उत्तम शौच धर्म

मंगलाचरण

विजित जन्म जरामृतिसंचयः, प्रहतदारूपणराग कदम्बकः।
अघ महा तिमिरव्रज भानुमान् जयति यः परमात्मपदस्थिः।।1।।

अर्थ- जिन्होंने जन्म, जरा और मृत्यु को जीत लिया है शक्तिशाली राग के वंश को नष्ट कर दिया है। ऐसे तथाजो पाप रूपी अन्धकार के समूह को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है ऐसे परमपद में स्थित अरिहंत परमेष्ठी जयवन्त हों।

’’शुचेर्भावः शौचं’’ शुचिता का जो भाव है वह शौच है, शरीर में ममता रहित भाव होना एवं यह मेरा है ऐसी बुद्धि का नहीं होना शौच धर्म कहलाता है। शरीर सम्बंधी लोभ का त्याग ही समस्त लोभके त्याग का मूल कारण है। शरीर के उपकार के लिये ही बन्धु धन आदि में लोभ होता है, अतः पर वस्तुओं में मन की शुद्धि के बिना शौच धर्म नहीं होता है।

कामरागमदोन्मत्ता, ये चाक्षवशवर्तिनः।
ते न जलेन शुद्धयन्ति, स्नानतीर्थशतैरपि।।2।।

अर्थ- जो काम सम्बंधी राग से उन्मत्त हैं और इन्द्रियों के वशीभूत हैं, वे सैकड़ों तीर्थों में स्नान करने पर भी जल से शुद्ध नहीं होते हैं।

नमृतिका जलं नैव, नाप्यग्निः कर्म शोधनाम्
शोधयन्तु बुधाः कर्म, ज्ञान ध्यान तपो जलैः।।3।।

अर्थ- कर्मों से मलिन आत्मा को शुद्ध करने के लिए मिट्टी, जल, अग्नि समर्थ नहीं है, ज्ञानी जन, ज्ञान, ध्यान और तप रूपी जक के द्वारा कर्मों का प्रक्षालन करें।

मृदो भार सहस्रेण, जलकुम्भशतेन च।
न शुध्यति दुराचारः, स्नान तीर्थ शतैरपि।।3।।

अर्थ- हजारों बार मिट्टील से, सैकड़ों घड़े जल से, एवं सैकड़ों बार तीर्थों में स्नान करने पर भी दुराचार शुद्ध नहीं होता है। जैसे बाह्य में साफ किया गया शराब का बर्तन अन्दर अशुद्ध ही रहता है।

अंतश्चित्तं न शुद्धं चेद्, बहिः शौचे न शौचभाक्।
सुपक्वमपि निम्बस्य, फले बींज कटुस्फुटम्।।4।।

अर्थ- यदि मन पवित्र नहीं है तो बाह्य में शुद्धिकर लेने पर भी शुचिता नही आती है जैसे नीम का फल पक जाने पर भ्ी बीज कड़वा ही रहता है।

आत्मा-नदी-संयम-तोयपूर्णा, सत्यंवहा शीलतटा दयोर्भिः।
तत्रभिषेकं कुरू पाण्डुपत्र! न वारिणा शुद्धयति चान्तारात्मा।।5।।

अर्थ- महाभारत युद्ध के पश्चात पाण्डव आत्म शुद्धि के उद्देश्य से गंगा में स्नान करने जा रहे थे, उन्होंने श्री कृष्ण जी से भी चलने को कहा तब श्री कृष्ण जी बोले, हे पाण्डु पत्रों! संयम रूपी जल से भीर सत्य का जिसमें प्रवाह है, शील ही किनारे है, दया रूपी लहरे जिसमें उठ रही है ऐसी आत्मा रूपी नदी में स्नान करो। गंगा में स्नान करने से अंतरात्मा पवित्र नहीं होती है।

शुचि भूमिगतं तोयं, शुचि र्नारी पतिव्रता।
शुचि र्धर्मपरो राजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः।।6।।

अर्थ- भूमि से निकला हुआ जल शुद्ध होता है, पतिव्रता स्त्री पवि होती है, धर्म में तत्पर राजा भी पवित्र होता है और ब्रह्मचारी सदा ही पवित्र रहते हैं। (यदि कारण है दिगम्बर मुनि स्नाना नहीं करते हैं, यह उनका एम मूलगुण कहा गया है।)

संतोष गुण की प्रशंसा
सन्तोषामृततृप्तानां, यत् सुखं शान्तचेतसां।
कुतस्तद् धनलुब्धाना-मितश्चेतश्च धावताम्।।7।।

अर्थ- शांत मन वाले संतोष रूपी अमृत से तृप्त मनुष्यों को जो सुख प्राप्त होता है वह सुख चंचल चित्त वाले धन के लोभियों को कैसे प्राप्त हो सकता है।

संतोषी सदा सुखी, न संतोषात् परं सुखम्।
परिग्रहाभिलाषाग्निं, ज्वलन्तं चित्तकानने,
विध्यापयेदसौ क्षिप्रं, सन्तोषघनधारया।।8।।

अर्थ- संतोषी व्यक्ति हमेशा सुखी होता है और संतोष से बढ़कर कोई दूसरा धन नहीं है। अतः मन रूपी जंगल में जलती हुयी परिग्रह की अभिलाषा रूपी अग्नि को ंसंतोष रूपी मेघ जल की धारा से शांत कर देना चाहिए।

उच्चैरष तरूः फलं च विपुलं, दृष्टैव हृष्टः शुकः,
पक्वं शालिवनं विहाय जड़धीः, तं नारिकेलं गतः।
तत्रारूह्य बुभुक्षितेन मनसाऽरम्भः कृतो भेदने,
आशा तत्र निरर्थका हि गदिता, चंचु र्गता चूर्णताम्।।9।।

अर्थ- एक मूर्ख तोता पके हुए धान के खेत को छोड़कर ऊँचे फल युक्त नारियल के वृक्ष को देखकर प्रसन्न हुआ और उसके पास गया खाने की इच्दा से वृक्ष पर चढ़कर फल को भेदने लगा वहां उसकी इच्छा पूर्ण नहीं हुई किंतु चोच टूट गयी। इसी प्रकार लोभी प्राणी की दशा होती है।

जातः कल्पतरूः पुरः सुरगवी, तेषां प्रविष्टा गृहम्,
चिनतारत्नमुपस्थितं करतले, प्राप्तो निधिः सन्निधिः।
विश्वं वश्यमवश्यमेव सुलभाः, स्वर्गापवर्गश्रियों,
ये संतोषमशेषदोषदहनं, ध्वंसाम्बुदं विभ्रते।।10।।

अर्थ- जो लोग समस्त देाष रूपी अग्नि को शांत करने वाले संतोष रूपी मेघ को धारण करते हैं। उनके आगे समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाला कल्प वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। उनके घर में कामधेनु प्रवेश कर जाता है, हाथ में चिन्तामणि रत्न उपस्थित हो जाता है। समीप में खजाना प्राप्त हो जाता है, समस्त जगत अधीन हो जाता है, स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी सहज में प्राप्त हो जाती है।

सम संतोष जलेण, जो धोवदि तिव्वलोहमलपुंजं।
भोयणगिद्धिविहीणो, तस्य सउच्चं हवे विमलं।।11।।

