उत्तमआकिंचन्य
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ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा को छोड़कर किंचित्मात्र भी परपदार्थ तथा पर के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होने ले मोह-राग-द्वेष के भाव आत्मा के अनेक नहीं हैं -ऐसा जानना, मानना और ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा के आश्रय सेउनसे विरत होना, उन्हें छोड़ना ही उत्तमआकिंचन्यधर्म है।

आकिंचयन्य और ब्रह्मचर्य को दशधर्मों कासार एवं चतुर्गति - दुःखों से निकालकर मुक्ति में पहुंचा देने वाला महानधर्म कहा गया है -

’’आकिंचन ब्रह्मचर्य धर्म दश सार हैं।
चहुंगति दुःखतैं काढि़ मुकाति करता हैं।।1’’

वस्तुतः आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा को निज मानना, जानना ाअैर उसी में जम जाना, रम जाना, समा जाना, लीन हो जाना ब्रह्मचर्य है औरउससे भिन्न परपदार्थों एवं उनके लक्ष्य से उत्पन्न् होने वाले चिद्विकारों को अपना नहीं मानना, नहीं जानना औरउनमें लीन नहीं होना ही आकिंचन्य है।

यदि स्वलीनता ब्रह्मचर्य है तो पर में एकत्वबुद्धि और लीनात का अभाव आकिंचन्य है। अतः जिसे अस्ति से ब्रह्मचर्यधर्म कहा जाता है,उसे ही नास्ति से आकिंचन्यधर्म कहा गया है। इसप्रकार स्व-अस्ति ब्रह्मचर्य है ओर पर की र्नािस्त आकिंचन्य।

ब्रह्मचर्यधर्म की चर्चा तो स्वतंत्र रूप से होगी ही, यहां तो आकिंचन्यधर्म के सम्बन्ध में विचार अपेक्षित है।

जिसप्रकार क्ष्मा का विरोधी क्रोध, मार्दव का विरेधी मान है; उसीप्रकार आकिंचन का विरोधी परिग्रह है अर्थात् आकिंचन्य के अीाव को परिग्रह अथवा परिग्रह के अभाव को आकिंचन्यधर्म कहा जाता है। अतः आकिंचन्य का दूसरा नाम अपरिग्रह भी हो सकता है। जिस परिग्रह के त्याग से आकिंचन्यधर्म प्रकट होता है, पहले उस परिग्रह को समझना आवश्यक है।

परिग्रह दो प्रकार का होता है - आभ्यन्तर और बाह्य।

आत्मा में उत्पन्न होने वाले मो-राग-द्वेषादिभावनरूप आभ्यन्तर परिग्रह को निश्चयपरिग्रह और बाह्यपरिग्रह को व्यवहारपरिग्रह भी कहा जाता हहै।

जैसा कि ’धवल’ में कहा है -

’’ववहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरगंथकारणत्तादो। एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं। णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गंथत्तं।1

व्यवहारनाय की अपेक्षा से क्षेत्रादिक ग्रन्थ हैं; क्योकि वे आभ्यंतर-ग्रंथ के कारण् हे। इनका त्याग करना निग्र्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा से मिथ्यात्वादि ग्रंथ हैं; क्योंकि वे कर्मबंध के कारण हैं और उनका त्याग करना निग्र्रन्थता है।’’

इसप्रकार निग्र्रन्थता अर्थात् आकिंचन्यधर्म के लिए आभ्यंतर और बाह्य दोनों प्रकार के परिग्रह का अभाव (त्याग) आवश्यक है। यही निश्चय-व्यवहार की संधि भी है।

आभ्यन्तर परिग्रह चैदह प्रकार के होते हैं -

1. मिथ्यात्व

2. क्रोध

3. मान

4. माया

5. लोभ

6. हास्य

7. रति

8. अरित

9. शोक

10. भय

11. जुगुप्सा (ग्लानि)

12. स्त्रीवेद,

13. पुरूषवेद और

14. नपुंसकवेद।

बाह्य परिग्रह दश प्रकार के होते हैं -

1. क्षेत्र (खेत, प्लाट)

2. वास्तु (निर्मित भवन)

3. धन (चांदी, सोना जवाहरात, मुद्रा)

4. धान्य

5. द्विपद (मनुष्य, पक्षी)

6. चतुष्पद (पशु)

7. यान (सवारी)

8. शय्यासन

9. कुप्य

10. भांड।1

इसप्रकार परिग्रह कुल चैबीस प्रकार के माने गये हैं। कहा भी है -

’’परिग्रह चैबीस भेद, त्याग करें मुनिराज जी।2’’
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उक्त चैबीस प्रकार के परिग्रह के त्यागी मुनिराज उत्तम आकिंचन्यधर्म के धारी होते हैं।

जब भीपरिग्रह या परिग्रहत्याग की चर्चा चलती है ‘- हमारा ध्यान बाह्य परिग्रह की ओर ही जाता है; मिथ्यात्व, क्रोध, मान माया, लोीा की जब भी बात आयेगी तो कहा जायेगा कि ये तो कषायें हैं; पर कषायों का भीपरिग्रह होता है - यह विचार नहीं आता।

जब जगत क्रोध-मानादि कषायों को भी परिग्रह मानने को तैयार नही तो फिर हास्यादि कषायों को कौन परिग्रह माने?

पांच पापों में परिग्रह एक पाप है और हास्यादि कषायें परिग्रह के भेद हैं। पर जब हम हंसते हैं, शोकसंतप्त होते हैं, तो क्या यह समझते हैं कि हम कोई पाप कर रहे हैं या इनके कारण हम परिग्रही हैं?

बहुत से परिग्रह - त्यागियों को कहीं भी खिलखिलाकर हंसते, हड़बड़ाकर डरते देखा जा सकता है। क्या वे यह अनुभव करते हैं कि यह सब परिग्रह हैं?

