उत्तमसत्य
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सत्यधर्म की चर्चा जब भी चलती है, तब-तब प्रायः सत्यवचन को ही सत्यधर्म समझ लिया जाता है। सत्यधर्म के नाम पर सत्यवचन के ही गीत गाये जाने लगते हैं।

कहा जाता है कि सत्य बोलना चाहिए, झूठ कभी नहीं बोलना चाहिए; झूठे का कोई विश्वास नहीं करता। दुकानदारी में भी जिसकी एक बार सत्यता की धाक जम गई सो जम गई, फिर चो दुगने पैसे भी क्यों न लें, कोई नही पूछता।

जरा विचार तो करो कि यह सत्यवचन बोलने का उपदेश है या सत्य की ओट में लूटने का। मेरे कने का प्रयोजन यह है कि हम सत्यवचन का भी सही प्रयोजन नहीं समझते हैं तो फिर सत्यधर्म की बात तो बहुत दूर है।

सामान्यजन तो सत्यवचन को सत्यधर्म समझते ही हैं; किंतु आश्चर्य तो तब होता है कि जब सत्यधर्म पर वर्षों से व्याख्यान करने वाले विद्वज्जन भी सत्यवचन से आगे नहीं बढ़ते हैं।

यद्यपि सत्यवचन को भी जिनागम में व्यवहार से सत्यधर्म कह दिया गया है और उस पर विस्तृत प्रकाश्ज्ञ भी डाला है, उसका भी अपना महत्व है, उपयोगिता है; तथापि जब गहराई में जाकर निश्चय से विचार करते हैं तो सत्यवचन और सत्यधर्म में महान अंतर दिखाई देता है। सत्यधर्म और सत्यवचन बिल्कुल भिन्न-भिन्न दो चीजें प्रतीत होती हैं।

ध्यान रहे यहाँ पर जिनागम में वर्णित उत्तमक्षमा, उत्तममर्दव, उत्तमआर्जव, उत्तमशौच, उत्तमसत्य आदि दशधर्मों में जो उत्तमसत्यधर्म कहा गया है, उसकी चर्चा अपेक्षित है। यहाँ सत्यधर्म का समस्त विश्लेषण उक्त प्रसंग में ही किया जा रहा है।

गांधीजीने भी सत्य को वचन की सीाम से ऊपर स्वीकार किया है। वे सत्य को ईश्वर के रूप में देखते हैं।

जहाँ सत्य की खोज, सत्य की उपासना की बात चलती है, वहाँ निश्चितरूप से सत्यवचन की खोज अपेक्षित नहीं होती वरन् कोई ऐसा महत्वपूर्ण अव्यक्त सत्य अपेक्षित होता है जो आपास्य हो, आश्रय के योग्य हो। दार्शनिकों और आध्यात्मिकों का उपास्य, आश्रयदाता सत्य मात्र वचनरूप नहीं हो सकता। जिसके आश्रय से धर्म प्रकट हो। जो अनन्त सुख-शांति का आश्रय बन सके; ऐसा सत्य कोई महान चेतनतत्व ही हो सकता है, उसे वाग्विलास तक सीमित नहीं किया जा सकता। उसे वचनों तक सीमित करना स्वयं ही सबसे बड़ा असत्य है।

आचार्यों ने वाणी की सत्यता और वाणी के संयम पर भी विचार किया है, पर उसे सत्यधर्म से अलग ही रखा है। वाणी की सत्यता और वाणी के संयम को जीवन में उतारने के लिए उन्होंने उसे चार स्थानों पर बांधा है -

1. सत्याणुव्रत

2. सत्यमहाव्रत

3. भाषासमिति और

4. वचनगुप्ति।

मुख्यरूप से स्थूल झूठ नहीं बोलना सत्याणुव्रत है। सूक्ष्म भी झूठ नहीं बोलना, सदा सत्य ही बोलना सत्य को कठोर, अप्रिय, असीमित न बालकर, हित-मित एवं प्रियवचन बोलना भाषासमिति है, और बोलना ही नहीं वचनगुप्ति है।

