आचार्य कुन्दकुन्द इस युग में महान् आचार्य हुए है। अध्यात्म के क्षेत्र में उनकी जो देन है, वह अप्रतिम है। ‘समयसार‘ में उन्होंने एकत्व विभक्त आत्मा का वर्णन किया है। उनका कहना है कि -
अर्थात् जो जीवन के एकत्व के साथ निश्चय रूप से एक होकर रहता है वह इस संसार में सब ठौर सुन्दर है।
उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय भी आत्मतत्व है। उपनिषद शब्द उप और नि उपसर्ग पूर्वक सद् धातु से क्विप् प्रत्यय लगकर बना है। सद्धातु का अर्थ है नाश, गति और शिथिल करना। उप का अर्थ है समीप और नि का अर्थ है निश्चयपूर्वक। वह विद्या या शास्त्र या विषय या पुस्तक जिसकी प्राप्ति से अविद्या का निश्चित रूप से नाश हो, जो मोक्ष की इच्छा करने वाले को ब्रह्म या विद्या के समीप ले जाकर उसका साक्षात्कार करा दे और जो संसार के बंधनों को शिथिल कर दे, ये सभी अर्थ उपनिषद् शब्द से निकलते हैं।
बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म ज्ञान सबसे पहले क्षत्रियों में था और बाद को ब्राह्मणों ने इसे प्राप्त किया। इससे यह स्पष्ट है कि कोई भी इस ब्रह्म को जान सकता है, यदि वह सर्वथा अपनी तपस्या के अनुसार इसके पाने का अधिकारी है।
आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं विशेषकर समयसार में आत्मविद्याा का प्रौढ़ रूप में चिन्तन अभिव्यक्त हुआ है। उपनिषदों के पढ़ने पर ऐसा लगता है कि उपनिषद् का ऋषि आत्मा की खोज में लगा हुआ है किन्तु उसके प्रतिपादन में वह प्रौढ़ता दृष्टिगोचर नहीं होती है, जो प्रौढ़ता आचार्य कुन्दकुन्द के प्रतिपादन में है। आचार्य कुन्दकुन्द आत्मतत्व की गहराई को उसके अपने पूरे वैभव के साथ दिखलाना चाहते हैं। आत्मा का वैभव अनंत और अगोचर है। अतः कुन्दकुन्द भी कहते हैं कि उस एकत्वविभक्त आत्मा का कथन अपने स्ववैभव से करूँगा, तथापि यदि मैं कहीं चूक जाऊँ तो छल ग्रहण मत कर लेना। इससे आचार्य की निरभिमानता और आत्मतŸव की गहना की उनकी अनुभूति और आदर व्यक्त होता है।
उपनिषदों को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि जनता वेदवाद और यज्ञवाद से ऊब गई थी, अतः उसके स्थान पर ब्रह्मविद्या और आत्मविद्या की प्रतिष्ठा होने लगी थी और लोग इस विद्या को अधिक महत्व देने लगे थे।
‘ईशावास्योपनिषद्‘ में कहा है-
जिस स्थिति में जानते हुये समस्त आत्मा ही हो चुकते है उस अवस्था में एकता का निरंतर साक्षात् करने वाले पुरुष के लिए कौन सा मोह और शोक रह सकता है ?
इसी अभिप्राय को आचार्य कुन्दकुन्द ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-
जो मुनि या तपोधन तत्परता के साथ इस आत्म भावना को स्वीकार करता है वह संपूर्ण दुःखों से थोड़े ही काल में मुक्त हो जाता है।
‘केनोपनिषद्‘ में जो ब्रह्म की स्थिति कही गई है, वही स्थिति प्रायः जैनधर्म में आत्मा की है। उपनिषदों में ब्रह्म की आत्मा के रूप में उल्लेख अनेक स्थानों पर है। ‘केनोपनिषद्‘ में कहा गया है-
किसके द्वारा सत्ता स्फूर्ति पाकर और संचालित होकर मन अपने विषयों में गिरता है, किसके द्वारा वियुक्त होकर अन्य सबसे श्रेष्ठ प्राण चलता है, किसके द्वारा क्रियाशील की हुई इस वाणी को लोग बोलते हैं और कौन सी प्रसिद्ध देव नेत्रेन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय को नियुक्त करता है अर्थात् अपने-अपने विषयों के अनुभव में लगाता है ? जो मन का मन अर्थात् कारण है, प्राण का प्राण है, वाक् इन्द्रिय का वाक् है, श्रोत्रेन्द्रिय का श्रोत्र है और चक्षु इन्द्रिय का चक्षु है; वह ही इन सबका प्रेरक ब्रह्म है। धीर उसे जानकर जीवन्मुक्त होकर इस लोक से जाने के बाद अमर हो जाते हैं। वहाँ (उस ब्रह्म तक) न तो चक्षुरिन्द्रिय पहुँच सकती है, न वाक् इन्द्रिय पहुँच सकती है, न मन ही। जिस प्रकार इस ब्रह्म के स्वरूप को बतलाया जाय कि वह ऐसा है; इस बात तो न तो हम स्वयं