श्री महावीर स्वामी विधान - अथ १०८ अघ्र्य
-दोहा-
महावीर प्रभु बालयति, नमूं नमूं शत बार।
पुष्पांजलि से पूजते, पाऊं सौख्य अपार।।१।।

।।अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।


‘श्रीवृक्षलक्षण’ प्रभो! तरु अशोक से सिद्ध।
शोक हरण हे वीर जिन! नमत मिले नव निद्धि।।१।।

ॐ ह्रीं श्रीवृक्षलक्षणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अनंत लक्ष्मी से तुम्हीं, आलिंगित हो ‘श्लक्षण’।
गुण अनंत मेरे सभी, मिलते नाथ! प्रसन्न।।२।।

ॐ ह्रीं श्लक्षणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आठ महा व्याकरण में, साधु कुशल लक्षण्य।
वाङ्मय विद्या प्राप्त हो, नमत जन्म हो धन्य।।३।।

ॐ ह्रीं लक्षण्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


एक हजार सुआठ हैं, लक्षण श्रुत में मान्य।
‘शुभलक्षण’ इनसे सहित, नमत मिले गुण साम्य।।४।।

ॐ ह्रीं शुभलक्षणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


इन्द्रिय सुख अरु ज्ञान से, रहित ‘निरक्ष’ जिनेश।
सौख्य अतीन्द्रिय हेतु मैं, नमत हरूँ भव क्लेश।।५।।

ॐ ह्रीं निरक्षाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


कमल सदृश वर नेत्र हैं, अत: ‘पुण्डरीकाक्ष’।
पूजत मन पंकज खिले, वीर! भक्ति है साक्षि।।६।।

ॐ ह्रीं पुण्डरीकाक्षाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


स्वात्म गुणों की पुष्टि से, ‘पुष्कल’ पूर्ण महान्।
नमत मिले सुख वीर जिन, भक्त बनें भगवान्।।७।।

ॐ ह्रीं पुष्कलाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


खिले सुरोरुह नेत्र हैं, करिये दृष्टि प्रसन्न।
नमूँ ‘पुष्करेक्षण’ तुम्हें, मुझ मन होय प्रसन्न।।८।।

ॐ ह्रीं पुष्करेक्षणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


स्वात्मा की उपलब्धि हो, तुम भक्ती से नाथ!।
वंदूूं ‘सिद्धिद’ वीर को, भव भव में हो नाथ।।९।।

ॐ ह्रीं सिद्धिदाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सिद्धोऽहं संकल्प से, तुम्हीं ‘सिद्धसंकल्प’।
तुम अर्चा से दूर हों, सब संकल्प विकल्प।।१०।।

ॐ ह्रीं सिद्धसंकल्पाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘सिद्धात्मा’ भगवान को, नमते जो त्रयकाल।
स्वयं सिद्ध बन वे पुरुष, बनते जग प्रतिपाल।।११।।

ॐ ह्रीं सिद्धात्मने श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आप ‘सिद्धसाधन’ प्रभो! भव्य मुक्ति के हेतु।
निश्चय रत्नत्रय निमित, मिलें आप भवसेतु।।१२।।

ॐ ह्रीं सिद्धसाधनाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘बुद्धबोध्य’ भगवंत तुम नमूँ नमूँ धर प्रीति।
ज्ञान जानने योग्य ही, प्राप्त किया जग मीत।।१३।।

ॐ ह्रीं बुद्धबोध्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


महाबोधि’ वैराग्य है, अरु रत्नत्रय प्राप्ति।
अति दुर्लभ इस विश्व में, नमत मुझे हो प्राप्ति।।१४।।

ॐ ह्रीं महाबोधये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘वर्धमान’ विज्ञान से, वृद्धिंगत भगवंत।
ज्ञानपूर्ण मेरा करो, नमॅूँ तुम्हें शिवकांत।।१५।।

ॐ ह्रीं वर्धमानाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अतिशय ऋद्धि समेत प्रभु, नाम ‘महद्र्धिक’ सिद्ध।
सर्व ऋद्धि सिद्धी मिले, यश भी जगत प्रसिद्ध।।१६।।

