श्री रत्नत्रय विधान प्रशस्ति:

वत्सरे युगनवाश्व चन्द्रके। (स १७९२) माघवासितचतुर्दशी दिने।।
नूतने जयपुरे पुरेशिनि। राजमान जयिंसह राजनि।।९।।

वाणी गच्छे गच्छाधीश: शमजातो विद्यानन्दी विद्याधीशं।।
समजता: तेषांशिष्य: शिष्य मुख्योऽक्षयराम। पूजामेना-मुच्चैश्चव्रेâ-अक्षयराम:।
इति श्री नवकार पंच त्रिंशतिकोद्यापन पूजा सम्पूर्णा।।

णमोकार-स्तवन -आर्यिका चंदनामती

-शिखरिणी छंद-
णमो अरिहंताणं, नमन है अरिहंत प्रभु को।
णमो सिद्धाणं में, नमन कर लूँ सिद्ध प्रभु को।।
णमो आइरियाणं, नमन है आचार्य गुरु को।
णमो उवज्झायाणं, नमन है उपाध्याय गुरु को।।।१।।

णमो लोए सव्व-साहूणं पद बताता।
नमन जग के सब, साधुओं को करूँ जो हैं त्राता।।
परमपद में स्थित, कहें पाँच परमेष्ठि इनको।
नमन इनको करके, लहूँ इक दिन मुक्तिपद को।।२।।

सभी के पापों को, शमन करता मंत्र यह ही।
तभी सब मंगल में, प्रथम माना मंत्र यह ही।।
जपें जो भी इसको, वचन मन कर शुद्ध प्रणति।
लहें वे इच्छित फल, हृदय नत हो ‘चन्दनामति’।।३।।