जयपुर में लोग भगवान की मूर्तियां लेने आते हैं और मुझसे कहते हैं कि हमें तो बहुत सुन्दर मूर्ति चाहिये, एकदम हंसमुख । मैं उन्हें समझाता हूं कि भाई! भगवान की मूर्ति हंसमुख नहीं होती। हास्य तो कषाय है, परिग्रह है अैर भगवान तो अकषायी, अपरिग्रही हैं; उनकी मूर्ति हंसमुख कैसेक हो सकती है? भगवान की मूर्ति की मुद्रा तो वीतरागी शान्त होती है। कहा भी है --

’’जय परमशान्त मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूति हेत।1
छवि वीतराग नग्न मुद्रा, दृष्टि नासा पर धरैं।।2’’

यह भी बहुत कम लोग जानते हैं कि सब पापों का बाप लोभ भी एक परिग्रह है। शब्दों में जानते भी हो। शब्दों में जानते भी हों तो यह अनुभव नहीं करते कि लोभ भी एक परिग्रह है, अन्यथा यश के लोभ में दौड-धूप करते तथाकथित परिग्रह-त्यागी दिखाई नहींद देते।

घोर-पापें की जड़ मिथ्यात्व भी एक परिग्रह है; एक नहीं, नम्बर एक का परिग्रह है, जिसके छूटे बिना अन्य परिग्रह छूट ही नहीं सकते - इस ओर भी कितनों का ध्यान है? होता तो मिथ्यात्व का अभाव किये बिना ही अपरिग्रही बनने के यत्न नहीं किये जाते।

परिग्रह सबसे बडा पाप है और आकिंचन्य सबसे बड़ा धर्म। जगत में जितनी भी हिंसा, झूठ, चोरी , कुशील प्रवृत्तियां देखी जाती हैं - उन सबाके मूल में परिग्रह है। जब मोह-राग-द्वेष आदिसभी विकारी भाव परिग्रह हैं तो फिर कौन-सा पाप बच जाता है, जोपरिग्रह की सीमा में न आ जाता हो।

मोह-राग-द्वेष भावों की उत्पत्ति का नाम ही हिंसा है। कहा भी है-

’’अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।
तेषामेवोत्पत्तिर्हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।3

राग-द्वेष-मोह आदि विकारी भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है और उन भावों का उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा है।’’

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झूठ, चोरी, कुशील में भी राग-द्वेष-मोह ही काम करते हैं। अतः राग- द्वेष-मोहमय होने से परिग्रह सबसे बड़ा पाप है।

क्षमा तो क्रोध के अभाव का नाम है। इसीप्रकार मार्दव मान के, आर्जव माया के तथा शौच लोभ के अभाव का नाम है। पर आकिंचन्यधर्म - क्रोध, मान, मया, लोभ, हास्य, रति , अरिति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद पुरूषवेद, नपुंसकवेद - सभी कषायों के अभाव का नाम है। अतः आकिंचन्य सबसे बडा धर्म है।

आज तो बाह्य परिग्रह में भी मात्र रूपये-पैसे को ही परिग्रह माना जाता है; धन-धान्यादि की ओर किसी का ध्यान भी नहीं जाता। किसी भी परिग्रह-परिणामधारी अणुव्रती से पूछिये कि आपका परिग्रह का परिणाम क्या है? तो तत्काल रूपयों-पैसों में उत्तर देंगे। कहेंगे कि ’दश हजार’ या ’बीस हजार’। ’और?’ - यह पूछेंगे तो कहेंगे - ’और क्या?’

मैं जानना चाहता हूं कि रूपया पैसा ही परिग्रह है, अन्य पदार्थ परिग्रह नहीं? धन-धान्य, क्षेत्र-वास्तु, स्त्री-पुत्रादि बाह्य परिग्रहों की भी कोई बात नहीं करता, तो फिर क्रोध-मानादि अंतरंग परिग्रहों की कौन पूछता है?

जब एक परिग्रह-परिमाणधारी से पूछा गया कि परिग्रह तो चैबीस होते हैं, आपने तो चैबीसों ही का परिमाण किया होगा?

तब वे आश्चर्यचकित - से बोले - ’’नहीं, हमने तो सिर्फ रूपयों का ही परिमाण किया है, आप बताओं तो चैबीसों का कर लेंगे।’’

मैंने कहा - ’8सो तो ठीक है, पर आपने कभी विचार भी किया है कि चैबीसों परिग्रहों का परिमाण हो भी सकता है या नहीं?’’

तब वे तत्काल कहने लगे - ’’क्यों नहीं हो सकता, सब हो सकता है, दुनिया में ऐसा कौन-सा काम है जो आदमी से न हो सके? आमदी चाहे तो सब-कुछ कर सकता है।’’

मैंने कहा -’’ठीक है। आपकेा चैबीस परिग्रहों के नाम तो आते ही होंगे। पहला परिग्रह मिथ्यात्व है। उसका परिमाण हो सकता है क्या? यदि ’हा’ तो फिर कितना मिथ्यात्व रखना और कितना छोड़ना? क्या मिथ्यात्व भी कुछ रखा और कुछ छोड़ा जा सकता है?’’

वे भौंचक्के - से देखते रहे; क्येांकि मिथ्यात्व भी एक परिग्रह है, यह उन्होंने आज ही सुना था।

अस्तु! मैंने अपनी बात को आगे बढाते हुए कहा-

’’भाई! मिथ्यात्व के पूर्णतः छूटे बिना तो व्रत होते ही नहीं, अतः परिग्रह- परिमाणव्रत लेने वाले के मिथ्यात्व है ही कहां जोउसका परिमाण किया जाय?

इसीप्रकार, क्रोध, मान, माया, लोभादि विकारी भावरूप अंतरंग परिग्रहों का भी परिमाण कैसे और कितना जाय - इसका भी विचार किया कभी?’’

चैथे गुणस्थान की अपेक्षा पंचम गुणस्थान में आत्मा का अधिक व उग्र आश्रय होने से अनन्तानुबंधी एवं अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि का अभाव हो जाता है तथा किंचित कमजोरी के कारण प्रत्याख्यानावरण् एवं संज्वलन क्रोधदि का सदभव बना रहता है, , तदनुसार धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह की सीमा बुद्धिपूर्वक की जाती है।

इस सम्पूर्ण प्रक्रिया का नाम ही परिग्रह-परिमाणव्रत है।

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जन-सामान्य को इन चैबीस परिग्रहों की तो खबर नहीं, रूपये-पैसे को ही अपनी कल्पना से परिग्रह मानकर उसकी ही उल्टी-सीधी मर्याा करके अपने को परिग्रह - परिमाणव्रती मान लेते हैं।

