उत्तम सत्य धर्म

मंगलाचरण

स्मरक रिमृ गराजः पुण्यकंजाह्निराजः,
सकल गुण समाजः सर्वकल्पावनीजः।
स जयति जिनराजः प्रस्तदुष्कर्मबीजः,
पद नुत सुर राजस्त्यक्तसंसारभूजः।।1।।

अर्थ- जो काम रूपी हाथी को नष्ट करने के लिए सिंह के समान है। पुण्य रूपी कमल को विकसित करने के लिए सूर्य के समान है। तथा जिन्होंने संसार रूपी वृक्ष के कारण कर्म रूपी बीज को नष्ट कर दिया है जिनके चरणों में इन्द्र भी शिर झुकाते हैं, वे जिनेन्द्र भगवान् जयवन्त हों।

सत्य धर्म का लक्षण-: मुनियों में और श्रावकों में जो प्रशस्त वचन बोले जाते हैं वे सत्य वचन कहलाते हैं। ऋषियों के द्वारा हित मित, प्रिय सार भूत निजागम के अनुरूप निष्पाप करूणायुक्त राग-द्वेषादि से रहित धर्म और ज्ञान के लिये जो वचन बोले जाते हैं वे सत्य वचन कहलाते हैं। जब तक सत्य रहता है तभी तक धर्म रहता है और जब तक धर्म रहता है तभी तक शांति रहती है। उनमें असत्य और उभय-वचन शुीा से रहित एवं पाप का कारण होने से छोड़ने योग्य है। सत्य और अनुभय वचन जगत में धर्म को करने वाला निष्पाप धर्म की सिद्धि के लिये संयतों को नित्य ही बोलना चाहिए। सत्य वचनों से चन्द्रमा के सामन निर्मल कीर्ति तीनों लोकों में फैलती है।

जैसे की कहा है -

चन्द्रमूर्तिरिवानन्दं, वर्धयन्ति जगत्त्रये।
स्वर्गिभिध्र्रियते मूध्र्ना कीर्तिः सत्योत्थिता नृणाम्।।2।।

अर्थ- सत्य वचनों से उत्पन्न हुई मनुष्यों की कीर्ति तीनों लोकों में चन्द्र मण्डल के समान आनन्द को बढ़ाती हुयी देवताओं के द्वारा मस्तक से धारण की जाती है अर्थात सत्यवादी को देवता भी नमस्कार करते हैं।

सत्य वचन के प्रभाव से पुरूषों के मुख में विश्वसनीय वाणी निवास करती है। सत्य से ही पुरूषों की बुद्धि समस्त तत्वों की परीक्षा करने के लिए कसौटी के पत्थर की तरह होती है, जिन सत्य वचनों से स्थिर वैराग्य उत्पन्न होता है, सद् गुण बढते हैं, रागादि नष्ट होते हैं, काम क्रोध आदि विकार शांत होते है, दुध्र्यान नष्ट होते हैं, साधु को धर्म और तत्व के दर्शक मिष्ट वचन बोलना चाहिए इन वचनों के द्वारा मेरा अथवा दूसरों का शुीा होगा कि अशुभ होगा, हित होगा या अहित, कल्याण होगा कि अकल्याण। इस प्रकार पहले मन में विचार कर बाद में धर्म और तत्व का ज्ञान कराने के लिए आगम के अनुकूल प्रशंसनीय वचन बोलना चाहिए। यदि इस प्रकार के विचार का अभाव है तो साधु समस्त अर्थों को सिद्ध करने वाले मौन को ही धारण करें। स्व पर तत्व के ज्ञाता हितकारी वचन बोलें, जैसा कि कहा है।

जिण वयणमेव भासादि तं पालेदुं असक्कमाणो वि।
ववहारेण वि अलियां ण वददि जो सच्चवाई सो।।3।।

अर्थ- जैन शास्त्रों में कहे हुए आचार को पालने में असमर्थ होते हुए भी जो जिन वचन का ही कथन करता है। उससे विपरीत कथन नहीं करता, तथा जो व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता वह सत्यवादी है।

असत्यं विरतौ सत्यं, सत्स्वसत्स्वपि यन्मतं।
वाक् समित्यां मितं तद्धि धर्में सत्स्वेव वह्वपि।।4।।

अर्थ- सत्य महाव्रती सज्जन दुर्जन दोनों से थोड़ा बहुत भी बोल सकते हैं। भाषा समिति वाले सज्जन हो या दुर्जन दोनों से थोड़ा बोलते हैं। सत्य धर्म वाले सज्जनों से और भक्तों से थोड़ा और बहुत भी बोल सकते हैं।

सत्य धर्म की प्रशंसा

सत्यमेव वदेत् प्राज्ञः, सर्वभूतोपकारकं।
यद्वा तिश्ठेत् समालम्ब्य, मौनं सर्वार्थसाधकम्।।5।।

अर्थ- बुद्धिमान सब जीवों का हित करने वाला सत्य वचन ही बोले अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषार्थ का साधक मौन धारण करे।

मौनमेव सदा कुर्या - दार्यः स्वार्थैक सिद्धये।
स्वैक साध्ये परार्थे वा, ब्रूयात् स्वार्थाविरोधतः।।6।।

अर्थ- सज्जन पुरूष स्वार्थ की सिद्धि के लिये मौन धारण करें अथवा स्वार्थ और परार्थ की सिद्धि के लिये स्वार्थ अविरोधी वचन बोले।

मौनमेवल हितं पुंसां, शश्वत् सवार्थसिद्धये।
बचो वाऽति प्रियं तथ्यं, सर्व सत्वोपकारि यत्।।7।।

अर्थ- पुरूषों को प्रथम तो समस्त प्रयोजनों को सिद्ध करने वालाल निरंतर मौन धारण करना हिताकारी है और यदि वचन बोलना ही पड़े ंतो ऐसा कहना चाहिए जो सबको प्यारा हो, सत्य हो और समस्त जनों का हित करने वाला हो।

धर्म नाशे क्रियाध्वंसे, स्व सिद्धान्तार्थ विप्लवे।
अपृष्टेरपि वक्तव्यं, तत्स्वरूपप्रकाशने।।8।।

अर्थ- यहा धर्म का नाशहो, जैनाचार बिगडता हो तथा समीचीन सिद्धांत का लोप होता है उस जगह समीचीन धर्म क्रिया और सिद्धांत के प्रकाशनार्थ बिना पूछे भी विद्वान को बोलना चाहिये क्योंकि यह सत्पुरूषों का कार्य है।

स्वपरहितमेव मुनिभिर्भितममृतसमं सदैव सत्यं च।
वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनैर्मौनम्।।9।।

अर्थ- ज्ञानी मुनियों को हमेशा स्व पर हितकारी अमृत के तुल्य सत्य वचन ही बोलना चाहिये अथवा मौन धारण करना चाहिए।

सत्यं हितं मितं ब्रूयाद् मर्महिंसादिवर्जितं।
धर्मोंपदेशकं सारं श्रोतृ श्रवण सौख्यदम्।।10।।

अर्थ- ज्ञानियों को श्रोता के कानों को सुखदाई मर्म और हिंसादि से रहित धर्मोंपदेश का सार, सत्य, हितकारी और थोड़ा बोलना चाहिए।