इसप्रकार हम देखते हैं कि जिनागम में वचन को सत्य एवं संयमित रखने के लिए उसे चार स्थानों पर प्रतिबंधित किया है। तात्पर्य यह है कि यदि बिना बोले चल जवे तो बोलो ही मत, न चले तो हित-मित-प्रिय वचन बोलो और वह भी पूर्णतः, सत्य, यदि सूक्ष्य असत्य से न बच सको तो स्थूल असत्य तो कभी न बोलो।

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यहाँ वचन को अस्ति (पॉजिटिव) और नास्ति (निगेटिव) दोनों ओर से पकड़ लिया है। सत्यागुणव्रत, सत्यमहाव्रत और भाषासमिति में क्या बोलें और कैसे बोले के रूप में अस्ति (पाॅजिटिव) को तथा वचनगुप्ति में बोलें ही नहीं (मौन) के रूप में नास्ति (निगेटिव) को ले लिया है। इस तरह यहां बोलना और नहीं बोलना वाणी के दोनों ही पहलुओं को ले लिया गया है।

वाणी को इतना संयमित कर देने के बाद अब क्या शेष रह जाता है कि जिस कारण सत्यधर्म को भी आप भाषा की सीमा में बांधना चाहते हैं?

सत्यधर्मा को वचन तक सीमित कर देने से एक बड़ा नुकसान यह हआ कि उसकी खोज ही खो गई। जिसकी खोज जारी हो उका मला संभव है पर जिसकी खोज ही रखो गई हो वह कैसे मिले? जबतक सतय के समते नहीं, खोज चालू रहती है। किंतु जब किसी गलत चीज को त्य मान लिया जाता है तोउसकी खोज भी बंद कर दी जाती है। जब खोज ही बंद कर दी जावे तो फिर मिलने का प्रश्न ही कहाँ रहा जाताहै।

हत्यारे की खोज तभी तक होती है जबतक कि हत्या के हपराध में किसी को पकड़ा नहीं जाता। जसने हत्या नहीं की है, यदि उसे त्य के अपराध में पकड लिया जाय, सजा दे दी जा, तो असली हत्यारा कभी नहीं पकउ़ा जायगां क्योंकि अब तो फाइल ही बंद हो गई, अब तो जगत की दृष्टि में हत्यरा मिल गया, उो सजा भी मिल गई। अब खोज का क्या काम? जब खोज बंद हो गई तो असली हत्यारे का मिलना भी असंभव है। इसीप्रकर जब सत्यवचन को सत्यधर्म मान लिया गया तो फिर असली सत्यधर्म की खोज का प्रश्न ही कहां रहा? सत्यवचन को सत्यार्म मान लेने में सबसे बड़ी हानि यह हुई कि सत्य धर्म की खोज हो खो गई।

सत्यधर्म क्या है? यहा नहीं जानने वाले जिज्ञासु कभी न कभी सत्यधर्म को पा लेंगे, क्योंकि उनकी खोज चालू है; पर सत्यवचन को ही सत्यधर्म मानकर बैठ जाने वालों को सत्य पाना संभव नहीं।

अणुव्रत गृहस्थों के होते हैं, मुनियों के नहीं। महाव्रत मुनियों के होते हैं, गृहस्थों के नहीं। इसी प्रकार भाषासमिति और वचनगुप्ति मुनियों के होती है, गृहस्थों के नहीं। अणुव्रत, महाव्रत, गुप्ति और समति गृहस्थों और मुनियों के होते हैं; सिद्धों के नहीं, अविरत सम्यग्दृष्टि के भी नहीं। जबकि उत्तमक्षमादि दशधर्म अपनी-अपनी भूमिकानुसार अविरत सम्यग्दृष्टियें से लेकर सिद्धों तक पाये जाते हैं।

वाणी पुद्गल की पर्याय है और सत्य है आत्मा का धर्म आत्मा का धर्म आत्मा में रहता है, शरीर ओर वाणी में नहीं। जो आत्मा के धर्म है,उनका सम्पूर्ण धर्मों के धनी सिद्धों में होना अनिवार्य है। उत्तमक्षमादि दशधर्म जिनमें सत्यधर्म भी शमिल है, सिद्धों में विद्यमान है; पर उनके सत्यवचन नहीं है। अतः सिद्ध होता है कि निश्चय से सत्यवचन सत्यधर्म नहीं है।

यहां एक प्रश्न संभव है कि क्या अणुव्रत, महाव्रत धर्म नहीं? क्या समिति, गुप्ति भी धर्म नहीं?

