श्री चन्द्रप्रभु विधान - अथ १०८ अर्घ्यं
अथ १०८ अर्घ्यं

(मंडल पर १०८ अर्घ्यं )


-सोरठा-
गुण अनंत भंडार, नाम असंख्यों धारते।
स्वात्म सौख्य कर्तार, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
‘श्रीमान्’ आप अन्तर अनन्त सुख, ज्ञान वीर्य दर्शन श्रीपति।
बहिरंग समवसरणादि महा-वैभव प्रातिहार्यमयी श्रीपति।।
इन अन्तरंग बहिरंग श्री के, स्वामी प्रभु श्रीमान् बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमन्नामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आप ‘स्वयंभू’ हुये प्रभु, निज में निज ज्ञान प्रगट करके।
निंह गुरू की तनिक अपेक्षा थी, निज को गुरू स्वयं बना करके।।
निज द्वारा निज को निज में ध्या, स्वयमेव स्वयंभू आप बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२।।

ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंभूनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘वृषभ’ धर्मघन मेघ सतत्, दिव्यध्वनि वर्षा करते हैं।
‘वृष’ धर्म अिंहसा लक्षण से, ‘भा’ शोभित होते रहते हैं।।
अथवा भक्तों के लिये सदा, इच्छित वर्षा कर वृषभ बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।३।।

ॐ ह्रीं अर्हं वृषभनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘शंभव’ शं-सुख भव-हो तुमसे, इससे शंभव कहलाते हो।
अथवा ‘संभव’ सं-समीचीन, भव-जन्म धरा मुस्काते हो।।
हे संभव शांतमूर्ति प्रभु तुम, वंदन करते हम शांत बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।४।।

ॐ ह्रीं अर्हं शंभवनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘शम्भू’ शं-परमानन्दरूप, सुख देने वाले आप प्रभो।
इंद्रिय विषयों से रहित अतीन्द्रिय, सौख्य सुधारस तीन विभो।।
परमानन्दामृत पीने की, शक्ती दीजे हे नाथ! हमें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।५।।

ॐ ह्रीं अर्हं शंभूनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आत्मा से हुये ‘आत्मभू’ हैं, आत्मा शुध बुद्ध स्वभावी है।
चिच्चमत्कार लक्षण परमैक, ब्रह्ममय सौख्य स्वभावी है।।
टंकोत्कीर्ण स्फटिकमणी, आत्मा भू-धरा पाइ तुमने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।६।।

ॐ ह्रीं अर्हं आत्मभूनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


हे नाथ ‘स्वयंप्रभ’ आप स्वयं, प्रकृष्ट शोभते रहते हैं।
निज प्रभा-कांति से त्रिभुवन को भी, आप प्रकाशित करते हैं।।
मेरी निज आत्मप्रभा मुझको, मिल जावे गुणमणि तेज घने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।७।।

ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंप्रभनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


हे नाथ! आप ‘प्रभु’ हो सबके, स्वामी होने से इस जग में।
परिपूर्ण समर्थ नाथ तुम ही, भक्तों के मनरथ भरने में।।
मैं स्वयं समर्थ बनूँ निज को, पाने में सब पुरुषार्थ बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।८।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रभुनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘भोक्ता’ प्रभु आप सदा परमानंद-सुख के अनुभव कर्ता हैं।
निज के अनंत दृग ज्ञान वीर्य, सुखरूप चतुष्टय भर्ता हैं।।
निज आत्मा से उत्पन्न परम, आह्लाद सौख्य हो प्राप्त हमें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।९।।

ॐ ह्रीं अर्हं भोत्तृâनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


हे नाथ ‘विश्वभू’ केवलज्ञान, अपेक्षा व्याप्त विश्व में हो।
अभवा भू-मंगल करें विश्व का, या वृद्धी भी करते हो।।
भू गत्यर्थक-ज्ञानार्थक है, त्रैलोक्य ज्ञान है नाथ तुम्हें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१०।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वभूनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘अपुनर्भव’ नाथ पुनर्भव निंह, प्रभु जन्म मरण से छूट चुके।
अथवा भव-रुद्र विष्णु ब्रह्मा, इन देवरूप निंह हो सकते।।
अर्हत सर्वज्ञ आप भगवन्, निंह पुनर्जन्म धरते जग में।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।११।।

