उत्तमआर्जव
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क्षमा और मार्दव के समान ही आर्जव भी आत्मा का स्वभाव है। आर्जवस्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में छल-कपट मायाचार के अभावरूप शांति-स्वरूप जो पर्याय प्रकट होती है, उसे भी आार्जव कहते हैं। यद्यपि आत्मा आर्जवस्वभावी है, तथापि अनादि से ही आत्मा में आर्जव के अभावरूप मायाकषायरूप पर्याय ही प्रकट से विद्यमान हैं

’ऋजोर्भावः आर्जवम्’ ऋजुता अर्थात् सरलता का नाम आर्जव है। आर्जव के साथ लगा ’उत्तम’ शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है। सम्यग्दर्शन के साथ होने वाली सरलात ही उत्तमआर्जव धर्म हैं उत्तमआर्जव अर्थात् सम्यग्दर्शनसहित वीतरागी सरलता।

आर्जवधर्म की विरोधी मायाकषाय है। मायाकषाय के कारण आत्मा में स्वभावगत सरलता न रहकर कुटिलता उत्पन्न हो जाती है। मायाचाीर का व्यवहार सहज एवं सरल नहीं होता। वह सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और करता कुछ है। उसके मन-वचन-काय में एकरूपता नहीं रहती। वह अपने कार्य की सिद्धि छल-कपट के द्वारा ही करना चाहता है।

मायाचारी की प्रवृत्ति का चित्रण पं. टोडरमलजी ने इसप्रकार किया है - ’’जब इसके मायाकषाय उत्पन्न होती है, तब छल द्वारा कार्य सिद्ध करने की इच्छा होती है। उसके अर्थ अनेक उपाय सोचता है, नाना प्रकार कपट के वचन कहता है, शरीर की कपटरूप अवस्था करता है, बाह्यवस्तुओं को अन्यथा बतलाता है तथा जिनमें अपना मरण जाने ऐसे भी छल करता है। कपट प्रकट होने पर स्वयं का बहुत बुरा हो, मरणादिक हो, उनको भी उन्हें गिनता। तथा माया होने पर किसी पूज्य व इष्ट का भी सम्बन्ध बने तो उनसे भी छल करता है, कुछ विचार नहीं रहता। यदि छल द्वारा कार्य सिद्धि न हो तो स्वयं बहुत संतापवना होता है, अपने अंगों का घात करता है तथा विष आदि से मर जाता है - ऐसी अवस्था माया होने पर होती है।1’’

मायाचारी व्यक्ति अपने सब कार्य मायाचार से ही सिद्ध करना चाहता है । वह यह नहीं समझता कि काठ की हांडी दो बार नहीं चढ़ती। एक बार मायाचार प्रकट हो जाने पर जीवनभर को विश्वास उठ जाता है। धोखा-धड़ी से कभी-कभी और किसी-किसी को ही ठगा जा सकता है, सदा नहीं और सबको भी नहीं।

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि लौकिक कार्यों की सिद्धि मायाचार से नहीं, पूर्व पुण्योदय से होती है और पारलौकिक कार्य की सिद्धि में पांचों समवायों के साथ पुरूषार्थ प्रधान हैं

कार्यसिद्धि के लिए कपट का प्रयोग कमजोर व्यक्ति करता है। सबल व्यक्ति को अपनी कार्यसिद्धि के लिए कपट की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। उसकी प्रवृत्ति तो अपने जोर के जरिए कार्य सिद्ध करने की रहती है।

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यह भी बात नहीं कि मायाचार की प्रवृत्ति मात्र किसी को ठगने के लिए ही की जाती हो। कुछ लोग मनोरंजन के लिए या आदतवश भी ऐसा करते हैं। उन लोगों को यहां की वहां भिड़ाने में कुछ आनन्द - सा आता है। ऐसे लोग अपने छोटे मनोरंजन के लिए दूसरों को बड़े से बड़े संकट में डालने से नहीं चूकते।