अणुव्रत और महाव्रतों को आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में आस्त्रवाधिकार में लिया है। यद्यपि उन्हें कहीं-कहीं उपचार से धर्म कहा है, पर जो आस्त्रव हों, बंध के कारण हों; उन्हें निश्चय से धर्म संज्ञा कैसे हो सकती है? गुप्ति, समिति भी अत्तमसत्यधर्म नहीं है। तात्पर्य यह है कि जिस उत्तमसत्यधर्म की चर्चा यहां चल रही है; गुप्ति समिति वह धर्म नहीं है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि गुप्ति, समिति आदि के अतिरिक् पृथम्रूप में दशधर्मों की चर्चा आचार्यों ने की है। यदि सभी को धर्म ही कहना है तो इनको अलग से धर्म कहने का क्या प्रयोजन? जिस अपेक्षा से इन्हें पृथक से धर्म कहा है, उसी अपेक्षा से मैं कहना चाहूंगा कि वे सब इन दशधर्मों में से कोई धर्म नहीं है। अथावा जिसकी चर्चा चल रही है वह ’सत्यधर्म’ वे नहीं है। अधिक स्पष्ट कहूं तो निश्चय से वचन का सत्यधर्म से कोई वास्ता नहीं हैं क्योंकि अणुव्रतियों और महाव्रतियों का सत्य बोलना सत्याणुव्रत ओर सत्यमहाव्रत में जायगा, हित-मित-प्रिय बोलना भाषासमिति में तथा नहीं बोलना वचनगुप्ति में समाहित हे जायगा। अब वचन की ऐसी कोई स्थिति शेष नहीं रहती जिसे सत्यधर्म में डाला जावे।

यदि सत्य बोलने को सत्यधर्म माने तों सिद्धों के सत्यधर्म नहीं रहेगा, क्योंकि वे सत्य नहीं बोलते। वे बोलते ही नही तो फिर सत्य और झूठ का प्रश्न ही कहां उठता है? क्या सत्यधर्म के धारी को बोलना जरूरी है? क्या जीवनभर मौन रहने वाला सत्यधर्म का धारी नहीं हो सकता?

इससे बचने के लिए यदि यह कहा जाय कि वे सत्य तो नहीं बोलते, पर झूठ भी तो नहीं बोलते; अतः उनके सत्यधर्म है।

तो फिर सत्य बोलना सत्यधर्म नहीं रहा, बल्कि झूठ नहीं बोलना सत्यधर्म हुआ। पर यह बात भी तर्क की तुला पर सही नहीं उतरती; क्योंकि यदि झूठ नहीं बोलने को सत्यधर्म मानें तो फिर वचन-व्यवहार से रहित एकेन्द्रियादि जीवेम को सत्यधर्म का धारा मानना होगा, क्योंकि वे भी कभी झूठ नहीं बोलते। जब वे बोलते ही नही ंतो फिर झूठ बोलने का प्रश्न ही कहां उठता है?

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इसप्रकार हम देखते हैं कि न तो सत्य बोलना ही सत्यधर्म है और न झूठ नहीं बोलना ही।

सीधी-सी बात यह है कि जिस सत्यधर्म की चर्चा यहां चल रही है, वह न सत्य बोलने में है, न हित-मित-प्रिय बोलने में; वह बोलने के निषेधरूप मौन में भी नहीं; क्योंकि ये सब वाणी के धर्म है और विवक्षित सत्यधर्म आत्मा का धर्म है।

जो वास्तविक धर्म हैं, वे पूर्णता प्रकट हो जाने के बाद समाप्त नहीं होते। उत्तमक्षमादि धर्म सिद्धावस्था में भी रहते हैं, पर अणुव्रत-महाव्रत एक अवस्थाविशेष में ही रहते हैं। वे उस अवस्था के धर्म हो सकते हैं, आत्मा के नहीं। गृहस्थ अणुव्रत ग्रहण करता है, किंतु जब वही गृहस्था मुनिधर्म अंगीकार करता है तो महाव्रत ग्रहण करता है, अणुव्रत छूट जाते हैं। जो छूट जावे वह धर्म कैसा?