ॐ ह्रीं महद्र्धिकाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शिक्षा कल्प व व्याकरण, निरुक्त ज्योतिष छन्द।
वेद अंगमय को नमूँ, शिव उपाय ‘वेदांग’।।१७।।

ॐ ह्रीं वेदांगाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आत्मा पृथक््â शरीर से, यही भेद विज्ञान।
नमूँ ‘वेदवित्’ आपसे, मिले मुझे सज्ज्ञान।।१८।।

ॐ ह्रीं वेदविदे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ ‘वेद्य’ मुनिगम्य तुम, केवलज्ञान धरंत।
स्वसंवेद्य अनुभव मिले, नमूँ वीर भगवंत।।१९।।

ॐ ह्रीं वेद्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘जातरूप’ जिनदेव तुम, निर्विकार निग्र्रंथ।
नग्न दिगम्बर वेषयुत, नमत मिले शिवपंथ।।२०।।

ॐ ह्रीं जातरूपाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


चउ ज्ञानी विद्वन् मुनी, उनमें श्रेष्ठ जिनेंद्र।
नाम ‘विदांवर’ मैं नमँॅू, मिले ध्यान का केन्द्र।।२१।

ॐ ह्रीं विदांवराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘वेदवेद्य’ प्रभु आप ही, द्वादशांग के ईश।
पूर्ण ज्ञान दीजे मुझे, नमूँ नमाकर शीश।।२२।।

ॐ ह्रीं वेदवेद्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


निज आत्मा से ज्ञेय तुम, ‘स्वसंवेद्य’ भगवान्।
निज समरस सुख हेतु मैं, नमूँ नमूँ गुणखान।।२३।।

ॐ ह्रीं स्वसंवेद्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


वेद चार तुमसे हुये, अरु विशिष्ट ज्ञानैक।
नमूँ ‘विवेद’ जिनेन्द्र को, पाऊँ निज सुख एक।।२४।।

ॐ ह्रीं विवेदाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


तार्विâकजन में श्रेष्ठ तुम, ‘वदताम्वर’ जिनराज।
न्याय तर्वâ विद्या निपुण, बनूँ सरें सब काज।।२५।।

ॐ ह्रीं वदताम्वराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नाथ! ‘अनादी निधन’ हो, जन्म मरण से शून्य।
श्री अनंत शाश्वत धरो, नमत बनूँ दुख शून्य।।२६।।

ॐ ह्रीं अनादिनिधनाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अर्थ प्रगट करते प्रभो! केवलज्ञान से आप।
‘व्यक्त’ नाम तुमको नमूँ, दूर करूँ यम ताप।।२७।।
ॐ ह्रीं व्यक्ताय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अठरह महभाषा लघू, सात शतक सुस्पष्ट।
दिव्यध्वनी खिरती नमूँ, ‘व्यक्तवाक्’ तुम इष्ट।।२८।।

ॐ ह्रीं व्यक्तवाचे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नमूँ ‘व्यक्तशासन’ विमल, मत विरोध से हीन।
सब प्रमाण से प्रगट है, इससे हो दुख क्षीण।।२९।।

ॐ ह्रीं व्यक्तशासनाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘युगादिकृत’ आपने, धर्मसृष्टि उपदेश।
जग को संरक्षण दिया, नमत न हो दुख लेश।।३०।।

ॐ ह्रीं युगादिकृते श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


श्रावण कृष्णा प्रतिपदा, दिव्यध्वनि के नाथ।
‘युगाधार’ तुमको नमूँ, धर्मतीर्थ से सार्थ।।३१।।

ॐ ह्रीं युगाधाराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘युगादि’ कृतयुग का प्रथम, धर्म वही उपदेश।
शिवपथ दिखलाया अभी, सिद्ध नमूँ सुख हेतु।।३२।।

ॐ ह्रीं युगादये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘जगदादिज’ जग में प्रभो! तीर्थंकर अवतार।
मोक्षमार्ग के हेतु मैं, नमॅूँ अनंतों बार।।३३।।

ॐ ह्रीं जगदादिजाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अतिशय स्वामी इन्द्र से, बढ़कर आप ‘अतीन्द्र’।
शत इन्द्रों से वंद्य प्रभु, नमत बनूँ ज्ञानीन्द्र।।३४।।