अर्थ- जो समभाव और संतोष रूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के समूह को धोता है तथा भोजन में गृद्धता नहीं रखता उसके निर्मल शौच धर्म होता है।

ईश्वरो नाम संतोषी, यो न प्रार्थयते परं।
प्रर्थना महतामत्र, परं दारिद्र्यकारणम्।।12।।

अर्थ- जो संतोषी प्राणी दूसरों से किसी पदार्थ की याचना नहीं करता है वह ईश्वर कहलाता है। क्योंकि बड़े लोगों के लिए प्रार्थना करना ही दरिद्रता का कारण है।

संतुष्टाः सुखिनो नित्य-मसन्तुष्टाः दुःखिता।
उभयोऽन्तरं ज्ञात्वा, संतोष क्रियातां रतिः ।।13।।

अर्थ- संतोषी सदा सुखी होता है एवं असंतुष्ट व्यक्ति अत्यंत दुःखी होता है। इन दोनों का इतना अंतर जानकर संतोष में रति करना चाहिए।

सुखं त्रैलोक्य लाभेऽपि नासन्तुष्टस्य जायते।
संतुष्टो लभते सौख्यं दरिद्रोऽपि निरन्तरम्।।14।।

अर्थ- असंतुष्ट व्यक्ति को तीनों लोकों की सम्पत्ति मिलने पर भी सुख नहीं होता है एवं संतोषी अत्यंत दरिद्र होने पर भी निरंतर सुखी रहता है।

येन सन्तोषामृतं पीतं, निर्ममत्वेन वासितं।
त्यक्तं तैर्मानसं दुःखं दुर्गतेनैव सौहृदयम्।।15।।

अर्थ- जिसने संतोष रूपी अमृत का पान किया है एवं निर्ममता पूर्वक निवास किया है। उसने मानसिक दुःखों का त्याग किया है। जैसे सज्जन के द्वारा दुर्जन कात्यागर कर दिया जाता है।

यैः संतोषामृतं पीतं, तृष्णातृट्प्रणाशकं।
तैश्च निर्वाणसौख्यस्य, कारणं समुपार्जितम्।।16।।

अर्थ- जिन्होनें तृष्णा रूपी प्यास का नााक संतोष रूपी अमृत पिया है उन्होंने निर्वाण सुख का कारण प्राप्त कर लिया है।

हृदयं दह्यतेऽत्यर्थं, तृष्णाग्निपरितापितं।
न शक्यं शमनं कर्तुम्, विना संतोषवारिणा।।17।।

अर्थ- तृष्णा रूपी अग्नि से संतप्त हुआ हृदय अत्यंत प से निरंतर जलता रहता है। उसका शमन संतोष रूपी जल के बिना नही किया जा सकता है।

द्रव्याशां दूरतस्त्यक्त्वा, संतोषं कुरू सन्मते!
मा पुनर्दीर्घसंसारे, पर्यटिष्यसि निश्चितम्।।17।।

अर्थ- हे सुबुद्धे! धन की आशा को दूर से छोड़कर संतोष धारण करो निश्चित ही तुम दीर्घ संसार में भ्रमण नहीं करोगे।

लोकद्वये दुःखफलानि दत्ते गार्धक्यतोयेन विवर्द्धितोऽयम्।
संतोषशस्त्रेण निकर्तनीयः स लोभ वृक्षो वहलः क्षणेना।।18।।

अर्थ- गृद्धता रूपी जल से वृद्धि को प्राप्त हुआ यह लोभ रूपी सघन वृक्ष दोनों लोकों में दुःख रूपी फलों को देता है अतः उसे संतोष रूपी शास्त्र से काट देना चाहिए।

संतोषसारसद्रत्नं, समादाय विवक्षणा।
भवन्ति सुखिनो नित्यं, मोक्षसन्मार्गवर्तिनः।।19।।

अर्थ- बुद्धिमान मोक्षमार्गी पुरूष संतोष रूपी सारभूत रत्न को लेकर नित्य ही सुखी होते हैं।

लोभ निन्दा
अनादिनिधने लोके, येऽत्र लोभेन माहिताः।
जन्तवो दुःखमत्युग्रं, प्राप्नुवन्ति कुयोनिषु।।20।।

अर्थ- अनादि निधन इस लोक में जो प्राणी लोभ से मोहित होते हैं वे खोटी योनियों में अत्यंत दुःख प्राप्त करते हैं।

लोभात् क्रोधः प्रभवति, क्रोधद् द्रोहः प्रवर्तते।
द्रोहहेण नरकं याति, शास्त्रज्ञोऽपि विचक्षणः।।21।।

अर्थ- लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से द्रोह होता है, द्रोह से शास्त्र ज्ञानी भी नरकगति को प्राप्त हो जाता है।

यद् दुर्गमटवीमटन्ति विकटं, क्रामन्ति देशान्तरं,
गाहन्ते गहनं समुद्रमतनु - क्लेशां कृषिं कुर्वते।
सेवन्ते कृपणं पतिं गजघटासंघट्टसदुःसंचरं,
सर्पन्ति प्रधनं धनान्वितधियस्तल्लोभविस्फूर्जितम्।22।।

अर्थ- धन में लगी रही है बुद्धि जिनकी ऐसे लोभ से प्रेरित हुए मनुष्य जो बड़ी कठिनाई से जाने योग्य जंगल में जाते हैं। विषम देशान्तरों में भ्रमण करते हैं। गहरे समुद्र में प्रवेश करते हैं। परिश्रम युक्त खेती करते हैं, कंजूस स्वामी की सेवा करते हैं एवं हाथियों के समूह में जिसमें चलना कठिन है ऐसे युद्ध में भी जाते हैं।

मातरं पितरं पुत्रं भ्रातरं वा सुहृत्तमम्।
लोभाविष्टोनरो हन्त, स्वामिनं वा सहोदरम्।।23।।

अर्थ- लोभी मनुष्य माता, पिता, पुत्र भाई प्रिय मित्र, स्वामी और सगे सम्बंधियों को भी मार डालता है।

सुमहान्त्यपि शास्त्राणि, धारयन्तो बहुश्रुताः।
छेत्तार, संशयानां च, क्लिश्यन्ते लोभमोहिताः।।24।।

अर्थ- बडे-बड़े शस्त्रों में ज्ञाता संशयों के दूर करने वाले होकरभी लोभ से मोहित होने के कारण दुःखी होते हैं।

एकामिषाभिलाषेण, सारमेया इव द्रुतं।
सौदर्याअपि युध्यन्ते, धनलेशजिघृक्षय।।25।।

अर्थ- जरा से धन को ग्रहण करने की इच्छा से सगे भाई भी लड़ जाते हैं। जैसे मांस के टुकड़े के लिए कुत्ते परस्पर में शीघ्र ही लड़ बैठते हैं।

ये केचित्सिद्धान्ते, दोषाः श्वभ्रस्य साधकाः प्रोक्ताः।
प्रभवन्ति निर्विचारं, ते लोभादेव जन्तूनाम्।।26।।

अर्थ- नरक में ले जाने वाले जो-जो दोष सिद्धांत शास्त्रों में कहे गये हैं वे सब जीवों के निःशंकताया लोभ से ही प्रगट होते हैं।