जिन रूपयों पैसों को जगत परिग्रह माने बैठा है। वह अंतरंग परिग्रह तो है ही नहीं, पर धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहों में भी उसका नाम नहीं है। वह तो बाह्य परिग्रहों के विनिमय का कृत्रिम साधन मात्र है। उसमें स्वयं कुछ भी ऐसा नहीं, जिसके लोभ से जगत उसका संग्रह करे। यदि उसके माध्यम से धन-धान्यादि भोग-सामग्री प्राप्त न हो तो उसे कौन समेटे? हजार का नोट अब बाजार में नहीं चलता तो अब उसे कौन चाहता है? जगत की दृष्टि में उसकी कीमत तभी तक है, जब तक वह धन-धान्यादि बाह्यपरिग्रहों की प्राप्ति का साधन है। साधन में साध्य का उपचार करके ही वह परिग्रह कहा जा सकता है, पर चैबीस परिग्रहों में नाम तक न होने पर भी आज यह पच्चीसवां परिग्रह ही बस कुछ बना हुआ है।

रूपये-पैसे को बाह्य परिग्रह में भी स्थान न देने का एक कारण यह भी रहा कि उसकी कीमत घटती-बढती रहती है। रूपये-पैसे का जीवन में डायरेक्ट तो कोई उपयोग है नहीं, वह धन-धान्यादि जीवनोपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति का साधन मात्र है। अणव्रतों में परिग्रह का परिमाण जीवनोपयोगी वस्तुओं का ही किया जाता है। रूपये-पैसों की कीमत घटती-बढ़ती रहने से मात्र उसका परिमाण किये जाने पर परेशानी हो सकती है।

मान लीजिये एक व्यक्ति ने दश हजार का परिग्रह-परिमाण किया हैं जब उसने यह परिमाण किया था, तब उसके मकान की कीमत पांच हजाररूपये थी, कालान्तर में उी मकान की कीमत पचस हजार रूपये भी हो सकती है। इसीप्रकार धन-धान्यािद की भी स्थिति समझना चाहिए। अतः परिग्रह- परिमाणव्रत में धन-धान्यादि नित्योपयोगी वस्तुओं के परिमाण् करने को कहा गया।

परिग्रह- परिमाणधारी को तो जीवनोपयोगी परिमित वस्तुओं की आवश्यकता है, चाहे उनकी कीमत कुछ भी क्यों न हो। परिग्रह-परिमाणधरी घर में ही रहता है; अतः उसे सब चाहिए -धन-धान्य-क्षेत्र-मकान, बर्तनादि। पर आज की स्थिति बदल गई है; क्योंकि कोई भी परिग्रह-परिमाणधरी घर में नहीं रहना चाहता। वह अपने को गृहस्थ नहीं, साधु समझता है; जबकि अणुव्रत गृहस्थों के होते हैं, साधुओं के नहीं। उसे बनाकर हीनहीं, कमाकर खाना चाहिए; पर वह कमा कर खाना तो बहुत दूर, बनाकर भी नहीं खाना चाहता है। वह अपने घर में नहीं, धर्मशालाओं में रहता है अैर अपना सारा भार समाज पर डालता है। अतः न उसे अब मकान की आवश्यकता रही है और न धन-धान्यादि की। यही कारण है कि वह परिग्रह का परिमाण भी रूपये-पैसों में करने लगा ह।

बड़ी विचित्र स्थिति हो गई है। एक अणुव्रती ने मुझसे कहा - ’’मैं आपसे अपनी एक शंका का समाधान एकान्त में करना चाहता हूँ।’’

जब मैंने कहा - ’तत्वचर्चा में एकान्त की क्या आवश्यकता है?’’

तब वे बोले - ’’कुछ व्यक्तिगत बात है।’’

एकान्त में बोले - ’’मेरे एक समस्रूाहै,उसका समाधान आपसे चाहता हूँ। बात यह है कि मैंने पाँच हजार का परिग्रह-परिमाणव्रत लिया था। जब परिमाण कियाथा, तब मेरे पास इतने भी पैसे नहीं थे और न प्राप्त होने की संभावना ही थी; पर बाद में पैसे प्राप्त हुए औरब्याज बढ़ता गया। खर्चा तो कुछ था नहीं, लगीाग दश हजार हो गए। मैं बहुत परेशानी में था; अतः मैंने अपने एक साथी व्रतीब्रह्मचारी से चर्चा की तो उन्होंने कहा कि तुम कुछ समझते तो ही नहीं। इसमें क्या है, जब तुमेन व्रत लिया था, तब स ेअब रूपये की कीमत आधी रह गई है। अतः दश हजार रखना कोई अनुचित नहीं है।

उनको बात मेरी रूचि के अनुकूल होने से मैंने स्वीकार कर ली। पर अब रूपये और बढ रहे हैं, बारह-तेरह तक पहुंच गये हैं। अब क्या करूं, मेरी समझ में नहीं आता। यद्यपि उक्त तर्क के आधार पर मैंने मर्यादा बढ़ा ली थी, अब भी बढ़ा सकता हूँ; पर मेरे हृदय न मालूम क्यों इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा है।’’

उनकी बात का तत्काल तो मैं कुछ विशेष उत्तर न दे सका, पर उक्त प्रश्न ने मेरे हृदय को झकझोर डाला। मैंने उक्त बार पर गंभीरता से चिंतन किया। विचार करते-करते मुझे यह बिन्दु हाथ लगा कि आखिर आगम में रूपये-पैसों को परिग्रह में क्यों नहीं गिनाया?

समझ में नहीं आता, धार्मिक समाज को आज क्या हो गया है? परिग्रह के पूर्णतः त्यागी महाव्रती साधु और परिग्रह-परिमाणव्रती अणुव्रती गृहवासी गृहस्थ -दोनों ही मठवासी, मंदिरवासी, धर्मशालावासी हो गए है। एक को वन में रहना चाहिए,दूसरे को घर में; पर न वनवसी वन में रहते हैं और गृहवासी गृह में; और एक धर्मशालवासी हो गए हैं। आहार देने वाले अणुव्रती गृहस्थी भी आज आहार लेने लगे हैं। अन्यथा जिन्होंन अपनी कमाई के साधन सीमित कर लिए, उनके भी सम्पत्ति बढ़ते जाने का प्रश्न ही कहा उठता है?