सदा सत्यवादा-दनुल्लंघय वाक्यों,
वचः सिद्धिमिद्धां परिप्राप्य पश्चात्।
त्रिलोक्यैकशास्ता नरश्चारूनादो,
भवेद् निर्वृति श्री वधूरम्यहम्र्य।।11।।

अर्थ- निरंतर सत्य वचनों का उल्लंघन नहीं करने वाला मनुष्य वचनों की सिद्धि को प्राप्त करकेअनन्तर तीनों लोकों पर शासन करने वाला होकर, मुक्ति वधू के घर में सुन्दर वाणी वाला होता है अर्थात मोक्ष को प्राप्त करता हे।

सत्यं वदन्ति मुनयो, मुनिभि र्विद्या विनिर्मिताः सर्वाः।
म्लेच्छानामपि विद्याः, सत्यभृतां सिद्धिमायान्ति।।12।।

अर्थ- मुनि सत्यवदी है और सत्यवादी मुनियों ने ही सारी विद्यायें बनायी हैं तथा सत्य बोलने वाले म्लेच्छों को भी विद्या की सिद्धि हो जाती है।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान, मा ब्रूयात् सत्यमप्रियं।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः।।13।।

अर्थ- सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए और प्रिय असत्य भी नहीं बोलना चाहिए। यही सनातन धर्म है।

मनुष्य का एक सत्य वच नही सैकड़ों दोषों को दूर करने में समर्थ होता है। जैसे मनुष्य मधुर वचनों से संतुष्ट होते हैं। वैसे किसी वस्तु आदि के देने से संतुष्ट नहीं होते है। जगत्पूज्य कल्याण की खान मधुर वचनों के रहते हुए भी कौन बुद्धिमान मनुष्य जगत्निन्द्य कड़वा, असत्य, बोलेगा? जैसे कहा है -

नरस्य चन्दनं चन्द्र-चन्द्रकान्तमणिजलं।
न तथा कुरूते सौख्यं, वचनं मधुरं यथा।।14।।

अर्थ- मनुष्य को चन्दन, चन्द्रमा, चन्द्रकान्त मणि का जल उस प्रकार सुखी नहीं करते जिस प्रकार मधुर वचन सुखी करते हैं।

एकाऽपि कला सकला, वचन कला किं कलाभिरन्याभिः।
वरमेका कामगवी, जरद्गवां किं सहस्त्रेण।।15।।

अर्थ- एक वचन कला ही समस्त कलाओं से युक्त होती है अन्य कलाओं से क्या प्रयोजन है, एक कामधेनु ही श्रेष्ठ होती है अन्य हजारों वृद्ध गायों से क्या प्रयोजन है। व्यक्ति वचनों से ही उपकारी, अपकारी, दुष्ट, सज्जन, धर्मात्मा, पापी, ज्ञानी और अज्ञानी जाना जाता है। अन्य बातों से क्या प्रयोजन है।

जाग्रत्वां सौमनस्यं च, कुर्यात् सद्वगलं परैः।
अजलाशयसम्भूत - ममृतं हि सतां वचः।।16।।

अर्थ- समीचीन वचन ही जागृति एवं परस्पर सौहार्द कर देते हैं क्योंकि सज्जनों के वचन जलाशय के बिना उत्पन्न हुए अमृत केसमान होते हैं।

वश्या भविन्त सत्येन, देवताः प्रणमन्ति च।
विमोचयन्ति सत्येन, ग्रहतः पान्ति च स्फुटम्।।17।।

अर्थ- सत्य वचन से देवता भी वशीभूत होकर नमस्कार करते हैं ओर पिशाच आदि से छुडाकर निश्चित ही रक्षा करते हैं।

नरो मातेव विश्वास्यः, पूज्यों गुरूरिवाऽखिले।
सत्यावादी प्रियो नित्यं, स्वबन्धुरिव जायते।।18।।

अर्थ- सत्यवादी मनुष्य माता की तरह विश्वास करने योग्य होता है, समस्त मनुष्यों में गुरू की तरह पूज्य और नित्य ही अपने बन्धु के समान प्रिय हो जाता है।

भाषमाणो नरः सत्यं, लभते प्रीतिमुत्तामाम्।
बुधानन्दकरीं, कीर्ति, शशांकरसुन्दराम्।।19।।

अर्थ- सत्य वचन बोलने वाला मनुष्य उत्तम प्रीति का पात्र होता है और ज्ञानियों को आनन्द करने वाली चन्द्रमा की किरणों के समान सुन्दर कीर्ति को प्राप्त होता है।

सम्पद्यन्ते गुणाः सर्वे, संयमो नियमस्तपः।
गुणानामालयः सत्यं, मत्स्यामिव नीरधिः।।20।।

अर्थ- जैसे समुद्र मछलियों की उत्पत्ति का स्थान होता है उसी प्रकार सत्य रूपी सागर में संयम, नियम, तप आदि समस्त गुण उत्पन्न होते हैं।

बुधजनपरिसेव्यं, स्वर्ग मोक्षैकद्वारं,
सकलसुखनिधानं, धर्म बींज गुणाढ्यं।
जिनवचनपवित्रं सर्वपापापहारं
शिवकरमतिसारं त्वं वचो ब्रूहि सत्यम्।।21।।

अर्थ- हे भव्य! ज्ञानीजन से सेवनीय, स्वर्ग मोक्ष का अद्वितीय द्वार, समस्त सुख का भण्डार, धर्म का बीज, गुणों से युक्त, सब पापों को दूर करने वाला, मोक्ष प्राप्ति का कारण जिन वचन से पवित्र अति श्रेष्ठ सत्य वचन तुम्हें बोलना चाहिए।

विश्वासायतनं विपत्तिदलनं देवैः कृताराधनम्,
मुक्तेपथ्यदनं जलाग्निशमनं व्याघ्रोरगस्तम्भनम्।
श्रेयः संवचयनं समृद्धिजननं सौजन्यसंजीवनं,
कीत्र्तेःकेलिवनं प्रभावभवनं सत्यं वचः पावनम्।।22।।

अर्थ- विश्वास का आयतन, विपत्ति को नष्ट करने वाला और जिसकी आराधना देव भी करते हैं। मुक्ति पथ का पाथेय जल और अग्न को शमन करने वाला, बाघ, सर्प आदि कस स्तम्भन करने वाला, श्रेष्ठ वचन समृद्धि का जनक, सज्जनता को जीवित करने वाला कीत्रि का क्रीड़ा गृह, प्रभाव का भवन ऐसा सत्य वच नही पवित्र करने वाला है।

सत्यवचनों से प्राप्त समस्त गुण रूपी सम्पत्ति वाले बुद्धिमानों को इन्द्र आदि भी विघ्न करने में समर्थ नहीं होते हैं। क्रूर सर्प आदि काटने में समर्थ नहीं होते हैं। सत्यवादी को अग्नि भी नहीं जलाती है और सिंह आदि भी उपद्रव नहीं करते हैं।

दह्यते न हुताशेन, न नमज्जति वारिणि।
धन्यः सत्यबलोपेतो, नरो नद्याऽपि नोह्यते।।23।।

अर्थ- सत्य के बल से युक्त मनुष्य धन्य है जो कि अग्नि के द्वारा जलाया नहीं जाता है, पानी में डूबता नहीं है, नदी के द्वारा बहाया नहीं जाता है।