अपनी बुद्धि से जानते हैं, न दूसरों से सुनकर ही जानते हैं, वह जाने हुए पदार्थ समुदाय से भिन्न ही है और मन इन्द्रियों द्वारा न जाने हुए (जानने में न आने वाले) से भी ऊपर है। यह बात अपने पूर्वाचर्यों के मुख से सुनते आये हैं, जिन्होंने हमें उस (ब्रह्म) का तत्व भलीभाँति व्याख्या करके समझाया था। जो वाणी के द्वारा नहीं बतलाया गया है, बल्कि जिससे वाणी बोली जाती है अर्थात् जिसकी शक्ति से वक्ता बोलने में समर्थ होता है, उसको ही तू ब्रह्म ज्ञान। वाणी के द्वारा बताने वाले जिस तŸव की लोग उपासना करते हैं यह (ऐकान्तिक रूप से) ब्रह्म नहीं है।
जिसको मन से नहीं समझा जा सकता अपितु जिससे मन जाना हुआ हो जाता है; ऐसा कहते हैं कि उसको ही तू ब्रह्म जान। मन और बुद्धि के द्वारा जानने में आने वाले जिस तत्व की लोग उपासना करते हैं (ऐकान्तिक रूप से) यह ब्रह्म नहीं है। जिसको (कोई भी) चक्षु के द्वारा नहीं देख सकता, अपितु जिससे अपने विषयों को देखता है उसको ही तू ब्रह्म जान। चक्षु के द्वारा देखने में आने वाले जिस दृश्य वर्ग की लोग उपासना करते हैं; यह ब्रह्म नहीं है। जिसको श्रोता कानों के द्वारा नहीं सुन सकता; बल्कि जिससे यह श्रोत्र इन्द्रिय सुनी हुई है; उसको ही तू ब्रह्म जान। श्रोत्र इन्द्रिय के द्वारा जानने में आने वाले जिस तत्व की लोग उपासना करते हैं, यह ब्रह्म नहीं है। जो प्राण के द्वारा चेष्टायुक्त नहीं होता; अपितु जिससे प्राण चेष्टायुक्त होता है, उसको ही तू ब्रह्म ज्ञान। प्राणों की शक्ति से चेष्टायुक्त जिस तŸव समुदाय की लोग उपासना करते हैं (एकान्त से); यह ब्रह्म नहीं है।
इसी अभिप्राय को आचार्य कुन्दकुन्द ने निम्नलिखित गाथा में व्यक्त किया है -
शुद्ध जीव तो ऐसा है जिसमें न रस है, न रूप है, न गंध ही है और न इन्द्रियों के गोचर है, केवल चेतना गुण बाला है। शब्द रूप भी नहीं है, जिसका किसी भी चिन्ह द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता और जिसका कोई निश्चित आकार भी नहीं है। ‘कठोपनिषद्‘ (१।३।१५) में कहा है कि-
जो शब्द रहित, स्पर्श रहित, रूप रहित और बिना गंधवाला है तथा जो अविनाशी, नित्य, अनादि, अनंत महत्व से श्रेष्ठ सर्वथा सत्य तत्व है, उसे जानकर मृत्यु के मुख से छूट जाता है।
आचार्य कुन्दकुन्द तो और भी अधिक गहराई में चले जाते हैं। वे कहते हैं -
जितने भी भाव हैं, वे सब मेरे से भिन्न हैं; इस प्रकार प्रज्ञा (विवेक बुद्धि) से शुद्धात्मा को ग्रहण करना चाहिए। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, रूप तथा संस्थान और संहनन; ये जीव के स्वभाव नहीं है। राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्वादि प्रत्यय तथा कर्म, नोकर्म; ये जीव के स्वभाव नहीं है। वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, अध्यवसाय स्थान, अनुभाग स्थान; ये भी जीव के स्वभाव नहीं हैं। कोई भी योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान और मार्गणास्थान; ये सब जीव के स्वभाव नहीं है। स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान और संयमलब्धिस्थान भी तथा जीवस्थान और गुणस्थान; ये सब भी जीव के स्वभाव नहीं है; किन्तु ये सब भी पुद्गल द्रव्य के संयोग से होने वाले परिणाम है।
‘ईशावस्योपनिषद्‘ में कहा गया है कि जो मनुष्य अविद्या की उपासना करते हैं (वे) अज्ञानस्वरूप घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं, और जो मनुष्य विद्या में रत हैं अर्थात् ज्ञान के मिथ्याभिमान में रत, मत्त हैं, वे उससे भी अधिकतर अंधकार में प्रवेश करते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा को ग्रहण करने हेतु विद्या के स्थान पर ‘पण्णा‘ (प्रज्ञा) शब्द दिया है, जो विवेकज्ञान को द्योतित करता है। कोई शिष्य प्रश्न करता है कि -
कह सो घिप्पदि अप्पा ?
-शुद्धात्मा कैसे ग्रहण किया जाता है ?