भावार्थ- ’लोभ पाप का मूल है’ यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है सो सर्वथा सत्य है क्योंकि जितने अनुचित कार्य हैं वे सारे लोभ के कारण हाते हैं।

स्वामिगुरूबन्धुवृद्धान-बलाबलांश्च जीर्णदीनादीन्।
व्यापाद्य विगतशंको, लोभार्तो वित्तमादत्ते।।27।।

अर्थ- लोभी मनुष्य स्वामी, गुरू, स्वजन, वृद्ध, स्त्री, बालक, दुर्बल, गरीब व्यक्ति को भी मार कर निःशंक होता हुआ धन ले लेता है।

वर्धस्व जीव जय नन्द विभो! चिरं त्वं, इत्यादिचाटुवचनानि विभाषमाणः।
दीनाननो मलिननिन्दितरूपधारी, लोभाकुलो वितनुते, सानस्य सेवाम्।।28।।

अर्थ- लोभी व्यक्ति दीन मुख मलिन तथा निन्दित वेष धारण करके दूसरों से है मालिक! तुम वृद्धि को प्राप्त हो और तुम्हारी जय हो चिर काल तक जियो इत्यादि चाटुकारी के वचनों को कहता हुआ लोगों की सेवा करता है।

लोभेन रात्रौ न सुखेन शेते, लोभेन लोकः समये न भुड्.क्ते।
लोभेन काले न ददाति दानं लोभेन काले न करोति धर्मम्।।29।।

अर्थ- लोभ के कारण संसारी प्राणी रात्रि में सुख से होता नहीं है, समय पर भोजन नहीं करता है, समय पर दान नहीं देता है, समय पर धर्म नहीं करता है।

अपि नामैष पूर्येत्, पयोभिः पयसां पतिः।
न तु त्रैलोक्य राज्येऽपि, प्राप्ते लोभः प्रपूर्यते।।30।।

अर्थ- जल के द्वारा कथंचित समुद्र को भरा जा सकता है किंतु तीनों लोकों के राज्य क द्वाराभी लोभ रूपी समुद्र को नहीं भरा जा सकता है।

शाके नापीच्छया जातु, न भर्तुमुदरं क्षमाः।
लोभात् तथापि वांछन्ति, नराश्चक्रेश्वरश्रियम्।।31।।

अर्थ- अनेक मनुष्य यद्यपि अपनी इच्छा के अनुसार शाक से भी पेट भरेन को कभी समर्थ नहीं होते, तथापि लोभ के वश से चक्रवर्ती की सी सम्पदा को चाहते हैं। लोभी व्यक्ति जिस वस्तु की प्राप्ति स्वप्न में भी असंभव हो उसकी भी वांछा करता है और ऐसी निष्फल वांछा करके दुर्गति का पात्र बनता है।

शेते नित्यं शटितफटिते, मंचके भग्नपादे,
भुडत्रक्ते स्तोकं तदपि कुथितं, जीर्णमग्नं क्षुधार्तः।
धत्तेजीर्ण मलमलिनितं, वस्त्रखण्ड च कट्यां,
एवं लोभ द्रविणमधि कं प्रतयहं संचिनोति।।32।।

अर्थ- लोभी व्यक्ति टूटे फूटे पाया वाली खटिया परनित्य ही सोता है, भूख से पीडि़त होकर थोड़ा वह रूखा-सूखा भोजन करता है। कमर में मलिन पुराना खण्ड वस्त्र धारण करता है इस प्रकार लोभ कषाय के वशीभूत प्राणी प्रति दिन अधिक धन संचय करने में लगा रहता है।

भुजगगृहगोधाः स्युर्मुख्याः पंचेन्द्रिया अपि।
धन लोभेन जायन्ते, निधानस्थानभूमिषु।।33।।

अर्थ- धन के लोभ से प्राणी मरकर यदि पंचेन्द्रिय भी होते हैं तो घरों में खजाने के पास सांच छिपकली आदि होते हैं।

भूषणोद्यानवाप्यादौ, मूच्र्छितास्त्रिदशा अपि।
च्युत्वा तत्रैव जायन्ते, पृथ्वीकायादियोनिषु।।34।।

अर्थ- धन के लोभ से प्राणी मरकर यदि पंचेन्द्रिय भी होते हैं तो घरो में खजाने के पास सांप छिपकली आदि होते हैं।

चक्रेश केशव हलायुधभूषितोऽपि,
संतोषमुक्तमनुजस्य न तृप्तिरस्ति।
तृप्तिंविना न सुखमित्यवगम्य सम्यग्,
लोभ ग्रहस्य वशिनो न भवन्ति धीरः।।35।।

अर्थ- चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदि पद से शुशोभित प्राणी जिसका संतोष रूपी धन छूट गया है उसके कभी तृप्ति नहीं होती ओर तृप्ति के बिना सुख नहीं होता, ऐसा अच्छी तरह से जानकर धीर पुरूष लोभ रूपी ग्रह के वश नहीं होते हैं।

बुद्धिश्चलति लोभेन, लोभो जनयते तृषां।
तृषार्तो दुःखमाप्नोति, परत्रेह च मानवः।।36।।

अर्थ- लोभ से बुद्धि चंचल होी है लोभ तृष्णा को जन्म देता है। तृष्णा से दुःखी हुआ मनुष्य दोनों लोकों दुःख को प्राप्त करता है।

लोभाविष्टोनरो वित्तं, वीक्ष्यते न चापदं।
दुग्धं पश्यति मार्जारो, यथा न लगुडाहतम्।।37।।

अर्थ- लोभ से युक्त मनुष्य धन को ही देखता है किंतु आने वाली विपत्ति को नहीं देखता है जैसे बिलाव दूध को देखता है किंतु शिर पर पड़ने वाले डण्डे की चिन्ता नहीं करता है।

सम्यग्दर्शन बोध संयमतपः, शीलदिभाजोऽपि नो,
संक्लेशो विनिवर्तते भवभृत्तो, लोभानलं विभ्रतः।
विभ्राणस्य विचित्ररत्ननिचिंतं दुःप्रापापारं पयः,
सनतापं किमुदन्वतो न कुरूते, मध्यस्थितोवाडवः।।38।।

अर्थ- सम्यग्दर्शन ज्ञान संयम, तप शीलादि सहित भी प्राणी लोभ रूपी अग्नि को धारण करने के कारण संक्लेशों से रहित नहीं हो पाता है जैसे अनेक प्रकार के रत्नों से सहित अगाध जल वाला समुद्र मध्य में बडवनाल को धारण् करने के कारण क्या संताप को नहीं करता है? अर्थात करता ही है।

लोभात् क्रोधः प्रभवति, लोभात् कामः प्रजायते।
लोभान् मोहश्च, लोीाः पापस्य कारणम्।।39।।

अर्थ- लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से काम उत्पन्न होता है। लोभ से मोह बढ़ता हे और धर्म का नाश होता है। लोभ ही सभी पापों का कारण है।

लब्धेन्धन ज्वलनवत्, क्षणतोऽतिवृद्धिं,
लाभेन लोभदहनः, समुपैति जन्तोः।
विद्यागमव्रततपः शमसंयमादीन्।
भस्मीकरोति यमिनां स पुनः प्रबुद्धः।।40।।

