रत्नत्रय विधान - सम्यग्ज्ञान पूजा

-स्थापना-
तर्ज-जपूँ मैं जिनवर जिनवर...........
ज्ञान की ज्योति जलाऊँ, ज्ञान में ही रम जाऊँ,
ज्ञान का ही फल आतमनिधि को मैं पाऊँ,
हे प्रभु पाऊँ, ज्ञान को पाऊँ।।ज्ञान की ज्योति.।।टेक.।।
सम्यग्ज्ञान की पूजा रचाऊँ, आह्वानन कर उसको ध्याऊँ।
संस्थापन कर मन में बिठाऊँ तुमको, प्रभुवर तुमको, जिनवर तुमको।।
ज्ञान की ज्योति.।।१।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।


-अष्टक (स्रग्विणी छंद)-
नीर गंगा नदी का कलश भर लिया।
तीन धारा प्रभू के चरण कर दिया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योति जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।१।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।


वुंâकुमादि सुचन्दन घिसाकर लिया।
भवतपन शांतिहित प्रभु चरण चर्चिया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योति जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।२।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।


शालि के पुंज धोकर लिया थाल में।
प्रभु के सम्मुख समर्पूं झुका भाल मैं।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योति जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।३।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।


स्वर्ण चांदी जुही केतकी पुष्प ले।
मैं समर्पण करूँ प्रभु के सन्मुख भले।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।४।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।


मिष्ट पकवान्न का थाल भर कर लिया।
ज्ञान की अर्चना में समर्पित किया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।५।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।


रत्न दीपक जला आरती मैं करूँ।
मोह का नाश कर सौख्य शाश्वत भरूँ।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।६।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।


अग्नि में धूप सुरभित दहन मैं करूँ।
कर्म की धूप का अब हवन मैं करूँ।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।७।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।


नारियल निंबु केला फलों को लिया।
ज्ञान अर्चन में प्रभु पद समर्पण किया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।८।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।


नीर चंदन सुअक्षत सहित अर्घ्य ले।
‘‘चन्दनामति’’ प्रभू पाद अर्पूं उसे।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।९।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


विश्व की शांति हित शांतिधारा किया।
ज्ञान की अर्चना में त्रिधारा किया।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।१०।।

शांतये शांतिधारा।


आत्म गुण की प्राप्ति हेतु पुष्प अंजली करूँ।
ज्ञानगुण की प्राप्ति हेतु पुष्पवृष्टी करूँ।।
बोध सम्यक् मिले आत्मज्योती जले।
आत्म अज्ञानता का तिमिर तब टले।।११।।

दिव्य पुष्पांजलि:।


अथ प्रत्येक अर्घ्य


-दोहा-
अठ विध सम्यग्ज्ञान की, पूजा करूँ महान।
मण्डल पर पुष्पांजली, करूँ हरूँ अज्ञान।।
इति मण्डलस्योपरि द्वितीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
स्वर-व्यंजन का भी जहाँ, यथायोग्य परिमाण।
उस श्रुत का अर्चन करे, शीघ्र कर्म की हान।।१।।

ॐ ह्रीं व्यञ्जनोर्जितश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अर्थ समग्र प्रगट करे, जो श्रुत सम्यक् सार।
हीनाधिक भी नहिं रहे, पूजूँ श्रुत भण्डार।।२।।

ॐ ह्रीं अर्थसमग्रश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शब्द अर्थ से पूर्ण जो, श्रुत निर्दोष महान।
उस श्रुत की पूजन करूँ, हो अज्ञान की हान।।३।।
ॐ ह्रीं शब्दार्थोभयपूर्णश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


ग्रन्थाध्ययन के काल का, करते जो व्याख्यान।
उन ग्रंथों की अर्चना, देती सौख्य महान।।४।।

ॐ ह्रीं कालाध्ययनवर्णनश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नियमव्रतादि कथन सहित, है उपधान समृद्ध।
विनय देवता आदि युत, ग्रंथ नमूँ गुणसिद्ध।।५।।

