उत्तमत्यागधर्म की चर्चा जब भी चलती है, तब-तब प्रायः दान को ही त्याग समझ लिया जाता है। त्याग के नाम पर दान के ही गती गाये जाने लगते हैं, दान की ही प्रेरणाएं दी जाने लगती हैं।
सामान्यजन तो दान को त्याग समझते ही हैं; किन्तु आश्चर्य तो तब होता है, जब उत्तमत्यागधर्म पर वर्षों व्याख्यान करने वाले विद्वज्जन भी दान के अतिरिक्त भी कोई त्याग होता है - यह नहीं समझाते या स्वयं भी नहीं समझ जाते।
यद्यपि जिनागम में दान को भी त्याग गया है, दान देने की प्रेरणा भी भरपूर दी गई है, दान की भी अपनी एक उपयोगिता है, महत्व भी है; तथापि जब गहराई में जाकर निश्चय से विचार करते हैं तो दान और त्याग में महान अन्तर दिखाई देता है। दान और त्याग बिल्कुल भिन्न-भिन्न दो चीजें प्रतीत होती हैं।
त्याग धर्म है और दान पुण्य। त्यागियों के पा रंचमात्र भी परिग्रह नहीं होता, जबकि दानियों के पास ढेर सारा परिग्रह पाया जा सकता है।
त्याग की परिभाषा श्री प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका (गाथा 239) में आचार्य जयसेन ने इसप्रकार दी है -
निज शुद्धा के ग्रहणपूर्वक बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्ति त्याग है।’’
इसी बात को बारस-अणुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा) में इसप्रकार कह गय है -
जिनेन्दे भगवान ने कहा है कि जो जीव सम्पूर्ण परद्रव्यो से मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीनरूप परिणाम रखता है; उसके त्यागधर्म होता है।’’
’तत्वार्थराजवार्तिक’ में अकलंकदेव सचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं।1
उक्त कथानों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यद्यपि त्याग शब्द निवृत्तिसूचक है, त्याग में बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का त्यग होता है; तथापि त्यागधर्म में निजशुद्धात्मा का ग्रहण अर्थात् शुद्धोपयोग और शुद्धपारिणति भी शामिल है।
एक बात और भी स्पष्ट होती है कि त्याग परद्रव्यों का नहीं, अपितु, अपनी आत्मा में परद्रव्यों के प्रति होने वाले मोह-राग-द्वेष का होता है; क्योंकि परद्रव्य तो पृथक् ही हैं, उनका तो आज तक ग्रहण ही नहीं हुआ है; अतः उनके त्याग का प्रश्न ही कहाँ उठता है? उन्हें अपना जाना है, माना है, उनसे राग-द्वेष किया हैः अतः उन्हें अपना जानना, मानना (दर्शनमोह) एवं उनके प्रति राग-द्वेष करना (चारित्रमोह) छोड़ना है।
यही कारण है कि वास्तविक त्याग पर में नहीं, अपने में - अपने ज्ञान में होताहै। यही भाव कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने समयसार में इसप्रकार व्यक्त किया है -
अपने से भिन्न समस्त परपदार्थों को ’ये पर हैं’ - ऐसा जानकर जब त्याग किया जाता है, त बवह प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग कहा जाता है। इससेयह सिद्ध होता है कि वस्तुतः ज्ञान ही प्रत्याख्यान अर्थात त्याग है।
त्याग ज्ञान में ही होता है अर्थात्परको पर जानकर उससे ममत्वभाव तोड़ना ही त्याग है। इस बात को समयसार गाथा 34 की आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने सोदाहरण इसप्रकार स्पष्ट किया है -
’’जैसे कोई पुरूष धोबी के घर से भ्रमवश दूसरे का वस्त्र लाकर, उसे अपना समझकर ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी हो रहा है; किंतु जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्र का छोर पकड़कर खींचता है और उसे नग्न कर (उघाडकर) कहता है कि ’तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदले में आ गया है, यह मेरा है सो मुझे दे दे’; तब बार-बार कहे गये इस वाक्य को सुनता हुआ वह, सर्व चिन्हों से भली-भांति परीक्षा करके, ’अवश्य यह वस्त्र दूसरे का ही है’ -ऐसा जानकर, ज्ञानी होता हुआ, उस वस्त्र को शीघ्र ही त्याग देता है।
इसीप्रकार ज्ञाता भी भ्रवश परद्रव्य के भावों को ग्रहण करके उन्हें अना जानकर अपने में एकरूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञान हो रहा है। जब श्रीगुरू परभाव का विवके करके उसे एक आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि ’तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा वास्तव में एकज्ञानमात्र ही है’; तब बारम्बार कह गये इस आगमवाक्य को सुनता हुआ वह, समस्त चिन्हेां से भली-भांति परीक्षा करके ’अवश्य यह परभाव ही है’ - यह जानकर ज्ञानी होता हुआ, सर्व परभाावों को तत्काल छोड़ देता है।1’’
उक्त कथन से यह बात अच्दी तरह स्पष्ट हो जाती है कि त्याग पर को पर जानकर किया जाता है; पर दान में यह बात नहीं है; क्योंकि दान उसी वस्तु का दिया जाता है जो स्वयं की हो; परवस्तु का त्याग तो हो सकता है, दान नहीं। दूसरे की वस्तु उठाकर किसी को देना दान नहीं, चोरी है।