ॐ ह्रीं अर्हं अपुनर्भवनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘विश्वात्मा’ आप विश्व को निज, सदृश गिनते विश्वात्मा हैं।
या विश्व-सुकेवल ज्ञानमयी, आत्मा-स्वरूप विश्वात्मा हैं।।
त्रिभुवन स्थित प्राणीगण को, निज सदृश गिना सु दयालु बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१२।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वात्मन्नामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘विश्वलोकेश’ विश्वके-तीन लोक के जीवों के।
प्रभु ईश-नाथ बस एक आप, निंह अन्य कोई भी बन सकते।।
जो खुद की रक्षा कर न सके, वो जग के ईश कभी न बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१३।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वलोकेशनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


हे नाथ! ‘विश्वतश्चक्षु’ आप, सब विश्व-लोक में व्याप्त हुआ।
चक्षू-केवलदर्शन प्रभु का, इससे प्रभु ने सब देख लिया।।
श्रुतचक्षू से केवलचक्षू, पाया जगदर्शी आप बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१४।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वतश्चक्षुर्नामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘अक्षर’ प्रभु क्षरण न होता है, निंह चलित आप हो सकते हैं।
या अक्ष-इन्द्रियों को मन को, वश में कर अक्षर बनते हैं।।
तुम नाम स्तुति करते करते, मेरा भी अक्षर नाम बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१५।।

ॐ ह्रीं अर्हं अक्षरनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘विश्ववित्’ ज्ञानरश्मि, से विश्व मािंह सुप्रविष्ट हुये।
सब विश्व-चराचर जग जाना, अतएव विश्ववित् प्रगट हुये।।
यह आत्मा ज्ञानस्वभावी है, मुझ अल्पज्ञान भी पूर्ण बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१६।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्ववित्नामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘विश्वविद्येश’ आपकीद्ध विद्या विश्वा-सकला है।
वह सकल विमल वैâवल्य ज्ञानमय, पूर्ण स्वरूप अविकला है।।
तुम गुण गा-गा कर भव्य जीव, सब विद्याओं के ईश बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१७।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वविद्येशनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘विश्वयोनि’ सम्पूर्ण पदार्थों, की उत्पत्ति के कारण हो।
संपूर्ण पदार्थों के उपदेशक, विश्वयोनि जगतारण हो।।
तुम नाम मंत्र जपते जपते, भाक्तिकजन तुम सम नाथ बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१८।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वयोनिनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘अनश्वर’ कभी नाश, निंह हो सकता युग युग तक भी।
आत्मा के नाशक गुणघातक, कर्मों का नाश किया है भी।।
प्रभु मुझे अनश्वर पद दे दो, इस हेतु वंदना करूँ तुम्हें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१९।।

ॐ ह्रीं अर्हं अनश्वरनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘विश्वदृश्वा’ हो जग को, इक क्षण में ही देख लिया।
तुम गुणस्तुति करते करते, भव्यों ने तुमको देख लिया।।
मैं भी तुमको अवलोकन कर, निज को देखूँ यह युक्ति बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२०।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वदृश्वानामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘विभु’ आप विशेष करें मंगल, भवि के तारन में समरथ हैं।
निज समवसरण में प्रभू राजते, लोकालोक विजानत हैं।।
निज केवलज्ञानकिरण से लोका-लोक व्याप्त कर विभू बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२१।।

ॐ ह्रीं अर्हं विभुनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘धाता’ चहुंगति में पड़े जीव को, निकाल कर मुक्तीपद में।
धर देते अथवा सर्व प्राणियों, का पालन करते जग में।।
प्रभु परम कारुणिक आप, सर्व रक्षा कर धाता स्वयं बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२२।।

ॐ ह्रीं अर्हं धातृनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘विश्वेश’ विश्व-त्रैलोक्य ईश-स्वामी त्रिभुवन के रक्षक हो।
उपदेश अिंहसामयी दिया, सबके बंधू प्रतिपालक हो।।
प्रभु धर्म आपका विश्वधर्म, भवसागरतारण सेतु बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२३।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वेशनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘विश्वलोचन’ त्रिभुवन, प्राणी के चक्षु समान कहें।
सबको हित का उपदेश दिया, इस कारण सबके नेत्र कहें।।
अथवा सब जग का इक क्षण में, अवलोकन करते आप घने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२४।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वलोचननामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘विश्वव्यापी’ कण-कण, में ज्ञान आपका व्याप रहा।
त्रिभुवन के सर्व पदार्थ आप, जानें ऐसा विज्ञान लहा।।
निंह आत्मप्रदेशों में व्यापक, तन में ही रहें प्रदेश घने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२५।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वव्यापिनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-हरिगीतिका छंद-
‘विधु’ आप कर्म विधान करते, कर्मविधि बतलावते।
निजज्ञान केवल किरण से, मोहान्धकार भगावते।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।२६।।