अर्थ- जैसे अग्नि ईन्धन पाकर क्षण भर में वृद्धि को प्राप्त हो जाती है।उसी प्रकार प्राणियों की लोभ रूपी अग्नि, पदार्थ रूपी ईंन्धन को पाकर पुनः वृद्धि को प्राप्त हो जाती है और वृद्धि को प्राप्त होकर साधुओं के विद्या, ज्ञान, तप, समता संयम आदि को भस्म कर देती है।

लोभ से युक्त हृदय में प्रशस्त गुणों का समूह स्थान नहीं पाता है और वह लोभ जीवन आरोग्य इन्द्रिय ओर उपभोग के भेद से चार प्रकार का होता है और फिर वह प्रत्येक स्व और पर के भेद से दो प्रकार का होता है।

उपभोगेन्द्रियरोग्य-प्राणान् स्वस्य परस्य च।
गृध्यन् मुग्धः प्रबन्धेन किमकृत्यं करोति न।।41।।

अर्थ- उपभोग, इन्द्रिय, आरोग्य तथा अपने और पर के प्राणों के विषय में आसक्त हुआ मनुष्य उनकी सुरक्षा के लिए कौन-कौन से नहीं करने योग्य कार्यों को नहीं करता है? अर्थात् सारे कुकृत्यों को करता है।

जैसे-

1. अपने जीवन का लोभ

2. दूसरे के जीवन को लोभ

3. अपने स्वास्थ्य का लोभ

4. दूसरे का स्वास्थ्य का लोभ

5. अपनी इन्द्रियों का लोभ

6. दूसरे की इन्द्रियों का लोभ

7. अपने उपभोग का लोभ

8. दूसरे के उपभोग का लोभ

इस तरह अष्ट प्रकार के लोभ के अभाव होने पर मुक्ति स्त्री के मन को प्रसन्न करने वाला शौच धर्म होता ह।

तावत्कीत्र्यै स्पहृहयित नरस्तावदन्वेति मैत्रीं।
तावद् वृत्तं प्रथयति विभत्र्याश्रितान् साधु तावत्।।
तावज् जनात्युपकृतमघाच्छंक ते तावदुच्चैः,
तावन्मानं वहति न वशं, याति लोभस्य यावत्।।42।।

अर्थ- मनुष्य जब तक लोभ के वशीभूत नहीं होता तभी तक कीर्ति की इच्छा करता है, तभी तक मित्रता को प्राप्त करता है, तभी तक उसका चारित्र वृद्धि को प्राप्त होता है, तभी तक अपने आश्रित लोगों का ठीक तरह से भरण पोषण करता है, तभी तक दूसरों के द्वारा किये गये उपकार को मानता है, तभी तक पापों से अत्यधिक डरता है, और तीाी तक सम्मान को प्राप्त होता है।

वित्तार्थं चित्त चिन्तायां, न फलं परमेनसः।
अतीवोद्योगनोऽस्थाने, न हि क्लेशात् परं फलम्।।43।।

अर्थ- धन के लिये मानसिक चिन्ता में पाप के अलावा दूसरा फल नहीं होता है, जहां पुरूषार्थ नहीं करना चाहिये वहां पुरूषार्थ करने वाले पुरूष को संक्लेश से बए़कर दूसरा कुछ फल नहीं मिलता है।

चार कषायों के निवारण का उपाय

शमाम्बुभिः क्रोधशिखी निवार्यतां, नियम्तां मानमुदारमार्दवैः।
इयं च माया ऽऽर्जवतः प्रतिक्षणं, निरीहतां चाश्रय लोभाशान्तये।।44।।

अर्थ- समात रूपी जल से क्रोध रूपी अग्नि को शांत करनाचाहिये, उत्तम मार्दव से मान का मर्दन करना चाहिए, आर्जव से माया का निग्रह करना चाहिए और निष्पृहता का आश्रय लेकर लोभ कषाय को शान्त करना चाहिए।

गाथा-

सिल पुढवि भेद धूलि जलराइ समाणओ हवे कोहो।
णारय तिरिय णरामर गईसु उप्पयओ कमसो।।45।।

अर्थ- पत्थर परी खींची हुई रेखा के समान जिसका बैर चिर काल तक स्थिर रहता है, वह प्राणी मरकर नरक गाति को प्राप्त होता है, पृथ्वी में पड़ी दरार के समान जिसका बैर बहुत दिन तक चलताहै वह प्राणी पशु गति को प्राप्त होता है, धूलि में खींची रेखा के समान जिसका बेर कुछ दिन तक चलता है, वह प्राणी मरकर मनुष्य गति को प्राप्त होता हैं तथा पानी में खींची गई रेखा के समान जिनका बैर कुछ क्षण में ही मिट जाता है वे जीवद ेव गति को प्राप्त होते हैं।

गाथा-

सेलट्ठिकट्ठ वेत्ते णिय भेएणणुहरंतओ माणो।
णारय तिरयणरामर गईसु उप्पाओ कमसो।।46।।

अर्थ- पत्थर टूट जाता है किंतु झुकता नहीं है इस प्रकार का जिसका मान है वह जीव मरकर नरक गति को प्राप्त होता है। इसी प्रकार हड्टी के समान मान वाला तिर्यंच गति को काष्ठ के समान मानी मनुष्य गति को एवं गीले वेंत के समान मान वाला जीवद व गति को प्राप्त होता है।

वेणुवमलो रब्भय सिंगे गोमुत्तए य खोरप्पे।
सरिसी माया णारय णरामर गईसु खिवदि जियं।।47।।

अर्थ- बांस की जड़ के समान वक्र हृदय वला नरक गति को, मेड़ा के सींग के समान कुटिल हृदय वाला तिर्यंच गति को, खुरजे के समान वक्र परिणामा वाला मनुष्यगति को प्राप्त होता है तथा बैर की पैशाब के समान टेड़ा हृदय वाला देव गति को प्राप्त होता है।

किमिराय चक्क तणु मल हरिद्द राएण सरिसओ लोहो।
णारय तिरिक्ख माणुस देवेसुप्पायओ कमसो।।48।।

अर्थ- कृमिराग- एक विशेष प्रकार का रंग जो वस्त्र फटने पर भी नहीं छूटता, चक्रमल-गाड़ी के पहिये का रंग सुख पूर्वक नहीं छूटता शरीर मैंल-जो हाथ से रगड़ लगाने पर पानी से धोने परछूट जाताहै। हरिद्रवस्त्र हल्दी रंगा वस्त्र हवा औरधूप लगने से ही रंग छोड़ता देता है। इन दृष्टांतों के अनुसार जिनकी लोभ कषाय होती है, वे क्रमशः नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति को प्राप्त होते हैं।

अन्तो मुहुत्तपक्खं, छम्मासं संखसंख णंत भवं।
संजलणमादियाणं, वासणकालो दु णियमेण।।49।।

अर्थ- संज्वलन कषाय का वासना काल (संस्कार) अंतर्मुहूर्त प्रत्याख्यानावरण कषाय का पन्द्रह दिन, अप्रत्याख्यानावरण कषाय का छह महीने, तथा अनन्तानुबंधी कषाय का संस्कार संख्यात और अनन्तभव तक चलता है।