ॐ ह्रीं उपधानसमृद्धांगश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


विनय आदि से जानिए, विनयोन्मुद्रित अंग।
उस श्रुत पूजन से मिले, आत्मशुद्धि का रंग।।६।।

ॐ ह्रीं विनयोन्मुद्रितांगश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


निन्हव जो गुरु आदि का, करें लहें अज्ञान।
इनका जो वर्णन करें, वे हैं शास्त्र महान।।७।।

ॐ ह्रीं गुर्वाद्यनपन्हसमेधितांगश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


गुरुओं के बहुमान से, होती बुद्धि समृद्ध।
उन वर्णन युत शास्त्र की, पूजा दे सुख सिद्धि।।८।।

ॐ ह्रीं बहुमानसमृद्धांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शेर छंद-
हैं तीन सौ छत्तीस भेद मतिज्ञान के।
जो हैं अवग्रहादिरूप भेद नाम से।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।९।।

ॐ ह्रीं सम्यक्मतिज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


श्रुतज्ञान है दो भेदरूप शास्त्र में कहा।
उनमें से बारह भेद अंगप्रविष्ट के कहा।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१०।।

ॐ ह्रीं सम्यक्श्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जय द्वादशांग में प्रथम आचार अंग है।
श्रावक व मुनि के चरित का वर्णन किया इसमें।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।११।।

ॐ ह्रीं आचारांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जय द्वादशांग में द्वितीय सूत्रकृत कहा।
छत्तिस हजार पद से सहित अंगश्रुत रहा।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१२।।

ॐ ह्रीं सूत्रकृतांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जय द्वादशांग का तृतीय स्थानांग है।
भव्यों के लिए तत्त्व का वर्णन किया इसमें।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१३।।

ॐ ह्रीं स्थानांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जय द्वादशांग में चतुर्थ समवायांग है।
द्रव्यादि के सादृश्य का वर्णन किया इसमें।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१४।।

ॐ ह्रीं समवायांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम से पंचम जो अंग है।
है साठ सहस्र प्रश्नों का संकलन इसमें।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१५।।

ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिअंगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जय ज्ञातृकथा अंग छठा अंग कहा है।
गंभीर अर्थयुक्त कथारूप कहा है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१६।।

ॐ ह्रीं ज्ञातृधर्मकथांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जय सातवाँ उपासकाध्ययनांग कहा है।
इसमें कही सब श्रावकों की पूर्ण क्रिया है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१७।।

ॐ ह्रीं उपासकाध्ययनांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जय अन्तकृद्दशांग आठवाँ जो अंग है।
प्रत्येक प्रभु के अन्तकृत् केवलि का कथन है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१८।।

ॐ ह्रीं अन्तकृद्दशांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


नवमां अनुत्तरोपपादिक दशांग है।
इसमें अनुत्तरों में जन्मे का ही कथन है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।१९।।

ॐ ह्रीं अनुत्तरोपपादिकदशांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जय दशम प्रश्नव्याकरण नामक जो अंग है।
प्रश्नानुसार उसमें कथाओं का कथन है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२०।।

ॐ ह्रीं प्रश्नव्याकरणांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


एकादशम विपाकसूत्र अंग कहा है।
कर्मों के पाक का कथन इसमें ही कहा है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२१।।

ॐ ह्रीं विपाकसूत्रांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


है दृष्टिवाद अंग पाँच भेदयुत कहा।
परिकर्म नाम उनमें से है प्रथम कहा।।
उनमें से ही परिकर्म पंचभेदयुत जजूँ।
अज्ञान हटाने के लिए अर्घ्य समर्पूं।।२२।।

ॐ ह्रीं दृष्टिवादांगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिनदेव के द्वारा कही है चन्द्रप्रज्ञप्ती।
जिसमें है चन्द्रमा के परिवार की कथनी।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२३।।

ॐ ह्रीं चन्द्रप्रज्ञप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिनदेव के द्वारा कही है सूर्यप्रज्ञप्ती।
जिसमें है सूर्य देव के परिवार की कथनी।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२४।।

ॐ ह्रीं सूर्यप्रज्ञप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिनदेव ने कही है जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ती।
कुलपर्वतादि की कही है जिसमें स्थिती।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२५।।

ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सम्पूर्ण द्वीप-सागरों की भी है पण्णत्ती।
उनके जिनालयों की उसमें जानो स्थिती।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२६।।

ॐ ह्रीं द्वीपसागरप्रज्ञप्त्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का श्रुतज्ञान भी माना।
जीवरु अजीव का कथन उसमें है बखाना।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२७।।

ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जो सूत्र नाम का द्वितीय भेद बताया।
सिद्धान्तसूत्र का कथन है उसी में आया।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२८।।

ॐ ह्रीं सूत्रनाम श्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


बारहवाँ दृष्टिवाद अंग नाम का माना।
प्रथमानुयोग उसका एक भेद बखाना।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।२९।।

ॐ ह्रीं प्रथमानुयोगश्रुतज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-शंभु छंद-
श्रुतज्ञान चतुर्दशपूर्वरूप, श्रुत की विशेषता कहता है।
उसमें उत्पादपूर्व पहला, द्रव्योत्पादन को कहता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३०।।

ॐ ह्रीं उत्पादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


है दुतिय आग्रायणीय पूर्व, जहाँ मोक्ष प्रकाशित होता है।
सब शास्त्रों में भी प्रमुखरूप से, मार्ग प्रदर्शित होता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३१।।

ॐ ह्रीं अग्रायणीयपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


वीर्यानुवाद पूरब आत्मा की, शक्ती का वर्णन करता।
यह पूर्वरूप श्रुत आगम की, बातों का नित्य कथन करता।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३२।।

ॐ ह्रीं वीर्यानुवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


फिर अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व, वह चौथा पूर्व कहाता है।
स्याद्वाद का अनुपम लक्षण जो, जिनधर्म का सार बताता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३३।।

ॐ ह्रीं अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


पंचम है ज्ञानप्रवादपूर्व, ज्ञानादि देशना करता है।
है सम्यग्ज्ञान प्रमाणरूप, इसकी सिद्धी वह करता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३४।।

ॐ ह्रीं ज्ञानप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


सत्यादि भेद का वाचक सत्य-प्रवादपूर्व कहलाता है।
इनके शास्त्रों को पढ़ने से, सच-झूठ पता चल जाता है।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३५।।

ॐ ह्रीं सत्यप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आत्मप्रवाद नामक सप्तम, पूरब आत्मा का कथन करे।
भारती सरस्वति माता की, वाणी भव्यात्मा श्रवण करे।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३६।।

ॐ ह्रीं आत्मप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


अष्टम है कर्मप्रवादपूर्व, जो कर्मों का वर्णन करता।
कर्मों के नाना भेद तथा, उन सबके अर्थ कथन करता।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३७।।

ॐ ह्रीं कर्मप्रवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


है प्रत्याख्यान पूर्व नवमाँ, सावद्यत्याग का कथन करे।
बस उसी ज्ञान के अर्जन हेतू, मुनिगण इसका पठन करें।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३८।।

ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


विद्या-औषधि आदिक का वर्णन, करता है विद्यानुवाद।
मंत्रादिक को पढ़ इसमें प्राय:, पद से च्युत हो जाते साधु।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।३९।।

ॐ ह्रीं विद्यानुवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


ग्यारहवाँ है कल्याणवाद, जो तीर्थंकर कल्याणक का।
वर्णन करके बतलाता है, वैâसा था तीर्थकाल उनका।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।४०।।

ॐ ह्रीं कल्याणवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


प्राणानुवाद है पूर्व बारहवाँ, प्राणचिकित्सा बतलाता।
इस वर्णन के ही साथ पूर्व, यह धर्म का फल भी बतलाता।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।४१।।

ॐ ह्रीं प्राणानुवादपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


तेरहवाँ क्रियाविशाल पूर्व, श्रुतज्ञान विशाल क्रिया कहता।
वह नृत्य-वाद्य-संगीत-गीतमय, पावन काव्य कथा कहता।।
जल गंधादिक से अर्घ्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।४२।।