आचार्य उत्तर देते हैं -
पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा।। समयसार - ३१७
- आत्मा प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
आत्मा को प्रज्ञा से कैसे ग्रहण किया जाता है; इसके विषय में वे बताते हैं -
अर्थात् जो चेतनावान है सो नियम से मैं हूँ, उसके सिवा जितने भी भाव है, वे सब मेरे से भिन्न हैं; इस प्रकार प्रज्ञा (विवेक बुद्धि) से शुद्धात्मा को ग्रहण करना चाहिए।
इन्द्रियज्ञान की अपनी सीमा है, अतः उसके द्वारा ब्रह्म का स्वरूप किंचित ही जाना जा सकता है। इस विषय में स्याद्वाद दृष्टि अपनाना ही श्रेयस्कर है कि संसारी जीवों को ब्रह्म या आत्मा का किंचित प्रत्यक्ष है, सर्वथा प्रत्यक्ष नहीं है। इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए ‘केनोपनिषद्‘ में कहा है-
यदि तू मानता है कि मैं ब्रह्म को भलीभाँति जान गया हूँ तो निश्चय ही ब्रह्म का स्वरूप थोड़ा-सा ही जानता है।
मैं ब्रह्म को भलीभाँति जान गया हूँ, यों नहीं मानता और न ऐसा ही मानता हूँ कि नहीं जानता (क्योंकि) जानता भी हूँ (किन्तु यह जानना विलक्षण है), हम शिष्यों में से जो कोई भी उस ब्रह्मको जानता है, (वही) मेरे उक्त अभिप्राय को भी जानता है कि मैं जानता हूँ और नहीं जानता; ये दोनों ही (सर्वथा) नहीं है।
मनुष्य में ज्ञातापन का अभिमान नहीं होना चाहिए।
जिसका यह मानना है कि ब्रह्म जानने मे नहीं आता, उसका तो वह जाना हुआ है और जिसका यह मानना है कि ब्रह्म मेरा जाना हुआ है, वह नहीं जानता; क्योंकि जानने का अभिमान रखने वालों के लिए वह (ब्रह्म तŸव) जाना हुआ नहीं है और जिनमें ज्ञातापन का अभिमान नहीं है, उनका वह ब्रह्म तत्व जाना हुआ है अर्थात् उनके लिए वह अपरोक्ष ही है। उपर्युक्त प्रतिबोध से उत्पन्न ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है; क्योंकि अमरता को (मनुष्य) प्राप्त करता है। आत्मा आत्मा को जानने की शक्ति प्राप्त करता है और विद्या ज्ञान से अमृत रूप पर ब्रह्म को प्राप्त होता है।
‘समयसार‘ में कहा है कि ‘‘माणुवजुत्तो या माणमेवादा‘‘ अर्थात् मान से युक्त आत्मा मानी है। इन्द्रियजन्य ज्ञान के विषय में यहाँ कहा गया है कि जो ज्ञान प्रदेश रहित कालाणु अथवा परमाणु को प्रदेश रहित पंचास्तिकायों को, मूर्त अर्थात् पुद्गल को जो जीव इन्द्रियगोचर पदार्थ को ईहा-अवाय-धारणा पूर्वक जानते हैं, उन्हें परोक्ष पदार्थ- असद्भूत पर्याय को जानना अशक्य है। पूर्ण ज्ञान तो अतीन्द्रिय होता है, उस अतीन्द्रिय ज्ञान से ही आत्मा को पूरी तरह जाना जा सकता है। उस अतीन्द्रिय ज्ञान के विषय में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है -
जो ज्ञान प्रदेश रहित कालाणु अथवा परमाणु को, प्रदेश सहित पंचास्तिकायों को, मूर्त अर्थात् पुद्गल को, अमूर्त अर्थात् मूर्ति रहित शुद्ध जीवादि द्रव्यों को, अनुत्पन्न और विनष्ट पर्यायों को जानता है; वह अतीन्द्रिय ज्ञान है। यदि ज्ञान आत्मा ज्ञेय पदार्थ के प्रति संकल्प-विकल्प रूप परिणमन करता है तो उसके क्षायिक ज्ञान नहीं हैं, इसके विपरीत जिनेन्द्र भगवान् ने उस आत्मा को कर्म का अनुभव करने वाला अर्थात् संसारी ही कहा है।
‘केनोपनिषद्‘ में कहा गया है कि यदि इस मनुष्य शरीर में (पर ब्रह्म को) जान लिया, तब तो बहुत कुशल है और यदि इस शरीर के रहते रहते उसे नहीं जान पाया तो महान् विनाश है; यही सोचकर बुद्धिमान् पुरुष प्राणी प्राणी में परमात्मा समझकर इस लोक से प्रयाण कर अमर हो जाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है - जो पुरुष सूत्र आगम से सहित है, वह चतुर्गति रूप संसार के मध्य स्थित, होता हुआ भी नष्ट नहीं होता है, भले ही वह दूसरों के द्वारा दृश्यमान न हो, फिर भी स्वात्मा के प्रत्यक्ष से वह उस संसार को नष्ट करता है।
‘कठोपनिषद्‘ में कहा है-
यह मरणधर्मा मनुष्य अनाज की तरह पकता है और जराजीर्ण होकर मर जाता है तथा अनाज की भाँति ही फिर उत्पन्न हो जाता है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने इस पुनः पुनः उत्पन्न होने और मृत्यु को प्राप्त होने के कारण का भी स्पष्ट उल्लेख किया है-