पढमो दंसणघाई, विदियो तह देसविरदिघाई य।
तदियो संजयघाई, चउत्थो जहक्खादघाई य।।50।।

अर्थ- अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्व का घात करती है अर्थात् सच्चेदेव शास्त्र गुरू के प्रति श्रद्धा उत्पन्न नही होने देती है। अप्रत्यख्यानावरणदेश संयम को नहीं होने देती, पत्यख्यानावरण सकल संयम को एवं संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र को नहीं होने देती है।

यदि क्रोधदयःक्षीणा, स्तदा किं खिद्यते वृथा।
तपोभिरथ तिष्ठन्ति, तपस्तत्राप्यपार्थकम्।।51।।

अर्थ- अगर क्र आदि कषायें नष्ट हो गयी है तो तपो के द्वारा खेद क्यों उठाया जाता है और यदि तप करने पर भी कषायें विद्यमान है तो भी तप करना व्यर्थ है अर्थात तपश्चरण का उद्देश्य कषायों को नष्ट करना है शरीर को नहीं।

कषायों को शांत करने का फल

स्वसंवित्ति समायाति, यमिनां तावदुत्तमम्।
आसमन्तात्शमं नीते, कषायविषमज्वरे।।52।।

अर्थ- कषाय रूपी भयंकर ज्वर के सम्पूर्ण उत्र जाने पर मुनि लोग उत्तम केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं।

जिसकी आशा रूपी राक्षसी मर गई है उसी की तत्वों के प्रति रूचि (सम्यग्दर्शन) सम्यग्ज्ञान एवं चारित्र सफलता को प्राप्त होते हैं।

जिनका मन आशा के अभाव रूपी अमृत के समूह से पवित्र है उन्हें स्नेह से उत्कठित होती हुयी शांति रूपी लक्ष्मी स्वयं वरा कर लेती है एवं उन्हीं का ज्ञान रूपी वृक्ष सुख रूपी फल को देता है। आशा रूपी अग्नि से संतृप्त हुआ इन्द्र भी स्वर्ग में सुखी नहीं होता है। समस्त आशा रूपी अग्नि को शांत कर मुनि मोक्ष प्रापत करते है। जिन्हें किसी पदार्थ की चाह नहीं होती उनका मन शांत हो जाता है। इन्द्रिय रूपी हाथी विक्रिया छोड़ देते हैं, कषाय रूपी अग्न शांत हो जाती है। ज्यादा कहने से क्या लाभ महै वे ही महापुरूषों से पूजनीय होते हैं। आशा संसार का कारण है आशा का अभाव मोक्ष का कारण है।

आशा नाम नदी मनोरथजला, तृष्णा तरगांकुला,
रागग्रहवती वितर्कविहगा, धैर्यदु्रमध्वंसिनी।।53।।

मोहावर्तसुदुस्तराऽतिगहना, प्रोतुंगचिनतातटी,
तस्या, पारगता विशुद्धमनसो, नन्दन्ति योगीश्वरा।।54।।

अर्थ- जिसमें मनोरथ रूपी जल भरा है तृष्णा रूपी तरंगो से व्याप्त है राग रूपी मगरमच्छ से युक्त है कुतर्क पी पक्षियों से सहित है धैर्य रूपी वृक्ष को उखाडने वाली है। मोह रूपी भंवर के कारण बड़ी कठनाई से तैरने योग्य अत्यंत गहरी चिंता रूपी ऊंची किनारों से युक्त आशा रूपी नदी के पार को प्राप्त हुये विशुद्ध मन वाले योगी ही आनन्द को प्राप्त होते हैं।

लोभ के प्रकार

1. इष्ट पुत्र स्त्री आदि परिग्रह की अभिलाषा को काम कहते हैं।

2. इष्ट विषयों में आसक्ति को राग कहते हैं।

3. जन्मान्तर संबंधी संकल्प करने को निदान कहते हैं।

4.मनोनुकूल वेष भूषा में उपयोग रखना छनद कहलाता है।

5. विविध विषयों के अभिलाषा रूप कलुषित जल के द्वारा आत्मसिंचन को स्वत कहते हैं। अथवा - ’स्व’ शब्द आत्मीय वाचक भी हैं ’स्व’ के भाव को स्वत कहते हैं, तदनुसार स्वतक अर्थ ममता या ममकार होता है।

6. प्रिय वस्तु को पाने के भाव को प्रेय कहते हैं।

7. दूसरे के वैभव आदि को देख कर ईष्यालु हो उसके समान या उससे अधिक परिग्रह जोड़ने के भाव को द्वेष या दोष कहते हैं।

8. इष्ट वस्तु में मन के राग युक्त प्रणिधान को स्नेह कहते हैं।

9. स्नेह के आधिक्य को अनुराग कहते हैं।

10. अविद्यमान पदार्थ की आकांक्षा करने को आशा कहते हैं।

11. बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह की अभिलाषा को इच्छा कहते हैं।

12. परिग्रह रखने की अत्यंत तीव्र मनोवृति को मूर्छा कहते हैं।

13. इष्ट परिग्रह के निरंतर वृद्धि या अति तृष्णा रखने को गृद्धि कहते हैं।

14. आशा युक्त परिणाम या स्पृहा को साशता कहते हैं।

अथवा - शाश्वत् (नित्य) के भाव को शाश्वत कहते हैं अर्थात् जो लोभ परिणम सदा काल बना रहे उसे शाश्वत कहते हैं लोभ को शाश्वत कहने का कारण यह है कि परिग्रह की प्राप्ति के पहले और पीछे लोभ परिणाम सर्वकाल वीतराग होने के पहले तक बराबर बना रहता है।

15.धन प्राप्ति की अत्यंत इच्छा को प्रार्थना कहते हैं।

16.परिग्रह प्राप्ति की आंतरिक वृद्धि को लालसा कहते हैं।

17. परिग्रह के त्याग के परिणाम न होने को अविरति कहते हैं।

अथवा- अविरतिनाम असंयम का भी है। लोभ ही सब प्रकार के असंयम का प्रधान कारण है। इसलिये अविरति भी लोभ का पर्यायवाची कहा है।

18. विषय पिपासा को तृष्णा कहते हैं।

19.’’वेद्यते वेदनां वा विद्या’ अर्थात जिसका निरंतर पूर्व संस्कार वश वेदन या अनुभवन होता रहे, उसे विद्या कहते हैं।

अथवा- - जो विद्या के समान दुराराध्य हो। जिस प्रकार विद्या की प्राप्ति अत्यंत कष्ट साध्य है, उसीप्रकारधन की प्राप्ति भी अत्यंत परिश्रम से होती है।

20. जिह्वा भी लोभ का पर्यायवाची नाम है। लोभ को जिह्वा ऐसा नाम देने का कारण यह है कि जिस प्रकार जिह्वा नाना प्रकार के सुन्दर और सुस्वादु व्यंजनों को देख करय नाम श्रवण कर उनके खाने के लिये लालायित रहती है, उसी प्रकार सांसारिक उत्तमोत्तम भोगोपभोग साधक वस्तुओं को देखकर या उनकी कथा सुनकर जीवों के उसकी प्राप्ति के लिये अत्यंत लोलुपता बनी रहती है। इस प्रकार ’जिह्वे जिह्वे’ उपमार्थ के साधम्र्य की अपेक्षा लोभ को जिह्वा संज्ञा दी गई है।

