रत्नत्रय विधान - समुच्चय जयमाला

तर्ज-चाँद मेरे आ जा रे.........
करें रत्नत्रय का अर्चन-२,
सम्यक्रतन ये, तीनों जगत में, इसका करें व्रत हम।।करें.।।टेक.।।

सोलहकारण के समापन, में रत्नत्रयव्रत आता।
उपवास या एकाशन कर, व्रत का पालन हो जाता।।
भाद्रपद-चैत्र-माघ में हम,
शुक्ल द्वादशी, से पाँच दिन तक, व्रत का करें पालन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।१।।

तेरस चौदश पूनम को, उपवास किया जाता है।
दो दिन एकाशन करके, व्रत पूर्ण किया जाता है।।
जाप और पूजन करते हैं,
तेरह बरस तक, व्रत पूर्ण करके, होता है उद्यापन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।२।।

वैश्रवण नाम के नृप ने, विधिवत् इस व्रत को किया था।
अहमिन्द्र का पद पा फिर वह, नरभव से मुक्त हुआ था।।
मल्लि तीर्थंकर बन करके,
मिथिलापुरी में, जन्मे पुन:, रत्नत्रय किया पालन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।३।।

ये बालयती तीर्थंकर, शिवपद को प्राप्त हुए हैं।
इन महापुरुष से जग में, रत्नत्रय सार्थ हुए हैं।।
कथा इसकी पढ़कर कितने,
नर-नारियों ने, लेकर रत्नत्रय, का व्रत किया पालन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।४।।

शंकादि दोष अठ एवं, मद आठ मूढ़ता त्रय हैं।
छह अनायतन ये पच्चिस, सम्यक्त्व के दोष कहे हैं।।
दोष करना है निर्मूलन,
जब मोक्षपथ के, सच्चे पथिक बन, चलते रहेंगे हम,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।५।।

संशय-विपरीत व विभ्रम, त्रय दोष ज्ञान के माने।
इनसे विरहित हो सम्यक्-ज्ञानी पदार्थ को जानें।।
यही है सम्यग्ज्ञान रतन,
फिर तप-नियम के, द्वारा करें, सम्यक्चारित पालन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।६।।

रत्नत्रय धारण करने, से सच्चा सुख मिलता है।
‘चन्दनामती’ नरभव में, ही रत्नत्रय मिलता है।।
तभी नरभव सबसे पावन,
कहलाता है हम, देव-शास्त्र-गुरुओं का करें वन्दन,
करें रत्नत्रय का अर्चन।।७।।

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्य: महाजयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।


-शेर छंद-
जो भव्य रत्नत्रय की पूजा सदा करें।
त्रयरत्न प्राप्ति का प्रयत्न ही सदा करें।।
वे रत्नत्रय धारण के फल को प्राप्त करेंगे।
तब ‘चन्दनामती’ वे आत्मतत्त्व लहेंगे।।१।।

।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।



प्रशस्ति

-दोहा-
सम्यग्दर्शन ज्ञान अरु, चारित ये त्रयरत्न।
इनका आराधन करूँ, मिले मुक्ति का पंथ।।१।।

काल अनादी से कहा, रत्नत्रय शिवमार्ग।
जिसने भी अपना लिया, वह पहुँचा शिवद्वार।।२।।

इसीलिए यह रत्नत्रय, पूजन का है विधान।
रत्नत्रय की पूर्णता, हेतु किया निर्माण।।३।।

वीर अब्द पच्चीस सौ, अड़तिस का है वर्ष।
भादों शुक्ला पूर्णिमा, पूर्ण किया मन हर्ष।।४।।

सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
उनके शिष्य बने प्रथम, वीरसागराचार्य।।५।।

चारितचूड़ामणि हुए, वे गुरुवर्य महान।
उनकी शिष्या ज्ञानमति, गणिनीप्रमुख प्रधान।।६।।

वीरप्रभू के तीर्थ में, ये हैं पहली मात।
ग्रन्थसृजन में रच दिया, जिनने नव इतिहास।।७।।

इन्हीं ज्ञानमति मात की, शिष्या मैं अज्ञान।
मिला आर्यिका चन्दना-मती गुरू से नाम।।८।।

बचपन से पाया इन्हीं, माँ से धार्मिक ज्ञान।
बहन तथा गुरुमात का, मिला इन्हीं से प्यार।।९।।

इनके आशिर्वाद से, साहित्यिक कुछ कार्य।
मैंने जीवन में किये, पाया ज्ञान का सार।।१०।।

इसी शृंखला में बना, यह रत्नत्रय पाठ।
व्रत उद्यापन के लिए, है विधान यह सार्थ।।११।।

रत्नत्रय की साधना, करते जो भी भव्य।
वे इस भव्यविधान को, कर पावें पद नव्य।।१२।।

गुरु माँ के करकमल में, अर्पूं दो आशीष।
पूर्ण रत्नत्रय के लिए, झुका रहे मम शीश।।१३।।