।। आहार के भेद ।।
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जब से इस पृथ्वी पर जीवन का उद्भव हुआ है तभी से जीवन को आयु के अनुकूल चलाने के लिए प्राणी को आहार की आवश्यकता हुई है।

इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए मानव ने समयानुसार भोजन प्राप्त करने के कई तरीके और साधन अपनाये। धीरे-धीरे ये तरीके ही विसंगतियां उत्पन्न कर मानव आहार की भूमिका को इहलोक और परलोक के प्रतिकूल ले जा रहे हैं। जिसका कारण आज समाज में यह हुआ कि, जो भोजन प्राणी के जीवन को चलाने की वस्तु थी वही भोजन अपने भूमिका को बदल कर मनुष्य को चला रहा है। जिसके फलस्वरूप् पृथ्वी का यह सबसे प्रज्ञावान प्राणी अपनी इन्द्रियों की लोलुपत वंश मंहगे भोज्य पदार्थों को ग्रहण करने की स्वर्धा मे सभी प्रकार के पापो को कर रहा है। क्योंकि जितने भी पाप किये जाते हैं, उन सबकी आधार शिला यह भोजन ही होता है।

अतः अपने विवके को जाग्रत कीजिए। और अपने अनियंत्रित मन को भोजन के समय नियंत्रित कर सच्चा, शुद्ध, शाकाहारी पौष्टिक सादा (सात्विक) भोजन ग्रहण कर अपना इह लोक और परलोक सुधारिए। अतः आपको अब भोजन कितने प्रकार का होता है उससे अवगत करा रहे हैं। जिससे स्वयं समझ जाओगे कि आत्महित के कल्याणार्थ कौन सा भोजन श्रेष्ठ है।

आहार को सन्तों ने, पूर्वाचार्यों ने, डाॅक्टरों ने, वैज्ञानिकों ने तीन भागो मे विभाजित किया है।

1 तामसिक भोजन

2 राजसिक भोजन

3 सात्विक भोजन

‘जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन’
‘अच्छा होवे मन तब बन जाओ भगवन्’

(1) तामसिक आहार: -

तामसिक भोजन का अर्थ है कि जो आहार (भोजन) प्राणी पीड़न, विवके से रहित होकर निर्दयता से बनाया गया हो जिसमे मांस, मद्य, मधु और कन्दमूल, फल आदि ऐसे पदार्थो का ग्रहण किया गया हो, जिसमे छोटे या बड़े प्राण्यिो का बहुत घात हुआ हो ऐसा भोजन तामसिक है।

हानि ‘-

» यह भोजन जीव रक्षा रहित मन से तैयार किया जाता है अर्थात् प्राणियों के जीवन को समाप्त कर उनका पतन करता है। उसी प्रकार अपने जीवन की शांति को भंग कर आत्मा का पतन करता है।

» तामसिक वृत्ति वाले व्यक्ति, अपने स्वयं के लिए, परिवार के लिए, समाज के लए, देश के लएि अहितकारी सिद्ध हुए है। क्योंकि तामसिक आहार बनी तामसिक मनो दशा, हिंसक वातावरण को तैयार करती है।

(2) राजसिक आहार -

जो आहार हमारे उदर पूर्ति का साधन न बनकर विलासिता का साधन बन जाता है वह राजसिक आहार है। पहले इस प्रकार के आहार ग्रहण करने यृत्ति थोड़े ही जन मानस में देखी जाती थी। लेकिन आज का युग होटलो का युग है। जिनमे प्रवेश कर आप अपनी विलासिता पूर्ण वृत्ति को भड़का सकते हैं। अतः ऐसे भोजन को करने वालों की अधिकता हो रही है।

हानि ‘-

» होटलो मे बनायागया भोजन आपकी अनुपस्थिति मे तैयार होता है। आप उस घिनौनी प्रक्रिया से बिल्कुल अनभिज्ञ रहते हैं। ऐसा भोजन आपके टेबिल की प्लेट तक आता है। और आप इन्द्रियों के वशीभूत अपने इह लोक और परलोक को नष्ट करने मे अग्रसर हो जाते है।

राजसिक भोजन महंगा होता है। प्रत्येक व्यक्ति उस भोजन को करने की सामथ्र्य नहीं जुटा पाता। ऐसी स्थिति मे वह व्यक्ति पाचो पापों की शरण मे जाता है। और इन पापो को अपने जीवन मे आश्रय देकर सिर्फ भोजन के माध्यम से ही कुमार्ग पर चल पड़ता है।

(3) सात्विक भोजन: -

जिस भोजन को बनाने मे किसी भी प्रकार की हिंसा होने की संभावना नही रहती क्योंकि ऐसा भोजन सादा और स्वच्छ विधि से मन को शांति प्रदान करने के हेतु बनाया जाता है। अतः यह सात्विक भोजन है।

हानि ‘- ऐसे भोजन से कोई भी हानि नहीं है क्योंकि यह भोजन उदरपूर्ति हेतु इह लोक और परलोक सुधारने के अर्थ तैयार किया जाता है। बल्कि- ऐसे भोजन से व्यक्ति को, परिवार को, समाज को, देश को अत्यंत लाभ होता है क्योंकि ऐसे भोजन के अभ्यासी मनुष्य, अपने ज्ञान भंडार द्वारा समाज के चैतरफा विकास मे सहायक होते हैं। उनका मन पापो से रहित रहता है।

अतः भोजन सात्विक होगा तब विचारो मे भी निर्मलता आवेगी। विचरों की निर्मलता से स्वयं के जीवन में, घरपरिवार मे शांति स्थापित होगी। और इसी शांति के सहारे सुदृढ़ समाज व देश की बात बनेगी। इसलिए तामसिक एवं राजसिक आहार को छोड़कर सात्विक आहार को ग्रहण करें। यही भावना है। यही कामना है।

नोट- सात्विक भोजन भी यदि प्रकृति (स्वास्थ्य) के अनुकूल नही है। अथवा अधिक मात्र मे ग्रहण करते है तो अहित कारी हो जाता है।