व्रतियों को महाव्रतियों का भार उठान था, पर उन्होंने तो अपना भार अव्रतियों पर डाल दिया है। यही कारण है कि महाव्रतियों को अनुदिष्ट आहार मिलना बंद हो गया है; क्येांकि अव्रती तो उतना शुद्ध भोजन करते ही नहीं कि ये मुनिराज के उद्देश्य के बिना बनाये ही उन्हें आहार दे सकें। व्रती अवश्य ऐसा भोजन करते है िकवे आने लिए बनाए गए भोजन को मुनिराजों को दे सकते हैं, पर वे तो लेने वाले हो गए।

जो कुछ भी हो, प्रकृत में तो मात्र यह विचारान है कि रूपये-पैसों को आगम में चैबीस परिग्रहों में पृथक स्थान क्यों नहीं दिया? वैसे वह धन में आ ही जाता है।

यदि रूपये-पैसे को ही परिग्रह मानें तो फिर देवों, नारकियों और तिर्यंचों में तो परिग्रह होगा ही नहीं; क्योंकि उनके पास तो रूपया-पैसा देखने में ही नहीं आता। उनमें तो मुद्रा का व्यवहार ही नहीं है, उन्हें इस व्यहवार का कोई प्रयोजन भी नहीं है; पर उनके परिग्रह कात्याग तोनहीं है।

इसीप्रकार धन-धान्याद बाह्य परिग्रहों को ही परिग्रह मानें तो फिर पशुओं को अपरिग्रही मानना होगा, क्योंकि उनके पास बाह्य परिग्रह देखने में नहीं आता। धन-धान्य, मकानादि संग्रह का व्यवहार तो मुख्यतः मनुष्य - व्यवहार है। मनुष्यों में भी पुण्य का योग न होने पर धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह कम देखा जाता है तो क्या वे परिग्रहत्यागी हो गये? नहीं, कदापि नहीं।

जब आत्मा के धर्म और अधर्म की चर्चा चलती है तो उनकी परिभाषायें ऐसी होनी चाहिए कि वे सभी आत्माओं पर समान रूप से घटित हों। यही कारण है कि आचार्यों ने अंतरंग परिग्रह के त्याग पर विशेष बल दिया है।

’कार्तिकेयानुप्रेक्षा’ में कहा है -

’’बाहिरंगथविहीणा दलिद्दमणुवा सहावदो होंति।
अब्भंतर-गंथं पुण ण सक्कदेको विछंडेदुं।।387।।

बाह्य परिग्रह से रहित दरिदी्र मनुष्य तो स्वभाव से ही होते हैं, किंतु अंतरंग परिग्रह को छोड़ने में कोई भी समर्थ नहीं होता।’’

अष्टपाहुड (भावपाहुड) में सर्वश्रेष्ठ दिगम्बराचाय कुन्दकुन्द लिखते हैं -

’’भावविशुद्धिणिमित्तं बाहिरंगथस्स कीरए चाओ।
वाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स।।3।।

बाह्य परिग्रह का त्याग भावों की विशुद्धि के लिए किया जाता है, परंतु रागादिभावरूपअ भ्यन्तर परिग्रह के त्याग बिना बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है।’’

बाह्य परिग्रह त्याग देने पर भी यह आवश्यक नहीं कि अंतरंग परिग्रह भी छूट ही जायेगा। यह भी हो सकता है कि बाह्य में तिल-तुषमात्र भी परिग्रह न दिखाई दे, परंतु अंतरंग में चैदहों परिग्रह विद्यमान हों। द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनियों के यही तो होता है। प्रथम गुणस्थान में होने से उनमें मिथ्यात्वादि सभी अंतरंग परिग्रह पाये जाते हैं, पर बाह्य में वे नग्न दिगम्बर होते हैं।

भगवती आराधना में स्पष्ट लिखा है -

’’अब्भंतरसोधीए गंथे णियमेण बाहिरे च यदि।
अब्भंतरमइलो चेव बाहिरे गेण्हदि हु गंथे।।1915।।
अब्भंतरसोधीए बाहिरसोधी वि होदि णियमेण।
अब्भंतरदोसेण हु कुणदि, णरो बाहिरे दोसे।।1916।।

अंतरंग शुद्धि होने पर बाह्य परिग्रह का नियम से त्याग होता है। अभ्यंतर अशुद्ध परिणामेां से ही वचन और शरीर से दोषों की उत्पत्ति होती है। अंतरंग शुद्धि होनेसे बहिरंग शुद्धि भी नियम से होती है। यदि अंतरंग परिणाम मलिन होंगे तो मनुष्य शरीर और वचनों से भी दोष उत्पन्न करेगा।’’

वस्तुतः बात तो यह है कि धन-धान्यादि स्वयं में कोई परिग्रह नहीं हैं; बल्कि उनके ग्रहण का भाव, संगह काभाव -परिग्रह है। जबतक परपदार्थों के ग्रहण या संग्रह का भाव न हो तो मात्र परपदार्थों की उपस्थिति से परिग्रह नहीं होता; अन्यथा तीर्थंकर के तेरहवें गुणस्थान में होने पर भी देह व समोशरणाद विभाूतियों का परिग्रह मानना होगा, जबकि अंतरंग परिग्रहों का सद्भाव दशवें गुणस्थान तक ही होता है।

सभी बातों का ध्यान रखते हुए जिनागम में परिगह की परिभाषा इसप्रकार दी गई है -

’’मूच्र्छा परिग्रहः1 - मूच्र्छा परिग्रह है।’’
मूच्र्छा की परिभाषा आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार कहत हैं -
’’मूच्र्छा तु ममत्वपरिणामः2 - ममत्व परिणाम ही मूच्र्छा है।’’
प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में (गाथा 278 की टीका में) आचार्य जयसेन ने लिखा है।
’’मूच्र्छा परिग्रह इति सूत्रे यथाध्यात्मानुसारेण मूच्र्छारूप रागादिपरिणामानुसारेण परिग्रहो भवित, न च बहिरंगपरिग्रहानुसारेण।

मूच्र्छा परिग्रह है - इस सूत्र में यह कहा गा है कि अंतरंग इच्छारूप रागादि परिणामों के अनुसार परिग्रह होता है, बहिरंग परिग्रह के अनुसार नहीं।’’

आचार्य पूज्यपाद तत्वार्थसूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि में लिखते हैं -