ॐ ह्रीं अर्हं विधुनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘वेधा’ धर्म की, सृष्टी करें सुखहेतु हैं।
जिनधर्म तीर्थ चलावते, इस हेतु भवदधि सेतु हैं।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।२७।।

ॐ ह्रीं अर्हं वेधानामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु नाम ‘शाश्वत’ धारते, शाश्वत विराजें मोक्ष में।
निज भक्त को शाश्वत परम-पद दे रहे हैं लोक में।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।२८।।

ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘विश्वतोमुख’ समवसृति में, चार दिश चउमुख दिखे।
या जल सदृश भवि पाप कीचड़, धोय स्वच्छ सु कर सवेंâ।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।२९।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वतोमुखनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘विश्वकर्मा’ कर्मभूमि, की व्यवस्था के समय।
असि मषि प्रभृति सब क्रिया, उपदेशी सभी को उस समय।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३०।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वकर्मानामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘जगज्जेष्ठ’ त्रिलोक में, भी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ महान हैं।
तुमसे बड़ा निंह और कोई, अत: सर्व प्रधान हैं।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३१।।

ॐ ह्रीं अर्हं जगज्जेष्ठनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘विश्वमूर्ति’ अनंत गुणमय, देहधारी आप हैं।
या सर्व वस्तु ज्ञान दर्पण, में झलकते साफ हैं।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३२।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वमूर्तिनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


भगवन्! ‘जिनेश्वर’ भव्य, सम्यग्दृष्टि मुनिगण आदि के।
ईश्वर कहाते आप इस, हेतू जिनेश्वर सार्व के।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३३।।

ॐ ह्रीं अर्हं जिनेश्वरनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘विश्वदृक्’ संसार की, सब वस्तु सत्तामात्र से।
अवलोकते हैं आप नित, प्रति सर्वदर्शी नाम से।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३४।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वदृव्âनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘विश्वभूतेशा’ तुम्हीं, सब प्राणिगण के ईश हैं।
या विश्वभू-त्रैलोक्य लक्ष्मी, ईश सब भूतेश हैं।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३५।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वभूतेशनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘विश्वज्योती’ विश्व के लोचन जगत में ख्यात हैं।
प्रभु आप केवलज्ञान ज्योती, सर्व जग में व्याप्त हैं।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३६।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वज्योतिनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


भगवन्! ‘अनीश्वर’ आप सम, निंह अन्य ईश्वर लोक में।
प्रभु ईश सबके आप निंह, कोइ आपका प्रभु लोक में।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३७।।

ॐ ह्रीं अर्हं अनीश्वरनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिन आप घाती कर्मशत्रू, जीतकर ‘जिन’ हो गये।
मन इंद्रियों को जीतकर, ‘जिन’ नाम सार्थक कर दिये।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३८।।

ॐ ह्रीं अर्हं जिननामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘जिष्णु’ तुम कर्मारि जीतन, का स्वभाव प्रसिद्ध है।
जयशील शासन आपका, जग में सदैव विशुद्ध है।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।३९।।

ॐ ह्रीं अर्हं जिष्णुनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘अमेयात्मा’ आपमें, आनन्त्य गुण अतिशय भरे।
निंह जान सकता अन्य कोई, माप निंह सकता खरे।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४०।।

ॐ ह्रीं अर्हं अमेयात्मानामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘विश्वरीश’ तुम्हीं मही के, ईश जग में ख्यात हैं।
इस हेतु भविजन नित्य ही, तुम को नमाते माथ हैं।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४१।।

ॐ ह्रीं अर्हं विश्वरीशनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘जगत्पति’ त्रैलोक्य के, स्वामी भविक त्राता तुम्हीं।
रक्षा करो सब द्वंद्व से, सुख शांति होवे आज ही।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४२।।

ॐ ह्रीं अर्हं जगत्पतिनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


हे नाथ! आप ‘अनंतजित्’, मिथ्यात्व आदी जीत के।
प्रभु नाम सार्थक कर दिया, संसार अनंत सुजीत के।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४३।।

