी पूजा की जाती है।

4 - जिस संघ की जैसी परम्परा हो, श्रावकों को उसी प्रकार की आगमानुकूल भक्ति करना चाहिए। इन मध्यम पात्रों की भी नवधा होती है। सत्पात्रों की भक्ति से सम्यक्त्व में मलिनता नहीं अपितु निर्मलता/विशुद्धि ही बढ़ती है। चतुर्थ गुणस्थान वाले श्रावक या श्राविका द्वारा अथवा मध्यम जघन्य देशव्रती श्रावकों द्वारा भी ये सभी पूज्य हैं अतः ‘‘नवधा भक्ति’’ विधेय ही है।

5 - शेष भक्ति पूर्वाक्त प्रकार ही करना चाहिए।

हां, अविरत सम्यग्दृष्टि भी जघन्य सत्पात्र होता है वह भी यथोचित नवधा भक्ति का पात्र है किन्तु अव्रतीयों के द्वारा ही, न कि व्रतीयों के ारा अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावक का निमंत्रण करके ससम्मान, हाथ जोड़कर, प्रमुदित मन, मिष्ट वचनों के साथ ‘‘आहार जल शुद्ध है’’ उक्त वचन बोलते हुए भोजन करायें। चैके में प्रवेश करने से पहले पैर धेने के लिए पानी दे दें जिससे वह स्वयं पैर धेकर प्रवेश करें, पुनः उच्चासन पर बिठाकर आत्मीयता से सभक्ति आहार करायें।

2
1