श्री महावीर स्वामी विधान - पूजा नं. १
पूजा नं. १

श्री अर्हंत पूजा
Mahaveer Swami Puja

स्थापना—गीता छंद
अरिहंत प्रभु ने घातिया को घात निज सुख पा लिया।
छ्यालीस गुण के नाथ अठरह दोष का सब क्षय किया।।
शत इंद्र नित पूजें उन्हें गणधर मुनी वंदन करें।
हम भी प्रभो! तुम अर्चना के हेतु अभिनन्दन करें।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।


—बसन्ततिलका छंद—
श्रीमज्जिनेंद्र पद में जलधार देऊं।
आतंक पंक जग का सब दूर होवे।।
इच्छानुसार फलदायक कल्पतरू ये।
पूजा जिनेन्द्रप्रभु की त्रय ताप नाशे।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हन् नम: परमेष्ठिभ्य: स्वाहा। (जलं निर्वपामीति स्वाहा।)


काश्मीरि केशर सुचंदन को घिसाउँâ।
चर्चूं जिनेन्द्र पदपंकज में रुची से।।
संसार के सकल ताप विनाश करती।
पूजा जिनेन्द्र प्रभु की सब सौख्य देती।।२।।

ॐ ह्रीं अर्हन् नम: परमात्मकेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।


जो वुंâदपुष्प कलियों सम दीखते हैं।
धोये सु तंदुल लिये भर थाल में हैं।।
अर्हंत सन्मुख रखूँ बहु पुंज नीके।
पाथेय मोक्षपथ में जन के लिये हो।।३।।

ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनादिनिधनेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।


मल्ली गुलाब वर पुष्प सुगंधि करते।
अर्हंत के चरण में रुचि से चढ़ाउँâ।।
पापान्धवूâप मधि डूब रहे जनों को।
उद्धार हेतु जिनपूजन ही जगत् में।।४।।

ॐ ह्रीं अर्हन् नम: सर्वनृसुरासुरपूजितेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।


शालीय ओदन सुगंधित भोज्यवस्तू।
पीयूष तुल्य चरु लेकर थाल भरके।।
अर्हंत सन्मुख चढ़ा क्षुध व्याधि नाशूँ।
तृप्ती अनंत जिनपूजन से मिलेगी।।५।।

ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतज्ञानेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जो चित्त का तमसमूह विनाश करके।
त्रैलोक्यगेह वर दीपक दीप ज्योति।।
ले दीप आरति करूँ वरज्ञानज्योति।
पाउँâ अनंत निजज्ञान विकास करके।।६।।

ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतदर्शनेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।


जो धूप सुन्दर सुगंध बिखेरती है।
अग्नी विषे जलत धूम्र उड़ावती है।।
खेउँâ दशांगवर धूप जिनेन्द्र आगे।
संपूर्ण पाप जलते वर सौख्य होगा।।७।।

ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतवीर्येभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।


ये कल्पवृक्ष फल सम अति मिष्ट ताजे।
अमृत समान रस से परिपूर्ण दीखें।।
पूजा करूँ फल चढ़ाकर आपकी मैं।
स्वात्मैक सिद्धि फल प्राप्त करूँ इसी से।।८।।

ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतसौख्येभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।


नीरादि आठ वर द्रव्य संजोय करके।
घंटा ध्वजा चंवर छत्र सुदर्पणादी।।

अतिशय सुरूप, सुरभित तनु हैं, शुभ लक्षण सहस आठ सोहें।
अतुलित बल प्रियहित वचन प्रभो, ये दश अतिशय जन मन मोहें।।
केवल रवि प्रगटित होते ही, दश अतिशय अद्भुत ही मानों।
चारों दिश इक-इक योजन तक, सुभिक्ष रहे यह सरधानो।।२।।

हो गगन गमन, नहिं प्राणीवध, नहिं भोजन नहिं उपसर्ग तुम्हें।
चउमुख दीखें सब विद्यापति, नहिं छाया नहिं टिमकार तुम्हें।।
नहिं नख औ केश बढ़े प्रभु के, ये दश अतिशय सुखकारी हैं।
सुरकृत चौदह अतिशय मनहर, जो भव्यों को हितकारी हैं।।३।।

सर्वार्ध मागधीया भाषा, सब प्राणी मैत्री भाव धरें।
सब ऋतु के फल औ पूâल खिलें, दर्पणवत् भूरत्नाभ धरें।।
अनुवूâल सुगंधित पवन चले, सब जन मन परमानंद भरें।
रजवंâटक विरहित भूमि स्वच्छ, गंधोदक वृष्टी देव करें।।४।।

प्रभु पद तल कमल खिलें सुन्दर, शाली आदिक बहु धान्य फलें।
निर्मल आकाश दिशा निर्मल, सुरगण मिल जय जयकार करें।।
अरिहंत देव का श्रीविहार, वर धर्मचक्र चलता आगे।
वसु मंगल द्रव्य रहें आगे, यह विभव मिला जग के त्यागे।।५।।

तरुवर अशोक सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चौंसठ चमर कहें।
सिंहासन भामंडल सुरकृत, दुंदुभि छत्रत्रय शोभ रहें।।
ये प्रातिहार्य हैं आठ कहे, औ दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज।
ये चार अनंत चतुष्टय हैं, सब मिलकर छ्यालिस गुण कीरत।।६।।

क्षुध तृषा जन्म मरणादि दोष, अठदश विरहित निर्दोष हुए।
चउ घाति घात नवलब्धि पाय, सर्वज्ञ प्रभू सुखपोष हुए।।
द्वादशगण के भवि असंख्यात, तुम धुनि सुन हर्षित होते हैं।
सम्यक्त्व सलिल को पाकर के, भव भव के कलिमल धोते हैं।।७।।

मैं भी भवदु:ख से घबड़ा कर, अब आप शरण में आया हूँ।
सम्यक्त्व रतन नहिं लुट जावे, बस यही प्रार्थना लाया हूँ।।
संयम की हो पूर्ती भगवन्! औ मरण समाधी पूर्वक हो।
हो केवल ‘ज्ञानमती’ सिद्धी, जो सर्व गुणों की पूरक हो।।८।।

ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्य: जयमाला महाघ्र्यं....।

शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।


-दोहा-
मोह अरी को हन हुए, त्रिभुवन पूजा योग्य।
नमो नमो अरिहंत को, पाऊँ सौख्य मनोज्ञ।।१।।

।। इत्याशीर्वाद:।।