ॐ ह्रीं क्रियाविशालपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


जिननायक तीर्थंकर प्रभु ने, चौदहवाँ पूर्व अपूर्व कहा।
है सार्थक नाम त्रिलोकबिन्दु-सारं त्रैलोक्यस्वरूप कहा।।
जल गंधादिक से अघ्र्य बना, श्रुतज्ञान का अर्चन करना है।
श्रुतज्ञान के बल पर नाथ मुझे, कैवल्यज्ञान को वरना है।।४३।।

ॐ ह्रीं लोकबिन्दुसारपूर्वश्रुताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


हैं चूलिका के पाँच भेद श्रुतसमुद्र में।
पहली है जलगता जलस्तंभन स्वरूप में।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४४।।

ॐ ह्रीं जलगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


स्थलगता द्वितीय चूलिका कही जाती।
मेरू कुलाद्रि पर्वतों का कथन बताती।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४५।।

ॐ ह्रीं स्थलगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


मायागता तृतीय चूलिका का नाम है।
मायावियों के रूप का इसमें व्याख्यान है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४६।।

ॐ ह्रीं मायागताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


आकाशगता चूलिका नामानुसार है।
नभ में गमन की गती आदि कहते शास्त्र हैं।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४७।।

ॐ ह्रीं आकाशगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


चित्रादि कर्म को सिखाती रूपगता है।
इस चूलिका में मनुज-पशु की रूपकथा है।।
इस ज्ञान का अर्चन करूँ सम्यक्स्वरूप है।
इस ज्ञान का वन्दन करूँ जो श्रुत का रूप है।।४८।।

ॐ ह्रीं रूपगताचूलिकायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


-पूर्णार्घ्य-
उस सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद, मति-श्रुत आदिक माने जाते।
स्वर-व्यंजनयुत आदिक अठ, शुद्धी युत ये हैं पाले जाते।।
हम उसी ज्ञान की पूजन का, पूर्णार्घ्य चढ़ाने आए हैं।
हो ज्ञानज्योति की प्राप्ति ‘चन्दना-मती’ भाव ये लाए हैं।।१।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय नम:।


जयमाला

तर्ज-मिलो न तुम तो हम..........
सम्यग्ज्ञान रतन है दूजा, इसकी करने पूजा,
प्रभू हम आ गये हैं-२।।टेक.।।

ज्ञान के समान जग में, कोई हितकारी वस्तु है नहीं। हो......
ज्ञान ही प्रमाण सच में, आत्म हितकारी वस्तु है सही।। हो......
ज्ञानामृत के, स्वाद को चखने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं-।।१।।

शब्दशुद्धि अर्थशुद्धि और उभयशुद्धि पालन करते जो। हो......
कालशुद्धिपूर्वक श्रुत के, अध्यन से भवसागर को तरते वो।। हो......
शुद्धज्ञान का, अर्जन करने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं।।२।।

उपधानशुद्धी करके, ज्ञान की समृद्धी हम पा सकते हैं। हो....
गुरु की विनय के द्वारा, आत्मा में शुद्धी हम ला सकते हैं।। हो.....
शुद्धातम का, चिन्तन करने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं।।३।।

आचारशुद्धी द्वारा, शुद्ध आचरण का पाठ पढ़ना है। हो......
बहुमान शुद्धी द्वारा, शास्त्र का सदा सम्मान करना है।। हो......
जिनवाणी का, अर्चन करने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं।।४।।

अष्टभेदयुत शुद्धी के, साथ जैन आगम जो भी पढ़ते हैं। हो.....
‘‘चन्दनामती’’ वे सम्यग्ज्ञान के फल मुक्तिश्री को वरते हैं।। हो......
पूर्ण अर्घ्य को, अर्पण करने, तेरी पूजन करने,
प्रभू हम आ गये हैं।।५।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।


-शेर छंद-
जो भव्य रत्नत्रय की पूजा सदा करें।
त्रयरत्न प्राप्ति का प्रयत्न ही सदा करें।।
वे रत्नत्रयधारण के फल को प्राप्त करेंगे।
तब ‘‘चन्दनामती’’ वे आत्मतत्त्व लहेंगे।।१।।

।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।