जो जीव संसारी है, उसके राग-द्वेष आदि अशुद्ध भाव होते हैं, उनसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का बंध होता है, कर्मों से एक गति से दूसरी गति प्राप्त होती है, गति को प्राप्त हुए जीव के औदारिकादि शरीर होता है, शरीर से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं, इन्द्रियों से विषयग्रहण होता है और उससे राग तथा द्वेष उत्पन्न होते हैं। संसार रूपी चक्र में भ्रमण करने वाले जीव के ऐसे अशुद्ध भाव अभव्य की अपेक्षा अनादि अनंत और भव्य की अपेक्षा अनादि-सान्त होते हैं; ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
‘कठोपनिषद्‘ में नचिकेता यमराज से पहला वर माँगता है कि मेरे पिता मेरे प्रति शांत संकल्प वाले, प्रसन्नचित्त (और) क्रोध एवं खेद से रहित हो जाँय। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी शम अथवा साम्यभाव को धर्म कहा है और मोह-मिथ्यादर्शन तथा क्षोभ-राग-द्वेष से रहित आत्मा का परिणाम साम्य भाव कहलाता है।
‘कठोपनिषद‘ में कहा है - जो सदा विवेक युक्त बुद्धिवाला और वश में किए हुए मन से सम्पन्न रहता है, उसकी इन्द्रियाँ सावधान सारथी के अच्छे घोड़े की भाँति वश मे रहती है। जैनदर्शन में मन को वश में करना मनोगुप्ति के अन्तर्गत आता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार-
अर्थात् मन की जो रागादि परिणामों से निवृत्ति है, उसे मनोगुप्ति जानना चाहिए।
‘प्रवचनसार‘ में कहा है कि अज्ञानी जो कर्म सौ हजार करोड़ पर्यायों में क्षय करता है; मन, वचन, काय की क्रियाओं का निरोधकर स्वरूप में लीन परमात्म भाव का अनुभवी ज्ञाता उन कर्मांे को तीन श्वास मात्र काल में ही क्षय कर देता है।
‘कठोपनिषद्‘ भी विज्ञानवान् को परमानंद की प्राप्ति कहता है।
‘कठोपनिषद्‘ के अनुसार जो सदा अविज्ञानवान् (विवेकहीन बुद्धिवाला) और अवशीभूत मन से युक्त होता है उसकी इन्द्रियां असावधान सारथि के दुष्ट अश्व की भाँति वश में रहने वाली हो जाती है। इन्द्रियों के वशीभूत सामान्य जीव ही नहीं हैं, अपितु आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार सहज इन्द्रियों से पीडि़त मनुष्य, असुर और देवों के इन्द्र अर्थात् स्वामी उस इन्द्रिय जनित दुःख को सहन करने में असमर्थ होते हुए रमणीय इन्द्रिय जनित सुखों में रमण करते हैं।
जो मूर्ख काम का- बाह्म भोगों का अनुसरण करते हैं, वे सर्वत्र फैले हुए मृत्यु के बंधन में पड़ते हैं, किन्तु बुद्धिमान मनुष्य नित्य अमरपद को विवेक द्वारा जानकर इस जगत में अनित्य भोगों में से किसी को भी नहीं चाहते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है कि जिन जीवों की विषयों में रति है, उनके दुःख स्वभाव से ही जानो; क्योंकि वह इन्द्रियजन्य दुःख सहज स्वभाव से उत्पन्न हुआ न होता तो विषयों के सेवन के लिए इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी नहीं होती।
‘कठोपनिषद्‘ में कहा है कि जिस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड में एक ही अग्नि नाना रूपों में उनके समान रूपवाला सा हो रहा है, वैसे समस्त प्राणियों का अन्तरात्मा (पर ब्रह्मद्ध एक होते हुए भी नाना रूपों में उन्हीं के जैसे रूप वाला हो रहा है और उनके बाहर भी है-
आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार के टीकाकर आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मा के एकत्व का प्ररूपण इस प्रकार किया है-
इस आत्मा को अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना ही नियम से सम्यग्दर्शन है, यह आत्मा अपने गुण-पर्यायों मे व्याप्त रहने वाला है और शुद्धनय से एकत्व में निश्चित किया गया है तथा जितना सम्यक्दर्शन है, उतना ही आत्मा है, इसलिए इस नव तŸव की परिपाटी छोड़कर यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो।
नव तत्वों में प्राप्त हुआ आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है, यदि उसका भिन्नस्वरूप विचार किया जाय तो चैतन्य चमत्कार मात्र ज्योति को नहीं छोड़ता।