ॐ ह्रीं अर्हं अनंतजित्नामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘अचिन्त्यात्मा’ तुम स्वरूप, अचिन्त्य जन मन वचन से।
निंह िंचतवन कर सके कोई, आप आत्मा चित्त से।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४४।।

ॐ ह्रीं अर्हं अचिन्त्यात्मन्नामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘भव्यबंधू’ भव्य जन के, बंधु उपकारक तुम्हीं।
जो रत्नत्रय के योग्य हैं, उनके हितंकर हो तुम्हीं।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४५।।

ॐ ह्रीं अर्हं भव्यबंधुनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


भगवन्! ‘अबंधन’ कर्म बंधन, से रहित गुणखान हो।
सब मोहद्वय आवरण विघ्न विघात कर जग मान्य हो।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४६।।

ॐ ह्रीं अर्हं अबंधननामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


भगवन् ‘युगादीपुरुष’ चौथे, काल युग की आदि में।
ऋषभेश ने शिवपथ कहा, वो ही कहा प्रभु आपने।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४७।।

ॐ ह्रीं अर्हं युगादिपुरुषनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘ब्रह्मा’ सुकेवल ज्ञान आदिक, गुण सुवृद्धिंगत हुये।
निज शुद्ध आत्मजनित सुखामृत, तृप्त ब्रह्मा तुम हुये।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४८।।

ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मानामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘पंचब्रह्मामय’ सु पाँचों, ज्ञानमय विख्यात हो।
या पंचपरमेष्ठीस्वरूप, अनंत गुण से सार्थ हो।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।४९।।

ॐ ह्रीं अर्हं पंचब्रह्मामयनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘शिव’ मोक्ष हो आनंदमय, हो सर्व दोष विहीन हो।
निर्वाण अक्षय शांत परम, कल्याण पद में लीन हो।।
निज ज्ञानज्योती प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मन्त्र अमोघ शक्ती, उसी की चर्चा करूँ।।५०।।

ॐ ह्रीं अर्हं शिवनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-रोला छंद-
प्रभु ‘पर’ नाम सुआप, सब जीवों को पालें।
ज्ञान आदि गुण सर्व, पूरण करने वाले।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।५१।।

ॐ ह्रीं अर्हं परनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘परतर’ नाम धरंत, सबसे श्रेष्ठ तुम्हीं हो।
हित उपदेश करंत, प्रभु सर्वेश तुम्हीं हो।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।५२।।

ॐ ह्रीं अर्हं परतरनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘सूक्ष्म’ आप मन इंद्रिय, इनके विषय नहीं हो।
केवलज्ञान अतीन्द्रय, उनके विषय सही हो।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।५३।।

ॐ ह्रीं अर्हं सूक्ष्मनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘परमेष्ठी’ प्रभु परम, उत्तम पद में तिष्ठो।
अर्हत सिद्धाचार्य आदि पाँच पद तिष्ठो।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।५४।।

ॐ ह्रीं अर्हं परमेष्ठिन्नामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाम ‘सनातन’ आप, सदा एक से रहते।
सदा सदा विद्मान, रूप पुरातन धरते।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।५५।।

ॐ ह्रीं अर्हं सनातननामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘स्वयंज्योति’ प्रभु आप, स्वयं आत्मा ज्योती।
चक्षू जगत्प्रकाश, स्वयं सूर्यमय ज्योती।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।५६।।

ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंज्योतिर्नामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ! आप ‘अज’ नाम, जग में निंह उत्पत्ती।
सदा जपूँ तुम नाम, मिले निजातम शक्ती।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।५७।।

ॐ ह्रीं अर्हं अजनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘अजन्मा’ आप, जन्म कभी निंह धारो।
गर्भवास निंह आप, मेरा जन्म निवारो।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।५८।।

ॐ ह्रीं अर्हं अजन्मानामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘ब्रह्मयोनि’ प्रभु आप, द्वादशांगमय वेदा।
इनकी उत्पति आप, से होती बिन खेदा।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।५९।।

ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मयोनिनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘अयोनिज’ आप, योनी लाख चुरासी।
इनमें निंह उत्पाद, हरो सकल दुख राशी।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६०।।

ॐ ह्रीं अर्हं अयोनिजनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘मोहारीविजयीश’, मोहशत्रु को जीता।
या अरि मोह के आप, विजयशील शिवनीता१।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६१।।