अणुव्रत, महाव्रत, गुप्ति, समिति - ये सब पड़ाव हैं, गन्तव्य नहीं, प्राप्तव्य नहीं, अंतिम लक्ष्य नहीं; अंतिम लक्ष्य सिद्ध अवस्था है। उसमें भी रहने वाले उत्तमक्षादिधर्म जीव के वास्तविक धर्म हैं।

अब हमें उस सत्यधर्म को समझना है, जो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक चुतुर्गति के सभी मिथ्यादृष्टिी जीवों में नहीं पाया जाता एवं सम्यग्दृष्टि से सिद्धों तक सभी सम्यग्दृष्टि जीवों में अपनी-अपनी भूमिकानुसार पाया जाता है।

द्रव्य का लक्षण सत् है। आत्मा भी एक द्रव्य है, अतः वह सत्स्वभावी है। सत्स्वभावी आत्मा के आश्रय से आत्मा में जो शांतिस्वरूप वीतराग परिणति उत्पन्न होती है, उसे निश्चय से सत्यध्र्म कहते हैं। सत्य के साथ लगा ’उत्तम’ शब्द मिथ्यात्व के अभाव और सम्यग्दर्शन की सत्ता कस सूचक है। मिथ्यात्व के अभाव बिना तो सत्यधर्म की प्राप्ति ही संभव नहीं है।

जब तक आत्मा वस्तु का - विशेषकर आत्मवस्तु का, सत्यस्वरूप नहीं समझेगा, तबतक सत्यधर्म की उत्पत्ति ही सम्भव नहीं है। जिसकी उत्पति ही न हुई हो, उसकी वृद्धि ओर सम्वृद्धि का प्रश्न ही नहीं उठता। आत्मवस्तु की सच्ची समझ आत्मानुभव के बिना सम्भव नहीं है। मिथ्यात्व के अभाव और सत्यक्त्व की प्राप्ति के लिए प्रयोजन अनात्म वस्तुओं का तो मात्र सत्यज्ञान की अपेक्षित है, किंतु आत्मवस्तु के ज्ञान के साथ-साथ अनुभूति भी आवश्यक है। अनुभूति के बिना सम्यक् आत्मज्ञान सम्भव नहीं है।

उत्त्तमसत्य अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित वीतरागभाव।

सत्य लना तो निश्चय से सत्यधर्म है ही नहीं, पर मात्र सत्य जानना, सत्य मानना भी वास्तविक सत्यधर्म नहीं है; क्योंकि मात्र जानना और मानना क्रमशः ज्ञान और श्रद्धा गुण की पर्यायें हैं; क्योंकि मात्र जानना और मानना क्रमशः ज्ञान और श्रद्धा गुण की पर्यायें है; जबकि सत्यधर्म चारित्र गुण की पयार्य है, चारित्र की दशा है। उत्तमक्षमादि दशधर्म चारित्ररूप हैं - यह बात दशधर्मो। की सामान्य चर्चा में अच्छी तरह स्पष्ट की जा चुकी है।

अतः सत्यवाणी की बात तो दूर, मात्र सच्ची श्रद्धा और सच्ची समझ भी सत्यधर्म नहीं; किंतु सच्ची श्रद्धा और सच्ची समझपूर्वक उत्पन्न हुई वीतराग परिणति ही निश्चय से उत्तमसत्यधर्म है।

नियम नाम चारित्र का है। नियम की व्याख्या करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में लिखते हैं -

सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा।
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु णियमं हवे णियमा।।120।।

शुभाशुीा वचन-रचना का और रागादि भवों का निवारण करके जो आत्म को ध्याता है, उसे नियम से (निश्चितरूप से) नियम होता है।

यहां भी चारित्ररूप धर्म को वाणी (शुभाशुभ वचन-रचना) और रागादि भावों के अभावरूप कहा है। सत्यधर्म भी चारित्र का एक भेद है। अतःवह भी वाणी और रागादि भावों के अभावरूप होना चाहिए।

सत् अर्थात जिसका सत्ता है। जिस पदार्थ की जिस रूप में सत्ता है, उसे वैसा ही जानना सत्यज्ञान है, वैसा ही मानना सत्यश्रद्धान है, वैसा ही बोलना सत्यवचन है; और आत्मस्वरूप के सत्यज्ञान-श्रद्धानपर्वूव वीतराग भाव की उत्पत्ति होना सत्यधर्म है।