‘कठोपनिषद्‘ के अग्नि के दृष्टान्तं को अमृतचन्द्राचार्य के कलशों पर हिन्दी सवैया लिखने वाले कविवर बनारसीदास जी ने अपनाया है वे कहते हैं -
जैसे कि घास, काठ, बांस वा जंगल के अनेक ईंधन आदि अग्नि में जलते हैं, उनकी आकृति पर ध्यान देने से अग्नि अनेक रूप दिखती है, परंतु यदि मात्र दाहक स्वभाव पर दृष्टि डाली जावे तो सब अग्नि एक रूप ही है; उसी प्रकार जीव (व्यवहार नय से) नव तŸवों में शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र आदि अनेक रूप हो रहा है; परंतु जब उसकी चैतन्य शक्ति पर विचार किया जाता है तब वह (शुद्धनय से) अरूपी और अभेदरूप् ग्रहण होता है।
‘प्रश्नोपनिषद्‘ में कहा है-
अर्थात् जो कोई भी निश्चयपूर्वक उस (सन्तानोत्पत्ति रूप) प्रजापति व्रत का अनुष्ठान करते हैं अर्थात् स्त्री प्रसंद आदि भोगों का उपभोग करते हैं, वे (पुत्र और कन्या रूप) जोड़े को उत्पन्न करते हैं। जिनमें तप और ब्रह्मचर्य है, जिनमें सत्य प्रतिष्ठित है, उन्हीं को वह ब्रह्मलोक मिलता है।
जिनमें न तो कुटिलता है, न झूठ है तथा न माया ही है, उन्हीं को वह विकार रहित विशुद्ध ब्रह्मलोक मिलता है।
तप, ब्रह्मचर्य, सरलता और सत्य की आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा ‘वारण अणुवेक्खा‘ में कहे गये मुनिधर्म के उत्तमक्षमादि १॰ भेदों मे गणना की गई है। ‘शीलपाहुड‘ में कहा है -
जिन्होंने जिनेन्द्रदेव के वचनों के सार को ग्रहण किया है, जो विषयों से विरक्त हैं, जो तप को धन मानते हैं, धीर वीर हैं और जिन्होंने शील रूपी जल से स्नान किया है, वे सिद्धालय के सुख को प्राप्त करते हैं।
‘प्रश्नोपनिषद्‘ में कहा गया है -समूलो वा एष परिशुष्यति योऽनृतमभिवदति। ६/१
वह मनुष्य अवश्य मूल के सहित सर्वथा सूख जाता है, नष्ट हो जाता है; जो झूठ बोलता है।
‘मुण्डकोपनिषद्‘ में दो प्रकार की विद्यायंे की गयी हैं- १. पराविद्या और २. अपरा विद्या। इन दोनों में से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष; ये अपरा विद्या के अंतर्गत हैं तथा जिससे वह अविनाशी ब्रह्म या आत्मा (अक्षर) तŸव से जाना जाता है, वह परा विद्या है।
‘मुण्डकोपनिषद्‘ में कहा गया है कि जो वन में रहने वाले, शांत स्वभाव वाले विद्वान् तथा भिक्षा के लिए विचरने वाले तप और श्रद्धा का सेवन करते हैं, वे रजोगुण सहित सूर्य के मार्ग से वहाँ चले जाते हैं, जहाँ पर वह जन्म-मृत्यु से रहित नित्य, अविनाशी परम पुरुष रहता है।
‘दर्शनपाहुड‘ में कहा गया है कि सम्यक्त्व सहित ज्ञान, दर्शन, तप, और चारित्र; इन चारों का समागम होने पर ही जीव सिद्ध हुए हैं।
यहाँ दर्शन शब्द श्रद्धा के अर्थ में ग्रहण किया गया है तथा तप का कथन भी सुस्पष्ट है। ‘मोक्षपाहुड‘ में कहा गया है कि सम्यग्दर्शन से शुद्ध मनुष्य शुद्ध कहलाता है। सम्यग्दर्शन से शुद्ध मनुष्य निर्वाण को प्राप्त होता है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से रहित है, वह इष्ट लाभ को नहीं पाता है। तप के विषय में बतलाया है कि जिनकी धु्रवसिद्धि है अर्थात् जिन्हें अवश्य मोक्ष प्राप्त होना है तथा जो चार ज्ञानों से सहित हैं; ऐसे तीर्थंकर भगवान भी तपश्चरण करते हंै, अतः ज्ञानयुक्त पुरुष को भी तपश्चरण करना चाहिए।
‘मुण्डकोपनिषद्‘ के अनुसार शरीर के भीतर प्रकाश रूप परमविशुद्ध आत्मा निश्चय से सत्य, तप, ब्रह्मचर्य और सम्यग्ज्ञान से ही सदा प्राप्त होने योग्य होता है, जिसे सब प्रकार के दोषों से रहित हुए यत्नशील साधक ही देख पाते हैं। इनमें से सत्य, तप और ब्रह्मचर्य का वर्णन कुन्दकुन्दाचार्य ने ‘वारस अणुवेक्खा‘ में दस धर्मों के प्रसंग में किया है। सम्यग्ज्ञान रत्नत्रय में गर्भित है। ‘मोक्षपाहुड‘ में कहा गया है कि जो योगी जिनेन्द्र देव के मतानुसार रत्नत्रय की आराधना करता है, वह आत्मा का ध्यान करता है और पर पदार्थ का त्याग करता है, इसमें संदेह नहीं है। ‘चारिŸापाहुड‘ मंे कहा है -