ॐ ह्रीं अर्हं मोहारिविजयिन्नामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


मृत्यु मल्ल को जीत, ‘जेता’ आप कहाये।
सर्व जगत के मीत२, कर्मशत्रु जय पाये।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६२।।

ॐ ह्रीं अर्हं जेतानामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


धर्मचक्र के ईश, श्रीविहार कर जग में।
भव्यों को संबोध, ‘धर्मचक्रि’ त्रिभुवन में।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६३।।

ॐ ह्रीं अर्हं धर्मचक्रिनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभू ‘दयाध्वज’ आप, दया ध्वजा फहरायी।
अथवा दया सुमार्ग, प्रगटाया सुखदायी।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६४।।

ॐ ह्रीं अर्हं दयाध्वजनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘प्रशान्तारि’ प्रभु आप, कर्म शत्रु बलवंता।
उनको किया प्रशांत, पूर्ण शांत भगवंता।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६५।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रशान्तारिनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘अनन्तात्मा’, अनंत केवलज्ञानी।
या अनंत अविनाश, अंतरहित शिवगामी।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६६।।

ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तात्मानामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘योगी’ चित्त निरोध, करके निज को ध्याया। मन वच तन कर शुद्ध, परम समाधि लगाया।। नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से। भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६७।।
ॐ ह्रीं अर्हं योगीनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


योगी मुनि के ईश, गणधर से भी अर्चित।
‘योगिश्वरार्चित’ गीत, तीन भुवन में चर्चित।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६८।।

ॐ ह्रीं अर्हं योगिश्वरार्चितनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘ब्रह्मवित्’ आप, ब्रह्म-आत्म को जाना।
उसका अनुभव-स्वाद, कर लीना शिव थाना।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।६९।।

ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मवित्नामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘ब्रह्मतत्त्वज्ञ’ आत्मतत्त्व के ज्ञानी।
ज्ञान दया का मर्म, जान हुये निज ज्ञानी।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।७०।।

ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मतत्त्वज्ञनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘ब्रह्मोद्याविद्’ आप, ब्रह्म विद्या के वेत्ता।
आत्म विद्या के नाथ, त्रिभुवन के गुरु नेता।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।७१।।

ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मोद्याविद्नामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘यतीश्वर’ आप, यतियों के ईश्वर हो।
रत्नत्रय में यत्न, करें यती उन गुरु हो।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।७२।।

ॐ ह्रीं अर्हं यतीश्वरनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘शुद्ध’ आप रागादि, भाव कर्ममल रहिता।
स्फटिकमणी सम नाथ, करो मुझे मल रहिता।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।७३।।

ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘बुद्ध’ आप संपूर्ण, वस्तु जानते ज्ञानी।
केवलज्ञान सुबुद्धि, पायी अंतर्यामी।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।७४।।

ॐ ह्रीं अर्हं बुद्धनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘प्रबुद्धात्मा’ आप, सदा आपकी आत्मा।
शुद्ध ज्ञान से जग-मगती सर्व गुणात्मा।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाउँâ युक्ती से।।७५।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रबुद्धात्मानामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-चौपाई-
नाम ‘सिद्धार्थ’ धरें जगसिद्धा। सर्व प्रयोजन हुये सुसिद्धा।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।७६।।

ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धार्थनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘सिद्धशासन’ तुम जग में। शासन सर्व हितंकर सच में।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।७७।।

ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धशासननामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आप ‘सिद्ध’ निजगुणमणि नंते। प्राप्त किया शिवगामी संते।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।७८।।

ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘सिद्धांतविद्’ सर्वप्रकाशी। द्वादशांग जानो निज भासी।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।७९।।

ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धांतविद्नामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘ध्येय’ आप मुनिगण आराध्या। योगिध्यान के ध्येय सुसाध्या।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८०।।

ॐ ह्रीं अर्हं ध्येयनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘सिद्धसाध्य’ प्रभु के सब कार्या। सिद्ध हो चुके हैं निरबाध्या।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८१।।

ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धसाध्यनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ! ‘जगद्धित’ जग हितकर्ता। सबके लिए ‘पथ्य’ सुखभर्ता।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८२।।

ॐ ह्रीं अर्हं जगद्धितनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘सहिष्णु’ गुण क्षमा धरे हो।सहनशील हो सौख्य भरे हो।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८३।।

