श्री चन्द्रप्रभु विधान - जयमाला
जयमाला

श्री अर्हंत पूजा
-दोहा-
परम हंस परमातमा, परमानंद स्वरूप।
गाऊँ तुम गुणमालिका, अजर अमर पद रूप।।१।।

-शंभु छंद-
जय जय श्री चन्द्रप्रभो जिनवर, जय जय तीर्थंकर शिवभर्ता।
जय जय अष्टम तीर्थेश्वर तुम, जय जय क्षेमंकर सुखकर्ता।।
काशी में चन्द्रपुरी सुंदर, रत्नों की वृष्टी खूब हुई।
भू धन्य हुई जन धन्य हुए, त्रिभुवन में हर्ष की वृद्धि हुई।।२।।

प्रभु जन्म लिया जब धरती पर, इन्द्रों के आसन वंâप उठे।
प्रभु के पुण्योदय का प्रभाव, तत्क्षण सुर के शिर नमित हुए।।
जिस वन में ध्यान धरा प्रभु ने, उस वन की शोभा क्या कहिए।
जहाँ शीतल मंद पवन बहती, षट् ऋतु के कुसुम खिले लहिये।।३।।

सब जात विरोधी गरुड़ सर्प, मृग सिंह खुशी से झूम रहे।
सुर खेचर नरपति आ आकर, मुकुटों से जिनपद चूम रहे।।
दश लाख वर्ष पूर्वायू थी, छह सौ कर तुंग देह माना।
चिंतित फलदाता चिंतामणि, अरु कल्पतरू भी सुखदाता।।४।।

श्रीदत्त आदि त्रयानवे गणधर, मनपर्ययज्ञानी माने थे।
मुनि ढाई लाख आत्मज्ञानी, परिग्रह विरहित शिवगामी थे।।
वरुणा गणिनी सह आर्यिकाएँ, त्रय लाख सहस अस्सी मानीं।
श्रावक त्रय लाख श्राविकाएँ, पण लाख भक्तिरत शुभध्यानी।।५।।

भव वन में घूम रहा अब तक, िंकचित् भी सुख नहिं पाया हूँ।
प्रभु तुम सब जग के त्राता हो, अतएव शरण में आया हूँ।।
गणपति सुरपति नरपति नमते, तुम गुणमणि की बहु भक्ति लिए।
मैं भी नत हूँ तव चरणों में, अब मेरी भी रक्षा करिये।।६।।

-दोहा-
हे चन्द्रप्रभ! आपके, हुए पंच कल्याण।
मैं भी माँगूं आपसे, बस एकहि कल्याण।।७।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।


-गीता छंद-
जो भक्ति से श्री चंद्रप्रभ तीर्थेश का अर्चन करें।
वे भव्य निज के ही गुणों का नित्य संवद्र्धन करें।।
इस लोक के सुख भोग कर फिर सर्वकल्याणक वरें।
स्वयमेव ‘केवलज्ञानमति’ हो मुक्तिलक्ष्मी वश करें।।

।। इत्याशीर्वाद:।।



बड़ी जयमाला


-दोहा-
जय जय जय श्री चंद्रप्रभो!, तुम गुणरत्न अनंत।
जो गावें गुणमालिका, वे पावें भव अंत।।१।।

-चौबोल छंद-
मुनिमन समुद्र वर्धन को शशि, मदनजयी मन तमहारी।
चपलचित्त गति हरन हेतु, चन्द्रप्रभ पूजा सुखकारी।।
भवव्याधिशम को सर्वोषधि, केवलज्ञान के अधिनायक।
महामोह निश अंधकार रवि, आश्रित जन यश वर्धनविधु।।२।।

शशि सेवितपद परमशांतियुत, भव्य भवाग्नी शांत करो।
यति मन कमल विकासी शशि सम, धवल वर्ण नमुं चंद्रप्रभो!।।
अज्ञ हूँ फिर भी भक्ति से प्रेरित, कुछ भी स्तव वह भवनाशक।
स्मृति भी तव अनंत दु:खहर, निंह क्या िंसहशिशु गजमारक।।३।।

प्रभु तुम देखे मन र्हिषत, वाणी गद्गद् अरु नयनों से।
हर्षाश्रू झरते मम जन्म, सफल हैं नमुँ अंजलि करके।।
अनंत दु:ख से व्याप्त योनि, चौरासी लक्ष में फिर-फिर कर।
पाया धर्म जहाज प्रभो! तव कृपा से तरना भवसागर।।४।।

किये अनंत पंच परिवर्तन, अब थकान है बहु मुझको।
तुम परिवर्तन मुक्त अत:, विनती सुन रक्षा करो विभो।।
कालचक्र से रहित! न तुम-बिन कला काल की इक जावे।
पूर्ण सब कला त्रिजगचंद्र! तनुरहित धवल! तव गुण गायें।।५।।

चंद्र! तेरी चाँदनी सभा पय, िंसधु में न्हाकर हो निष्पाप।
बारह सभा भविक शोभें-प्रभु, नमूँ स्वात्म निर्मलता काज।।
क्रोध शांति से मद मृदुता से, छल ऋजुता से शुचि से लोभ।
बिना शस्त्र जीता स्मरजित्! दोषाकर फिर भी निर्दोष।।६।।