आजकल सभ्यता के नाम पर भी बहुत - सा मायाचार चलता हैं बिना लाग-लपेट के कहीं गई सच्ची बात तो लोग सुनना भी पसंद नहीं करते। यही भी एक कारण है कि लोग अपने भाव सीधे रूप में प्रकट न करे एड़े-टेड़े रूप में व्यक्त करते हैं। सभ्यता के विकास ने आदमी को बहुत-कुछ मिठबोला बना दिया है। आज के आदमी के लिए ऊपर से चिकनी-चुपडी बातें करना और अन्दर से काट करना एक साधारण-सी बात हो गई है। वह यह नहीं समझता कि यह मायाचारी दूसरों के लिए ही नहीं, स्वयं के लिए भी बहुत खतरनाक साबित हो सकती है, उसके सुख-चैन को भंग कर सकती है। भंग क्या कर सकती है, किए रहती है।

मायाचारी सदा सशंक बना रहता है,क्योंकि उसने जो दुरंगी नीति चलाई है, उसके प्रकट हो जाने का भय उसे सदा बना रहता है, छल कभी न कभी प्रकट होता ही है, उसकी गुप्तता बनए रखना अपने आप में असंभव नहीं, तो कठिन काम अवश्य है। वह सदा उसी में उलझा रहता है।

वह हमेशा भयाक्रान्ता भी बना रहता है। उसे यह भय सदा बना रहता है कि कपट खुल जाने परउसकी बहुत बुरी हालत होगी, वह महान कष्ट में पड़ जायेगा। बलावानों के साथ किया गया कपट-व्यवहार खुलने पर बहुत खतरनाक साबित होता है। खतरा तो कपट खुलने पर होता है, पर खतरे की आशंका से कपटी सदा ही भयाक्रांता रहता है।

सशंकित और भयाक्रानत व्यक्ति कभी भी निराकुल नहीं हो सकता। उसका चित्त निरन्तर आकुल-व्याकुल और अशांत रहता है। अशांत-चित्त व्यक्ति कोई भी कार्य सही रूप में एवं सफलतापूर्वक नहीं कर सकता है, फिर धर्म की साधना और आत्मा की आराधना तो बहुत दूर की बातें हैं।

मायाचारी व्यक्ति का कोई विश्वास नहीं करता। यहां तक कि माता-पिात, भाई-बहिन, पत्नी-पुत्र का भीउस पर से विश्वास उठ जाता है।

यही कारण है कि मायाकषाय का वर्णन करते हुए श्री शुभचन्द्राचार्य ने ’ज्ञानार्णव’ के उन्नीसवें सर्ग में लिखा है -

जन्मभूमिरविद्यानाकीर्तेर्वासमन्दिरम्।
पापपकंकमाहगर्तो निकृतिः कीर्तिता बुधैः।।48।

अर्गलेवापसर्गस्य पदवी श्वभ्रवेश्मनः।
शीलशालवने वह्निर्मायेयमवगम्यताम्।।49।।

बुद्धिमान लोग कहत हं कि माया को इसप्रकार जानों कि वह अविद्या की जन्मभूमि, अपयश का घर, पापरूपी कीचड़ का बड़ा भारी गड्ढा, मुक्ति-द्वार की अर्गला, नरकरूपी घर का द्वार और शीलरूपी शालवृक्ष के वन को जलाने के लिए अग्नि है।

मायाकषाय के अभाव कानाम ही आर्जवधर्म है।

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आर्जवधर्म और मायाकषाय की चर्चा जब भी चलती है, तब उसे मन-वचन-काय के माध्यम से ही समझा-समझाया जाता है। कहा जाता है कि मन-वचन और कय की एकरूपता ही आर्जवधर्म है और इनकी विरूपता ही आर्जवधर्म की विरोधी मायाकषाय है। यह उपदेश भी दिया जाता है कि जैसा मन में हो वैसा ही वााी से कहना चाहिये तथा जैसा बोला हो वैसा ही करना चाहिए। इसे ही आर्जव धर्म बताया जाता है तथा मन में और, वचन में और करे कुछ औक्र, यह माया है - ऐसा कहा जाता है। मन-वचन-काय की इसविरूपता को ही वक्रता, कुटिलता आदि नामों से भी अभिहित किया जाता हैं