ॐ ह्रीं अर्हं सहिष्णुनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘अच्युत’ निज स्वभाव से च्युत ना। ज्ञानादिक गुणयुत परमात्मा।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८४।।

ॐ ह्रीं अर्हं अच्युतनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘अनंत’ अन्तक से रहिता। गुण अनंत सुख आदिक सहिता।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८५।।

ॐ ह्रीं अर्हं अनंतनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘प्रभविष्णू’ बहु प्रभावशाली। शक्ति अनंती समरथशाली।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८६।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रभविष्णुनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘भवोद्भव’ भव सब श्रेष्ठा। पंचविद्या संसार विनष्टा।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८७।।

ॐ ह्रीं अर्हं भवोद्भवनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘प्रभूष्णु’ सब शक्तीशाली। इंद्रादिक के प्रभु गुणमाली।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८८।।

ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूष्णुनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘अजर’ वृद्ध निंह होते कबहूँ। सर्व दु:ख नाशो मुझ अबहूँ।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८९।।

ॐ ह्रीं अर्हं अजरनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘अजर्य’ नाम के धारी। तुम गुण जीर्ण न हों अविकारी।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९०।।

ॐ ह्रीं अर्हं अजर्यनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘भ्राजिष्णू’ ज्ञानादि गुणों से। अतिशय दीप्तमान् निज गुण से।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९१।।

ॐ ह्रीं अर्हं भ्राजिष्णुनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘धीश्वर’ केवलज्ञानमयी जो। बुद्धी उसके ईश्वर प्रभु हो।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९२।।

ॐ ह्रीं अर्हं धीश्वरनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘अव्यय’ व्यय निंह नाथ तुम्हारा। शिवपद प्राप्त किया सुखकारा।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९३।।

ॐ ह्रीं अर्हं अव्ययनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


कर्मेंधन को अग्नि समाना। ‘विभावसू’ तमहर रवि माना।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९४।।

ॐ ह्रीं अर्हं विभावसुनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


पुनि उत्पन्न जगत में निंह हो। ‘असंभूष्णु’ मुझ जन्मविलय हो।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९५।।

ॐ ह्रीं अर्हं असंभूष्णुनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘स्वयंभूष्णु’ स्वयमेव हुये हो। सिद्ध अवस्था प्राप्त किये हो।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९६।।

ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंभूष्णुनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘पुरातन’ बहु प्राचीना। द्रव्यदृष्टि से आदि विहीना।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९७।।

ॐ ह्रीं अर्हं पुरातननामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘परमात्मा’ अतिशय उत्कृष्टा। परम ज्ञानसुख गुणमणि निष्ठा।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९८।।

ॐ ह्रीं अर्हं परमात्मानामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


परमोत्कृष्ट ज्योतिमय ज्ञानी। ‘परंज्योति’ गुणमणि रजधानी।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९९।।

ॐ ह्रीं अर्हं परंज्योतिनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


तीन जगत् के परमेश्वर हो। ‘त्रिजगत्परमेश्वर’ तुम हो।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ। परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।१००।।

ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगत्परमेश्वरनामविभूषिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-पृथ्वी छंद-
जिनेंद्र! भुवि ‘धर्मदेशक’ तुम्हीं सुधर्माब्धि हो।
मुझे स्वपर भेदज्ञानमय धर्म दीजे अबे।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०१।।

ॐ ह्रीं अर्हं धर्मदेशकनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘शुभंयु’ शुभ युक्त हो प्रभु सुखामृताम्भोधि हो।
मुझे शुभमयी करो तुरत शुद्ध आत्मा बने।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०२।।

ॐ ह्रीं अर्हं शुभंयुनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिनेंद्र! ‘सुखसाद्भूत’ अनुपं सुखाधीन हो।
अनंत सुख दो मुझे गुणसमूह से पूर्ण जो।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०३।।

ॐ ह्रीं अर्हं सुखसाद्भूत्नामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिनेश! तुम ‘पुण्यराशि’ शुभ पुण्य भंडार हो।
पवित्र निज को किया मुझ पवित्र आत्मा करो।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०४।।

ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यराशिनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘अनामय’ प्रभो! तुम्हें सकल व्याधि पीड़ा नहीं।
समस्त तनु रोग नाश भव व्याधि मेरी हरो।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०५।।