असत् की सता तो सापेक्ष है। जीव का अजीव में अभाव, अजीव का जीव में अभाव-अर्थात् जीव की अपेक्षा अजीव असत् अैर अजीव की अपेक्षा जीव असत् है; क्योंकि प्रत्येक पदार्थ स्वचतुष्टय की अपेक्षा सत् और परचतुष्टय की अपेक्षा असत् है।

वस्तुतः लोक में जो कुछ भी है वह सब सत् है, असत् कुछ भी नहीं है; किंतु लोगों का कहना है कि हमें जगत में असस्तय का ही साम्राज्य दिखाई देता है, सत्य कहीं नजर ही नहीं आता। पर भाइ! यह तेरी दृष्टि की खराबी है, वस्तुस्वरूप की नहीं। सत्य कहते ही उसे हैं जिसकी लोक में सत्ता हो।

जरा विचार करें कि सत्य क्या है और असत्य क्या है?

’यह घट है’ -इसमें तीन प्रकार की सत्ता है। ’घट’ नामक पदार्थ की सत्ता है। ’घट’ को जानने वाले ज्ञान की सत्ता है और ’घट’ शब्द की भी सत्ता है। इसीप्रकार ’पट’ नामक पदार्थ, उसको जाननेवाले ज्ञन एवं ’पट’ शब्द की भी सत्ता जगत में है। जिनकी सत्ता है वे सभी सत्य हैं। इन तीनों का सुमेल हो तो ज्ञान भी सत्य, वाणी भी सत्य और वस्तु तो सत्य है ही। किंतु जब वस्तु, ज्ञान और वाणी का सुमेल न हो - मुंह से बोले तो ’पट’ और इशारा करे ’घट’ की ओर - तो वाणी असत्य हो जायेगी। इसीप्रकार सामने तो हो ’घट’ ओर हम उसे जानें ’पट’ - तो ज्ञान असत्य (मिथ्या) हो जायगा; वस्तु तो असत्य होने से रही। वह तो कभी असत्य हो ही नहीं सकती। वह तो सदा ही स्वरूप से है और पररूप से नहीं है।

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अतः सिद्ध हुआ कि असत्य वस्तु में नहीं,उसे जानने वाला ज्ञान में, मानने वाला श्रद्धा में या कहने वाली वाणी में होता है। अतः मैं तो कहता हूं कि अज्ञानियों के ज्ञान, श्रद्धान और वाणी के अतिरिक्त लोक में असत्य की सत्ता ही नहीं है; सर्वत्र सत्य का ही साम्राज्य है।

वस्तुतः जगत पीला नहीं है, किंतु हमें पीलिया हो गया है; अतः जगत पीला दिखाई देता है, इसीप्रकार जगत में तो असत्य की सत्ता ही नहीं है; पर असत्य हमारी दृष्टि में ऐसा समा गया है कि वह जगत में दिखाई देता है।

सुधार भी जगत का नहीं; अपनी दृष्टि का, अपने ज्ञान का करना है। सत्य का उत्पादन नहीं करना है, सत्य तो है ही; जो जैसाहै वही सत्य है। उसे सही जानना है, मानना है। सही जानना-मानना ही सत्य प्राप्त करना है और आत्म-सत्य को प्राप्त कर राग-द्वेष का अीव कर वीतरागतारूप परिणति होना सत्यधर्म है।

यदि मैं पट को पट कहूं तो सत्य है, किंतु पट को घट कहूं तो झूठ है। मेरे कहने से पट,घट तो नहीं हो जायगा; वह तो पट ही रहेगा। वस्तु में झूठ ने कहां प्रवेश किया? झूठ का प्रवेश तो वाणी में हुआ। इसीप्रकार यदि पट को घट जाने तो ज्ञान झूठा हुआ, वस्तु तो नहीं। मैंने पट को घट जाना, माना या कहा - इसमें पट का क्या अपराध है? गलती तो मेरे ज्ञान या वाणी में हुई है। गलती सदा ज्ञान या वाणी में ही होती है, वस्तु में नहीं।

गलती जहां हो वहां मेटनी चाहिए। जहां हो ही नहीं, वहां मिटाने के व्यर्थ प्रत्यन से क्या लाभ? दाग चेहरे पर है और दिखाई दर्पण में देता है। कोई दर्पण को साु करे तो दाग नहीं मिटेगा, परंतु दर्पण के साफ हो जाने से और अधिक स्पष्ट हो जाएगा। दाग मिटाने के लिए चेहरे को धोना चाहिए।