ॐ ह्रीं अतीन्द्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


इन्द्रिय ज्ञान व सुख रहित, आप ‘अतीन्द्रिय’ नाम।
स्वात्म अतीन्द्रिय सौख्य हित, कोटि कोटि प्रणाम।।३५।

ॐ ह्रीं अतीन्द्रियाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘धीन्द्र’ सुकेवलज्ञान से, परमात्मा अभिराम।
नमूँ भक्ति से शीघ्र मुझ, मिले स्वात्म विश्राम।।३६।।

ॐ ह्रीं धीन्द्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


परमैश्वर्य समेत प्रभु, नाम ‘महेन्द्र’ धरंत।
पूजूँ श्रद्धा से तुम्हें, अनुपम सुख विलसंत।।३७।।

ॐ ह्रीं महेन्द्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सूक्ष्म अंतरित दूर की, वस्तु अतीन्द्रिय सर्व।
‘अतीन्द्रियार्थदृक्’ देखते, नमत मिले गुण सर्व।।३८।।

ॐ ह्रीं अतीन्द्रियार्थदृशे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


पांचों इन्द्रिय से रहित, आप ‘अनिन्द्रिय’ मान।
अशरीरी महावीर को, नमत मिले सुख साम्य।।३९।।

ॐ ह्रीं अनिन्द्रियाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अहिंमद्रों से पूज्य हो, ‘अहमिन्द्राच्र्य’ जिनेश।
स्वात्म सौख्य संपति मिले, शीघ्र मिटे भव क्लेश।।४०।।

ॐ ह्रीं अहमिन्द्राच्यार्य श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


बत्तिस इन्द्रों से महित, नाम ‘महेन्द्रमहीत’।
मैं भी पूजूँ प्रीतिधर, मिले स्वात्म नवनीत।।४१।।

ॐ ह्रीं महेन्द्रमहिताय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु पूजा के योग्य तुम, जग में श्रेष्ठ ‘महान्’।
महाव्रतों की प्राप्ति हो, अत: नमूूँ भगवान्।।४२।।

ॐ ह्रीं महते श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘उद्भव’ भव उत्कृष्ट तुम, या जग में उत्कृष्ट।
पूजन से सब भक्त के, मिट जाते सब कष्ट।।४३।।

ॐ ह्रीं उद्भवाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


धर्मसृष्टि के बीज हो, ‘कारण’ नाम धरंत।
धर्मनिधी मुझको मिले, आतम सुख विलसंत।।४४।।

ॐ ह्रीं कारणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


चौथे काल के अंत में, उपदेशा षट्कर्म।
‘कर्ता’ कहलाये प्रभो! नमत मिटे भव भर्म।।४५।।

ॐ ह्रीं कत्र्रे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


पंचमहा संसार से, पार हुये भगवंत।
‘पारग’ तुमको मुनि कहें, तारो मुझे तुरंत।।४६।।

ॐ ह्रीं पारगाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


चतुर्गती भव दु:ख से, तारक नाव समान।
‘भवतारक’ की शरण ले, तिरते भव्य प्रधान।।४७।।

ॐ ह्रीं भवतारकाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


गुण अनंत का पार नहिं, पा सकते गणईश।
नमूँ ‘अगाह्य’ प्रभो तुम्हें, नित्य नमाकर शीश।।४८।।

ॐ ह्रीं अगाह्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


योगीजन से भी ‘गहन’, आप अलक्ष्यस्वरूप।
स्वात्म गुणों के हित नमूँ, प्राप्त करूँ निज रूप।।४९।।

ॐ ह्रीं गहनाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


योगगम्य योगीश के, ‘गुह्य’ आपका नाम।
मुक्ति रहस्य मिले मुझे, नमूँ नमूँ शिवधाम।।५०।।

ॐ ह्रीं गुह्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-रमणी छंद-
भगवन्! ‘पराघ्र्य’ सुख ऋद्धि धरा।
मुझको सुख दो, कर जोड़ नमूँ।।५१।।