इसीप्रकार त्याग वस्तु को अनुपयोगी, अहितकारी जानकर किया जाता है; जबकि दान उपयोगी और हितकारी वस्तु का दिया जाता है।
उपकार के भाव से अपनी उपयोगी वस्तु पात्रजीव को दे देना दान है।
दान की परिभाषा आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में इसप्रकार दी है -
आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है -
दूसरे का उपकार हो - इस बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है।’’
दान में परोपकार का भाव मुख्य रहता है और अपने उपकार का गौण; किंतु त्याग में स्वोपकार ही सब कुछ है, दूसरों के उपकार के लिए मोह-राग-द्वेष नहीं त्यागे जाते हैं। यह बात अलग है कि अपने त्याग से प्रेरणा पाकर या अन्य किसी प्रकार से पर का भी उपकार हो जावे।
यदि कोई दान देता है तो उसका कर्तव्य है कि जिस काम के लिए दान दिया है, उसकी देख-रेख भी करे। कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा कि आपने धर्मशाना तो यात्रियों के ठहरने के लिए बनाई है और उसे किराये से उठा दिया गया हो; आपने पैसा तो दिया प्राचीन जिनालयों के जीर्णोद्वार के लिए और उससे अधिकारियों ने अपने आराम के लिए एयरकंडीशन लगा लिया हो; आपने पैसा तो दिया वीतरागता के प्रचार-प्रसार के लिए और उससे राग को धर्म बताकर प्रचार किया जा रहा हो; अपने पैसा तो दिया धार्मिक नैतिक शिक्ष के लिए और उससे शिक्षा दी जा रही हो कानून की।
कुछ लोग कहते है। कि आपने तो दान दे दिया। अब आपको क्या मतलब कि उसका क्या हो रहा है, वह कहां खर्च हो रहा है, उसे कोन खा रहा है? जब आपने उसे त्याग ही दिय है तो उससे फिर क्य प्रयोजन?
ऐसी बातें वही लोग कहते हैं जो या तो दान की परिभाषा नहीं जानते या फिर कुछ गड़बड़ी करना चाहते हैं, करते हैं; क्योंकि वे चाहते हैक्ं कि वे चाहे जो करें,उन्हें कोई टोका-टोकी न करे। जिसे सही काम करना है, जो पैसा जिस उद्देश्य से प्राप्त हुआ है,उसी में लगाना है; उन्हें इसमें क्या ऐतराज हो सकता है कि दातार उनसे यह क्यों पूछता है कि जिस उद्देश्य से जिस कार्य के लएि उसने दान दिया था, वह हो रहा है या नहीं, उस उद्देश्य की पूर्ति हो रही है या नहीं?
वे यह भूल जाते हैं कि उसने पैसे का त्याग नहीं किया है, वरन् किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दान दिया है। दान उपकार के विकल्पपूर्वक दिया जाता है, उतः ज्ञानी-दानी को भी व्यवस्था देखने-जानने का सहज विकल्प आता है। ज्ञान-दान में भी जब किसी को कोई कुछ समझाता है तो उसे यह सजह विकल्प आये बिना नहीं रहता कि सामने वाले की समझ में आ रहा है या नहीं।
दानी को पैसे से मोह छूट नहीं गया है, छूट गया होता तो फिर एक लाख देकर तीन लाख कमाने को क्यों जाता? कमाने का पूरा-पूरा यत्न चालू है। इससे सिद्ध है कि पैसे के राग के त्याग के कारण दान नहीं दिया जा रहा है, बल्कि उपकारके भाव से दान दिया जाता है। यह बात अलग है कि उसकी लोभ कषाय कुछ मन्द अवश्य हुई है, अन्यथा दान भी संभव न होता; पर मन्द हुई, अभाव नहीं; अभाव होता तो त्याग होता।
मोह या राग के आंशिक अभाव में भी त्यागधर्म प्रकट होता है। यही कारण है कि त्यागी को उसका ध्यान भी नहीं आता, जिसे उसने त्यागा। आना भी नहीं चाहिए आवे तो त्याग कैसा? उसे त्यागी हुई वस्तु की संभाल का भी विकल्प नहीं आता; क्योंकि अ बवह उसे अपनी मानता-जानता ही नहीं एवं उससे उसे राग भी नहीं रहा। उसका जो होना हो सो हो, उसे उससे क्या?
चक्रवर्ती जब राज-पाट त्याग कर नग्न दिगम्बर साधु बनते हैं तो उन्हें या चिन्ता नहीं सताती कि इस राज का क्या होगा? इसे कौन संभालेगा? यदि हो तो फिर वे त्यागी नहीं। उससे उन्हें क्या प्रयोजन? उन्होने अपने हित के लिए, अपनी आत्मा की संभाल के लिए राज-पाट त्यागा है। वे यदि राज-पाट की ही चिंता करते रहें तो फिर उन्होनें त्यागा ही क्या है? राज का वे करते भी क्या थे? मात्र चिन्ता ही करते थे, सो कर ही रहे हैं।
इसप्रकार हम देखते है कि दान में परोपकरा का भाव मुख्य रहता है और त्याग में आत्महित का।
यहां एक प्रश्न संभव है कि जो अपना है, वह दूसरों को दिय नहीं जा सकता; जो दिया जा सकता है, वह अपना नहीं हो सकता; ’पर’ पर है, ’स्व’ स्व है; स्व का दिया जाना संभव नहीं, और पर का ग्रहण संभव नहीं - एक ओर तो आप यह कहते हैं और दूसरी ओर यह भी कहते है कि दान अपनी चीज का दिया जाता है। जब ’पर’ अपना है ही नहीं, तब उसका क्या त्याग करान और जो दिया ही नहीं जा सकता, उसका क्या दान? इसीपकार जब कोई किसी का भला-बुरा कर ही नहीं सकता, सब अपने भले-बुरे के कत्र्ता-धत्र्ता स्वयं हैं, तो फिर परोपकार की बात भी कहां ठहरती है?