फोटोग्राफर के पास जाकर लोग कहते हैं मेरा बढि़या फोटो खींच दीजिए। पर भाईसाहब! फोटो तो आपकी जैसी सूरत होगी वैसा आएगा, बढि़या कहां से आएगा? आपको अपना फोटा खिंचाना है कि बढि़या? आपका खिंचेगा तो बढि़ा न होगा और फोटो बढि़या होगात तो फिर वह आपका नहीं होगा। क्योंकि यदि आपकी सूरत ही बढि़या न हो तो फोटो बढि़या कैसे आएगा।

वस्तुतः तो जैसा है वैसो का नाम बढि़या है; पर दुनियां कहां मानती है? किसी के एक आंख है और फोटों में दोनों आ जाएं तो फोटो बढि़या हो जाएगा? बढि़या भले कहा जाय, पर वह वास्तविक न होगा। हम तो वास्तविक को ही बढि़या कहते हैं।

वस्तुत जैसी है वैसी जानने का नाम सत्य है; अच्छी-बुरी जानने का नाम सत्य नहीं। वस्तु में अच्छे-बुरे का भेद करना राग-द्वेष का कार्य है। ज्ञान केा कार्य तो वस्तुत जैसी है वैसी जानना हैं

हम किसी वस्तु को कहीं सुरक्षित रखकर भूल जाते हैं और कहते हैं कि अमुक वस्तु खो गई है। पर वस्तु खोई है या उसका ज्ञान खोया है। वस्तु तो जहां रखी थी, वहां अभी भी रखी है। वस्तु को नहीं, उसके ज्ञान को खोजना है।

असत्य या तो वाणी में होता है या ज्ञान में; वस्तु में नहीं। वस्तु में असत्य की सत्ता ही नहीं है। वस्तु को अपने ज्ञान औ वाणी के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता और बनाने की आवश्यकता भी नहीं हैं आवश्यकता अपने ज्ञान और वाणी को वस्तुस्वरूप के अनुरूप बनाने की है। जब ज्ञान और वाणी वस्तु के अनुरूप होंगे तब वे सत्य होंगे। जब आत्मा सत्स्वभावी-आत्मा के आश्रय से वीराग परिणति प्राप्त करेगा, तब सत्यधर्म का धनी होगा। जितने अंष में प्राप्त करेगा, उतने अंश में सत्यधर्म का धनी होगा।

वाणी की सत्यता के लिए वाणी को वस्तुस्वरूप के अनुकूल ढालना होगा। सत्य बोलने के लिए सत्य जानना जरूरी है। सत्य को जाने बिना सत्य कैसे बोला जा सकता है?

बहुत से लोग कहते हैं इसमें क्या है? जैसा देखा, जाना, सुना वैसा ही कह दिय सो सत्य है। इसी आधार पर वे कहते हैं कि सत्य बालना सरल है और झूठ बोलना कठिन; क्योंकि उनके अनुसार सत्य बोलने में क्या है - जैसा देखा, जाना, सुना वैसा ही कह दिया; पर झूठ बोलने के लिए योजना बनानी पड़ती है, घर में सब लोगों को ट्रेन्ड करना पड़ता है कि कहीं झूठ खुल न जाए। एक झूठ के पीछे हजार झूठ बोलने पड़ते हैं, फिर भी उसके खुल जाने की शंका बनी ही रहती है।

जैसे किसी ने दरवाजा खटखटाया या फोन की घंटी बजी। दरवाजा खोलते ही या फोन का रिसीवर उठाते ही सामने वाले ने पूछा -अमुक व्यक्ति है? यदि सत्य कहन है तो तत्काल कह दिया ’है’ अथवा ’नहीं’ पर यदि झूठ कहना है तो ’देखता हूं’ आप कौन हैं? क्या काम है?’ आदि लम्बी प्रश्न सूची उसके सामने खड़ी करनी होगी और अंदर पूछकर उत्तर दिया जायगा। यदि बालक या चपरासी झूठ बोने में कुशल न हुआ तो यह भी कह सकता है कि पिताजी कहते हैं य साब कहते हैं कि कह दो घर पर नहीं है। यदि उसने ठीक-ठीक कह भी दिया कि ’नहीं हैं’, फिर भी किसी दूसरे के द्वारा कभी पर्दाफाश भी हो सकत है। अतः उनके अनुसार सत्य बोलना आसान है और झूठ बोलना कठिन।