उत्तम शौच धर्म - कथानक

लोभी पिण्याक गंध की कथा

1. कांपिल्य नगर में सुन्दर ’रत्नप्रभ’ राजा सुन्दर और उनकी गुणवती ’विद्युत प्रभा’ रानी तथा जिनधर्म पर गाढ श्रद्धालु योग्य आचार विचार से युक्त ’जिनदत्त’ नामक सेठ रहते थे। इसी नगर में करोड़ों मुद्रओं का धनी एक ’पिण्याकगन्ध’ नाम का सेठ भी रहता था किंतु वह बड़ा मूखी लोभी और कृपण था। न स्वयं खाता पहिनता न दूसरों को खिलाता, किंतु वह अपने भोजन में तेल निकली खली खाता था। उसकी सुन्दर स्त्री तथा विष्णुदत्त नामक लडकाथा। एक दिन राजा के तालाब को खेदते वक्त ’उडु’ नाम के एक मजदूर को सलाईया की भरी लोहें की सन्दूक मिल गयी। ’उडू’ ने एक सलाई लाकर जिनदत्त सेठ को लोहे के भाव बेची। उसको साफ करने पर पता चला की सोने की है अतः चोरी की समझ घर न रख जिन प्रमा बनवा ली। सच है धर्मात्मा पुरूष पाप से डरते हैं। चोरी का माल समझ दुबारा उसने नहीं खरीदी। पिण्याकगन्ध जानबूझ कर खरीदता गया। बेचारे ’उडु’ को उनकी कीमत मालूम नहीं थी। पुत्र को सलाई खरीदने के लिए कहकर बहिन के कहने पर भानजे की शादी में दूसरे गांव चला गया दूसरे दिन ’उडू’ अंतिम सलाई बेचने आया तो उसके पुत्र ने नहीं खरीदी। किसी सिपाही ने उसे छुडा लिया ओर अन्य सलाईयों के बारे में पूछा। ’जिनदत्त’ ने अज्ञानता से एक सलाई खरीदी है और प्रतिमा बनवा कर मंदिर में विराजमान कर दी यह जानकर राजा ने उसका वस्त्राभूषण से सम्मान किया। किंतु ’पिण्याकगन्ध’ के घर पर नहिं मिलने से राजा ने घर के लोगों को कैद खाने में डाल दिया। विवाह के बाद घर आये पिण्याकगन्ध ने सब हाल जाकर पैरों को दोषी ठहराते हुये पैर तोड लिये मरकर नरक में चला गया। इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि हमें अनीति के कारण भूत पाप को बढाने वाले लोभ का त्याग करना चाहिए।

2. कुछ समय पूर्व की बात है उज्जैनी नगरी में एक परिवार गरीब और कठिन परिस्थितियों से जीवन यापन करने वाला था। उसी परिवार में दो बैटे हुए एक का नाम हीरा लाल दूसरे का नाम बहादुसिंह था। दोनों भाई लकड़ी बेचकर अपनी उदरपूर्ति करते थे। विशेाता यह थी कि हीरालाल जब लकडी बाजार में ले जाता था तो तत्काल अच्छे दामों में बिक जाती थी। बहादुर भी वैसी ही मेहनत करके हीरालाल से अच्दी और अधिक लकड़ी लाता था किंतु वह देर से और कम दा दामों में बिकती थी। बहादुर परेशान था अ बवह हीरालाल से द्वेष रखने लगा एक दिन उसने सोचा कि हीराला को मार डला जाय तो फिर बाजा र में मेरी लकड़ी अच्दे दामों में बिक जायेगी। गर्मी के दिन थे दोनों भाई घर से जंगल साथ में गये, रासते में बहादुरसिंह अनेक प्रकार की बातें करता हुआ बोला भैया आज पहले आप अपना पानी खर्च कर लीजिए बाद में मैं अपना खर्च कर लूंगा। हीराला तो सरल और निर्लोभी था। उसने कहा ठीक है। ने उका पूरा पानी खर्च कर दिय थोड़ी देर बाद जब हीराला को प्यास लगी तो भैया से पानी मांगा, तो बहादुर सिंह ने कहा कि मैं पहले आपकी एक आंख फोडूंगा तब पानी दूंगा। उसने सोचा कि यह मजाक कर रहा है मेरा भाई आंख नहीं फोड सकता। हीराला ने सहज में कह दिया फोड लीजिए लेकिन पानी दे दीजिए मेरा कण्ठ सूख रहा है। बहाुदर ने वास्तव में भाई की एक आंख फोड दी। उसके बदले में एक अंजुलि पानी दे दिया। हीरालाल को मरण तुल्य कषट हो रहा था किंतु निर्दयी भाई ने संवेदना तक प्रकट नहीं की और अपनी लकड़ी इकट्ठी करने लग, हीराला ने पुनः भैया से पानी मांगा तो बहादुर ने कहा कि मैं अब पानी तब दूंगा जब तुम्हारी दूसरी आंख फोड लूंगा। उसने सोचा कि मेरा भैया मुझे अंधा नहीं बना सकता। उसने सहज में कह दिया फोड लीजिए। उसने सचमुच दूसरी आंख भी फोड़ दी, इसके बदले में एकम अंजुलि पानी देकर घर आ गया। बेचारा हीरालाल तडफता रहा। यह है लोभी प्राणी की दशा।

3. कौशाम्बी नगरी में समुद्रदत्त नामक सेठ रहता था, उसकी स्त्री का नाम समुद्रदत्ता और उसके सागर दत्त नाम का पुत्र था वह कुशाग्र बुद्धि था। सेठानी अपने बेटे को स्वार्णाभूषाणें से अलंकृत रखती थीं क्योंकि उसका इकलौता बेटा थाउस के पडोस में एक गोपायन नामक यादव रहता था। उसका बेटा सोमक गरीब था फटे-टूटे कपडे पहनता, रूखा सूखा भोजन करता और श्रेष्ठ पुत्र सागर दत्त के साथ खेलता था। दोनों एक दूसेर के घर भी जाते थे। बालकों के हृदय सच्चे ओर सरल होते हैं उनको खेलने से प्रयोजन चाहे गरीब का घर हो या अमीर का। एक दिन सागर दत्त सोम के घर खेलने अय, सेमक की मां गोपा श्रेष्ठि पुत्र के गले में स्वर्ण का हार देखकर प्राप्त करने की सोचने लगी। गोपा के हृदय में वह हार बसा हुआथा। उसने सागर दत्त को घर बुलाया और कुछ खिलौने और पकवानों का लालच दिखाकर कमरे में बंद करके मार डाला। उसकी लाश को कमरे के अंदर ही गाड दिया, यह हाल सोमक देख रहा था। सेठ जी का बेटा जब घर नहीं आया तो खोजना प्रारंभ कर दिया लेकिन कहीं भी उसका पता न चला। सेठ सेठानी दोनों के ऊपर वज्र पात सा हो गया। एक दिन सेठानी के पास सोम आया, उससे पूछा बेटा सोमक! तुम्हारा मित्र सागर दत्त कहां गया। उसने अपनी तोतली भाषा में का कि सागर भैया हमारे घर में गडा है, हमारी मां ने चाकू से मार कर जमीन में गाड दिया है इस बात को सुनकर सेठानी ने पता लगाया तो वास्तव में सागर की लाशा गोपा के घर में प्राप्त हुई। राजा ने फैसला दिया कि गोपा की मृतयु शय्या पर सुलाया जाय वह संक्लेश परिणामों से कर कर नरक गति को प्राप्त हुई।