’’ममेदंबुद्धिलक्षलक्षणः परिग्रहः3 - यह वस्तु मेरी है - इसप्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है।’’
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परिग्रह की उपर्युक्त परिभाषा और स्पष्टीकरण से परपदार्थ स्वयं में केई परिग्रह नहीं है - यह स्पष्ट हो जाता है। परपदार्थों के प्रति जो हमारा ममत्व है, राग है - वास्तव में तो यही परिग्रह है। जब परपदार्थों के प्रति ममत्व छूटता है तो तदनुसार बाह्य परिग्रह भी नियम से छूटता ही है। किंतु बाह्य परिग्रह के छूटने से ममत्व के छूटने का नियम नहीं है; क्योंकि पुण्य के अभाव और पाप के उदय में परपदार्थ तो अपने आप ही छूट जाते हैं, पर ममत्व नहीं छूटता; बल्कि कभी-कभी तो और अधिक बढ़ने लगता है।

परपदार्थ के छूटने से कोई अपरिग्रही नहीं होता; बल्कि उसके रखने का भाव, उसके प्रति एकत्वबुद्धि या ममतव परिणाम छोड़ने से परिग्रह छूटता है - आत्मा अपरिग्रही अर्थात आकिंचन्यधर्म का धनी बनता है।

शरीरादि परपदार्थों और रागादि चिद्विकारों में एकत्वबुद्धि, अहंबुद्धि ही मिथ्यात्व नामक प्रथम अंतरंग परिग्रह है। जबतक यह नहीं छूटता, तबतक अन्य परिग्रहों के छूटने का प्रश्न ही नहीं उठता; पर इस मुग्ध जगत का इस ओर ध्यान नही नहीं है।

सारी दुनिया परिग्रह की चिन्ता में ही दिन-रात एक कर रही है, मर रही है। कुछ लोग परपदार्थों के जोड़ने में मग्न हैं, तो कुछ लोगों को धर्म के नाम पर उन्हें छोडने की धुन सवार है। यह कोई नहीं सोचता कि वे मेरे हैं ही नहीं, मेरे जोड़ने से जुडते नहीं और ऊपर-ऊपर से छोड़ने से छूटते भी नहीं। उनकी परिणति उनके अनुसार हो रही है, उसमें हमारे किए कुछ नहीं होता। यह आत्मा तो मात्र उन्हें जोडने या छोडने के विकल्प करता है, तदनुसार पाप-पुण्य का बंध भी करता रहता है।

पुण्य के उदय में अनुकूल परपदार्थों का बिना मिलाये भी सहज संयोग होता है। इसीप्रकार पाप के उदय में प्रतिकूल परपदार्थों का संयोग होता रहता है। यद्यपि इसमें इसका कुछ भी वश नहीं चलता; तथापि मिथ्यात्व और राग के कारण यह अज्ञानी जगत अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों-वियोगों में अहंबुद्धि, कर्तत्वबुद्धि किया करता है। यही अहंबुद्धि, कत्र्तृत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि मिथ्यात्व नामक सबसे खतरनाक परिग्रह है। सबसे पहिले इसे छोड़ना जरूरी है।

जिसप्रकार वृक्ष के पत्तों के सींचने से पत्ते नहीं पनपते, वरन् जड़ को सींचने से पत्ते पनपते हैं; उसीप्रकार समस्त अंतरंग-बहिरंग परिग्रह मिथ्यात्वरूपी जड़ से पनपते हैं। यदि हम चाहते हैं कि पत्ते सूख जावें तो पत्तों को तोड़ने से कुछ नहीं होगा, नवीन पत्ते निकल आवेंगे; पर यदि जड़ की काट दी जावे तो फिर समय पाकर पत्ते आपों-आप सूख जायेंगे। उसीप्रकार मिथ्यात्वरूपी जड़ को काट देने पर बाकी के परिग्रह समय पाकर स्वतः छूटने लागेंगे।

जब यह बात कही जाती है तो लोग कहते है कि बस पर को अपना मानना नहीं है, छोड़ना तो कुछ है नहीं। यदि कुछ छोड़ना नहीं है तो फिर परिग्रह छूटेगा कैसे?

अरे भाई! छोड़ना क्यों नहीं है? पर को अपना मानना छोड़ना है। जब पर को अपना मानना ही मिथ्यात्व नामक प्रथम परिग्रह है, तो उसे छोड़ने के लिए पर को अपना मानन ही छोडना होगा।

यद्यपि मानना छोडना (मत परवर्तन) बहुत बडा त्याग है, काम है; तथापि इस जगत को इसमें कुछ छोड - ऐसा लगता ही नहीं है। यदि दश-पांच लाख रूपये छोड़े, स्त्री-पुत्रादि को छोडे, तो कुछ छोड़-सा लगता है; पर इन्हीं रूपयों को, स्त्री-पुत्रादि को अपना मानना छोड़े तो कुछ छोड़ा-सा नहीं लगता। यह सब मिथ्यात्व नामक परिग्रह की ही महिमा है। उसी के कारण जगत को ऐसा लगता है।

अरे भाई! यदि पर को अपना मानना छोड़े बिना उसे छोड़ भी दे तो वह छूटेगा नहीं। पर को छोड़ने के लिए अथवा पर से छूटने के लिए सर्वप्रथम उसे अपना मानना छोड़ना होगा, तभी कालान्तर में वह छूटेगा। वह छूटेगा क्या वह तो छूटा हुआ ही हैं वस्तुतः यह जीव बलता् उसे अपना मान रहा है। अतः गहराई से विचार करें तो उसे अपना मानना ही छोडना है।

जगत के पदार्थ तो जगत में ही रहते हैं और रहेंगे, उन्हें क्या छोड़ें और कैसे छोडें? उन्हें अपना मानना छोड़ने से, ममत्व छोड़ने से, उससे राग छूट जाने पर भी तत्काल देह छूट नहीं जाती; देह का परिग्रह छूट जाता हैं देह तो समय पर अपने-आप छूटती है; पर देह में एकत्व और रागादि-त्यागी को फिर दुबारा देह धारण नहीं करनी पड़ती और जो लोग इससे एकत्व और राग नहीं छोड़ते हैं, उन्हें बार-बार देह धारण करनी पड़ती है।

यहां कोई कहे कि जिसप्रकार देह को नहीं, देह को अपना मानना छोड़ना है, देह से राग छोड़ना है, देह तो समय पर अपने-आप छूट जावेगी; उसीप्रकार हम मकान तो दश-दश रखें, पर उनसे ममत्व नहीं रखें, तो क्या मकान का परिग्रह नहीं होगा? यदि हां, तो फिर हम मकान तो खूब रखेंगे, बस उनसे ममत्व नहीं रखेंगे।