तस्याग्निर्जलमर्णवः स्थमरिर्मित्रं सुराः किंकाराः।
कान्तारं नगरं गिरिगृहमहि, र्माल्यं मृगारि र्मृगः।।
पातालं बिलमस्त्रमुत्पलदलं, व्यालः श्रृगालो विषम्।
पीयूषं विषमं समं च वचनं, सत्यांचितं वक्ति यः।।24।।

अर्थ- जो सत्य वचन बोलता है उसके लिये अग्नि जल के रूप में, समुद्र स्थल के रूप में, शुत्र मित्र के रूप में, देव नौकर के रूप में, अटवी नगर के रूप में, पर्वत के रूप में, सर्प माला के रूप में, सिंह मृग के रूप में, पाताल बिल के रूप में , अस्त्र कमल के पत्ते के रूप में, बाघ भेडिया के रूप में, विष अमृत के रूप में विषमता समता के रूप में परिणत हो जाती है।

’’सर्वत्र सर्वदा च सत्यमेव गौरवं लभतें’’
सति सन्ति व्रतान्येव, सुनृते वचसि स्थिते।।25।।

अर्थ- सभी जगह हमेशा सत्य ही गौर प्राप्त करता है, सत्य वचन के रहते हुये ही शेष व्रत रहते हैं।

आस्तामेतदमुत्र सुनृतवचाः कालेन यल्लप्स्यते,
सद्भूपत्व सुरत्व संसृति सरित् पाराप्तिमुख्यं फलं।।
तत् प्राप्नोति यशःशशंकविशदं, शिष्टेषु यन्मान्यतां,
तत्साधुत्वमिहैव जन्मनि परं, तत्केन संवण्र्यते।।26।।

अर्थ- सत्य वचनों के द्वारा पर लोक में राज्य की प्राप्ति देवत्व की प्राप्ति तथा संसार रूपी नदी का पार मुख्य फल है एवं चन्द्रमा के समान निर्मल कीर्ति सज्जनों के मध्य मान्यता तो दूर रहे इसी लोक में जो साधुता प्राप्त होती है उसका वर्णन कौन कर सकता है।

दस प्रकार का सत्य

देशसम्मतिनिक्षेप, नामरूपप्रतीतितः।
संभावनोपमाने च, व्यवहारो भाव इत्यापि।।28।।

अर्थ- देश, सम्मति, निक्षेप, नाम, रूप, प्रतीति, संभावना, उपमान, व्यवहार और भाव के भेद से सत्य 10 प्रकार है।

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जनपद सत्य- जिस देश में जो शब्द रूढ हो रहा है या प्रवृत्ति में आ रहा है। जैसे -ओदन को महाराष्ट्र में ’भातु’ आंध्र प्रदेश में वंटक’ या मुकूडु, कर्णाट में कूलु, द्रविड देश में चोरू इस प्रकार भिन्न देश में भिन्न-भिन्न नाम से कहा जाना जनपद सत्य है। यह निक्षेप सत्य है।

संमति सत्य- बहुत मनुष्य सम्मति या कलपना से उसी प्रकार मानते है। जैसे मनुष्यनी होने परभी राजपत्नि को महादेवी कहना सम्मति सत्य है।

निक्षेप सत्य- जो प्रतिबिम्ब स्थापित किया जाता है वह ’स्थापना’ सत्य है। जैसे - अर्हत, सिद्ध और मुनियों की प्रतिमाएं पापों के नाश के लिए मानी जाती है।

नाम सत्य- अन्य अपेक्षा रहित मात्र व्यवहारक लिए किसी का नाम रखना। जैसे जिनेन्द्र के द्वारा नहीं देने पर भी जिनदत्त नाम रख्ना ’नाम’ सत्य है।

रूप सत्य- यद्यपि पुद्गल में अनके गुण है तथापि रूप की मुख्यता से कहना। जैसे मनुष्य में स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण आदि अनेक गुण विद्यमान है तथापि गोरा रूप होने के कारण गोरा मनुष्य कहना यह ’रूप’ सत्य है।

प्रतीति सत्य- अन्य वस्तु की अपेक्षा से विवक्षित वस्तु को हीन या अधिक कहना ’प्रतीति’ या ’आपेक्षिक’ सत्य कहा जाता है।

संभावना सत्य - सम्भावना की अपेक्षा, वस्तु धर्म का विधान करना जैसे - इन्द्र में जम्बूद्वीप को उलटने की शक्ति है, यद्यपि इन्द्र ने जम्बूद्वीप को न पलटा है न पलटेगा तो भी यह सम्भावना सत्य हे।

उपमान सत्य- किसी प्रसिद्ध पदार्थ की समानता अन्य पदार्थ में कहना जैसे- पल्य, सागर आदि उपमान सत्य है।

व्यवहार सत्य- नैमग आदि नयों में से किसी नय की मुख्यता से वस्तु को कहना जैसे-नैगम नय की मुख्यता से ’भात’ पक रहा है, यह व्यवहार सत्य हे।

भाव सत्य- अतीन्दिय पदार्थ के सम्बंध में सिद्धान्त वचन अनुसार विधि निषेध क संकल्प रूप परिणाम सो भाव है उस भाव को हने वाले वचन भाव सत्य है अथावा हिंसादि दोषें से रहि जो सत्य अािवा असत्य बोला जाता है वह भाव सत्य हे।

सत्य वचन का फल

सुस्वरः स्पष्टवागिष्ट मतव्याख्यानदक्षिणः।
क्षणद्निर्जितारातिः असत्यविरते र्भवेत्।।29।।

अर्थ- असत्य का त्यागी अच्छा स्वर, स्पष्ट वचन, इष्ट मत के व्याख्यान में चतुर, क्षण भर में शत्रु को जीतने वाला होता है।

भाषा के बारह भेद

हिंसाद्यकर्तुः कर्तु र्वा, कर्तव्यमिति भाषणं।
अभ्याखनं प्रसिद्धो हि, वागादि कलहः पुनः।।30।।

अर्थ- हिंसादि करने वाले अथवा नहीं करने वाले को कहना ही ऐसा करो यह वचन ’अभ्याख्यान’ कहलाता है। और वचनों से झगडा करना कलह वाक् कहलाता है।

दोषाविष्करणं दुष्टैः, पश्चात् पैशुन्यभाषणम्।
भाषा बद्धप्रलापाख्या, चतुर्वर्गविवर्जिता।।31।।

अर्थ- चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) से रहित व्यर्थ वचन बद्धप्रलाप कहलाते हैं। दुष्ट पुरूषों के द्वारा दोषों को प्रगट करने वाले जो वचन बोले जाते हैं वे पैशून्य वाक् कहे जाते हैं।

रत्यत्यभिधे वोभे, रत्यरत्युपापदिके।
आसज्यते यथार्थेषु, श्रोता सोपाधिवाक् पुनः।।32।।

अर्थ- दूसरों को ठगने वाले ’निकृति वचन, कहलाते हैं। गुणाधिकों में नहीं झुकने वाले वचन ’अप्रणति वाक्’ कहलाते हैं।

याप्रवर्तयति स्तेये, मोषावाक् सा समीरिता।
सम्यग्मार्गे नियोक्त्री या, सम्यग्दश्ज्र्ञनागसौ।।34।।

अर्थ- जो वचन चोरी में प्रवृत्ति कराते हैं वे मोष वचन कहलाते हैं। जो समीचीन मार्ग में लगते हैं वे ’सम्यग्दर्शन वचन’ कहलाते हैं।