अपकी बात सुनकर बिल्कुल ठीक है, पर समझने की बात यह है कि ’दान’ व्यवहारधर्म है और ’त्य’ निश्च्यधर्म।
वे धनादि पदपदार्थ जिन पर लौकिक दृष्टि से अपना अधिकार है,व्यवहार से अपने हैं; उन्हें अपना जानकर ही दान दिया जाता है। लेन-देन स्वयं व्यहवार है, निश्चय में तो लेन-देन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। रही परमपदार्थ के त्याग की बात, सो पर को पर जानना ही उनका त्याग है - इससे अधिक त्याग और क्या है? वे तो पर हैं ही, उनको क्या त्यागें? पर बात यह है कि उन्हें हम अपना मानते है, उनसे राग करते हैं; अतः उनको अपना मानना ओर उनरसे राग करना त्यागना है। इसीलिए यह ठीक ही कहा है कि पर को पर जानकर उनके प्रति राग का त्याग करना ही वास्तविक त्याग है।
गहराई से विचार करें तो त्याग, मोह-राग-द्वेष का ही होता है; पर-पदार्थ तो मोह-राग-द्वेष के छूटने से स्वयं छूटे हुए ही हैं। इसीलिए भगवान को ’राग-द्वेष-परित्यागी’ कहा गया है।
यदि आप कहें कि अभी तो यह कहा था कि त्याग पर का होता है अैर अब कहने लगे कि त्याग मोह-राग-द्वेष का होता है?
भाई! आध्यात्मिक दृष्टि से मोह-राग-द्वेष भी तो पर ही है। यद्यपि वे आत्मा में उत्पन्न होते हैं, तथापि वे आत्मा के स्वभाव नहीं; आत्मा के स्वभाव नहीं; अतः उन्हें भी आध्यात्मिक शास्त्रों में ’पर’ कहा गया है।
जहां तक परोपकार की बात है, उसके सम्बंधी में बात यह है कि यद्यपि कोई किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता, तथापि ज्ञानी को भी दूसरों का भला करने का भाव आये बिना रहता नहीं है; क्योंकि अभीउसके राग-भाव विद्य़माल है। दूसरी बात यह है कि निश्चय से कोई किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता, पर व्यवहार से तो शास्त्रों में भी एक दूसरे के भले-बुरे करने की बात कहीं गई है; भले ही वह कथन उपचारित हो, कथन मात्र हो, पर है तो। ’दान’ व्यवहारधर्म है, अतः वह परोपकार का कारण होता है, बंध के अभाव का कारण नहीं। जो व्यक्ति उसे निश्चयधर्म मानकर बंध के अभाव (मुक्ति) का कारण मान बैठते हैं वे तो गलती करते ही हैं, साथ ही वे भी गलती करते हैं जो पुण्यबंध का कारण भी नहीं मानते अर्थात् व्यवहारधर्म भी स्वीकार नहीं करते।
त्याग खोटी चीजों का किया जाता है और दान अच्छी चीजा का दिया जाता है।यही कहा जाता है कि क्रोध छोड़ो, मान छोड़ो, लोभ छोड़ो। यह कोई नहीं कहता कि ज्ञान छोड़ो। जो दुःखस्वरूप हैं, दुःखकर हैं, आत्मा का अहित करने वाला हैं - वे मोह-राग-द्वेष रूप आस्त्रभाव ही हेय हैं, त्यागने योग्य हैं, इनका ही त्याग किया जाता है। इनके साथ ही इनके आश्रयभूत अर्थात् जिनके लक्ष्य से मोह-राग-द्वेष भाव होते हैं - ऐसे पुत्रादि चेतन एवं धन-मकानादि अचेतन पदार्थों का भी त्याग होता है। पर मुख्य बात मोह-राग-द्वेष के त्याग की ही है, क्योंकि मोह-राग-द्वेष के त्याग से इनका त्याग नियम से हो जाता है; किंतु इनके त्याग देने पर भी यह गारंटी नहीं कि मोह-राग-द्वेष छूट ही जावेंगे।
बहुत से लोग तो त्याग और दान को पर्यायवाची ही समझने लगे हैं; किंतु उनका यह मानना एकदम गलत है। ये दोनों शब्द पर्यायवाची तो हैं ही नहीं, अपितु कुछ अंशों में इनका भाव परस्पर एक-दूसरे के विरूद्ध पाया जाता है।
यदि ये दोनों शब्द एकार्थवाची होते तो एक के स्थान पर दूसरे का प्रयोग आसानी से किया जा सकता था; किंतु जब हम इसप्रकार का प्रयोग करके देखते हैं तो अर्थ एकदम बदल जाता है। जैसे दान चार प्रकार का कहा गया है -
1. आहारदान
2. औषधिदान
3. ज्ञानदान और
4. अभयदान
अब जरा उक्त चारों शब्दों में ’दान’ पर ’त्याग’ शब्द का प्रयोग करके देखें तो सारी स्थिति स्वयं स्पष्ट हो जाती हैं।
क्या आहारदान और आहारत्याग एक ही चीज है? इसीप्रकार क्या औषधिदान और औषधित्यग को एक कहा जा सकता है?
नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि आहारदान और औषधिदान में दूसरे पात्र-जीवों को भोजन और औषधि दी जाती है, जबकि आहारत्याग और औषधित्याग में आहार और औषधि का स्वयं सेवन करने का त्याग किया जाता है। आहारत्याग और औषधित्याग में किसी को कुछ देने का सवान ही नहीं उठता। इसीप्रकार आहारदान और औषधिदान में आहार और औषधि के त्यागने का (नहीं खाने का) प्रश्न नहीं उठता।
आहारदान दीजिए और स्वयं भी खूब खइये, कोई रोक-टोक नहीं; पर आहार का त्याग किया तो फिर खाना-पीना नहीं चलेगा।
आहार और औषधि के सम्बंध में कहीं कुछ अधिक अटपटा नहीं भी लगे, किंतु जब ’ज्ञानदान’ के स्थान पर ’ज्ञानत्याग’ शब्द का प्रयोग किया जाए तो बाद एकदम अटपटी लगेगी। क्या ज्ञान का भी त्याग किया जाता है? क्या ज्ञान भी त्यागने योग्य है? क्या ज्ञान का त्याग किया भी जा सकता है?
इसीप्रकार और भी समझ लीजिए। दान में कम से कम दो पार्टी चाहिए और दोनों को जोड़ने वाला माल भी चाहिए। आहार देने वाला, आहार लेने वाला और आहार; औषधि देने वाला, औषधि लेने वाला और औषधि - इन तीनों के बिना आहरदानया औषधिदान संभव नहीं है। यदि लेना वाला नहीं तोदेंगे किसे? यदि वस्तु न हो तो देंगे क्या? पर त्याग के लिए कुछ नहीं चाहिये। जो अपने पास नहीं है - त्याग उसका भी किया जा सकता है। जैसे ’मैं शादी नहीं करूंगा’ - इसमें किसी वस्तु का त्याग हुआ? शादी का। लेकिन शादी की ही कहां है? जब शादी की ही नहीं तो त्याग किसका? करने के भा का।
इसीप्रकार सर्व परिग्रह का त्याग होता है, पर सर्व परपदार्थरूप परिग्रह है कहां हमारे पास? अतः उसके गहण करने के भाव का ही त्याग होता है।
त्याग के लिए हम पूर्णतः स्वतंत्र हैं उसमें हम जिसे त्यागें,उसे लेने वाला नहीं चाहिए, वस्तु भी नहीं चाहिए।
इसप्रकार हम देखते हैं कि दान एक पराधीन क्रिया है, जबकि त्याग पूर्णतः स्वाधीन। जो क्रिया दूसरों के बिना सम्पन्न न हो सके, वह धर्म नहीं हो सकती। धर्म पर के संयोग का नाम नहीं, अपितु वियोग का है। कम से कम त्यागधर्म में तो पर के संयोग की अपेक्षा संभव नहीं है; त्याग शब्द ही वियोवाची है। यद्यपि इसमें शुद्धपरिणति सम्मिलित है, परंतु पर का संयोग बिल्कुल नहीं।
कुछ वस्तुएं ऐसी हैं जिनका त्याग होता है, दान नहीं। कुछ ऐसी हैं जिनका दान होता है, त्याग नहीं। कुछ ऐसी भी है जिनका दान भी होता है और त्याग भी। जैसे - राग-द्वेष, मां-बाप, स्त्री-पुत्रादि को छोड़ा जा सकता है, उनका दान नहीं दिया जा सकता, ज्ञान और अभय का दान दिया जा सकता है, पर वे त्यागे नहीं जाते; तथा औषधि, आहार, रूपया-पैसा आदि का त्याग भी हो सकता है और दान भी दिया जा सकता है।
शास्त्रों में कहीं-कहीं त्याग और दान शब्दों का एक अर्थ में भी प्रयोग हुआ है। इसकारण भी इन दोनों के एकार्थवाची होने के भ्रम फैलने में बहुत कुछ सहायता मिली है। शास्त्रों में जहां इसप्रकार के प्रयोग हैं, वहां वे इस अर्थ में हैं - निश्चयदान अर्थात त्याग और व्यवहारत्याग अर्थात् दान। जब वे दान कहते हैं तो उसका अर्थ सिर्फ दान होताहै और जब निश्चयदान कहते हैं तोउसका अर्थ त्याग धर्म होता है। इसीप्रकार जब वे त्याग कहते हैं तो उसका अर्थ त्यागधर्म होता है औ जब व्यवहारत्याग कहते हैं तो उसका अर्थ दान होता है।
इसप्राकर का प्रयोग दशलक्षण पूजन में भी हुआ है। उसमें कहा है -
यहां ऊपर की पंक्ति मं जहां उत्तमत्याग धर्म को जगत में सारभूत बताया गया है, वहीं साथ में उसके चार भेद भी गिना दिये, जा कि वस्तुतः चार प्रकार के दान हैं और जिनकी विस्तार से चर्चा की जा चुकी है।
अब प्रश्न उठता है कि ये चार दानक्या त्यागधर्म के भेद हैं? पर नीचे की पंक्ति पढ़ते ही सारी बात स्पष्ट हो जाती है। नीचे की पंक्ति में साफ-साफ लिखा है कि निश्चयत्याग तो राग-द्वेष का अभाव करना है। यद्य़पि ऊपर की पंक्ति में व्यवहार शब्द का प्रयोग नहीं है, तथापि नीचे की पंक्ति में निश्चय का प्रयोग होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऊपर जो बात है वह व्यवहारत्याग अर्थात् दान की है। आगे और भी स्पष्ट है कि ’ज्ञाता दोनों दान संभारे’ अर्थात् ज्ञानी आत्मा निश्चय और व्यवहार दोनों को संभालता है। ’दोनों दान’ शब्द सबकुछ स्पष्ट कर देता है।