किंतु यह सब स्थूल कथन है। सूक्ष्मता से विचार करने पर इस सन्दर्भ में कई प्रश्न खड़े हो जाते हैं।

आर्जवधर्म और मायाकषाय की उक्त परिभाषाएं स्वीकार करने पर आर्जवधर्म और मायाकषाय की उपस्थिति मन-वचन-काय वालों के ही मानना होगी, क्योंकि मन-वचन-काय की एकरूपता या विरूपता मन-वचन-काय वालों के ही संभव है; जिनके मन-वचन-काय ही नहीं, उनके नहीं। मन-वचन-काय के अभाव में उनमें एकरूपता या विरूपता का प्रश्न ही नहीं उठता।

सिद्धों के मन-वचन-काय का अभाव है, अतः उक्त परिभाषा के अनुसार उनके आर्जवधर्म सम्भव नहीं है, जबकि उनके आर्जवधर्म होता है। उनमें आर्जवधर्म की सत्ता शास्त्रसम्मत तो है ही, युक्तिसंगत भी है। उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, आदि आत्मा के धर्म हैं एवं वे आत्मा की स्वभाव-पर्यायें भी है, उनका सम्पूर्ण धर्मों एवं सम्पूर्ण स्वभाव-पर्यायों से युक्त सिद्ध जीवों में पाया जाना अवश्यम्भावी है, क्योंकि सम्पूर्ण शुद्धता का नाम ही र्सिद्धपर्याय है।

इसीप्रकार जिनके मन और वाणी नहीं है, ऐसे एकेन्द्रियादि जीवों के मायाकषाय मानना संभव न होगा; क्योंकि जिनके अकेली काया है, मन और वचन है ही नहीं, उनके मन-वचन-काय की विरूपता अर्थात् मन में औ, वचन में और, करे कुछ और वाली बात कैसे घटित होगी?

एक दुकान पर तीन विक्रेता हैं - पृथक्-पृथक् उन सबसे किसी कपडे का भाव पूछने पर एक ने आठा रूपये मीटर, दूसरे ने दस रूपये मीटर एवं तीसरे ने बारह रूपये मीटर बताया, जबकि वह है आठ रूपये मीटर का ही। उक्त स्थिति में तीनों की बातों में विरूपता होने से वे अप्रामाणिक कहे जावेंगे। आप कहेंगे - क्या लूट मचा रखी है, जितने आदमी उतने भाव। पर यदि एक ही विक्रेता हो और वह आठा रूपये मीटर को बारह रूपये मीटर बतावे तोक्या वह प्रामाणिक हो जावेगा? नहीं, कदापि नहीं। परंतु एक ही विक्रेता होने से विरूपता दिखाई नहीं देगी। एक में विरूपता कैसी? विरूपता तो अनेक में ही संभव है।

इसीप्रकार एकेन्द्रियादि असंज्ञी जीवों में वाणी और मन का अभाव होने से मन-वचन-काय की विरूपता तो संभव नहीं है, तो फिर उनके मन-वचन-काय की विरूपता है परिभाषा जिसकी, ऐसी मायाकषाय की उपस्थिति कैसे मानी जावेगी? मायाकषाय के अभाव में उनके आर्जवधर्म मानना होगा, जो कि असंभव है, क्योंकि शास्त्रों में ऐसा स्पष्ट उल्लेख है कि एकेन्द्रिय के ही क्या, एकेन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों के चारों कषायें होती हैं, भले ही उनका प्रकटरूप दिखाई न दे।

दूसरे मन-वचन-काय की एकरूपता उल्टी भी तो हो सकती है। जैसे- तीनों ही विक्रेता आठ रूपये मीटर के कपड़े काभाव बीस रूपया मीटर बतावें, तो क्या वे सही हो जावेंगे? नहीं, कदापि नहीं; जबकि उन तीनों के बोलने में एकरूपता दिखाई देगी, क्योंकि बुद्धिपूर्वक पूर्वनियोजित बेईमानी में भी एकरूपता सहज ही पाई जाती है।