मिथ्यादर्शन वाक् सा या, मिथ्यामार्गोपदेशिनी।
वाचो द्वादशभेदायाः वक्तारो द्वीन्द्रियदयः ।।35।।

अर्थ- खोटे मार्ग का उपदेश करने वाले वचन ’मिथ्यादर्शन वक्’ कहलाते हैं। बारह प्राकर की भाषा के द्वीन्द्रियादि वक्ता होते हैं।

चार प्रकार का असत्य

मुंचासत्यं वचः साधो! चतुर्भेदमपि त्रिधा।
संयमं विदधानोऽपि, भाषादोषेण बाध्यते।।36।।

अर्थ- हे साधो ! चारों प्रकार के असत्य वचन को मन-वचन-काय से छोड़ो क्योंकि संयम को धारण करता हुआ भी संयमी भाषाा के दोष से बाधित किया जाता है।

प्रथमं तद्वचेऽसत्यं,यत् सतः प्रतिषेधनम्।
अकाले मरणं नास्ति, नराणामिति यद्वचः।।37।।

अर्थ- विद्यमान भी वस्तु का निषेध करना सद् अपलाप नाम का पहला असत्य कहलाता है। जैसे - मनुष्यों का अकाल मरण नहीं होता है।

द्वितीयं तद्वचोऽसत्यं अभूतोदभाावनं मतं
अस्त्यकाले सुराणां च मृत्युरित्येवमादि यत्।।38।।

अर्थ- अवद्यिमूान वस्तु का सद्भावन बतालाना जैसे देवों का अकाल मरण होता है। यह असद् उद्भावन नामक द्वितीय असत्य कहलाताह े।

तृतीयं तद्वचोऽसत्यं, यदनालोच्य भाषते।
पदार्थ मन्य जातीयं, गौर्वाजीत्येवमादिकम्।।39।।

अर्थ- बिना विचरे पदार्थ को अन्य जाति का कहना जैसे बैल को घोड़ा कहना अन्य रूपाभिधान नामक तीसरा असत्य कहलाता है।

सावद्यं गर्हितं वाक्यमप्रियं च मनीषिभिः।
त्रिप्रकारमिति प्रोक्तं, तुरीयकमसूनृतम्।।40।।

अर्थ- चैथा असत्य सावद्य, गर्हित और अप्रिय के भेद से बुद्धिमानों ने तीन प्रकार का कहा है।

प्राणिघातादयो दोषाः प्रवर्तन्ते यतोऽखिलाः।
सावद्यं तद्वचो ज्ञेयं, षड्विधारम्भवर्णनम्।।41।।

अर्थ- प्राणियों के घात आदि समस्त दोष जिससे प्रवृत्त होते हैं। ऐसे छह प्रकार के आरम्भका वर्णन करने वाला वचन सावद्य वचन कहलाता है।

कर्कशः निष्ठुरं हास्यं, परूषं पिशुनं वचः।
ईष्र्यापरमसंबन्धं, गर्हितं सकलं मतम्।।42।।

अर्थ- कठोर, निष्ठुर, हास्य युक्त, परूष (रूक्ष) दुष्टता अथवा निन्दारूप ईष्यागर्भित ये सभी निन्दनीय वचन कहे गये है।

अवज्ञाकारणं वैरं, कलहत्रासवर्धकम्।
अश्रव्यं कटुकं ज्ञेय-मप्रियं वचनं बुधैः।।43।।

अर्थ- अपमान काकर, वैर कारमक, कलहकारक, भयकारक कानों को अप्रिय लगने वाले ये सभी वचन ज्ञानियों को अप्रिय वचन जानना चाहिए।

भाषा के चार भेद

असत्य सत्यंग किंचित् किंचित सत्यमसत्यगं।
सत्यसत्यं पुनः किंचित् किंचित् सत्यासत्यमेवा।।44।।

अर्थ- कोई वचन असत्य-सत्य कोई सत्य-असत्य कोई सत्य-सत्य, कोई असत्य-असत्य इस प्रकार भाषा के चार भेद होते हैं।

1. जो असत्य होकर भी सत्य है जैसे भात पक रहा है, वस्त्र बुना जा रहाहे।

2. जो सत्य होकर भी असत्य है जैसे - पन्द्रह दिन में यह वस्तु मैं तुम्हें दे दूंगा ऐसा विश्वास दिलाकरएक माह या एक वर्ष में देना, दे दिय इसलिए सत्य है किंतु जब कहा था तब नहीं दिया इसलिए असत्य है।

3. जो वस्तु जैसी है जिस देश, काल, आकार प्रमाण में मानी गई है: उसी रूप में स्वीकार करना सत्य-सत्य कहलाताह ।

4. जो वस्तु अपने पास नहीं है, वह कल मैं तुम्हें दूंगा ऐसा कहना असत्य-असत्य है।

तुरीयं वर्जयेन् नित्यं, लोकयात्रा त्रये स्थितः।
गृहाश्रमी प्रवर्तेत, गुण, दोषौ विचारयन्।।46।।

अर्थ- तीन प्रकार के सत्य का प्रयोग करने वाला लोकिक व्यवहार में कुशल गुण द्वेष का विचार करता हुआ गृहस्थ असत्य-असत्य का हमेशा त्याग करें।

सत्यासत्याप्युभयी, सानुभयी स्चाच्चतुर्धा वाणी।
किंतु तृतीया योग्य, सत्यव्रतधारिणां गृहिणाम्।।47।।

अर्थ- सत्य, असत्य, उभय, अनुभय के भेद से वाणी चार प्रकार की होती है, किंतु व्रती ग्रहस्थों को तीसरी उभय भाषा बोलना चाहिए।

दश प्रकार की खोटी भाषा

कर्कशा परूषा कटवी निष्ठुरा परकोपिनी।
छेदंकरा मध्यकृशाऽतिमानिन्यनयंकरा।।
भूतिहिंसाकरी वेति दुर्भाषां दशधा त्यजेत्।
हितं मितमसंदिग्धं, स्याद् भाषा समिति वदन्।।48।।
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अर्थ- कठोर, रूक्ष, कड़ीव निर्दयी, दूसरों को क्रोध कराने वाली, गुणों का नाश करने वाली, हृदय में ठेस पहुंचाने वाली, अतिमान युक्त, खोटे मार्ग पर ले जाने वाली, प्राणियों की हिंसा कारक इन दस प्रकार की भाषा का त्याग करना चाहिए क्योंकि भाषा समिति का धारक हितकारी थोड़ा और सन्देह रहित बोलता है।

1. कर्कशा- संताप जनक, जैसे-तुम मूर्ख हो, बैल हो कुछ नहीं जानते हो इत्यादि बोलना।

2. परूषा- मर्म विदारक, जैसे- तुम अनेक दोषों से दुष्ट हो इत्यादि बोलना।

3. कटुका- भय उत्पादक, जैसे तुम जाति हीन हो, निर्धन हो इत्यादि बोलना।

4. निष्ठुरा - मैं तुम्हें मार डालूंगा, शिर काट लूंगा इत्यादि बोलना,

5. पर कोपिनी - क्रोध उत्पादक, जैसे तुम्हारा कोई तप है, हंसता रहता है, निर्लज्जह है, इत्यादि बोलना।

6. छेदकंरी- वीर्य शील गुंणों का नाश करने वाली अथवा अविद्यमान दोषो को प्रकट करने वाली भाषो बोलना।