उससे कहते हैं कि भाई जरा विचार तो करो! यदि तुम मकान से ममत्व नहीं रखोगे तो मिथ्यात्व नामक अंतरंग परिग्रह छूटेगा, मकान (वास्तु) नामक बहिरंग परिग्रह नहीं; क्योंकि मकानादिरूप बाह्य परिग्रह तो प्रत्याख्यानावरण सम्बंधी राग (लोभादि) रूप अंतरंग परिग्रह के छूटने मकानादि बाह्य परिग्रह परिमित होते हैं। इसप्रकार उसे अपना मानना छोड़ने मात्र से बाह्य परिग्रह नहीं छूटता, अपितु तत्सम्बन्धी राग छूटने से छूटता है।

देह और मकान की स्थिति में अन्तर है। देह से राग छूट जाने पर भी देह नहीं छूटती, पर मकान से राग छूट जाने पर मकान अवश्य ही छूट जाता है। पूर्ण वीतरागी-सर्वज्ञ भी तेरहवें-चैदहवें गुणस्थान में संदेह होते हैं, पर मकानादि बाह्य पदार्थों का संयोग छठवें-सातवें गुणस्थान में भी नहीं होता।

जैनदर्शन का अपरिग्रह सिद्धांत समझने के लिए गहराई में जाना होगा। ऊपर-ऊपर से विचार करने से काम नहीं चलेगा।

निश्चय से तो मकानादि छूट ही हैं। अज्ञानी जीव ने उन्हें अपना मान रखा है, वे उसके हुए ही कब हैं? यह अज्ञानी जीव अपने अज्ञान के कारण स्वयं को उनका स्वमी मानता है, पर उन्होंने इसके स्वामित्व को स्वीकार ही कहां किया? उन्होंने इसे अपना स्वामी कब माना?

यह जीव बड़े अभिमान से कहता है कि मैंने यह मकान पच्चीस हजार में निकाल दिया; पर विचार तो करो कि इसने मकान को निकाला है या मकान ने इसे? मकान तो अभी भी अपने स्थान पर ही खड़ा है। स्थान तो इसी ने बदला है।

मकानादि परपदार्थों को अपना मानना मिथ्यात्व नामक अंतरंग परिग्रह है, और उनसे रागद्वेषादि करना क्रोधदिरूप अन्तरंग परिग्रह है; मकानादि बहिरंग परिग्रह हैं। परपदार्थों को मात्र अपना मानना छोड़ने से बहिरंग परिग्रह नहीं छूटता, अपितु उन्हें अपना मानने के साथ उनसे रागादि छोड़ने से छूटता है।

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पर इसी परिग्रही वणिक समाज ने अपरिग्रही जिनधर्म में भी रास्ते निकाल लिये हैं। जिसप्रकार समस्त धन का मालिक एवं नियामक स्वयं होने पर भी राज्य के नियमों से बचने के लिए आज इसके द्वारा अनेक रास्ते निकाल लिये गये हैं - दूसरे व्यक्ति के नाम सम्पत्ति बताना, नकली संस्थाएं खड़ी कर लेना आदि। उसीप्रकार धर्मक्षेत्र में भी यह सब दिखाई दे रहा है - शरीर पर तन्तु भी न रखने वाले नग्न दिगम्बरों को जब अनेक संस्थाओं, मन्दिरों, मठो, बसों आदि का रूचिपूर्वक सक्रिय संचालन करते देखते हैं तो शर्म से माथा झुक जाता है। जब साक्षात देखते हैं कि उनकी मर्जी के बिना सब एक कदम भी नहीं चल सकती, तब कैस समझ में आवे कि इससे उनका कोई सम्बन्ध नहीं हैं लौट-फिर कर बात वहीं आ जाती है कि अंतरंग परिग्रह त्यागे बिना यदि बाह्य परिग्रह छोड़ा जाएगा तो यही सब कुछ होगा, क्योंकि अंतरंग परिग्रह के त्याग के बिना बहिरंग परिग्रह का भी वास्तविक त्याग नहीं हो सकता। फिर भी शास्त्रों में नववें ग्रैवयक तक जाने वाले जिन द्रव्यलिंगी-मिथ्यादृष्टि मुनिराजों की चर्चा है, उने तो तिल-तुषमात्र बाह्य परिग्रह और उससे लगाव देखने में नहीं आता। अंतर्दृष्टि बिना उनके द्रव्यलिंगत्व का पता लगाना असंभव-सा ही है।

मिथ्यात्वादि अंतरंग परिग्रह के त्याग पर बल देने का आशय या नहीं है कि बहिरंग परिग्रह के त्याग की कोई आवश्यकता नहीं है या उसका कोई महत्व नहीं है। अंतरंग परिग्रह के त्याग के साथ-साथ बहिंरग परिग्रह का त्याग भी नियम से होता है, उसकी भी अपनी उपयोगिता है, महत्व भी है; पर यह भी नियम से होता है, उसकी भी अपनी उपयोगिता है, महत्व भी है; पर यह जगत बाह्य में ही इतना उलझा रहता है कि उसे अन्तरंग की कोई खबर ही नहीं रहती। इस कारण यहां अंतरंग परिग्रह की ओर विशेष ध्यान आकर्षित किया है।

जिसके भूमिकानुसार बाह्य परिग्रह का त्याग नहीं है, उसके अंतरंग परिग्रह के त्याग की बात भी कोरी कल्पना है। यदि कोई कहे कि हमने तो अंतरंग परिग्रह का त्याग कर दिया है, अब बहिरंग बना रहे तो क्या? तो उसका यह कहना एक प्रकार का छल है; क्योंकि अंतरंग में राग के त्याग होने पर तदनुसार बाह्य परिग्रह के संयोग का त्याग भी अनिवार्य है। यह नहीं हो सकता कि अंतरंग में मिथ्यात्व; अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान एवं प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ का अभाव हो जावे और बाहर में नग्न दिगम्बर दशा न हो। उक्त अन्तर्गत परिग्रहों के अभाव में बाह्य में सर्व परिग्रह के त्यागरूप नग्न दिगम्बर दशा होगी ही।