ॐ ह्रीं पराघ्र्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘परमेश्वर’ हो, शिव श्रीपति हो।
नमते मुझको, परमामृत दो।।५२।।

ॐ ह्रीं परमेश्वराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘अनंतद्र्धी’ जग में।
मुझमें अनंत गुण ऋद्धि भरो।।५३।।

ॐ ह्रीं अनंतद्र्धये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नहिं माप ‘अमेयद्र्धी’ गुण तुम।
सुख ज्ञान भरो, मुझमें जजहूँ।।५४।।

ॐ ह्रीं अमेयद्र्धये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु आप ‘अचिन्त्यद्र्धी’ नत मैं।
नहिं चिंतन कर सकते मुनि भी।।५५।।

ॐ ह्रीं अचिन्त्यद्र्धये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रणमूं ‘समग्रधी’ केवल धी।
जजते मिलती, निज सौख्य निधी।।५६।।

ॐ ह्रीं समग्रधिये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘प्राग्र्य’ नमूूँ, जग मुख्य तुम्हीं।
मुझ जन्म जरा, मरणादि हरो।।५७।।

ॐ ह्रीं प्राग्र्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभु ‘प्राग्रहरा’, सब मंगल कृत।
नमते मुझको, निज संपति दो।।५८।।

ॐ ह्रीं प्राग्रहराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘अभ्यग्र’ तुम्हीं, शिव सन्मुख हो।
त्रयलोक उपरि, निवसो प्रणमूँ।।५९।।

ॐ ह्रीं अभ्यग्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘प्रत्यग्र’ विलक्षण हो जग में।
नत हूँ नित मैं, चरणांबुज में।।६०।।

ॐ ह्रीं प्रत्यग्राय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सब में प्रमुखा, प्रभु ‘अग्र्य’ तुम्हीं।
तुमको जजते, शत इन्द्र सदा।।६१।।

ॐ ह्रीं अग्र्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सब में अग्रेसर ‘अग्रिम’ हो।
प्रभु अंत समाधी, दो मुझको।।६२।।

ॐ ह्रीं अग्रिमाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


—उपजाति छंद—
हो ज्येष्ठ सबमें, ‘अग्रज’ कहाते।
त्रैलोक्य में नाथ, तुम्हीं बड़े हो।।
पूजूँ तुम्हें नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।६३।।

ॐ ह्रीं अग्रजाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महातपा’ घोर सुतप किया है।
बारह तपों को मुझको भि देवो।।पूजूँ.।।६४।।

ॐ ह्रीं महातपसे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


तेजोमयी पुण्य प्रभो! धरे हो।
‘महासुतेजा’ तुम तेज पैâला।।पूजूँ.।।६५।।

ॐ ह्रीं महातेजसे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभो! ‘महोदर्वâ’ तुम्हें कहे हैं।
महान तप का फल श्रेष्ठ पाया।।पूजूँ.।।६६।।

ॐ ह्रीं महोदर्काय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


ऐश्वर्य भारी प्रभु आपका है।
अत: ‘महोदय’ जग में तुम्हीं होे।।पूजूँ.।।६७।।

ॐ ह्रीं महोदयाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


कीर्ती चहूँदिश प्रभु की सुपैâली।
‘महायशा’ नाम कहा इसी से।।पूजूँ.।।६८।।

ॐ ह्रीं महायशसे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभो! ‘महाधाम’ तुम्हीं कहाते।
विशाल ज्ञानी सुप्रताप धारीे।।पूजूँ.।।६९।।

ॐ ह्रीं महाधाम्ने श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभो! ‘महासत्त्व’ अपार शक्ती।
हे नाथ! मुझको निज शक्ति देवोे।।पूजूँ.।।७०।।

ॐ ह्रीं महासत्त्वाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महाधृती’ धैर्य असीम धारी।
आपत्ति में धैर्य रहे मुझे भी।।पूजूँ.।।७१।।

ॐ ह्रीं महाधृतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभो! ‘महाधैर्य’ त्रिलोक में भी।
महान तेजोबल वीर्यशाली।।पूजूँ.।।७२।।