7. मध्यकृशा - ऐसी कठोर भाषा बोलना जो हड्डी को भी पतना करती है।

8. अतिमानिनी - अपनी प्रशंसा पर की निन्दा युक्त भाषा बोलना।

9. अनयंकरा- शील भंग करनेवाली अथवा मत्रता नष्ट करने वाली भाषा बोलना।

10. भूतहिंसाकरी - प्राणियों के प्राणों का वियोग करने वाली भाषा बोलना।

असत्य निंदा

असत्यमप्रत्ययमूलकारणं, कुवासनासद्म समृद्धि वारणं।
विपन्निदानं परवंचनोर्जितं, कृतापराधंकृतिभि र्विवर्जितम्।।49।।

अर्थ- असत्य अविश्वास का प्रथम कारण है, खोटी वासना का घर है, उन्नति को रोकने वाला है, विपत्ति का कारण है, दूसरों को ठगने में प्रेरित करने वाला है, अपराध है, अतः बुद्धिमान असत्य से दूर रहते हैं।

असत्यवादिनः कश्चिन् न विश्वसिति सर्पवत्।
सर्वै र्निन्द्यो मृषावादी, पारदारिकवद् भवेत्।।50।।

अर्थ- असत्य बोलने वाले का सर्प की तरह कोई विश्वास नहीं करता और मृषावादी पर स्त्री गामी की तरह सब के द्वारा निंदनीय होता है।

वक्तव्यं वचनं सत्यं, धर्मसंवेगकारणं।
धर्मिभ र्धर्मसिद्धयर्थं, नासत्यं धर्मनाशकृत्।।51।।

अर्थ- धर्मोत्माओं को धर्म की सिद्धि और संवेग का कारण सत्य वच नही बोलना चाहिए, धर्म का नाश करने वाला असत्य नहीं बोलना चाहिए।

असत्यवादी के मर जाने पर भी अपयश नष्ट नहीं होता, एक बार उत्पन्न हुयी अपकीर्ति देवों के द्वारा भी नीं रोकी जा सकती, बहुत दूध में गिरी हुयी एक विष की बूंद के समान थोड़ा सा भी असत्य वचन बहुत भारी हानि करता है।

एकेनासत्य वाक्येन,सत्यं बह्यपि हन्यते।
सर्वत्र जायते नित्यं, शांकितोऽसत्य भाषकः।।52।।

अर्थ- एक असत्य वाक्य से बहुत भी सत्य नष्ट हो जाता है, एवं असत्यवादी सर्वत्र शंका युक्त होता है।

अप्रत्ययो भयं बैर-मकीर्तिमरणं कलिः।
विषादो मत्सरः शोकः सर्वेऽसत्यस्य बान्धवाः ।।53।।

अर्थ- अविश्वास, भय, बैर, अपकीर्ति, मरण, कलह, विषाद, मात्सर्य, शोक ये सभी असत्य के सहयोगी हैं।

आयासरसनाच्छेद - सर्वस्वहरणादयः।
इहासत्येन लभ्यन्ते, परत्र नरकावनिः ।।54।।

अर्थ- असत्य से इस लोक में परिश्रम, रसना छेद, धन हरण आदि और पर लोक में नकर की भूमि प्राप्त होती है।

कलिलस्याश्रवद्वारं, वितथं कथितं जिनैः।
निष्पापो ह वसुस्तेन, श्रितेन नरंक गतः।।55।।

अर्थ- जिनेन्द्र भगवान ने असत्य को पाप आश्रव का द्वा कहा है, निष्पाप राजा वसु ने असत्य का आश्रय लेकर नरक प्राप्त किया था।

मुण्डी जटी शिखी नग्न, श्चीवरी जायतां नरः।
विडम्बनाऽखिला साऽस्य, वितर्थं भाषते यदि ।।56।।

अर्थ- मनुष्य शिर मुडा ले, जटा रख ले, शिखारखा ले अथवा वस्त्र धारण कर ले यदि झूठ बोलात है तो समस्त विडम्बना ही है।

कालकूटं यथान्नस्थ्य, यौवनस्य यथा जरा।
गुणानां विद्धि सर्वेषां, नाशकं वितर्थं तथा।।57।।

अर्थ- जैसे कालकूट जहर भोजन को नष्ट कर देता है, बुढापा जवानी को नष्ट कर देता है उसी प्रकार झूठ समस्त गुणों को नष्ट कर देता है।

स्वमातुरप्यविश्वास्यो, मृषा भाषणलालसः।
शेषाणां किमु लोकानां, न शत्रुरिव जायते।।58।।

अर्थ- झूठ बोलने वला मनुष्य अपनी माता का भी विश्वासपात्र नहीं होता है तब शेष लोगों के लिए क्या वह शत्रु के समान नहीं होता है अर्थात् अवश्य होता है।

असत्य वचन का फल

मूकता मतिवैकल्पयं मूर्खता बोधविच्युतिः।
वाधिर्यं मुखरोगित्व-मसत्यादेव देहिनाम्।।59।।

अर्थ- गूंगापन, बुद्धि की विकलता, मूर्खता, अज्ञानता, बधिरता, तथा मुख में रोग इत्यादि जो जीवों के होते हैं, वे सब असत्य बोलने के पाप से होते हैं।

विनष्टजिह्वाः परिनिद्यवाचः, खरोष्ट्रमार्जर विकाकनादः
विवके शून्या जडमूकभावा, नरा भवन्त्यत्र मृषाभिधानात्।।60।।

अर्थ- जिह्वा रहित (एकेन्द्रिय) निन्द्य वचन, गधा, ऊंट, विलाव, पक्षियों में कौओं के समान शब्द, विवके शून्य मूर्ख, गूंगा आदि अवस्थाओं वाला प्राणी झूठ बोलन से होता है।

चोर से यह चोर है, अंधे से यह अंधा है, पापी से यह पापी, नपुंसक से यह नपुंसक है, विधुरसे यह विधुर है इत्यादि वचन क्राोध उत्पत्ति के कारण होने सेसज्जनों को नहीं बोलना चाहिए।