पही पंक्ति पढ़ते ही ऐसा लगता है कि कवि बात तो त्यागधर्म की कर रहा है और भेद दान के गिना दिए हैं। पर ऐसा नहीं कि कवि के ध्यान में यह बात न हो; क्योंकि अगली पंक्ति में ही सब कुछ स्पष्ट हो जाता है कि कवि वीतरागभावरूप त्यागधर्म को निश्चयदान या निश्चयत्याग एवं आहारादि के देने को व्यवहारदान या व्यवाहरत्याग शब्द से अभिहित कर रहा है।
पूजन की इस पंक्ति में शास्त्र और अभय के साथ ’दिवैया’ शब्द का प्रयोग एवं रांग-विरोध के साथ ’त्याग’ शब्द का प्रयोग यह बताता है कि शास्त्र और अभय का दान होता है और राग-द्वेष का त्याग होता है। तथा ’धनि साधु’ कह कर यह स्पष्ट कर दिया है कि ये साधु के घर्म हैं। आहार और औषधि को जानबूझकर छोड़ दिया गया है; क्योंकि वे साधु द्वारा देना संभव नहीं है। इसीप्रकार के प्रयोग अन्यत्र भी देखे जा सकते हैं। अतः शास्त्रों का अर्थ समझने में बहुत सावधनी रखना जरूरी है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है।
एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यदि आहारादि देने को ही त्यागधर्म मानेंगे तो फिर एक समस्या ओर खडी हो जावेगी। वह यह कि यहां जो उत्तमक्षमादि धर्मों का वर्णन चल रहा है, वह मुख्यतः मुनियों की अपेक्षा किया गया है; क्योंकि तत्वार्थसुत्र में दशधर्म की चर्चा गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र के साथ की गई हे। ये सब मुनिधर्म के ही रूप हैं।
यदि आहारादि देने का नाम त्यागधर्म है तो फिर मुनिराज तो आहार लेते हैं, देते नहीं; देते तो श्रावक है। अतः फिर त्यागधर्म मुनिराजों की अपेक्षा श्रावकों के विशेष मानना होगा जो कि संभव नहीं है। अतः वस्तुतः तो राग-द्वेषदि विकारों के त्याग का ही नाम उत्तमत्यागधर्म है। मुनियों के अनर्गल आहारादि के त्यागरूप त्यागधर्म तो हो सकता है, आहारादि के देने रूप नहीं।
हम त्याग का तो सही स्वरूप समझते ही नहीं, दान का भी सही स्वरूप नहीं समझते। इस अर्थप्रधान युग में पैसा ही सब कुछ हो गया है। जब भी दान की बात अवेगी, दानवीरों की चर्चा होगी, तो पैसे वालों की ओर ही देखा जावेगा। अज के दानवीर सेठों में ही दिखाई देंगे। उन्हीं ही दानवीर की उपाधियां दी जाती है। किसी आहार, औषधि या ज्ञान देने लो को कभी ’दानवीर’ बनाया गया हो तो बताएं? एक भी ज्ञानी पंडित या वैद्य समाज में ’दानवीर’ की उपाधि विभूषित दिखाई नहीं देता। जितने दानवीर होंगे वे सेठों में ही मिलेंगे। वणिक वर्ग इससे आगे सोच भी क्या सकता है? इसने एक लाख दिये, उसने पांच लाख दिए - ऐसी ही चर्चा सर्वत्र होती देखी जाती है।
पर मैं सोचता हूँ चार दानों में तो पैसादान, रूपयादान नाम का कोई दान है नहीं; उनमें तो आहार, औषधि, ज्ञान और अभयदान हैं; यह पैसादान कहाँ से आ गया?
दान निर्लोभ्यिों की क्रिया थी, जिसे यश और पैसे के लोभियों ने विकृत कर दिया है।
’हमारी संस्था को पैसा दो तो चारों दानों का लाभ मिलेगा’ - ऐसी बातें करते प्रचार आज सर्वत्र देख़ा जा सकते हैं। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए वे कहेंगे - ’’छात्रावास में लडके रहते हैं, वे वहीं भोजन करते हैं; अतः आहारदान हो गया। उन्हें कानूनी या डाॅक्टरी या और भी इसीप्रकार की कोई लौकिक शिक्षा देते हैं; अतः ज्ञानदान हो गया। वे बीमार हो जाते हैं तो उनका अस्पतान में इला कराते हैं; यह औषधिदान और अखड़ें में व्यायाम करते हैंद्ध यह अभयदान हो गया।’’
मैं पूछता हूँ - क्या अपात्रों को दिया गया भोजन आहारदान है?
कहा भी है-
चारित्राभास को धारण करने वाले मिथ्यादृष्टियों को दान देना सर्प को दूध पिलाने के समान केवल अशुभ के लिए ही होता है।
शास्त्रों में तीन प्रकार के पात्र कहे हैं, वे सब चैथे गुणस्थान से ऊपर वाले ही होते हैं।
तथा लौकिकशिक्षा ज्ञान है या मिथ्याज्ञान? इसीप्रकार अभक्ष्य औषधियों का देना ही औषधिदान है क्या जिस अभक्ष्य औषधि के सेवन से पाप माना गया है, उसे देने में दान-पुण्य या त्यागधर्म कैसे होगा?