जो पुरुष ज्ञानरूपी जल को पीकर निर्मल और अत्यंत विशुद्ध भावों से संयुक्त होते हैं वे शिवालय में रहने वाले तथा त्रिभुवन के चूड़ामणि सिद्ध परमेष्ठी हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जो साधु राग से, द्वेष से अथवा मोह से असत्यभाषा के परिणाम छोड़ता है उसी के सत्य महाव्रत होता है। सत्य की प्रशंसा में ‘मुण्डकोपनिषद्‘ मंे कहा गया है-
अर्थात् सत्य ही विजयी होता है, झूठ नहीं, क्योंकि देवयान मार्ग (परमात्मा को प्राप्त करने का साधन रूप मार्ग) सत्य से परिपूर्ण हैं, जिससे पूर्णकाम ऋषि लोग गमन करते हैं, जहाँ वह सत्यस्वरूप परब्रह्म परमात्मा का उत्कृष्ट निधान है।
‘मुण्कोपनिषद्‘ के अनुसार परमात्मा‘ दिव्य, अचिन्त्य स्वरूप है तथा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म रूप में प्रकाशित होता है तथा दूर से भी अत्यंत दूर है और इस शरीर में रहकर अतिसमीप भी है, यहाँ देखने वालों के भीतर ही उनके हृदय रूपी गुफा में स्थित है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा निरूपित आत्मा के विषय में भी यही कहा जा सकता है।
मुण्डकोपनिषदकार के मत में वह आत्मा न तो नेत्रों से, न वाणी से, न दूसरी इन्द्रियों से ही ग्रहण करने में आता है, तप से अथवा कर्मों से भी वह ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस अवयव रहित परमात्मा को तो विशुद्ध अन्तःकरण वाला विशुद्ध अन्तःकरण से निरन्तर उसका ध्यान करता हुआ ही ज्ञान की निर्मलता से देख पाता है। आचार्य कुन्दकुन्द इसी अभिप्राय को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
ध्यानस्थ मुनि समस्त कषायों और गारव, मद, राग, द्वेष तथा व्यामोह को छोड़कर लोक व्यवहार से विरत होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है।
मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप, और पुण्य को मन, वचन, काय रूप त्रिविध योगों से छोड़कर जो योगी मौनव्रत से ध्यानस्थ होता है, वही आत्मा को द्योतित करता है, प्रकाशित करता है।
जो रूप मेरे द्वारा देखा जाता है, वह बिल्कुल नहीं जानता और जो जानता है वह दिखाई नहीं देता; तब मैं किसके साथ बात करूँ ?
‘मुण्डकोपनिषद्‘ में कहा है कि विशुद्ध अन्तःकरण वाला मनुष्य जिस-जिस लोक को मन से चिन्तन करता है तथा जिन-जिन भोगों की कामना करता है, उन-उन लोकों को जीत लेता है; इसलिए ऐश्वर्य की कामना वाला मनुष्य आत्मा को जानने वाले की अर्चना करे।
आत्मा को जानने वाले की अर्चना करने से आत्मोपलब्धि होती है। कहा भी है‘
जो पुरुष द्रव्य, गुण और पर्यायों के द्वारा अरहंत भगवान् को जानता है, वही आत्मा को जानता है और निश्चय से उसी का मोह विनाश को प्राप्त होता है।
‘मुण्डकोपनिषद्‘ में कहा है कि इष्ट (यज्ञयागादि श्रौतकर्म) और पूर्त (बाबड़ी, कुआँ खुदवाना और बगीचे आदि लगाना रूप स्मृति विहित कर्म) कर्मों को ही श्रेष्ठ मानने वाले अत्यंत मूर्ख लोग उससे भिन्न वास्तविक श्रेय को नहीं जानते हैं। वे पुण्यकर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग के उच्चतम स्थान में जाकर वहाँ के भोगों का अनुभव करके इस मनुष्य लोक में अथवा इससे भी अत्यंत हीन योनियों में भ्रमण करते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है कि देवों में स्वभावजन्य सुख नहीं है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश में युक्तियों से सिद्ध है। वास्तव में वे शरीर की वेदना से पीडि़त होकर रमणीय विषयों में रमण करते हैं। यद्यपि यह ठीक है कि शुभोपयोग रूप परिणामों से उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार केे पुण्य विद्यमान रहते हैं, परन्तु वे देवों तक समस्त जीवों की विषय तृष्णा ही उत्पन्न करते हैं। जिन्हें तृष्णा उत्पन्न हुई है ऐसे समस्त संसारी जीव तृष्णाओं से दुःखी और दुःखों से सन्तप्त होते हुए विषयजन्य सुखों की इच्छा करते हैं और मरणपर्यन्त उन्हीं का अनुभव करते रहते हैं।