अहाजर संज्ञा को बढाने वाली इन्द्रिय सुख को करने वाली आहार कथा,रौद्र कर्मों से उत्पन्न युद्ध कीपोषक रौद्रध्यान करने वाली राजकथा, चैरकथा, देश कथा, धन अर्जन के लिए कुशास्त्र कथान ही करना चाहिए और न सुनना चहिए, जिनेन्द्र भगवान, गणधरदेव तथा साधुओं की कथा को छोडकर सज्जनों कोदूसरी कथा नहीं करना चहिए। विकथ करने वाले पुरूषों का मतिश्रुत ज्ञान नष्ट हो जाता है। महान पापका आश्रव होता है तथा व्यर्थ पाप आश्रव करने वाली स्व पर को दुःखी करनेवाली पृष्ठ मांस भक्षण के समान परनिंदा सत्यवादियों कोकभी नहहं करना चाहिए एवं स्वभाव से निर्दोश (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) चतुर्विध संघ की भूल कर भी निंदा नहीं करनी चाहए, अपकार करने वाले, कठोर, निन्दासूचक, पापोत्पाद आक्षेप करने वाले जो वचन है वे सत्य होने पर भी असत्य ही है, जो वचन दूसरों को पीडाकारक , पुरूष, कर्ण को अप्रिय लगने वाले, दुःखदायी, अनिष्ट वचन चतुर पुरूषों को कभी नहीं बोलना चाहिए, जिस वाणी से दूसरे प्राणियों को पीडा और वध होता है अपनी आत्मा संक्लेशों के समुद्र में गिरती है ऐसी वाणी योगियों को नहीं बोलना चाहिए। असत्य पाप से मुनष्य मूर्ख होता है। उत्कर्ष घट जाता हैं तीनों लोकों मं अपयश होता है। लोक में विष भक्षण कथंचित अच्छा है किंतु धर्म विरोधी पाप की खान असत्य भाषण अच्छा नहीं है। चिर दीक्षित साधु बहुत ज्ञान एवं तप से विभूषित होने पर भी यदि झूठ बोलताहै तो चाण्डाल से भी निन्दनीय है। महाभारत में गृध्र तथा गोमायु का संवाद आया है- गृद्ध रात में नहीं खाता था। सूर्य अस्त हो जाय इसलिए श्मशान में मृतक पुत्र को लाये हुए परिवार के लागों से गृद्ध बोला! गृद्ध तथा श्रृगालों से भरे औ समस्त प्राणियों को भय उत्न्न करनेवाले श्मशान में ठहरना व्यर्थ है। मृत्यु को प्राप्त हुआ कोई भी प्राणी यहां आकर जीवित नहीं हुआ। श्रृंगाल ने सोचा सूर्य अस्त हो जायेगा तो मुझे अकेले खाने को मिल जायेगा। अतः वह बोला अरे मूर्ख! अभी सर्यू विद्यमान है। तुम लोग बालक से स्नेह करो। यह मुहूर्त अनेक विघ्नों से भरा है। सोने के समान कदाचित तुम्हारा बालक जीवित हो जाय, लोग स्वार्थ वश वस्तु के स्वरूप को छिन्न भिन्न कर देता है। प्रमाद और कषाय पर विजय प्राप्त हो जाय तो लोग असत्य न बोले।

सत्यवादीह चामुत्र, मोदते धनदेववत्।
मृषावादी सधिक्कारं, यात्यधो वसुराजवत्।।61।।

अर्थ- सत्यवादी इस लोक और परलोक में धनदेव की तरह आनन्दित होता है और असत्यवादी निन्दा को प्राप्त होकर राजा वसु की तरह नरक में जाता।

नरकगृहकपाटं, नाकमोक्षैकमित्रं, जिनगणधर सेव्यं, सर्व विद्याकरं भो!
स्वपर हितमदोषं, जीवहिंसादिदूरं, त्वमपि वद सुसारं सत्य वाक्यं सुखाया।।62।।

अर्थ- हे भव्य! नरक रूपी घर का दरवाजा, स्वर्ग और मोक्ष का मित्र है, जो गणधरों द्वारा सेवनीय, समस्त विद्याओं की खान स्व और पर का हितकारी, नर्दोष, जीवों की हिंसा से रहित, सुख की प्राप्ति के लिए तुम भी सारभूत सत्य वचन बोलो।

स्वयमेव समायान्ति सम्पदः सत्यवादिनां।
किं चित्रं यद् यदाऽऽयान्ति, हंसः पद्माकरं वनम्।।63।।

अर्थ- सत्यवादियेां को सम्पदाएं स्वयम् ही प्राप्त हो जाती है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है जैसे हंस कमल युक्त तालाब में स्वयम् आ जाते हैं।

ज्ञानं विद्या विवेकं च, सुस्वरत्वं चः पटुम्।
वादित्वं सुकवित्वं च सत्याद् जीवा भवन्त्यहो।।64।।

अर्थ- हे भव्य जीवो! ज्ञान, विद्या, विवके, सुस्वर, स्पष्ट वचन, वादित्व कवित्व आदि से युक्त जीव सत्य से ही होते हैं।

उत्तम सत्य धर्म - कथानक

1.भीमराव नामक अटवी में एक मुनिराज तप कर रहे थे, मुनिराज ध्यान मुद्रा से बाहर आये थे कि इतनेमें उनके सामने से दौड़ता हुआ एक मृग निकला। मुनिराज ने सोचा यह मृग शायद शिाकरी के क्षरा सताया गया है इसलिये चैकडी भर रहा है। थोड़ी ही देर हुई थी कि उस रास्ते से एक शिकारी आता हुआ दिखाई दिया। मुनिराज नेसोचा कि यह शिकारी ये न पूंछ लेकि इस रास्ते से मृग गया है। तब मुनिराज तत्काल खडे हो गये। शिकारी पास में आया। तो जो बात महाराज ने सोची थी वह बात शिकारी ने पूंछ ही ली तब मुनिराज ने उत्तर दिया कि मैं जब से खड़ा हूं तब से कोई मृग यहां से नहीं निकला। आप समझे गये होंगे जब हिरण निकला था तब महाराज बैठे थे, और जब शिकारी आया तो महाराज कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े थे। इस प्रकार मुनिराज ने युक्ति द्वारा सत्य महाव्रत की निर्दोष रूप से रक्षा की।

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2. एक चोर जंगल से गुजर रहा था, वहां पर उसको मुनिराज के दर्शन हो गये। वह चोर मन में सोचता है कि ये कोई देवता है या पहुंचे हुए संत हैं। ऐसा भयानक जंगल में निद्र्वन्द होकर बैठे हैं। जरूर कोई सिद्ध पुरूष हैं।- एक मिनिट के लिये रूका महारा जके पास बैठा तो उठने को मन नहीं हुआ। तभी महारा ने अपना ध्यान खोला औरचोर को सामने बैठा पाया। उसने नमस्कार किया- महराज ने धर्म वृद्धिरस्तु आशीर्वाद दिया। चोर बोला भगवन! धर्म किसे कहते हैं? मुनिराज ने कहा ’’चारित्रं खलुधम्मो’’ महाराज ने पूंछा - आज क्या करते हो? उसने कहा- चोरी। महराजन ने कहा सब झूठ बोलना छोड दो। चोर ने झूठ का त्याग करदिय और वापिस घर आ गया। दूसरे दिन राजा के महल में चोरी करने गया। पहरेदान ने पूंछा तुम कौन हो- उने कहा मैं चोर हूं। पहरेदार ने सोचा शायद राजा का संबंधी होगा इसलिए मजाक कर रहा है- आगे चला गया इसी प्रकार अनेक पहरेदारों से भेंट हुई सबको चोर बताया सबनेराजा का संबंधी समझकर कुछ नहीं कहा। वह राजमहल से माल चुराकर ले जा रहा था तब भी पहरेदारों ने पूछा क्या ले जारहे हो- उसने कहा चोरी का माल। पहरेदारों ने सोचा राजा ने इसकी भेंट दी होगी। यह मजाक कर रहा है। महल के बाहर हो गया। सोचता है सत्य बोलने पर भी मुझे किसी ने चोरी करने से नहीं रोका। राजमहल में शोर मच गया कि चोरी हो गयी, पता लगाया चोर को पकड़ कर राजा के पास लाया गय चोर ने सत्य बोला, राजा ने चोर की सत्यात पर प्रसन्न होकर बिना दण्ड के ही छोड़ दिया। चोर भी सत्य धर्म के प्रति श्रद्धावान हो गया और संसार के माया जाल को छोड़कर मुनिव्रत धारण कर आत्म कल्याण में तत्पर हो गया।