पर उन्हें इससे क्या? उन्हें तो पैसा चाहिए और देने वालों को भी क्या? उनका नाम पाटिये पर लिखा जाना चाहिए। इसप्रकार देने वाले यश के लोभी और लेने पैसे के लोभी - इन लोभियों ने लोभ के अभाव में होने वाले दान को भी विकृत कर दिया है।
त्यागधर्म का यह दुर्भाग्य ही समझो कि उसकी चर्चा के लिए वर्ष में महापर्व दशलक्षण के दिनों में एक दिन मिलता है, उसे यह दान खा जाता है। दानप क्या खाजाता है, दान के नाम पर होने वाला चन्दा खा जाता है। यह दिन चन्दा करने में चला जाता है, त्यागधर्म के सच्चे स्वरूप की परिभाषा भी स्पष्ट नहीं हो पाती।
समाज में त्यागधर्म के सच्चे स्वरूप का प्रतिपादन करने वला विद्वान बड़ा पण्डित नहीं; बल्कि वह पेशेवर पण्डित बड़ा पण्डित माना जाता है, जो अधिक से अधिक चन्दा करा सके। यहउस देश का, उस समाज का दुर्भाग्य ही समझो, जिस देश व समाज में पण्डित और साधुओं के बड़प्पन का नाप ज्ञान और संयम से न होकर दान के नाम पर पैसा इकट्ठा करने की क्षमता के आधार पर होता है।
इस वृत्ति के कारण समाज और धर्म का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि पंडितों और साधुओं का ध्यान ज्ञान से हटकर चन्दे पर केन्द्रित हो गया है। जहां देखो, धर्म के नाम पर, विशेषकर त्यागधर्म के नाम पर, दान के नाम पर, चन्दा इकट्ठा करने में ही इनकी शक्ति खर्च हो रही है, ज्ञान और ध्यान एक ओर रह गये हैं।
यही कारण है कि उत्तम त्यागधर्म के दिन हम त्याग की चर्चा न करके दान के गीत गाने लगते हैं। दान के भी कहां, दानियों के गीत गाने लगते हैं। दानियों के गीत भी कहा, एक प्रकार से दानियों के नाम पर यश के लोभियों के गीत ही नहीं गाते; चापलूसी तक करने लगते हैं। यह सब बड़ा अटपटा लगता है, पर क्या किया जा सकता है - सिवाय इसके कि इससे हम स्वयं बचें और त्यागधर्म का सही स्वरूप स्पष्ट करें; जिनका सद्भाग्य होगा वे समझेंगे, बाकी का जो होना होगा सो होगा।
यद्यपि चार दानों में पैसादान नहीं है तथापि उसका भीदान हो सकता है, होता भी है। पैसे के दान को दान ही नहीं मानने की बात नहीं कही जा रही है; पर वह ही सब-कुछ नहीं है - मात्र यह स्पष्ट किया है।
दान देने वाले से लेने वाला बड़ा होता है। पर यह बात तब है, जब देने वाला योग्य दातार और लेने वाला योग्य पात्र हो। मुनिराज आहारदान लेते हैं और गृहस्थ आहारदान देते हैं। मुनिराज त्यागी हैं, त्यागधर्म के धनी हैं; गृहस्थ दानी है, अतः पुण्य का भागी है। धर्मतीर्थ के प्रवर्तक बाह्यभ्यंतर परिग्रहों के त्यागी भगवान आदिनाथ हुए और उन्हें ही मुनि अवस्था में आहार देने वाले राजा श्रेयांस दानतीर्थ के प्रवर्तक माने गए हैं।
गृहस्थ नौ बार नमकर मुनिराज को आहार दान देता है, पर आज दान के नाम पर भीख मांगने वालों ने दातारों की चापलूसी करके उन्हें दानी से मानी बना दिया है। देने वाले का हाथ ऊंचा रहता है, आदि चापलूसी करते लोग कहीं भी देखे जा सकते हैं। आकाश के प्रदेशों में ऊँचा रहने से कोई ऊँचा नहीं हो जाता। मक्खी राजा के मस्तक पर भी बैठ जाती है तो क्या वह महाराजा हो गई? गृहस्थों से मुनिराज सदा ही ऊंचों हैं। दातार भी यह मानता है, पर इन चापलूसों को कौन समझाए?
दानी से त्यागी सदा ही महान होता है; क्योंकि त्याग धर्म है और दान पुण्य।
यहां एक प्रश्न संभव है कि आहारदान में ते ठीक, पर ज्ञानदान में यह बात कैसे सम्भावित होगी?
इसप्रकार कि ज्ञानदान अर्थात समझानाद्ध समझाने का भाव भी शुभभाव होने से पुण्यबंध का कारण है। अतः समझाने वाले को पुण्य का लाभ अर्थात् पुण्य क बंध ही होता है, जबकि समझने वाले को ज्ञानलाभ प्राप्त होता है। लाभ की दृष्टि से ज्ञानदान में लेनेवाला फायदे में रहा।
यहां कोई यह कह सकता है कि अप तो व्यर्थ ही पैसों का दान देने ओर लेने वालों की आलोचना करते हैं। यदि ऐसा न हो तो संस्थाओं चलें कैसे?