ॐ ह्रीं महाधैर्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभो! ‘महावीर्य’ अनंतशक्ती।
महान तेजोबल वीर्यशाली।।पूजूँ.।।७३।।

ॐ ह्रीं महावीर्याय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभो! ‘महासंपत्’ सर्वसंपत्।
समोसरण में तुम पास शोभे।।पूजूँ.।।७४।।

ॐ ह्रीं महासंपदे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्रभो!‘महाबल’ तनु शक्ति भारी।
ऐसी जगत् में नहिं अन्य के हो।।पूजँ.।।७५।।

ॐ ह्रीं महाबलाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


—प्रमाणिक छंद—
‘महानशक्ति’ धारते, त्रिलोक के गुरू तुम्हीं।
नमूँ अनंत शक्ति हेतु, आपको सदा यहीं।।७६।।

ॐ ह्रीं महाशक्तये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महान ज्योति’ नाथ हो, अनंत ज्ञान रूप हो।
सुज्ञान ज्योति दीजिये, जजूँ तुम्हें सुप्रीति से।।७७।।

ॐ ह्रीं महाज्योतिषे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


महाविभूति तीन लोक की अनंत संपदा।
तथापि हो अधर तुम्हीं, नमूँ निजात्म सौख्य दो।।७८।।

ॐ ह्रीं महाविभूतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महाद्युती’ असंख्य रत्नकांति से भि कांत हो।
जजूँ तुम्हें स्वकांति से मुझे प्रकाश दीजिये।।७९।।

ॐ ह्रीं महाद्युतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महामती’ महान पूर्ण बुद्धि से त्रिलोक को।
जिनेन्द्र! एक साथ आप जानते नमॅूँ तुम्हें।।८०।।

ॐ ह्रीं महामतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महाननीति’ न्याय आप सर्व भव्य का करें।
समस्त दुष्ट कर्म से छुड़ाइये जजूँ तुम्हें।।८१।।

ॐ ह्रीं महानीतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महान क्षांति’ शत्रु पे क्षमा किया क्षमामयी।
मुझे भि शक्ति दीजिये क्षमास्वरूप मैं बनूँ।।८२।।

ॐ ह्रीं महाक्षांतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महादयो’ समस्त जीव पे दया किया तुम्हीं।
दया करूँ निजात्म पे यही कृपा करो नमूँ।।८३।।

ॐ ह्रीं महादयाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महानप्राज्ञ’ नाथ केवली अनंतज्ञान से।
सुभेदज्ञान दीजिये तिरूँ भवोदधी अबे।।८४।।

ॐ ह्रीं महाप्राज्ञाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महान भाग’ सर्व सौख्य पूर्ण हो त्रिलोक में।
सुरेन्द्र पूजते तुम्हें नमंत श्रेष्ठ भाग्य हो।।८५।।

ॐ ह्रीं महाभागाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महाअनंद’ स्वात्मजन्य सौख्य में निमग्न हो।
मुझे निजात्म सौख्य दीजिये नमूँ नमूँ तुम्हें।।८६।।

ॐ ह्रीं महानन्दाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महाकवी’ समस्त सौख्यदायि आपके वचन।
नमॅूँ कृपा करो सुवाक्य सिद्धि प्राप्त हो मुझे।।८७।।

ॐ ह्रीं महाकवये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महामहान्’ देव इंद्र आप अर्चना करेंं।
महान तेज धारते नमूँ सुज्ञान तेज दो।।८८।।

ॐ ह्रीं महामहाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महानकीर्ति’ से समस्त लोक में सुव्याप्त हो।
पदाब्ज को जजूँ निजात्म कीर्ति व्याप्त हो यहाँ।।८९।।

ॐ ह्रीं महाकीर्तये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महान कांति’ से अपूर्व कांतिमान हो तुम्हीं।
समस्त आधि व्याधि नाश स्वस्थ कीजिये जजूूँ।।९०।।

ॐ ह्रीं महाकान्तये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महावपू’ असंख्य भी, प्रदेश व्याप्त लोक में।
सुकेवली समुद्सुघात से तुम्हें नमूँ यहीं।।९१।।