आकिंचन्यधर्म की धारी अकिंचन्य बनने के लिए सबसे प्रथम आकिंचन्यधर्म का वास्तविक स्वरूप जानना होगा, मानना होगा, समस्त परपदार्थों से भिन्न निजात्मा का अनुभव करना होगा। तत्पश्चात् अंतरंग परिग्रहरूप कषायों के अभावपूर्वक तदनुसार बाह्य परिग्रह का भी बुद्धिपूर्वक, विकल्पपूर्वक त्याग करना होगा।

यद्यपि यहां आकिंचन्यधर्म का वर्णन मुनिभूमिका की अपेक्षा चल रहा है, अतः परिग्रह के पूर्णत्याग की बात आती है; तथापि गृहस्थों को यह सोचकर कि हम तो परिग्रह के पूर्णतः त्यागी हो नहीं सकते, आकिंचन्यधर्म धारण करने से उदासीन नहीं होना चाहिए। उन्हें भी अपनी भूमिकानुसार अंतरंग-बहिरंग परिग्रह का त्याग अवश्य करना चाहिए।

जिनधर्म के अपरिग्रह सिद्धान्त अर्थात आकिंचन्यधर्म पर यह आक्षेप लागया जाता है कि अपरिगह धर्म को मानने वाले जैनियों के पास सर्वाधिक परिग्रह है; पर गहराई से विचार करने पर इसमें कोई दम नजर नहीं आता। यह कहकर मैं यह नहीं कहना चाहता कि आज के जैनी अपरिग्रही हैं। पर बात यह है कि पुण्योदय से प्राप्त होने वलो अनुकूल संयोगों को लक्ष्य में रखकर ही यह आक्षेप लगाया जाता है, कषायचक्ररूप अंतरंग परिग्रह को लक्ष्य में रखकर नहीं; क्योंकि कषायचक्ररूप अंतरंग परिग्रहों में तो जैनेतर भी जैनियों से पीछे नहीं हैं

बाह्य विभूति भी जैनियों के पास जितनी दुनियां समझती है, उतनी नहीं है। दिखावा अधिक होने से दुनियां को ऐसा लगता है। यदि है भी तो सदाचाररूप जीवन के कारण है, सप्तव्यसनादि का अभाव होने से सहज सम्पन्नता दिखाई देती है। जिस दिन जैनसमाज से सदाचार उठा जायेगा, उस दिन उसकी भी वही दशा होगी जो व्यसनी समाज की होती है।

एक बात यह भी विचारणीय है कि धर्म की दृष्टि से गृहस्थावस्था में सच्चे क्षायिक सम्यग्दृष्टि जैनी चक्रवर्ती भी हो सकते हैं, हुए भी हैं। भरत चक्रवर्ती आदि के जैनत्व में शंका नहीं की जा सकती है। चक्रवर्ती से अधिक परिग्रह तो आज के जैनियों के पास हो नहीं गया है। यह कहकर मैं, जैनियों को बाह्य परिग्रह जोड़ना चाहिए - इस बात की पुष्टि नहीं करना चाहता; बल्कि यह कहना चाहता हूँ कि जैनधर्म के अनुसार वे अपरिग्रह के सिद्धांत का कहां तक उल्लंघन कर रहे हैं - यह बात भी विचारणीय है।

जिनधर्म में अपरिग्रह सिद्धान्त को प्रयोगिकरूप देने के लए कुछ स्तर निश्चित हैं। किस स्तर का जैन कितने परिग्रह का त्याग करता है - इसका विस्तृत वर्णन मुनि और श्रावक के आचार के वर्णन करने वाले चरणानुयोग के ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। तदुनसार मुनिराज के जब रंचमात्र भी बाह्य परिग्रह नहीं होता, तब अणुव्रती गृहस्थ अपने बाह्य परिग्रह को अपनी शक्ति और आवश्यकता के अनुसार सीमित कर लेता है। यद्य़पि अव्रती गृहस्थ भी अन्याय से धनोपर्जन नहीं करता; तथापि उसके परिग्रह की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है, उनमें चक्रवर्ती भी होते हैं।

इसप्रकार जैनियों में अनेक भेद पड़ते हैं। यदि जैनमुनि एक सूत के बराबर भी परिग्रह रखे तो वह मुनि नहीं और यदि अव्रती श्रावक छहखण्ड की विभूति का भी मालिक हो तो इसके कारण उसके जैनत्व में कोई कमी नहीं आती; क्योंकि वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है।

यद्यपि बाह्यविभूति और उसे रखने का भाव जैनत्व में बाधक नहीं, तथापि रंचमात्र भी परिग्रह रखने वाले को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। अतः मुक्ति के अभिलाषी को तो समस्त परिग्रह का त्याग करना ही चाहिए।

अनाज की कमी से सप्ताह में एक दिन भोजन नहीं करना अलग बात है और किसी भी प्रकार की कमी न होने पर भी भोजन का त्याग दूसरी बात है।

समाजवादी दृष्टिकोण पूर्णतः आर्थिक है, जबकि अपरिग्रह की दृष्टि पूर्णतः आध्यात्मिक है। यदि सबके पास कार हो और तुम भी रखो तो समाजवाद को कोई एतराज नहीं होगा; पर अपरिग्रह कहता है तुम्हें औरों से क्या, तुम तो अपनी इच्छाओं को त्यागों अथवा सीमित करो।

समाजवादी दृष्टिकोण में परिग्रह को सीमित करने की बात तो कुछ बैठ भी सकती है, पर परिग्रह - त्याग की बात कैसे बैठेगी? क्या कोई समाजवादी यह भी चाहता है कि सम्पूर्ण परिग्रह त्याग दिया जाए और सभी नग्न दिगम्बर हो जायें? नहीं, कदापि नहीं; पर अपरिग्रह तो पूर्णतः त्याग का ही नाम है, सीमित परिग्रह रखने को परिग्रह-परिमाण कहा जाता है, अपरिग्रह नहीं है।

यहां जिस आकिंचन्यधर्मरूप अपरिग्रह की बात चल रही है, वह तो नग्न दिगम्बर मुनिराजों के ही होता है। यदि सबके पास मोटरकार हो जायेगी तो क्या नग्न दिगम्बर मुनिराज को मोटरकार में बैठने पर आपत्ति नहीं होगी? यदि समाजवाद ही अपरिग्रह है तो फिर मुनिराज को भी कार रखने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अथवा रेल, मोटर, बस आदि जो सवारी जनसाधरण को आज भी उपलब्ध हैं, उनमें भी अपरिग्रही मुनिराज क्यों नहीं बैठते हैं? इससे स्पष्ट है कि समाजवाद से अपरिग्रह का दृष्टिकोण एकदम भिन्न है।