मेघाच्छादित राहु ग्रसित-निंह रात्री दिवस प्रकाश करें।
कला न घटती प्रभु से जन मन, चंद्रकांतमणि दुग्ध झरें।।
प्रभु तव मुख को देख शोच से, शशि क्षय रोगी हुआ है क्या?
घटती कला उगे निश में, सब जगत्द्योति तुम उदित सदा।।७।।

रवि किरणें जगतापकरी रवि, तापहरन शशि, पर जग में।
ऋषिकुल कुमुद प्रपुâल्लित चंद्र! मृत्युतापहर तुम्हीं बने।।
भामंडल छवि से लज्जित, आया कलंक धोने तुम पास।
यदि ऐसा निंह सकुटुंबी क्यों, तव पद में नित करें निवास।।८।।

जीव नित्य ही या अनित्य ही, क्रिया मोक्ष कर निंह उनके।
तव मत ‘‘स्यात्’’ के आश्रय से, शिव लहें, न शिव मिथ्यामत से।।
यदि मुक्ती में नाश गुणों का मुक्तीच्छा क्यों मुनिजन के।
यदि पुनरावतार हो तो, सुख ज्ञानादि अनंत वैâसे।।९।।

तव मत में प्रत्येक जीव, निज निज कृति से स्रष्टा बनता।
भू जल वायू अग्नि वनस्पति, विविध विविध निज तन रचता।।
विकलत्रय, पंचेन्द्रिय बन बन, कभी शुभ से नर तन पाया।
यदी निजातम ध्यान किया, कृतकृत्य हुआ शिवपद पाया।।१०।।

शशिसम धवल गुण स्तुति में, तव महर्षि भी असमर्थ रहें।
मैं फिर वैâसे समर्थ होऊँ, निंह बुद्धी िंकचित् मुझमें।।
तथापि िंकचित् संस्तव तेरा, अशुभ कर्म विध्वंसक है।
हे चन्द्रप्रभ! नमोस्तु तुमको, सकल ताप संहारक हैं।।११।।

द्वय नय आश्रित ही शिवपथ को, व्रती ग्रहण कर हो भगवान।
निंह मुक्ती है दुराग्रही को, जयति सदा ही जिनशासन।।
स्वपर भेद विज्ञान यदी है, चरित्र भी होता निश्चित।
स्वात्म सुखामृत पीकर यदि, जन पाते पूर्ण सौख्य अमृत।।१२।।

निरतिचार चारित पालन कर, निश्चयनय से स्वात्मा को।
हृदय कमल में नित अनुभवते, पाते वही मोक्षसुख को।।
परमशुद्ध चिद्घन आत्मा में, यदि मन कथमपि हो स्थिर।
स्वयं शुद्धमय अतुल कांतिभर, शोभे यह जग में सुखकर।।१३।।

प्रभु मैं जन्म जरा मरणादिक, से हूँ पृथक् स्वयं चिद्रूप।
निश्चयनय से निंह विकार, मुझमें मैं सिद्ध सदृश सुखरूप।।
‘‘तुम सम मैं’’ यह बुद्धि तुष्टिप्रद, फिर क्या सिद्ध बने सच में।
प्रभू ध्यान से सिद्धी होवे, यदि चित्त लीन होवे प्रभु में।।१४।।

कुबेर र्नििमत समवसरण में, तारागणयुत शशि सम आप।
द्विदश सभा बिच सर्व जीव हित, करें देशना शोभें नाथ!।।
मदनजयी जिनपति! दुरितंजय, कर्ममर्मभित्! करुणाहृद!
हे त्रिभुवनपति मम हृदि तिष्ठो, भव से रक्षा करो तुरत।।१५।।

जिनेन्द्र! जिनरवि! जिनचंद्र! शरणागत वत्सल! कृपा करो।
हे जिनपुंगव! भवदधि तारक! झट भवदधि से पार करो।।
सुरकृत पुष्पवृष्टि यह मानो, तारागण आये नभ से।
मैं भी शिव हेतु करूँ अर्पण, तव पद में कुसुमावलि ये।।१६।।

हे मुक्तिश्रीरमापते! शरद्-ऋतुपूर्ण चंद्र! जिनचंद्र।
मोह सर्प विषर्मूिछत जन को, सुधावृष्टि से करते पुष्ट।।
यदि चंद्रप्रभ गुणगणभक्ती-मुझसे नित की जावे नाथ!।
पूर्ण ‘ज्ञानमति’ परमानंद सुख, का मुझमें हो स्वयं विकास।।१७।।

-दोहा-
प्रभु गुणमाला गाय के, पाऊँ निज सुखधाम।
ज्ञानमती वैâवल्य हित, करूँ अनंत प्रणाम।।१८।।

ॐ ह्रीं अर्हं श्री चंद्रप्रभतीर्थंकराय जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।


-गीता छंद-
जो भक्ति से श्री चंद्रप्रभ तीर्थेश का अर्चन करें।
वे भव्य निज के ही गुणों का नित्य संवद्र्धन करें।।
इस लोक के सुख भोग कर फिर सर्वकल्याणक वरें।
स्वयमेव ‘केवलज्ञानमति’ हो मुक्तिलक्ष्मी वश करें।।

।। इत्याशीर्वाद:।।