ॐ ह्रीं महावपुषे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महान दान’ अभय दान सर्वप्राणि को दिया।
प्रभो हमें उबारिये कृपालु रक्षिये जजूँ।।९२।।

ॐ ह्रीं महादानाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महान ज्ञान’ से अलोक लोक जानते सदा।
सुज्ञान की कली खिले जजूँ इसीलिये तुम्हें।।९३।।

ॐ ह्रीं महाज्ञानाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महान योग’ नाम है स्वशुद्ध आत्मध्यान से।
अनंत धाम पा लिया नमूँ निजात्म ध्यान दो।।९४।।

ॐ ह्रीं महायोगाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महागुणी’ अनंत गुण समेत इन्द्रवंद्य हो।
गुणों की राशि दीजिये समस्त दोष दूर हों।।९५।।

ॐ ह्रीं महागुणाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सुमेरु पे न्हवन करें सुरेंद्र वंद्य भक्ति से।
‘महान महपती’ नमूँ दरिद्र दुख दूर हो।।९६।।

ॐ ह्रीं महामहपतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘सुप्राप्त महापंचकल्याणक’ सुरेन्द्र वृंद से।
जिनेन्द्र एक ही कल्याण दीजिये नमूँ तुम्हें।।९७।।

ॐ ह्रीं प्राप्तमहापंचकल्याणकाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महाप्रभु’ समस्त जीव के अपूर्व नाथ हो।
निवारिये समस्त मोह दु:खदायि मैं जजूँ।।९८।।

ॐ ह्रीं महाप्रभवे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महान प्रातिहार्य के अधीश’ छत्र आदि से।
शतेन्द्र वंद्य आपको नमूँ अपूर्व सौख्य दो।।९९।।

ॐ ह्रीं महाप्रातिहार्याधीशाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘महेश्वरा’ त्रिलोक के अधीश्वरा जिनेश्वरा।
सुभक्ति से नमूँ तुम्हें महान संपदा मिले।।१००।।

ॐ ह्रीं महेश्वराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


—स्रग्विणी छन्द—
भो ‘महाक्लेशअंकुश’ परीषहजयी।
क्लेश के नाशने वीर मृत्युंजयी।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूं।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूं।।१०१।।

ॐ ह्रीं महाक्लेशांकुशाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


‘शूर’ हो कर्मक्षय दक्ष हो लोक में।
नाथ! मेरे हरो कर्म आनंद हो।।आप.।।१०२।।

ॐ ह्रीं शूराय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


हे ‘महाभूतपति’ गणधराधीश हो।
वीर! रक्षा करो आप जगदीश हो।।आप.।।१०३।।

ॐ ह्रीं महाभूतपतये श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आप ही हो ‘गुरू’ धर्म उपदेश दो।
तीन जग में तुम्हीं श्रेष्ठ हो सौख्य दो।।आप.।।१०४।।

ॐ ह्रीं गुरवे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


वीर ही हो ‘महापराक्रम’ के धनी।
केवलज्ञान से सर्ववस्तू भणी।।आप.।।१०५।।

ॐ ह्रीं महापराक्रमाय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


हो ‘अनंत’ आपका अंत ना हो कभी।
वीर! दीजे अनंतों गुणों को अभी।।आप.।।१०६।।

ॐ ह्रीं अनन्ताय श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


हे ‘महाक्रोधरिपु’ क्रोध शत्रू हना।
सर्व दोषारि नाशा सुमृत्यू हना।।आप.।।१०७।।

ॐ ह्रीं महाक्रोधरिपवे श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


वीर इंद्रिय ‘वशी’ लोक तुम वश्य में।
आत्मवश मैं बनूँ चित्त को रोक के।।आप.।।१०८।।

ॐ ह्रीं वशिने श्रीमहावीरतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


—पूर्णाघ्र्य—दोहा—
वर्धमान सन्मति प्रभो, महावीर भगवान।
पूर्ण अघ्र्य से मैं जजूँ, बालयती गुणखान।।१।।

ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय श्रीमहावीरतीर्थंकराय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।


जाप्य- ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकराय नम:।


(सुगंधित पुष्पों से, लवंग से या पीले चावलों से १०८ बार, २७ बार या ९ बार जाप्य करें।)