’’आशापास महादुख दानी सुख पावे संतोषी प्राणी’’

4. एक कंकभट्ट नाम का ब्राह्मण था वह बाजार में श्रीफल खरीदने गया दुकानदार ने तीन रूपये बताया उसनके कहा इससे कम में नहीं दोगे। दुकादार ने कहा कि आगे वाली दुकान में कम में मिल जायेगा। आगे गया वहां दुकानदार ने 2 रूपये कीमत बतलायी, इसने पुनः पूछा कुछ कम पैसों में नहीं दोगे। उसने आगे की दुकान में भेज दिया ऐसा करते करते अनेक दुकानों पर जाने के बादभी श्रीफल नहीं खरीद पाया, अंत में एक दुकानदार ने कहा कि पास में श्रीफल का बगीचा है वहां से तोड लो मुफ्त में मिल जायेगा वह वास्तव में चला गया और वृक्ष पर चढकर श्रीफल तोडने लगा लेकिन नहीं टूटा वह श्रीफल लडक गया, जिस डाली पर वह खड़ा था वह डाली टूट गई उतरना मुश्किल हो गया इतने में एक ऊँट वाला आया उससे कहा हमें उतार लो हम आपको 50 रूपये देंगे। वह ऊँट के ऊपर खडा होकर जैसे ही उसके पैर पकडे तो ऊँट आगे बढ गया, अब दो लटक गये कुछदेर बाद हाथी वाला निकला उससे कहा कि हम लोग आपकेा 50-50 रूपये देंगे उतार ले वह भी हाथी पर खडा हो कर उन दोनों को उतारने लगा तो हाथी भी आगे बढ गया अब तीन लटक गये बाद में घोडे वालो से कहा तोउसके ाथ भी यही हाल हुआ। अब चार लोग वहां लटके हुये हैं नीचे वालों ने कहा कि हे भैया! कंक भट्ट! आप डाल नहीं छोडना हम सभी लोग आपको 50-50 रूपये देंगे वह प्रसन्न हो गया सोचने लगा अब तो बहुत सारे रूपये हो जायेंगे और हााि से पैसे जोडने लगा तो श्री फल छूट गया सभी जमीन में गिरे ओर मरण को प्राप्त हो गये तीन रूपये केे श्रीफल के पीछे चार लोगों की मृत्यु हो गई।

5. एक बार अखबार में एक घटना पढ़ी थी- किसी घर में एक चूहा कहं से 20/- के नोट उठा कर ले आया वह चूहा उन नोटों पर इतना मुग्ध था कि उन नोटो के चारों ओर नाचा करता था। एक दिन वह चूहा उन नोटो को बिल में से निकाल कर किसी दूसरी जगह ले जा रहा था। इस कार्य को मकान मालिक ने देख लिया। वह चूहा एक-एक रूपया करके जब 19 रूपये दूसरी जगह रख अया, सिर्फ 1/- लाना शेष था। जब उसे लेले के लिए यगया उसी बीच में मकान मालिक ने उन 19 रूपये को उठा लिया। जब चूहा लौटकर आया और उस जगह रूपये नहीं मिले तो तडफ-तडफ कर मर गया। लोभ कषाय के कारण बेचारे चूहे की यह दशा हुई। चूंकि उन रूपयों से उसको कोई कार्य सिद्ध होने वाला नहीं था। फिर भीउसके मन को सुन्दर लगने वाली वस्तु का वह वियोग सहन नहीं कर सका और मरकर दुगति का पात्र हुआ।

6. चम्पा नगरी में एक सेठ रहता था वह बड़ा लोभी था। उसकी इच्छा था कि हमारे घर में प्रत्येक वस्तु सोने की होनी चाहिए। इस इच्छा की पूर्ति लगभग पचास प्रतिशत कर चुका था। अनके स्वर्ण की वस्तुएं बनवा कर शो रूम में संकलन करके रखता था और आराम कुर्सी पर बैठकर आनंद का अनुभव करता था। एकदेव आया और सेठ पर प्रसन्न होकर बोला, आपको जो कुछ मांगना हे अपनी इच्छानुसार मांग लो। यह सुनकर सेठ ने सोचा क्या मांगू धर-दौलत, सोना चांदी राज्य मांगू।उसने सोचा यदि राज्य मांगता हूं तो छिन जाने का डर है। तबउने देव से कहा कि मेरी इच्छा है कि मैं जिस वस्तु को स्पर्श करूं वह सोने की हो जाय। देव ने वरदान दे दिया। जिस कुर्सी पर बैठता था वह सोने की हो गई, दीवाल, कपडे आदि सभी स्वर्ण के हो गये जब भोजनकरने बैठा तो थाली और भोजन भी सोने का हो गया। अब उदर पूर्ति कैसे करे? दुखी होने लगा यह लोभ कषाय का परिणाम था। अंत में भूख प्यास की वेदना से तडफ-तडफ कर मरण को प्राप्त हो गया। लोभी प्राणियों की ऐसी ही दशा होती है अतः हमेशा संतोष धारण करना चाहिए। संतोष का फल मीठा होता है।

धरि हिरदे संतोष करहूं तपस्या देह सो।
शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ा संसार में।।

7. एक सेठ बडा कंजूस था वह किसी को कुछ नहीं देता था। एक बार एक धूर्त ने सेठ को ठगने का उपाय सोचा- वह सेठ के पास जाकर बोला हमारे घर मेहमान आये हैं, हम को दस बर्तन दे दो मैं कल आपके बर्तन वापिस कर दूंगा। सेठन ने सोचा एक बार देकर देखो-क्या होता है परीक्षा हेतु सेठ ने दस बर्तन उस धूर्त को दे दिय, वह घर गया, और छोटे-छोटे दस बर्तन अैर खरीदकर दूसरे दिन 20 बर्तन लेकर सेठ के पास जमा रकने को आया। सेठ ने पूछा कि तुम दस बर्तन ही तो ले गया थे 20 क्यों लाये । तब धूर्त ने कह कि सेठ जी आपके बर्तन र्गीावान थे हमारे घर जाकरइनसे बच्चे पैदा हो गये इसलिए छोटे-छोटे दस बर्तन इन्हीं के बच्चे हैं। सेठ बडा प्रसन्न हुआ और धूर्त सेबोला आपको जरूरत पडे तब ले जाया करो, धूर्त तो अपनी इजत बतनाना ही चाह रहाथा। कुछदिन बाद धूर्त आयऔर सेठ जी से बोला सेठ जी हम को बच्ची की शादी करना है। कृपया पांच सोने के बर्तन 10 चांदी के और 50 पीतल के बर्तन देदो मेैं कुछ दिन के बाद अर्थात् शादी के बाद वापिस कर दूंगा। सेठ तो लोभी थाउसकेा उस धूर्त से पहले दिये बत्रन और उसके बच्चे भीमिल गये थे इसलिए कुछ विचार किये बना ही उसकी मांग पूरी कर दी। सभी प्रकार के बर्तन ले जाकर धूर्त बडा प्रसन्न हुआ। पन्द्रह दिन तक वापिस नहीं आया सेठ ने संदेशा भेजा तो भी वह नही आया। एक माह बाद शिर का मुण्डन कराके रोताहुआ सेठ केपा आया सेठ ने पूछा क्या बात है भाई रोते क्यों हो क्या अभी बर्तन नहीं लाये? तब धूर्त बोला कि हम सेठ जी के यहां से बर्तन ले गये थे हमारे घर जाते ही वे सभी बर्तन मर गये उन बर्तनों की तेरहवीं में हमें 500 रूपये लग गये। सेठ ने कहा-क्य बर्तन मरते हैं। तब उसने कहा कि जब बर्तन जन्म देते हैं तो मरने में क्या बाधा है। सेठ घबरा गया; धूर्त सेठ के दरवाजे पर बैठकर लोगों से कहता हमारा निर्णय कर दीजिए हमारे 500रूपये खर्च हुए हैं उनको दिला दीजिए। फैसले में सेठ जी ने 200/- रूपये और देना पड़े। लोभी व्यक्ति का धन धूर्तों के ही काम में आता है न वह खा सकता है न दान दे सकता है।