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पर मेरा कहना है कि यह सारी कवायद झूठ बोलने के लिएनहीं; झूठ छिपाने के लिए करनी पड़ती है, झूठ को सत्य का लबादा पहनाने के लए करनी पड़ती है। झूठ बोलने में क्या है? बिना सोचे-समझे चाहे जो बोलते जाइए, वह गारंटी से झूठ तो होगा ही। कोई पूछे - दिल्ली में कितने कौस हैं? सत्य बोलने वाले को सोचना पड़ेगा। हो सकता है है कि वह उत्तर दे ही न पाए या यह कहना पड़ेगा कि मझे नहीं मालूम। पर झूठ बोलने वाले को क्या? कुछ भी संख्या बता दे। बिना गिने जो भी संख्या बताएगा वह झूठ तो गारंटी से होगी ही।

मैं ही आप लोगों से पूछता हूं कि आजकल सूर्य कितने बजे उगता हे? बताइये, आप चुप क्यों हो गए? इसलिए कि आप झूठ बोलना नहीं चाहते और सत्य का पता नहीं है। झूठ ही बोलना है तो कुछ भी कह दीजिएगा; किन्तु सत्य बोलने के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है, अतः बिना सोचे- समझे सत्य नहीं बोला जा सकता। सत्य बोलने के पहले सत्य जानना बहुत जरूरी हैं

यह बात प्रयोजनभूत तत्वें के संबंधी में और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं लौकक वस्तुओं के बारे में बोला गय झूठ भी यद्यपि पापबंध का कारण है; तथापि प्रयेाजनभूत तत्वों के विषय में बोला गया झूठ तो महान पाप है, अनन्त संसार का कारण है, अपना और पर का बड़ा भारी अहित करने वाला है।

अतः यदि वस्तुतत्व की सही जानकारी नहीं है तो अनाप-शनाप बोलने से नहीं बोलना- चुप रहना हितकर है।

मुक्ति के मार्ग में सत्य बोलना अनिवार्य नहीं; किंतु सत्य जानना, सत्य मानना और आत्म-सत्य के आश्रय से उत्पन्न वीतरागपरिणतिरूप सत्यधर्म प्राप्त करना जरूरी है; क्योंक बिना बोले मोक्ष हो सकत है; पर बिना जाने, माने और तद्रूप परिणमित हुए बिना नहीं। सत्य जानने पर जीवन भर भी न बोले तो कोई अंतर न पड़ेगा, पर जाने बिना नहीं चलेगा।

अग्नि को कोइ्र गर्म न कहे तब भी वह गर्म रहेगी। उस गर्म रहने के लिए यह आवश्यक नहीं कि उसे कोई गर्म कहे ही। इसीप्रकार उसे कोई गर्म न जाने तब भी वह गर्म रहेगी। उसीप्रकार वस्तु का सत्यस्वरूप भी वाणी की अपेक्षा नहीं रखता और न वह ज्ञान की ही अपेक्षा रखता है। वह तो सदा सत्य ही है। उसे उसी रूप में जाननेवाला ज्ञान सत्य है, माननेवाली श्रद्धा सत्य है, कहनेवाली वाणी सत्य है और तद्नुकूल आचारण करनेवाला आचरण भी सत्य है। हम मूलसत्य को ही भूल गए है; तोउसके आश्रय से होनेवाले ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र एवं वाणी के सत्य हमारे जीवन में कैसे प्रकट हों?