अरे भाई! हम उनकी बुराई नहीं करते; किंतु दान का सही स्वरूप न समझने के कारण दान देकर भी जो दान का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त नहीं कर पाते, उनके हिता को लक्ष्य में रखकर उसका सही स्वरूप बताते है, जिसे जानकर वे वास्तविक लाभ उठा सकें। रही बात संस्थाओं की, सो आप उनकी बिल्कुल चिनता न करें। यदि जनता दान का सही स्वरूप समझ लेगी तो ये धार्मिक संस्थाएं बंद नहीं होगी, दुगुनी-चैगुनी चलेंगी। दान भी मान के लिए अभी जितना निकालते हैं, उससे दुगना-चैगुना निकलेगा। हां, धर्म के नाम पर धंध करने वाली नकली संस्थाएं अवश्य बंद हो जावेंगी। सो उन्हें तो समाप्त होना ही चाहिए।
संक्लेश परिणामों से दिया गया चन्दा दान नहीं हो सकता। दान तो उत्साहपूर्वक विशुद्धभावों से दिया जाता है। दान के फल का निरूपण करते हुए कहा गया है -
’’दान देय मन हरष विशेखे, इस भव जस परभव सुख देखे।1’’
यहां दान का फल इस भव में यश एवं आगामी देने के साथ ’विशेष हर्ष’ की शर्त भी लगाई गई है। उत्साहपूर्वक विशेष प्रसन्नता के साथ दिया गया दान ही फलदायी होता है, किसी के दबाव या यशादि के लोभ से दिया गया दान वांछित फल नहीं देता। योग्य पात्र को देखकर दातार को ऐसी प्रसन्नता होनी चाहिए, जैसी कि ग्राहक को देखकर दुकानदार को होती है। संक्लेश परिणामपर्वूक अनुत्साह से दिये गए दान से धर्म तो बहुत दूर, पुण्य भी नहीं होता।
बिना मांगें दिया गया दान सर्वोत्कृष्ट है, मांगने पर दिया गया दान भी न देने से कुछ ठीक है। पर जोर-जबरदस्ती से अनुत्साहपूर्वक देना तो दान ही नहीं है। कहा भी है -
खींचातानी के बाद देने वाले को इस लोक में यश भी नहीं मिलता और पुण्य का बंध नहीं होने से परभव में सुख मिलने का भी सवाल नहीं उठता। नहीं देने पर तो अपयश होता ही है, खींचतान के बाद दे देने पर भी लोग उसकी मजाक ही उड़ाते हैं। कहते हैं भाई! तुमने पाडा दुह लियाहै। हम तो समझते थे वे कुछ नहीं देंगे, पर तुम ले ही आये।
यशाादि के लोभ के बिना धर्मप्रभावना, तत्वप्रचार आदि के लिए उत्सापूर्वक दिया गया रूपये-पैसे आदि सम्पत्ति का दान; मुनिराज आदि योग्य पात्रों को दिया गया आहाराद्रि का दान; आत्मार्थियों को दिया गया आत्महितकारी तत्वोपदेश एवं शास्त्रादि लिखना-लिखाना, घर-घर तक पहुंचाना आदि ज्ञानदान;शुभभावरूप होने से पुण्यबंध के कारण हैं।
ज्ञानी जीवों को अपनी शक्ति एवं भूमिकानुसार उक्त दानों को देने का भाव अवश्यक आता है, वे दान देते भी खूब हैं; किंतु उसे त्यागधर्म नहीं मानते, नहीं जानते। त्यागधर्म भी ज्ञानी श्रावकों के भूमिकानुसार अवश्य होता है और वे उसे ही वास्तविक त्यागधर्म मानते-जानते हैं।
यशादि के लोभ से दान देने वालों की आलोचना सुनकर दान नहीं देने वालों को प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है। नहीं देने से तो अच्दा ही है, मान के लिए ही सही; उनके देने से उन्हें भले ही उसका लाभ न मिले, पर तत्वप्रचान आदि का कार्य तो होता ही है। यह बात अलग है कि वह वास्तविक दान नहीं है। अतः दान का सही स्वरूप समझकर हमें अपनी शक्ति और योग्यतानुसार दान तो अवश्य ही करना चाहिए।
दान देने की प्रेरणा देते हुए आचार्य पद्मनन्दी ने लिखा है -
गृहस्थ श्रावकों को शक्ति के अनुसार उत्तम पात्रों के लिए दान अवश्य देना चाहिए, क्योंकि दान के बिना उनका गृहस्थश्रम निष्फल ही होता है।
खुरचन प्राप्त होने पर कौआ भी उसे अकेले नहीं खाता, बल्कि अन्य साथियों को बुलाकर खाता है। अतः यदि प्राप्त धन का उपयोग धार्मिक और सामाजिक कायों में न करके उसे अकेले अपने भोग में ही लगायेगा तो यह मानव कौए से भी गया-बीता माना जाएगा।
यहां जो बात कही जा रही है वह दान की हीनता या निषेधरूप नहीं है; किन्तु त्याग और दान में क्या अंतर है - यह स्पष्ट किया जा रहा है।
दान की यह आवश्यक शर्त है क जो देना है, जितना देना है, वह कम से कम उतना, देने वाले के पास अवश्य होना चाहिए; अन्यथा देगा क्या और कहां से देगा? पर त्याग में ऐसा नहीं हैं जो वस्तु हमारे पास नहीं है, उसको भी त्यागा जा सकता है। उसे मैं प्राप्त करने का यन्त नहीं करूंगा, सहज में प्राप्त हो जाने पर भी नहीं लूंगा - इसप्रकार त्याग किया जाता है। वस्तुतः यह उस वस्तु का त्याग नहीं, उसके प्रति होने वाले या सम्भावित राग का त्या है।