उत्तम शौच - अमृत बिन्दु

1. लोहे की संगति से अग्नि पिटती है, लोभ की संगति से प्राणी।

2. लोभी हमेशा भविष्य की चिंता में खोया रहता है।

3. तृष्ण की खाई खूब भरी पर रिक्त रही वह रिक्त रही।

4. चर्म धुलने से कर्म नहीं धुलते।

5. कृपण की अपेक्षा कौआ मिलकर खाता है, इसलिए अच्छा है।

6. सम्पत्ति की मित्रता पुण्य से है व्यक्ति से नहीं।

7. पेट भर सकता है पेटी नहीं।

8. समय से पहले कस्मत से ज्यादा न किसी को मिला है न मिलेगा।

9. लाभ के बाद लोभ होता ही है।

10. क्रोध अंधा, मान बहिरा, माया गूंगी और लोभ नकटा होता है।

11. जर जोरू और जमीन झगडे की जड तीन।

12. जिनको 50 वर्ष शास्त्र सुनते हो गये किंतु धर्म के स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ यह सब अन्याय का धन और अभक्ष्य भक्षण का फल है।

13. देह की पवित्रता से नहीं आत्मा की उज्वलता से शौच धर्म होता है।

14. इन्द्रिय विषयों का त्याग, तपश्चरण करना, ब्रह्मचर्य धारण करना, मदों का त्याग करना परमागम का अध्ययन करना, मिथ्यात्व, कषाय का छोड़ना शौच धर्म है।

15. जीव हिंसा करने वाले पर धन, परस्त्री की इच्दा करने वाले करोड़ों का दान करे समस्त तीर्थों की वंदना करे तो भी शौच धर्म को प्राप्त नहीं होते हैं।

16. गुरूद्रोही, धर्मद्रोही, मित्रद्रोही, कृतघ्न, विश्वासघाती व्यक्ति सदा मलिन रहते हैं।

17. लोभ पाप का बाप है, इसके वशीभूत प्राणी जो-जो करता है वह किसी से गुप्त नहीं है।

18. यश, रूप, नाम, काम का लोभ भी आखिर लोभ ही है।

19.पैसों की कीमत गाय के सामने घास के बराबर भी नहीं है, मनुष्य उसके पीछे लड़ मरता है, क्योंकि उससे यश, रूप आदि पांच इन्द्रियों के विषयों की पुष्टी होती है।

20. नाम के लोभी कहते हैं, एक दिन मरना है, कुछ दान देके जाओ नाम अमर रहेगा। वे मानो आत्मा को विनाशीक और नाम को अमर समझते हैं।

21. पंचेन्द्रियों के चेतन विषयों को राग और अचेतन को लोभ कहा जाता है।

22. परिष्कृत लोभ को लोग उदात्त प्रेम वात्सल्य आदि नाम देते हैं।

23. अस्नान व्रती को शौच धर्म होताहै नहाने वलो को नहीं।

24.’’प्रणी सदा शुचि’’ शील, जप, तप, ज्ञान, ध्यान प्रभाव ते।

25. ’’राग द्वेष’’ खून मांस से भी अपवित्र है, क्योंकि शरीर के रहते तो केवलज्ञान हो जाता है किंतु प्रशस्त भी राग के रहते हुए केवलज्ञान नहीं होता है।

26. सनत्कुमार चक्रवर्ती के दर्शनार्थ जब देव लोग आये थे तब उनका शौच धर्म नहीं था जितना मुनि अवस्था में कोढ हो जाने पर था।

अमृत दोहावलि

चाह गई चिंता गई मनुआ बेपरवाह।
जिन्हें कछु नहि चाहिए, वे शाहन के शाह।।1।।

गोधन गज धन वाज धन, और रतन धन धान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूलि समान।।2।।

पैदा हुए व्यापार सीखा, धन कमा बूढे हुये।
बन्धु जन को छोडकर धन, दुर्गति में चल दिये।।3।।

धरि हिरदे संतोष, करहु तपस्या देह सो।
शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ो संसार में।।4।।

बहु धन्धी की मान्यता

आतम को हित है सुख सो सुख, विषय भोग में लहिए।
विषय भोग धन बिन नहिं यातें, धन ही धन उपजइये।।5।।

कर्म कमण्डलु कर गहे, तुलसी मन पछाताय।
वापी कूप तडाग में, बूंद न अधिक समाय।।6।।

साई इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।।7।।

लोभ पाप का बाप है, क्रोध क्रूर यमराज।
माया विष की बेलरी, मान विषम गिरिराज।।8।।

कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
यही पाय बौरात नर, यही पाय बौराय।।9।

काया बूढी हो चली, तृष्णा भई जबान।
ऐसे में कैसे बने, निज आतम कल्याण।।10।।

छोटी सी जिन्दगी बड़े-बड़े अरमान।
पूरे न हो पायेंगे, निकल जायेंगे प्राण।।11।।

शौच भावतं पुण्य बडोई, कटे पाप जग में जस् होई।
शौच भाव संतन को प्यारा धरो शौच यह धर्म हमारा।।12।।
कोटि काल तक नह्वन तै, देह पवित्र न होय।
मन पवित्र पातक टलै, श्रम चिंत् नहीं होय।।13।।

तीन थान संतोष कर, धन, भोजन, अरू दार।
तीन संतोष न कीजिए दान, पठन, तपाचार।।14।।

सदा संतोष कर प्राणी, यदि सुख से रहा चाहे।
घटा दे मन की तृष्णा को, यदि दुःख से बचा चाहे।।15।।

उत्तम पा के जो पथिक, यश के रागी साथ।
मिटते वे भी लोभ से, रच कुचक्र निज हाथ।।16।।

।।ऊँ ह्रीं उत्तमशौच धर्मांगाय नमः।।
इति उत्तम शौच धर्म