श्री पार्श्वनाथ विधान जयमाला
(शंभु छंद-तर्ज-चंदन सा वदन..........)
जय पाश्र्व प्रभो! करुणासिंधो! हम शरण तुम्हारी आये हैं।
जय जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।।टेक०।।

नाना महिपाल तपस्वी बन, पंचाग्नी तप कर रहा जभी।
प्रभु पार्श्वनाथ को देख क्रोध वश लकड़ी फरसे से काटी।।
तब सर्प युगल उपदेश सुना, मर कर सुर पद को पाये हैं।।
जय०।।१।।

यह सर्प सर्पिणी धरणीपति, पद्मावति यक्षी हुए अहो।
नाना मर शंबर ज्योतिष सुर, समकित बिन ऐसी गती अहो।।
नहिं ब्याह किया प्रभु दीक्षा ली, सुर नर पशु भी हर्षाये हैं।
जय०।।२।।

प्रभु अश्वबाग में ध्यान लीन, कमठासुर शंबर आ पहुँचा।
क्रोधित हो सात दिनों तक बहु, उपसर्ग किया पत्थर वर्षा।।
प्रभु स्वात्म ध्यान मेें अविचल थे, आसन वंâपते सुर आये हैं।।
जय०।।३।।

धरणेंद्र व पद्मावति ने फण पर, लेकर प्रभु की भक्ती की।
रवि केवलज्ञान उगा तत्क्षण सुर समवसरण की रचना की।।
अहिच्छत्र नाम से तीर्थ बना, अगणित सुरगण हर्षाये हैं।।
जय०।।४।।

यह देख कमठचर शत्रू भी, सम्यक्त्वी बन प्रभु भक्त बने।
मुनिनाथ स्वयंभू आदिक दश, गणधर थे ऋद्धीवंत घने।।
सोलह हजार मुनिराज प्रभू के, चरणों में शिर नाये हैं।।
जय०।।५।।

गणिनी सुलोचना प्रमुख आर्यिका, छत्तिस सहस धर्मरत थीं।
श्रावक इक लाख श्राविकायें, त्रय लाख वहाँ जिन भाक्तिक थीं।।
प्रभु सर्प चिन्ह तनु हरित वर्ण, लखकर रवि शशि शर्माये हैं।।
जय०।।६।।

नव हाथ तुंग सौ वर्ष आयु, प्रभु उग्र वंश के भास्कर हो।
उपसर्ग जयी संकट मोचन, भक्तों के हित करुणाकर हो।।
प्रभु महा सहिष्णू क्षमासिंधु, हम भक्ती करने आये हैं।।
जय०।।७।।

चौंतिस अतिशय के स्वामी हो, वर प्रातिहार्य हैं आठ कहे।
आनन्त्य चतुष्टय गुण छ्यालिस, फिर भी सब गुण आनन्त्य कहे।।
बस केवल ‘‘ज्ञानमती’’ हेतू, प्रभु तुम गुण गाने आये हैं।।
जय पाश्र्व प्रभो! करुणासिंधो! हम शरण तुम्हारी आये हैं।।८।।

दोहा
जो पूजें नित भक्ति से, पार्श्वनाथ पदपद्म।
शक्ति मिले सर्वंसहा, होवे परमानंद।।१।।

ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं.......।


शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।


शेरछंद
जो भव्य पार्श्वनाथ का विधान ये करें।
वे आधि व्याधि संकटादि कष्ट परिहरें।।
अतिशायि पुण्यबंध से ईप्सित सफल करें।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ से अनन्त संपदा वरें।।१।।

इत्याशीर्वादः। पुष्पांजलिः।।