लखपति अधिक से अधिक लाख का ही दान दे सकता है, पर त्याग तो तीन लोक की सम्पत्तिा काभी हो सकता है। परिग्रह-परिणामव्रत में एक निश्चित सीमा तक परिग्रह रखकर और समस्त परिग्रह का त्याग किया जाता है। वह सीमा - जितना अपने पास है, उससे भी बड़ी हो सकती है। जैसे - जिसके पास दस हजार का परिग्रह है, वह एक लाख का भी परिग्रहपरिणाम ले सकता है। ऐसा होने पर भी वह त्यागी है; पर अपने पास रखने की कोई सीमा निर्धारित किये बिना करोड़ों का भी दान दे तो भी त्यागी नहीं माना जाएगा।
दान कमाई पर प्रतिबंध नहीं लगाता, आप चाहे जितना कमाओं; पर त्याग में भले ही हम कुछ न दें, कुछ न छोड़ें; पर वह कमाई को सीमित करता है, उस पर प्रतिबंध लगाता हैं
दान में यह देखा जाता है कि कितना दिया, यह नहीं देखा जाता कि उसने अपने पास कितना रखा है; जबकि त्याग में यह नहीं देखा जाता कि कितना दिया है या छोड़ा है, बल्कि यह देखा जाता है कि उसने अपने पास कितना रखा या रखने का निश्चय किया है, बाकी सबका त्याग ही है। यदि त्याग में कितना छोड़ा देखा जाता होता तो फिर चक्रवर्ती पद छोड़कर मुनि बनने वाले व्यक्ति सबसे बड़े त्यागी माने जाते; किंतु नग्नदिगम्बर भावलिंगी सन्त अपनी वीतरागपरिणतिरूप त्याग से छोटे-बड़े माने जाते हैं; इससे नहीं कि वे कितना धन, राज-पाट, स्त्री-पुत्रादि छोड़ के आये हैं। यदि ऐसा होता तो फिर भरत चक्रवर्ती बड़े त्यागी एवं भगवान महावीर छोटे त्यागी माने जाते; क्योंकि भरतादि चक्रवर्तियों ने तो छ्यानवै हजार पत्नियों और छहखण्ड की विभूति छोड़ी थी। महावीर के तो पत्नी थी ही नहीं, छहखण्ड की राज भी नहीं था, वे क्या छोड़ते? लोक में भी बालब्रह्मचारी को अधिक महत्व दिया जाता है।
दान में इतना देकर कितना रखा - इसका विचार नहीं किया जाता; पर त्याग में कितना रखा - यह देखा जाता है, कितना छोड़ा या दिया - यह नहीं। दान यदि देने का नाम है तो त्याग नहीं लेने को कहते हैं। देने वाले से,नहीं लेने वला बड़ा होताहै; क्योंकि देने वाला दानी है औरनहीं लेने वाला त्यागी। जिसके पास सब-कुछ होता है, उसे राजा कहतेहैं; और जिसके पास कुछ नहीं होता अर्थात् जो अपने पास कुछ भी नहीं रखता, जिसे कुछ नहीं चाहिए उसे महाराज कहा जाता है। कहा भी है -
लोक में दानियों से अधिक सन्मानत्यागयों का होता है औरवह उचित भी है; क्योंकि त्याग शुद्धभाव; त्याग धर्म है और दान पुण्य।
यहाँ एक प्रश्न संभव है क लोक में त्याग जैसे पवित्र शब्द के साथ मल-मूत्र जैसे अपवित्र शब्दों को जोड़ दिया जाता है। जैसे - मलत्याग, मूत्रत्याग। जबकि त्याग की अपेक्षा हीन दान के साथ ज्ञान जैसा पवित्र शब्द जोड़ा गया है। जैसे -ज्ञानदान।
भाई! कोई शब्द पवित्र या अपवित्र नहीं होता। शब्द तो वस्तूु के वाचक हैं। रही वस्तु की बात, सो भाई! त्याग तो अपवित्र वस्तु का ही किया जाता है। राग-द्वेष-मकोह भाव भी तो अपवित्र हैं,उनके साथ हीर त्याग शब्द लगता है। तथा दान तो अच्छी वस्तु का ही दिया जाता है।
यदि आज के सन्दर्भ में गहराई से विचार करें तो सच्चा त्याग तो लोग मल-मूत्र का ही करते हैं; क्योंकि जिस वस्तु को त्यागा, फिरउसके सम्बंध में विकल्प भी नहीं उठनाचाहिए कि उसका क्या हुआ अथवा क्या होगा? यदि विकल्प उठे तो उसका त्याग कहां हुआ? मल-मूत्र के त्याग के बाद लोगों को विकल्प भी नहीं उठता कि उसकाक्या हुआ, उसे कूकर ने खाया या सूकर ने? इन्हीं के समान जब उन समस्त वस्तुओं के प्रति हमारा उपेक्षा भाव हो, जिनका हम त्याग करना चाहते हैं या करते हैं, तीाी वह सच्चा त्याग होगा।
त्याग एक ऐसा धर्म है, जिसे प्राप्त कर यह आत्मा अकिंचन अर्थात् आकिंचन्यधर्म का धरी बन जाता है, पूर्ण ब्रह्म में लीन होने लगता है, हो जाता है और सारभूत आत्मस्वभाव को प्राप्त कर लेता है।
ऐसे परम पवित्र त्यागधर्म का मर्म समझकर जन-जन समस्त बाह्यभ्यनतर परिग्रह को त्याग कर ब्रह्लीन हों, अनन्त सुखी हों - इस पवित्र भावन के साथ विराम लेता हूँ।