उसीप्रकार जैसे किसी के मन में खोटा भाव आया, उसे उसने वाणी में भी व्यक्त कर दिया और काया से वैसा कार्य भी कर डाला तो क्या उसके आर्जवधर्म प्रकट हो जावेगा? फिर तो आर्जवधर्म प्राप्त करने के लिए मन में आये प्रत्येक खोटे भाव को वाणी में लाना और क्रियात्मकरूप देना अनिवार्य हो जायगा, जो कि किसी भी स्थिति में इष्ट नहीं हो सकता।

’मन में होय सो वचन उचरिये’ के सन्दर्भ में एक बात यह भी विचारणीय है कि क्या आर्जवधर्म के लिए बोलना जरूरी है? क्या बिना बोले आर्जवधर्म की सत्ता सम्भव नही है? जो भावलिंगी संत मौनव्रत के धारी हैं क्या उनके अर्जवधर्म नहीं है? बाहुबली दीक्षा लेने के बाद एक वर्ष तक ध्यानस्थ खड़े रहे, कुछ बोले ही नहीं; तो क्या उनके आर्जवधर्म नहीं था? था, अवश्य था। तो फिर आर्जवधर्म होने के लिए बोलना जरूरी नहीं रहा।

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यदि जैसा मन में हो वैसा ही बोले दें, तो क्या आर्जवधर्म हो जायगा? नहीं; क्योंकि इसप्रकार तो फिर विकृत-मन अैर विकृत-वाणी वाला अर्द्धविक्षिप्त व्यक्ति आर्जवधर्म का धनी हो जायगा, क्योंकि उसके मन में जो आता वह वही बक देता है।

जिसप्रकार बोलने के सम्बंध में यहां स्पष्ट किया गयाहै, उसीप्रकार करने के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए।

आर्जवधर्म और मायाकषाय ये दोनों ही जव के भाव हैं एवं मन-वचन-काय पुद्गल की अवस्थाएं हैं। जीव और पुद्गल दोनों जुदे-जुदे द्रव्य हैं और उनकी परिणतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। आर्जवधर्म आत्मा का स्वभाव एवं स्वभावभाव है मायाकषय आत्मा का विभावभाव है। स्वभाव और स्वभावभाव होने के लिए तोपर की आवश्यकता का प्रश्न ही नहीं उठता; विभावभाव में भी पर निमित्तमात्र ही होता है। निमित्त भी कर्मोदय तथा अन्य बाह्य पदार्थ होंगे, मन-वचन-काय नहीं। अतः मन-वचन-काय से आर्जवधर्म और मयाकषाय के उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता।

यद्यपि यह सत्य है कि आर्जवधर्म के होने के लिए मन-वचन-काय की आवश्यकता नहीं, क्योंकि मन-वचन-कायरहित सिद्धों के वह विद्यमान है। इसीप्रकार मायाकषय की उपस्थिति के लिए भी तीनों की अनिवार्य उपस्थिति आवश्यक नहीं, क्योंकि एकेन्द्रिय के अकेली काया है फिर भी उसके माया पायी जाती है, जैसा कि पहिले सिद्ध किया जा चुका है; तथापि समझने समझाने के लिए इनकी उपयोगिता है, क्योंकि इनके बना हमाारे पास मायाकषाय और आर्जवधर्म को समझने-समझाने के लिए कोई दूसरा साधन नहीं हैं यही कारण है कि इन्हें मन-वचन-काय के माध्यम से समझा-समझाया जाता हैं

दूसरी बात यह भी तो है कि समझने वाले और समझाने वाले दोनों ही मन-वचन-काय वाले हैं और समझने-समझाने भी मन-वचन-काय है। जिनके इनका अभाव है, ऐसे सिद्ध कभी किसी को समझाते है नहीं एवं जिनके इनमें से एक का भी अभाव है, ऐसे असैनी पंचेन्द्रिय तक के संसारी जीव समझते नहीं। विशेषकर मनुष्य जाति में ही इनकी चर्चा चलती है तथा मनुष्य का मायाचार प्रायः मन-वचन-काय की विरूपता में तथा आर्जवधर्म इनकी एकरूपता में प्रकट होता देखा जाता है।