3. एक पुरूष अपने हाथ में एक चिडिय लेकर मुनिराज के पास पहुंचा, मुनिराज से कहा कि आज मैं आपकी परीक्षा करूंगा कि आप ज्ञानी हैं या नहीं। उस व्यक्ति ने चिडिया के गले में अगूंठा लगाकार कहा बताओं यह चिडिया जीवत है या मरी हुई? मुनिराज ने सोचा कि यदि मैं जीवित कहता हूं तो यह अंगूठा दाबकर चिडिया को मार देगा और मरी हुई बताकर मेरा उपवार करेगा और चिडिया की हत्या हो जायगी। यह जानते हुय भी कि यह जीवित है तो भी यही कहा कि यह मरी हुई है। यह सुनते ही उस पुरूष ने चिडिया को अपने हाथ् से छोड दिया, वह उड गयी, उसने कहा महाराज आप कुछ नहीं जानते, मैं जीवित चिडिया अपने हाथ में लिए था अप मरी बता रहे थे, पर यहां मुनिराज का आशय देखिये - अभिप्राय कितना निर्मल था, उस चिडिया के प्रति कैसा करूणा भाव था। यहां झूठ बोलने पर भी सत्य ही माना जायेगा झूठ नहीं। वचनों की सत्यता और असत्यता अभिप्राय से देखी जाती है।

4. लोकापवाद के कारण राम ने सीता जी की अग्नि परीक्षा का निर्णय लिया और अग्नि कुण्ड बन कर तैया हुआ, अग्नि प्रज्वलित की गयी, उसकी लपटे मानो चारों दिशाओं को स्पर्श कर रही थी, सारी प्रजा भयभीत थी। तभी सीता जी को अग्निकुण्ड के निकट लाया गया, सीता कुण्ड के नकट खडी होकर बोली- हे अग्ने! यदि मैं असत्य हूं तो मैं पहले ही जल गई, तू क्या जलायेगी- यदि मैं सत्य ह ंतो कोई मेरा बाल बांका नहीं कर सकता, इतना बोल कर, सीता अग्नि में कूद पडी तभी मेषकेतु देव ने आकर सीता जी की सत्यताको प्रगट कर दिया अर्थात् उस भयंकर अग्नि को जल के रूप में परिवर्तित कर दिया। सीता सत्यता की परीक्षा देकर मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करने के लिएवन की ओर प्रयाण कर गई और पृथ्वी मति आर्यिका से दीक्षा लेकर आत्म कल्याण में संलग्न हो गयी।

5. कौशाम्बी नगरी में ध्णनदत्त नाम का सेठ रहता था, सेठानी का नाम प्रियदत्ता था। उस दम्पत्ति को एक नौकर की आवश्यकता था। कई दिन नौक्र की खोज में निकल गये, एक दिन चिन्तामन नाम का एक व्यक्ति सेठ के पास आया और बोला सेठ जी मैं नोकरी करना चाहता हूं। सेठ जी ने पूंद - अप कितना वेतन लोगे? चिन्तामन ने कहा हजूर! वेतन मैं कुछ नहीं चाहता, सिर्फ रोटी, कपड़ा, और मकान चाहता हूं। इसके साथ वर्ष में एक बार झूठ बोलूंगा। सेठ जी ने चितामन की मांकग को मंजूर कर लिया। अब चिंतामन ईमानदारी के सााि दत्तचित्त होकर काम करने लगा। सेठ जी चिन्तामन के कार्य से प्रसन्न थे और वे अपने बेटे की तरह स्नेह रकने लगे। एक वर्ष पूर्ण होने वाला था, चिन्तामन सबसे पहले सेठानी से मिला- और बोला सेठानी जी बडे खेद की बात है- सेठ जी वेश्यागामी हो गये हैं दिन भर में दुकान संभालता हूं और सेठ जी वेश्या के यहां बैठे रहते हैं,सुबह शाम भोजन करने घर आ जाते हैं। सेठानी ने यह अशुभ समाचार चिंता व्यक्त की तब चिंतामान ने कहा आप चिन्तित न हो मैं आपको उपाय बता देता हूं जिससे सेठ जी दुबारा वहां नहीं जा सकेंगे सेठानी ने कहा बताइये, नौकर बोला आप ऐसा करना कि जब सेठ जी रात्रि में सो जाये तब उनकी एक मूंछ काट देना जिससे उनका सुन्दर रूप बिगड जायेगा और वेश्या उनको पसंद नहीं करेगी, तो सेठ जी वेश्या के यहां आना जाना बंद कर देंगे। इस प्रकार सेठानी से कहकर चिंतामन सेठ जी के पा चला गया। उधर सेठ जी से बोला कि - सेठ जी! सेठानी का आचरण बहुत गंदा है। और आज में आपको मारने का षडयंत्र रचा है। आज आप सावधानी से सोना, नही तो अपने प्राण गंवाना पडेंगे।

सेठ जी रात्रि को घर पहुंचे और सीधे शय्या पर लेट गये, कुछ देर में सोने जैसी हालत में हो गय। जब सेठानी ने देखा कि सेठ जी सो गये । तब उसने उस्तरा लेकर मुख पर पडे हुए कपडे को हटाया, और मूंछ बनाने का प्रयत्न करने लगी, इतने में सेठ जी की नींद खुल गयी ।तब सेठ ने सोचा कि चिंतामन ने सही कहा था कि आज आपकी मौत है। सेठ जी ने कुपित होकर सेठानी पर तलवार चलाना चाही तभी चिन्तामन ने उनका हाथ पकड लिया ओर बोला कि यह क्या अन्याय कर रहे हो, मैंने आपको संके किया था कि मैं एक साल में एक झूठ बोलूंगा। यह हमारा वेतन था जो हमने पा लिया। यह सुनकर सेठ जी शांत हो गये अब विचार करे कि जब एक झूठ बोलने पर प्राणों को गमाने का अवसर आ गया तब जो लोग एक दिन में कई बार झूठ बोलते हैं उनकी क्या दशा होगी और वे कितना पाप कमाते होंगे।

6. राजा, मंत्री, कोतवाल और सिपाही पूराी सेना भटक कर जंगल में चले आ रहे थे। सहसा एक भयानक सिंह नजर आया। इस झमेले में चारों व्यक्ति बिछुड गये। सन्ध्या हो रही थी। एक अंधा साधु कुटिया के द्वार पर बैठा था। थका हुआ राजा वहां आय। बोला, ’’महात्मन! क्या कोई व्यक्ति यहां से गया है, साधु बोला महाराजाधिराज! अभी तो कोई नहीं गया। राजा चला गया। कुछ देर बात वहीं मंत्री भी आया और बोला ’संत जी’। क्या इधर से कोई गया है। संत जी बोले, ’’मंत्री महोदय’’, अभी महाराज आये थे, मैंने उन्हें नगर जाने का मार्ग बता दिया था। कुछ देर बात कोतवाल ने आकर पूछा, सूरदास जी! कोई इधर अय था?’ कोतवाल हब! आगे नगर जाने का रास्ता है, महाराज और मंत्री उधर ही गये हैं, साधु ने उत्तर दिया सिपाही भी वहीं पहुंचा और बोला, ’अबे ओ अंधे! कोई गया है इधर से? सिपही जी! आगे नगर जाने वाला राजमार्ग है। महाराजा मंत्री जी और कोतवाल साहब उधर ही गये हैं। कुछ देर बाद चारों मिले तो घटन खुली। सभी को आश्चर्य था कि साधुन ने अंधा होकर भी सभी को कैसे पहचाना? यदि वह नकली अंधा है तब सभी की वेशभूषा इतनी खराब थी कि पहचानना मुश्किल था। दूसरे दिन सभी साधु की कुटिया पर पहुंचें। तब मंत्री ने पूंछा, आपने हम लोगों को कैसे पहचाना, साधु ने कहा मनुष्य की जबान उसके मन का वर्ण कर देती है। जो जितना हल्का होता है उसकी भाषा उतनी ही हल्की होती है। एक ही व्यक्ति को राजा की महानता ’महात्मन’ कह कर बुलाती है, मंत्री संत जी कहते हैं। कोतवाल का हृदय सूरदाज जी कह कर भर जाता है और सिपाही ’अबे ओ अंधे कहने को विवश है। सभी लौट आये, कुछ सुनकर, कुछ गुनकर कि अपनी बोली ही अपने को उठाती है।

