श्री चन्द्रप्रभु विधान - मंगलाचरण
श्री चन्द्रप्रभ विधान प्रारंभ

मंगलाचरण

-भुजंग-प्रयातं छंद:-
मुनीनां मनोवार्धिराकासुधांशु:।
मनोभूविजेता मनोध्वांतहारी।।
चलच्चित्तसंचारहान्यै सदा तं।
मुदा स्तौमि चन्द्रप्रभं चंद्रकांतं।।१।।

भवव्याधिशान्त्यै स सर्वोषधि: स्यात्।
सुवैâवल्यबोधाधिनाथ: कलाभृत्।।
महामोहनैशांध-कारांशुमाली।
श्रितानां यशोवार्धिपूर्णैकचन्द्र:।।२।।

शशांकांघ्रिसेव्य: परां शांतिमाप्त:।
भवेद्भव्यजंतोर्भवाग्निप्रशान्त्यै।।
यतीनां मनो-ऽम्भोजभास्वान् प्रभुस्तं।
सुचंद्रप्रभं नौमि चंद्रांशुगौरं।।३।।

प्रभो! त्वां विलोक्य प्रहृष्टं मनो मे।
ध्वनिर्गद्गदो मोदवाष्पस्रवंत्यौ।।
दृशो स्तश्च साफल्य-जन्मापि मेऽभूत्।
अत: कुड्मलीकृत्य हस्तौ प्रणौमि।।४।।

-शिखरिणी छंद:-
शरीरी प्रत्येवंâ भवति भुवि वेधा: स्वकृतित:।
विधत्ते नानाभू-पवन-जल-वन्हि-द्रुमतनुं।।
त्रसो भूत्वा भूत्वा कथमपि विधायात्र कुशलं।
स्वयं स्वस्मिन्नास्ते भवति कृतकृत्य: शिवमय:।।५।।

जिनपते! दुरितंजय! सौम्यभृत्!,
स्मरजयिन्! करुणाहृद! कर्मभित्।
त्रिभुवनाधिप! मे हृदि तिष्ठ भो:।!,
अव भवाद् भवि-वैâरवचंद्रम:!।।६।।

जिनरवे! जिनचंद्र! जिनेन्द्र! हे!
कुरु कृपां शरणागतवत्सल!
भवत उद्धर हे जिनपुंगव!
भव भवोदधितारक! पाहि मां।।७।।

सुरकृता सुमवृष्टिरिति त्वयि,
उडुगणश्च पतन् किमु भाति खात्।
तव पदाम्बुजभक्तिसुमावलि:,
शिवसुखाय मयापि समप्र्यते।।८।।

।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।