अतः आर्जवधर्म एवं मायाकषाय को मन-वचन-काय के माध्यम से समझा-समझाया जाता है।

मन-वचन-काय के माध्यम से मायाचार एवं अर्जवधर्म होते नहीं, प्रकट होते हैं। समझने-समझाने के लिए प्रकट होना अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रकट वस्तु को समझना-समझाना जितना आसान है, उतना अप्रकट को नहीं। एकेन्द्रिय के मन और वचन का अभाव होने से उसके मायाकषाय अप्रकट रहती है, अतः उसमें मायाकषाय की उपस्थित आगम से ही जानी जाती है, उसे युक्ति से सिद्ध करना संभव नहीं। इसीप्रकार सिद्धों में आर्जवधर्म भी आगमसिद्ध ही है, युक्तियों से सिद्ध करना कठिन है। जो युक्तियां दी जावेंगी, अन्ततः वे सब आगमाश्रित ही होंगी।

यद्यपि उक्त कारणों के कारा समझने-समझाने में मन-वचन-काय के माध्यम का प्रयोग किया जाता है, तथापि समझने-समझाने की इस पद्धति के कारण कोई यदि यही मान ले कि मायाकषाय एवं आर्जवधर्म के लिए मन-वचन-काय आवश्यक हैं, तो उसका मानना सही न होगा।

य़द्यपि मन-वचन-काय की विरूपता नियम से मायाचारी के ही होगी तथा जितने अंश में आर्जवधर्म प्रकट होगा, उतने अंश में तीनों की एकरूपता भी होगी ही; तथापि मायाकषाय और आर्जवधर्म इन तक ही सीमित नहीं, और भी है - यहां यही बताना है।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि मन-वचन-काय के माध्यम से अर्जवधर्म और मायाकषाय को समझने-समझाने का मूल कारण यह है कि मन-वचन-काय वालों की मायाकषाय और आर्जवधर्म प्रायः मन-वचन-काय के माध्यम से ही प्रकट होते हैं।

यदि ऐसी बात है तो फिर तो यह बात ठीक ही है कि -

’मन में होय सेा वचन उचरिये, वचन होय सो तन सेां करिये।’

हाँ! हाँ!! ठीक है, पर किनके लिये, इसकाभी विचार किया या नहीं? यह बात उनके लिए है, जिनका मन इतना पवित्र हो गया है कि जो बात उनके मन में आई है, यदि वह वणी में भी आ जाय तो फूलों की वर्षा हो और यदि उसे कार्यन्वित कर दिय जाय तो जगत निहाल हो जावे। यह बातउनके लिए नहीं, जिनका मन पापों से भरा है; जिनके मन में निरन्तर खोटे भाव ही आया करते हैं; हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का ही चिन्तन जिनके सदा चलता रहता है।यदि उन्होंने भी यही बात अपना ली तो मन के समान उनकी वाणी भी अपान हो जावेगी तथा उनका जीवन घोर पापमय हो जावेगा।

’मन में होय सो वचन उचरिये’ का आशय मात्र यह है कि मन को इतना पवित्र बनाओं कि उसमें कोई खोटा भाव आवे ही नहीं।

जिनके हृदय में निरन्तर अपवित्र भाव ही आया करते हैं, उनके लिए तो यही ठीक है कि-

’मन में होय सो मन में रखिये, वचन होय तन सों न करिये।’

क्यों?

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क्योंकि आज लोगों के मन इतने अपवित्र हो गये हैं, उनके मनों में इतनी हिंसा समा गई है कि यदि वह वाणी में फूट पड़े तो जगत में कोलाहल मच जाये और यदि जीवन जाये और यदि जीवन में आ जाय तो प्रलय होने में देर न लगे। इसीप्रकार मन इतना वासनामय और विकृत हो गया है कि यदि मन का विकार वाणी और काया में फूट पडे तो किसी भी मां-बहिन की इज्जत सुरक्षित न हरे। अतः यह ही ठीक है कि जो पाप मन में आ गया,उसे वही तक सीमित रहने दो, वाणी में न लाओ; जो वाणी में आ गया, उसे क्रियान्वित मत करो।

जरा विचार तो करो कि गुस्से में यदि मेरे मुंह से यह निकल जाय कि ’मैं तुम्हें जान से मार डालूंगा’ तो क्या यह उचित होगा कि मैं अपनी बात को कार्यरूप में भी परिणित करूं?