7. जम्बू द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र सम्बंधी पुष्कलावती देश की पुण्डरीकड़ी नगरी में जिनदेव और धनदेव नामक अलप धन वाले दो व्यापारी रहते थे, धनदेव सत्यवादी था। एक बार वे दोनों जो लाभ होगा उसे आधा-आधा ले लेवेंगे ऐसी बिना गवाह की व्यवस्था कर दूर देश मं चले गये। बहुत धन कमाकर वापिस लौटे। जिनदेव धनदेव को आधा भाग नहीं देना चाहता था। झगडे के न्याय की मांग राजा तक पहुंची। गवाह न होने से जिनदेव बोला मैंने आधा नहीं उचित भाग देने को कहा था। धन देव ने सत्य कहा कि आधा देना निश्चित हुआ था। हाथों पर अंगारे रखे गये इस दिव्य न्याय से धन देव निर्दोष सिद्ध हुआ अतः उसे सब धन दिया गया। राजा सहित सभी लोगों ने धन देव की पूजा प्रशंसा की सत्य धर्म के प्रभाव से वह अति विख्यात हुआ अतः हे भव्य जीवों सत्यव्रत का पालन करो।

उत्तम सत्य अमृत बिन्दु

1. सत्य वचन ही सरस्वती की उपासना है।

2. अपमान के वचनों को सुनकर भूख-प्यास खत्म हो जाती है। और सम्मान के वचन सुनकर भूख-प्यास खुल जाती हैं

3. मंत्र के वचनों से सर्प बिच्छू आदि के जहर भी उतर जाते हैं।

4. सत्यवचन से बोलने की शक्ति तथा वाणी सम्बंधी गुण प्राप्त होते हैं।

5. असत्य वचन से गूंगा, तोतला, दुःस्वर, एकेन्द्रिय आदि में जन्म तथा वाणी सम्बंधी दुर्गुण प्राप्त होते हैं।

6. असत्य के दो कारण है। 1. अज्ञान 2. कषाय

7. जब कत्र्तृव्य बुद्धि आती है तो व्यक्ति कुटुमब् आदि के पोषण के लिए झूठ बोलता है।

8. हे भव्य! वस्तु की स्वतंत्रता को देखते हुए अभिप्राय क्यों नहीं बदलता है।

9. जिसका हृदय कोमल होता है, उसकी वाणी कड़वी कैसे हो सकती है? पर जिसकी वाणी मधुर है उसका हृदयाकेमल हो यह जरूरी नहीं।

10. असत्य वचन से इस लोक में अपमान पर लोक में दुर्गति होती है सत्यवचन से इस लोक में सम्मान पर लोक में सदगति होती हैं

11. झूठ बात का दुराग्रह करने वाले को दो बातें सुलभ हैं,

1. इस लोक में स्थाई अपयश

2. पर लोक में दीर्घ काल तक दुर्गति।

12. एक बार बोला गया असत्य अनेक बार के सत्य को भी झूठ कर देता है।

13. सत्य सब धर्मों में प्रधान है, संसार समुद्र से तैरने के लिए जहाज के समान हैं

14. अंत में सत्य की ही विजय होती है झूठ की नहीं।

15. मौन रखने से संसार का आधा सम्बंध छूट जाता हैं

16. मूर्ख गप्पों से विद्वान सत्य से, अहंकारी प्रणाम से प्रभावित होता है।

17. अनुभवी हित की बात करता है फालतू नहीं।

18. जिसका मन वश में होगाउसके वचन वश में होंगे।

19.सात मीन चलने में जितनी शक्ति खर्च होती है उतनी शक्ति एक घंटा बोलने से खर्च हो जाती है।

20. प्रायः कम बुद्धिमान ज्यादा बोलता है ज्यादा बुद्धिमान कम बोलता है।

21. लड़ाई के समय बोलना आग में घी डालने के समान है।

अमृत दोहावली

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हृदय सांच है, ताके हृदय प्रभु आप।।1।।

कोयल काको देत है, कागा काको लेता।
मीठी वाणी बोलकर, जग अपनो कर लेत।।2।।

तोते का संकेत
मैं जो बंधन में पड़ा, इसका दोषी कौन।
यह वाणी का दोष है, सबसे बेहतर मौन।।3।।
वाणी ऐसी बोलिए , मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।।4।।

सत्य अहिंसा प्रेम का, हमसे कितना नाता है।
दीवालों पर लिखते हैं, दीवाली पर पुत जाता है।।5।।

बहु सुनवो कम बोलवो, यो है चतुर विवेक।
तब ही तो विधि न रच्यो,दोय कान जीभ एक।।6।।

पर की निंद सरल है, कठिन स्वयं की जान।
जो अपनी निंदा करे, जग में वही महान्।।7।।

सत्य धरम अपयश क्षयकारी, सत्य सुरक्षा करै हमारी।
सत ही का सुनकर जस गावा, सो सत धर्म जजौ सुध भावा।।8।।

सत्य धरम जग पूज्य बताया, सत्य श्रेष्ठ व्रत जिन मुनि गाया।
सत्य धरम भवदधि को नावा, सो सत धर्म जजौ सुध भावा।।9।।

बोली बोल अमोल है, बोल सके तो बोल।
हिये तराजू तौल कर, पीछे बाहर खोल।।10।।

सत्य समान न धर्म है, झूठ समान न पाप।
सतय धर्म को धारिये, मिटे सकल संताप।।11।।

हित मित प्रिय वचन सदा, कहो आप मुख खोल।
या फिर मौन रहा सदा, यह शिक्षा अनमोल।।12।।

टॉकी के सह घाव को, पत्थर बनता मूर्ति।
वैसे गुरू उपदेश से, जीव बने चिन्मूर्ति।।13।।

वाणी में यदि एक भी पदर है पीड़ाकार।
तो समझो बस नष्ट ही, पहले के उपकार।।14।।

कटुक वचन जो बोलता, मधुरवचन को त्याग।
कच्चे फल वह चाखता, पके फलों को त्याग।।15।।

तत्व ज्ञान विचार में जिनका मन संलग्न।
वे ऋषिवर होते नहीं, क्षण भर विकथामग्न।।16।।

विनय विभूषित प्राज्ञ जन, पुरूषोत्तम गुणशील।
कभी न बोले भूलकर, बुरे वचन अश्लील।।17।।
जिह्वा में करते सदा, जीवन मृतयु विकास।
इससे बोलो सोचकर, वाणी बुध सोल्लास।।18।।

।। ऊँ ह्रीं सत्यधर्मांगाय नमः।।

इति उत्तम सत्य धर्म