ॐ ह्रीं अर्हं अनामयनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिनेंद्र! तुम ‘धर्मपाल’ जिन धर्म को रक्षते।
अनंत जिनधर्म हे हृदय में विराजो सदा।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०६।।

ॐ ह्रीं अर्हं धर्मपालनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभो! ‘जगत्पाल’ हो भुवन प्राणि को रक्षते।
मुझे सतत रक्षिये जगपते! मनोरक्ष हो।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०७।।

ॐ ह्रीं अर्हं जगत्पालनामसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिनेंद्र! जगमध्य ‘धर्मसाम्राज्यनायक’ तुम्हीं।
सुमोक्षप्रद सार्वभौम जिनधर्म के ईश हो।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०८।।

ॐ ह्रीं अर्हं धर्मसाम्राज्यनायकसमन्विताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-पूर्णाघ्र्य-शंभु छंद-
श्रीमान नाम से लेकर धर्म-साम्राज्यनायक तक नामा।
इक शतक आठ नाम सार्थक इंद्रों से स्तुतगुण धामा।।
इन नाममंत्र को जप जप के, बस ‘सिद्ध’ नाम इक पा जाऊँ।
प्रभु तुम सम शुद्ध अवस्था हो, निंह बार बार जग में आऊँ।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमदादिधर्मसाम्राज्यनायकनामपर्यंताष्टोत्तरशतनामसमन्विताय श्री चंद्रप्रभतीर्थंकराय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।

चन्द्रप्रभ भगवान के समवसरण के गणधर देवों का अर्घ्यं
श्री चन्द्रप्रभ के गणपती तेरानवे गणपूज्य हैं।
‘वैदर्भ’ गणधर प्रमुख उनमें सर्वऋद्धी सूर्य हैं।।
द्वादश गुणों के नाथ द्वादश अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं पूजहूँ नित भक्ति से गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्री चन्द्रप्रभतीर्थंकरस्य वैदर्भप्रमुखत्रिनवतिगणधरचरणेभ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।


चन्द्रप्रभ भगवान के समवसरण के मुनियों का अर्घ्यं
चंद्रप्रभू की सभा में, दोय लाख ऋषिवृंद।
तथा पचास हजार भी, नमत हरे भवपंâद।।
नमूँ नमूँ मुनिनाथ को, स्वात्म सुधारस लीन।
गुरु की कृपा प्रसाद से, बनूँ स्वात्म आधीन।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीचन्द्रप्रभनाथस्य द्विलक्षपंचाशत्सहस्रसर्वऋषिभ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।


चन्द्रप्रभ भगवान के समवसरण के गणिनी आर्यिका सहित आर्यिकाओं का अर्घ्यं
चंद्रनाथ के समवसरण में श्वेत वस्त्रधारी आर्या।
तीन लाख अस्सी हजार ये इनमें ‘वरुणा’ प्रमुखार्या।।
लेश्या शुक्ल धरें ये श्रमणी, शुक्लगुणों से मंडित हैं।
जो भविजन इन पूजा करते, वे पद लहें अखंडित हैं।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीचन्द्रप्रभनाथस्य वरुणाप्रमुखत्रयलक्षअशीतिसहस्र-आर्यिकाभ्य: पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।


चन्द्रप्रभ भगवान के शासन यक्ष का अर्घ्यं
चन्दाप्रभू के पास ‘विजय’ यक्ष नित्य हैं।
जिन भक्तगणों के सभी विघ्नों को हरत हैं।।
जिननाथ के शासन के देव आइये यहाँ।
निज यज्ञभाग लीजिए सुख कीजिए यहाँ।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रप्रभनाथस्य शासनदेव विजय यक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण-गृहाण स्वाहा।।४।।


चन्द्रप्रभ भगवान के शासन देवी का अर्घ्यं
चंद्रप्रभू के चरण लीन प्रभुभक्ता शासन देवी हैं।
शुभ नामा ‘ज्वालामालिनी’ ये धर्मनीतिवेत्री हैं।।
चन्द्रप्रभु पूजा विधान में, आओ आओ माता।
यज्ञभाग मैं अर्पण करता, करो सर्व सुखसाता।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रप्रभनाथस्य शासनदेवि ज्वालामालिनी हयक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण-गृहाण स्वाहा।।५।।


जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय नम:।
(१०८ बार, ९ बार या २७ बार सुगंधित पुष्प या पीले चावल से जाप्य करें)