नहीं, कदापि नहीं। बल्कि आवश्यक तो यह है कि मैं विचार को भी तत्काल त्याग दूं।

अतः यही उचित है कि मन-वचन-काय की एकरूपता अच्छाई में ही हो, बुराई में नही। हमें मन-वचन-कय में एकरूपता लाने के लिए मन को इतना पवित्र बनाना होगा कि उसमें कोई खोटा भाव कभी उत्पन्न ही न हो, अन्यथा उनकी एकरूपता रखना न तो सम्भव ही होगा और न हितकर ही।

तत्वार्थसूत्र में उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दशधर्मों की चर्चा गुप्ति, समिति अनुप्रेक्षा और परीषहजय के साथ की गई है - ये सब मुनिधर्म से सम्बंधित हैं। अतः आजवधर्म की चर्चा भी उन मुनिराजों के सन्दर्भ में ही हुई है, जिनके मन-वचन-काय की दशा निम्नलिखितानुसार हो रही है -

दिन-रात आत्मा का चिंतन, मृदुसंभाषण में वही कथन।
निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रकट हो रहा अन्तर्मन।।

वे दिन-रात आत्मा का ही चिनतन-मनन-अनुभवन करते रहते हैं, अतः उनकी वाणी में भी उसकी ही चर्चा निकलती है और चर्चा करते-करते वे आत्मानुभवन में समा जाते हैं। उसके मन में अशुभ भाव आते ही नहीं।

हमारी स्थिति उनसे भिन्न है। अतः हमं अपने स्तर परविचार करना जरूरी है। मन में होने पर भी बहुत से पापों से जीवन में हम इसलिए बचे रहते हैं कि समाज उन कार्यों को बुरा मानता है, सरकार उन कार्यों को करने से रोकती है। कभी-कभी हमारा विवके भी उन कार्यों में हमें प्रवृत्त होने नहीं देता। वाणी को भी हमउ क्त कारणों से काफी संयमित रखते हैं।

यही कारण है कि जगत के कायिक जीवन में उतनी विकृति नहीं, जितनी की जन-जन के मनों में है। ’मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सों तन सां करिये’ का उपदेश मन की विकृतियों को बाहर लाने के लिए नहीं, वरन् उन्हें समाप्त कर मन को पावन बनाने के लिए है।

यहां एक प्रश्न सम्भव है कि यदि यह बात है तो फिर अप यह क्यों कहते हैं कि - ’मन में होय सो मन में रखिये।’

इसका भी कारण है और वह यह कि मन को इतना पवित्र बना लेना इतना आसान नहीं कि यहां हमने कहा और वहां आपने बना लिया। वह तो बनते-बनते ही बनेगा। अतः जबतक मन पूर्णतः पावल नहीं बन पाता और उसमें दुर्भाव उत्पन्न होते रहते हैं, तबतक हमारी उक्त सलाह पर चलना मात्र उपयुक्त ही नहीं, वरन् आवश्यक भी है, अन्यथा आपका जीवन स्वाभाविक भी न रह सकेगा।

यदि मन को पवित्र बनाये बिना ही आपने मन की बातें वाणी में उगलना आरम्भ कर दिया एवं उन्हें कार्यरूप में भी परिणत करो की कोशिश की तो हो सकता है कि लोग आपको मानसिक चिकित्सालय में प्रवेश दिलाने का प्रयत्न करने लगें।

वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति मन में आये खोटे भावों को रोकने का प्रयत्न करता ही हैं वह चाहताहै कि वाणी में खोटा भाव प्रकट ही न हो। पर कभी-कभी जब मन भर जाता है, वह भाव मन में समाता नहीं तो वाणी में फूट पड़ता है। एक बात यह भी है कि जब कोई भाव निरंतर मन में बना रहता है तो फिर वह वाणी में फूटता ही है। मनसदाही अपावन बना रहे तो आखिर हम उसे वाणी में आने से और जीवन में उतरने से कब तक रोकेंगे? उसको पूरी तरह रोकना सम्भव भी तो नहीं है।

जो जहां से आते हैं, वहां की बातें उनके मन में छाई रहती हैं; अतः वे सहज ही वहां की चर्चा करते हैं। यदि कोई आदमी अभी-अभी अमेरिका से आया हो तो वह बात-बात में अमेरिका की चर्चा करेगा। भोजन करने बैठेगा तो बिना पूछे ही बतायेगा कि अमेरिका में इस तरह खाना खाते हैं, चलेगा तो कहेगा कि अमेरिका में इसप्रकार चलते हैं, कुछ बाजार में खरीदेगा तो कहेगा कि अमेरिका में तो यह चीज इस भाव मिलती है, अदि।

इसीप्रकार सदा आत्मा में विचरण करने वाले मुनिराज और ज्ञानीजन सदा आत्मा की ही बात करते हैं और विषय-कषाय में विचरण करनेवाले मोहीजन विषय-कषाय की ही चर्च करते हैं।

अतः ’मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये’ का आशय जो मन में आवे उसी को बक देना और जे मुँह से निकल गया वही कर डालना नहीं; वरन् यह है कि मनुष्य-जीवन में जो करने योग्य है हम उसी के वाणी में लावें और जो करने योग्य एवं कहने योग्य है, हमारे मन में ब सवे ही विचार आवें, अन्य कुविचार नहीं।

यह बात तो ठीक, पर मूल प्रश्न तो यह है कि मायाचार छोड़ने के लिए, मन-वचन-काय की विरूपता, कुटिलता, वक्रता से बचने के लिए आर्जवधर्म प्रकट करने के लिए अर्थात मन की बात वाणी में लाने से फूलों की वर्षा हो और जीवन में उतारने से जगत निहाल हो जावे, ऐसा पवित्र मन बनाने के लिए क्या करें?

उत्तम आर्जवधर्म प्रकट करने के लिए सर्वप्रथम यह जानना होगा कि वस्तुतः मायाकषाय मन-वचन-काय की विरूपता, वक्रता या कुटिलता का नाम नहीं; वरन् आत्मा की विरूपता, वक्रता या कुटिलता का नाम है। मन-वचन-काय के माध्यम से तो वह प्रकट होती है, उत्पन्न तो आत्मा में ही होती है।

आत्मा का स्वभाव जैसा है वैसा न मानकर अन्यथा मानना, अन्यथा ही परिणमन करना चाहना ही अनन्त वक्रता है। जो जिसका कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं है, उसे उसका कत्र्ता-धत्र्ता-हत्र्ता मानना ही अनन्त कुटिलता है। रागादि आस्त्रवभाव दुःखयप एवं दुःखों के कारण हैं, उन्हें सुखस्वरूप एवं सुख का कारण मानना; तद्रूप पिरिणमन कर सुख चाहना; संसार में रंचमात्र भी सुख नहीं है, फिर भी उसमें सुख मानना एवं तद्रूप परिणमन कर सुख चाहना ही वस्तुतः कुटिलता है, वक्रता है। इसीप्रकार वस्तु का स्वरूप जैसा है वैसा न मानकर, उसके विरूद्ध मानना एवं वैसा ही परिणमन करना चाहता विरूपता है।

यह सब आत्मा की वक्रता है, कुटिलता है एवं विरूपता हैं यह वक्रता-कुटिलता-विरूपता तो वस्तु का सही स्वरूप समझने से ही जावेगी।