‘मुण्डकोपनिषद्‘ के अनुसार यह आत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसको स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि यह आत्मा उसके लिए अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है। यह आत्मा बलहीन मनुष्य द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता तथा प्रमाद से अथवा लक्षण रहित तप से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता; किन्तु जो बुद्धिमान साधक इन उपायों के द्वारा प्रयत्न करता है, उसका यह आत्मा ब्रह्मधाम में प्रविष्ट हो जाता है।
आचार्य कुन्दकुन्छ ने दुष्ट आठ कर्मों से रहित अनुपम, ज्ञानशरीरी, नित्य और शुद्ध आत्मद्रव्य को स्वद्रव्य कहा है। जो स्वद्रव्य का ध्यान करते हैं, परद्रव्य से पराडमुख रहते हैं और सम्यक्चारित्र का निरतिचार पालन करते हुए जिनेन्द्रदेव के मार्ग में लगे रहते हैं; वे निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
उपनिषद् और आचार्य कुन्दकुन्द का योग
लगभग सभी उपनिषदों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से थोड़ा अथवा अधिक योग का कथन अवश्य है। उपनिषद् मोक्षशास्त्र के परम आधार माने जाते हैं। मोक्ष अतीन्द्रिय ज्ञान के बिना उपहासास्पद है। अतीन्द्रिय ज्ञान बिना योग के साध्य नहीं। अतः उपनिषदों से योग का एक प्रकार से अविनाभूत सम्बंध है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का प्रधान लक्ष्य भी मोक्ष का प्रतिपादन है, इसके लिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकता आवश्यक है। इन तीनों का योग के आठ अंगों- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा और समाधि से गहरा सम्बंध है। ‘योग तŸवोपनिषद्‘ में प्रसिद्ध अष्टांगयोग का सविस्तार वर्णन है। पातंजल योग दर्शन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यम कहे गए हैं। ‘नियमसार‘ के व्यवहार चारित्राधिकार में अहिंसादि व्रतों का लक्षण दिया गया है-
जीवों के कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि जानकर उनके आरंभ से निवृत्ति रूप परिणाम प्रथम (अहिंसा) व्रत है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार जीवों की अहिंसा परम ब्रह्म है। जिस आश्रम की विधि में लेश भी आरंभ है। (उस आश्रम में अर्थात् सग्रंथपने में) वह अहिंसा नहीं होती। इसलिए उसकी सिद्धि के हेतु (हे नमिनाथ प्रभु!) परम करुणावन्त ऐसे आपश्री ने दोनों ग्रन्थ को छोड़ दिया (द्रव्य और भाव दोनों प्रकार केे परिग्रह को छोड़कर निग्र्रन्थपना अंगीकार किया) विकृत देश तथा परिग्रह में रत नहीं हुए-
राग से, द्वेष से अथवा मोह से होने वाले मृषा भाषा के परिणाम को जो साधु छोड़ता है, उसी को सदा दूसरा व्रत (सत्य) होता है।
‘मुण्डकोपनिषद्‘ में कहा है - सत्य ही विजयी होता है, झूठ नहीं, क्योंकि वह देवयान नामक मार्ग सत्य से परिपूर्ण है, जि
ग्राम में, नगर में या वन मे परायी वस्तु को देखकर जो साधु उसे ग्रहण करने के भाव को छोड़ता है, उसी को तृतीय (अस्तेय) व्रत होता है।
स्त्रियों का रूप देखकर उनके प्रति वांछाभाव की निवृत्ति वह अथवा मैथुनसंज्ञा से रहित जो परिणाम, वह चैथा (ब्रह्मचर्य) व्रत है।
निरपेक्ष भावना पूर्वक (अर्थात् जिस भावना में पर की अपेक्षा नहीं है, ऐसी शुद्ध निरालम्बन भावना सहित) सर्व परिग्रहों का त्याग उस चारित्रभर (चारित्र का भार, चारित्र की अतिशयता) वहन करने वाले को पाँचवां (अपरिग्रह) व्रत कहा है। समयसार की गाथा २॰८ में कहा है-
यदि परद्रव्य-परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीव तŸव को प्राप्त होऊँ। मैं तो ज्ञाता ही हूँ; इसलिए परिग्रह मेरा नहीं है।
योग का दूसरा अंग नियम है। ‘नियमासार‘ में ही पद्यप्रभमलधारि देव विरचित तात्पर्यवृत्ति मे ‘‘नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते‘‘ कहा है अर्थात् नियम शब्द सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के लिए है। पातंजल योगदर्शन में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान को नियम कहा है। इन सबका अन्तर्भाव चारित्र में होता है। ‘प्रवचनसार‘ में कहा है कि संयम, तप और सूत्र से संयुक्त होने पर भी यदि जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता है, तो वह श्रमण नहीं है। ‘भावप्राभृत‘ में मुनि को उपदेश दिया गया है कि हे मुनिप्रवर! तुम बारह प्रकार के तपश्चरण और तेरह क्रियाओं का मन, वचन और कार्य (काय) से पालन करो तथा ज्ञान रूपी अंकुश के द्वारा मन रूपी मत्त हाथी को वश में करो।