अपरिग्रह का उत्कृष्ट रूप नग्न दिगम्बर दशा है जो कि समाजवाद का आदर्श कभी नहीं हो सकता। समाजवाद की समस्या भोग-सामग्री के समान वितरण की है और अपरिग्रह का अंतिम उद्देश्य भोग-सामग्री और भोग के भाव का भी पूर्णतः त्याग है।

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यहां समाजवाद के विरोध या समर्थन की बात नहीं कही जा रही है, अपितु अपरिग्रह और समाजवाद के दृष्टिकोण में मूलभूत अन्तर क्या है - यह स्पष्ट किया जा रहा हैं

समाजवादी में क्रोधदिरूप अंतरंग परिग्रह और धन-धान्यदि बाह्य परिग्रह के पूर्णतः त्याग के लिए भी कोई स्थान नहीं है; जबकि अपरिग्रह में उक्त दोनों बातें ही मुख्य हैं। अतः यह निश्चिन्त होकर का जा सकता है। कि समाजवाद को ही अपरिग्रह कहने वले समाजवाद का सही स्वरूप समझते हों या नहीं; पर अपरिग्रह का स्वरूप उनकी दृष्टि में निश्चितरूप से नहीं है।

यद्यपि परिग्रह सबसे बडा पाप है, जैसाकि पहले सिद्ध किया जा चुका है; तथापित जगत में जिसे पास अधिक बाह्य परिग्रह देखने में आता है,उसे पुण्यात्मा कहा जाता है। शास्त्रों में भी कहीं-कहीं उसे पुण्यात्मा कह दिया गया हैं भाग्यशाली तो उसे सारी दुनिया कहती ही है।

हिंसक को कोई पुण्यात्मा नहीं कहता असत्यवादी और चोर भी पापी ही कहे जाते हैं। इसीप्रकार व्यभिचारी भी जगत की दृष्टि में पापी ही गिना जाता है। जब उक्त चारों पापों के कर्ता पापी माने जाती हैं, तब न जाने परिग्रह को पुण्यात्मा भाग्याशाील क्यों कहा जाता है? कुछ लोग तो उन्हें धर्मात तक कह देते ळं। धर्माता ही क्यों, न जाने क्या-क्या कह देते हैं? तभी तो भर्तृहरि को लिखना पड़ा -

’’यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः, स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः, सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति।।41।।1

जिसके पास धन है, वही कुलीन (अच्छे कुल में उत्पन्न) है, वही द्विान् है, वही शास्त्रज्ञ है, वही गुणों का जानकार है, वही वक्ता है और वही दर्शनीय भी है; क्योंकि सब गुण स्वर्ण (धन) में ही आश्रय प्राप्त करते हैं।’’

तो क्या परिग्रही को पुण्यात्मा अकारण कहा जाता है? ऊपर से तो ऐसा ही लगता है, पर गहराई से विचार करने पर प्रतीत होता है कि इसका भी कारण् है और वह यह है कि हिंसादि पाप - कारण, स्वरूप एवं फल - तीनों ही रूप में पापस्वरूप ही हैं; क्योंकि उनके कारण भी पापभाव हैं, वे पापाभावस्वरू पतो हैं ही, तथा उनका फल भी पाप का बंध ही है; किंतु परिग्रह में विशेषकर बाह्य परिग्रह के दृष्टिकोण से देखने पर इनमें अंतर आ जाता है। बाह्य-विभूतिरूप परिग्रह का कारण पुण्योदय है, पर है वह पापस्वरूप ही; फिर भी यदि उसे भोग में लिया जाये तो पापबंध का कारण बनता है, किंतु यदि शुभभावपूर्वक शुभकार्य में लगा दिया जाय तो पुण्यबंध का कारण बन जाता है। कहा भी है -

’’बहुधन बुरा हूँ, भला कहिए लीन पर-उपगार सों।1’’

इसप्रकार बाह्यपरिग्रह का कारण पुण्य, स्वरूप पाप, और फल अशुभ में लगने पर पाप व शुभ में लगने पर पाप व शुभ में लगने पर पुण्य हुआ है।

यहां कोई कहें कि यदि यह बात है तो परिग्रह को पाप ही क्यों है?

वह भले ही पुण्योदय से प्राप्त होता है, पर है तो पाप ही। वह ऐसा वृक्ष है; जिसमें बीज पड़ा था पुण्य का, वृक्ष उगा पाप का, और फल लगे ऐसे कि खावे तो मरे अर्थात पाप बंधे और त्यागे तो जीवे अर्थात पुण्य बांधे। यह विविधता इसके स्वभाव में ही पडी है। यही कारण है कि सबसे बडा पाप होने पर भी जगत में परिग्रही को पुण्यात्मा कह दिया जाता हैं

वस्तुतः बात तो ऐसी है कि पाप के उदय से कोई पापी ओर पुण्य के उदय से कोई पुण्यात्मा नहीं होता; परंतु पापभाव करे सो पापी, पुण्यभाव करे सो पुण्यात्मा और धर्मभाव करे सो धर्मातम होता है। अन्यथा पूर्ण धर्मात्मा भावलिंगी मुनिराजों को भी पापी मानना होगा; क्योंकि उनके भी पाप का उदय आ जाता है, उससे उन्हें अनेक उपसर्ग एवं कुष्टादि व्याधियां हो जाती है; पर वे पापी नहीं हो जाती, धर्मभाव के धनी होने से धर्मात्मा ही रहते हें। इसीप्रकार किसी वेश्य या डाकू के पास बहुत धनादि हो जाने से वे पुण्यात्मा नहीं हो जाते, पापी ही रहते हैं।

जगत कुछ भी कहे, पर सब पापों की जड़ से परिग्रह सबसे बडा पाप है और सर्व कषायों और मिथ्यात्व के अभावरूप होने से आकिंचन्य सबसे बड़ाधर्म है।

इस उत्तम आकिंचन्यधर्म को धारण कर सभी प्राणी पूर्ण सुख को प्राप्त करें - इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।