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जैसा आत्मा का स्वभाव है, उसे वैसा ही जानना, वैसा ही मानना और उसी में तन्मय होकर परिणम जाना ही वीतरागी सरलता है; उत्तमआर्जव है। मुनिराजों के जो उत्तमआर्जवधर्म होता है, वह इसीप्रकार का होता है अर्थात् वे आत्मा को वर्णादि और रागादि से भिन्न जाकर उसमें ही समा जाते हैं, वीतरागरूप परिणम जाते हैं,यही उनका उत्तमआर्जवधर्म है; बोलने ओर करने में आर्जवधर्म नहीं। आर्जवधर्म की जैसी उत्कृष्ट दशा उनके ध्यान-काल में होती है, वैसी उत्कृष्ट दशा बोलते समय या कार्य करते समय नहीं होती।

बोलते और अन्य कार्य करते समय भी जो आर्जवधर्म उनके विद्यमाल है, वह बोलने-करने के क्रिया के कारण नहीं;उस समय आत्मा के वि़द्यमान सरलता के कारण है।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकत है कि श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की सम्यक् एवं एकरूप परिणमन ही आत्मा की एकरूपता है, वही वीतरागी सरलता है और वही वास्तविक उत्तमआर्जवधर्म है। लोक में छल-कपट के अभावरूप मन-वचन-काय की एकरूपता सरल परिणति को व्यवहार से आर्जवधर्म कहा जाता है।

अन्तर से बाहर की व्याप्ति होने से जिनके निश्चय उत्तम आर्जव प्रकट होता है, उनका व्यवहार भी नियम से सरल होता है अर्थात् उनके व्यवहार आर्जव भी नियम से होता है; पर जिनके व्यवहार में भी भूमिकानुसार सरलता नहीं, उनके तो निश्चय आर्जव होने का प्रश्न ही नहीं उठता।

मन-वचन-काय में भी वास्तविक एकरूपता आत्मा में उत्पन्न सरलता के परिणामस्वरूप आती है। ’मैं मन को पवित्र रखूं, उसमें कोई बुरी बात न आने दूं’ इसप्रकार के विकल्पों से आर्जवधर्म प्रकट नहीं होता। वस्तु के सही स्वरूप को जाने-माने बिना वीतरागी सरलतारूप आर्जवाधर्म प्रकट नही किया जा सकता। आर्जवस्वभावी आत्मा के आश्रय से ही मायाचार का अभाव होकर वीतरागी सरलता प्रकट होती है।

क्रोध और मान के समान माया भीचार प्रकार की होती है -

1. अनन्तानुबंधी माया

2. अप्रत्याख्यानावरण माया

3. प्रत्याख्यानावरण माया

4. संज्वलन माया

अनन्तानुबंधी माया का अभाव आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि के ही होता है। सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना अनन्त प्रयत्न करने पर भी अनन्तानुबंधी माया का अभाव नहीं किया जा सकता तथा जबतक अनन्तानुबंधी माया का अभाव नहीं किया जा सकता जब तक अनन्तानुबंधी माया है, तबतक नियम के चारों प्रकार की मायाकषायें विद्यमान हैं; क्योंकि सर्वप्रथम अनन्तानुबंधी माया का ही अभाव होता है।

शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबंधी कषायों, अणुव्रती के अप्रत्याख्यानावरण कषायों, महाव्रती के प्रत्याख्यानावरण कषायों एवं यथाख्यातचारित्र वालों के संज्वलन कषायों का अभाव होता है। उक्त भूमिकाओं के पूर्व इन कषायों का अभाव सम्भव नहीं है।

इससे सिद्ध होता है कि यदि कषायों का अभाव करना है तो उसका उपाय कषायों की तरफ देखना नहीं और न उन वस्तुओं की ओर देखना ही है, जिनके लक्ष्य से ये कषायें उत्पन्न होती है; वरन् अकषायस्वभावी अपनी आत्मा की ओर देखना है; अपनी आत्माको जानना मानना और अनुभव करना है; आत्मा में ही जम जाना, रम जाना समा जाना है।

अपने को जानने-मानने वाल एवं अपने में ही निमग्न, वीतरागी सरलता से सम्पन्न संतों को नमस्कार करते हुए पवित्र भावना के साथ कि जन-जन अकषायस्वभावी आत्मा का आश्रय लेकर उत्तम आर्जवधर्म प्रकट करें, आर्जवधर्म की चर्चा से विराम लेता हूँ।