अंतर में विद्यमान ज्ञानानन्स्वामी त्रैकालिक धु्रव आत्मतत्व ही परम सत्य है। उसे आश्रय से उत्पन्न हुआ ज्ञान, श्रद्धान एवं वीतराग परिणति ही उत्तमसत्यधर्म है।

आज का युग समझौतावादी युग है। अति उत्साह में कुछ लाग वस्तुतत्व के सम्बंध में भी समझौते की बात करते हैं, किंतु वस्तु के सत्यस्वरूप को समझने की आवश्यकता है, समझौते की नहीं। वस्तु के स्वरूप में समझौते की गुंजाइश भी कहां है और उसके सम्बन्ध में समझौता करनेवाला हम होते भी कौन हैं? समझौते में दोनों पक्षों को झुकना पड़ता है। समझौते का आधार सत्य नहीं, शक्ति होती है। समझौते में सत्यवादी की बात नहीं, शक्तिशाली की बात मानी जाती है।

अग्नि कैसी है - ठंडी या गर्म? यह बात जानने की तो हो सकती है, पर इसमें समझौते की क्या बात है? यदि कोई कहे कि अग्नि ठंडी है और कोई कहे गर्म है, तो इसमें क्या समझौते हो सकता है? पचास प्रतिशत ठंडी और पचास प्रतिषत गर्म मानी जाय क्या? यदि न माने तो समझौता नहीं होगा, मान लें तो सत्य नहीं रहता।

वस्तु में सत्यस्वरूप को आपका समझौता स्वीकार भी कहां है? यदि आपने सर्वसम्मति से भी अग्नि को ठंडा मान लिया तो क्या अग्नि ठंडी हो जाएगी? नहीं, कदापि नही। अग्नि तो जैसी है वैसी ही रहेगी।

अग्नि कैसी है? - इसके बारे में पंचायत बैठाने के बजाय छूकर देखना सही रास्ता है। उसीप्रकार सत्य वस्तुतत्व के बारे में पंचायतें बैठाने के बजाय आत्मानुभव करना सही मार्ग है।

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वस्तु के स्वरूप का सत्य समझ का नाम धर्म है। सत्य को समझौते की नहीं, समझने की आवश्यकता है। सत्य और शांति समझ से मिलती है, समझौते से नहीं।

इस चमत्कारप्रिय जगत में सत्य की आवश्यकता भी किसे है? उसे प्राप्त करने की एकमात्र तमन्ना किसे है, तड़प किसे है? उसकी कीमत भी कौन करता है? यहां तो चमत्कार को नमस्कार है।

एक साधारण-सा जादूगर चैराहे पर खड़ा होकर लोगों को झूठा आम बताकर सैकड़ों रूपये बटोर लेता है, जबकि एक कृषक को सच्चे आम के पचास पैसे प्राप्त करना कठिन होता है। वास्तविक आम खरीदते समय लोग हजार मीन-मेख निकालते हैं।

जादूगर तो मात्र आम दिखाता है, देता नहीं; पर कृषक देता भी है। जादूगर के पास आम है ही नहीं, वह दे भी कहां से? वह तो धोखा देता है, हाथ की सफाई बताता है, हमारी नजर बंद करता है; पर इस जगत में धोखा देने वाला आदर पाता है,धन पाता है, हमें उसकी महिमा आती है, जो हमरी नजर बंद करता है; उसकी नहीं, जो खोलता है। लोग कहते हैं क्या गजब किय, आम था ही नहीं और दिखा दिया, है न कमाल! पर मैं कहता हूँ - कमाल है या धोखा? ज्ञानी तोउसे कहते हैं जो है, उसे दिखाए; जो नहीं है, उसे बतानेवला तो धोखेबात ही हो सकता है। पर लोग सत्य के प्रति उत्साहित नहीं होते, महिमावंत नहीं होते; धोखे से प्रभावित होते हैं। कहते हैं - सत्य में क्या है? वह तो है ही, उसे दिखाने में क्या रखा है? कमाल तो जो नहीं है, उसे दिखा देने में है।

असत्य के प्रति बहुमान वालों को सत्य प्राप्त होना कठिन ही नहीं, असंभव है। सत्य, सत्य की रूचि, महिमा, लगनवालों को ही प्राप्त होता हैं

आत्म-सत्य की तीव्र रूचि जागृति हो, उसकी महिमा आवे, उसे प्राप्त करने की तीव्रतम लगन लगे, उसे प्राप्त करने का अन्तरोन्मुखी पुरूषार्थ जगे और सत्य की प्राप्ति न हो; यह सम्भव नहीं है। सत्य के खोजी को सत्य प्राप्त होता ही ळें

आत्मवस्तु के त्रैकालिक सत्यस्वरूप के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला वीतरागपरिणतिरूप उत्तमसत्यधर्म जन-जन में प्रकट हो, ऐसी पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।