‘अमृतबिन्दूपनिषद्‘ में कहा है कि मन ही बंधन का कारण है-
विषयासक्त मन बंध का और निर्विषय मन मुक्ति का कारण है।
विषयासक्ति से मुक्त और हृदय में निरुद्धमन जब अपने अभाव को प्राप्त करता है, तब परमपद प्राप्त होता है।
तभी तक हृदय में मन का निरोध करना चाहिए, जब तक उसका क्षय न हो जाय। इसी को ज्ञान और ध्यान कहते हैं, बाकी सब न्याय का विस्तार है।
शौच के विषय में ‘बारस अणुवेक्खा‘ में कहा है कि जो उत्कृष्ट मुनि कांछाभाव से निवृत्ति कर वैराग्यभाव से युक्त रहता है, उसके शौचधर्म होता है।
अध्ययन और तप की अपेक्षा नियमसार में समता को श्रेष्ठ कहा है-
वनवास, कायक्लेशरूप अनेक प्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि समतारहित श्रमण को क्या करते हैं ? अर्थात् समता के बिना द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभास को किंचित् परलोक का कारण नहीं है।
‘भावपाहुड‘ में कहा है कि बाह्म परिग्रह का त्यागर करना, पर्वत, नदी, गुफा और कन्दरा आदि में निवास करना तथा समस्त शास्त्रों का पढ़ना भावरहित जीवों के निरर्थक है। हे जीव! भाव शुद्धिपूर्वक नौ नोकषायों के समूह और मिथ्यात्व का त्याग करो तथा जिनेन्द्र देव की आज्ञानुसार जिनप्रतिमा, जिनशास्त्र तथा गुरुओं की भक्ति करो। ज्ञानरूपी जल को प्राप्त कर ये जीव, दुर्निवार, तृषा दाह और शोष से रहित हो शिवालय के वासी एवं तीन लोक के चूड़ामणि सिद्ध होते हैं।
वृत्ति का एक सा (घटोऽयम् घटोऽयम् आदि) बना रहना ध्यान है ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्‘ में कहा है कि अपने शरीर को नीचे की अरणि और प्रणव को ऊपर की अरणि बनाकर ध्यान के द्वारा निरंतर मन्थन करते रहने से छिपी हुई अग्नि की भाँति परमेश्वर को देखे।
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार स्वभावसहित साधु के दर्शन, ज्ञान से सम्पूर्ण और अन्य द्रव्य से असंयुक्त ध्यान निर्जरा का हेतु होता है।
आत्मस्वरूप अवलम्बनमय भाव से जीव समस्त विकल्पों का निराकरण करने में समर्थ होता है, जो आत्मध्यान करता है, उसे नियम से निर्वाण प्राप्त होता है। ध्यान के चार भेद हैं- आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इन चार ध्यानों में आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इन चार ध्यानों में आर्Ÿाध्यान और रौद्रध्यान श्रेयस्कर नहीं है। मात्र धर्मध्यान और शुक्ल ध्या नही रत्नत्रय के कारण हैं। ‘मोक्षपाहुड‘ मंे धर्मध्यान के विषय में कहा गया है कि भरत क्षेत्र में दुःषम नाम पंचम काल में मुनि के धर्म ध्यान होता है। यह धर्मध्यान आत्मस्वभाव में स्थित साधु के होता है। आज भी त्रिरत्न से शुद्ध आत्मा का ध्यान करके मनुष्य इन्द्र और लौकान्तिक देव के पद को प्राप्त होते हैं, वहाँ से च्युत होकर मनुष्य जन्म पाकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
‘श्वेताश्वतरोपनिषद्‘ में कहा गया है कि जस प्रकार तिलों में तेल, दही में घी, ऊपर से सूखी हुई नदी के भीतरी स्त्रोतों में जल तथा अरणियों में अग्नि छिपी रहती है, उसी प्रकार परमात्मा हमारे हृदय रूप गुफा में छिपे हैं। जिस पर अपने अपने स्थान में छिपे हुए तेल आदि उनके बताए हुए उपायों से उपलब्ध किए जा सकते हैं, उसी प्रकार जो कोई साधक विषयों से विरक्त होकर सदाचार, सत्यभाषण तथा संयम रूप तप के द्वारा साधन करता हुआ निरंतर ध्यान करता रहता है, उनके द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा भी प्राप्त किए जा सकते हैं।
योग शब्द के पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त होने के बहुत पूर्व से योगाभ्यास भारत के लोगों को अच्छी तरह ज्ञात था, तथापि युज् धातु का प्रयोग मनस् शब्द के साथ तथा ऐसे ही अर्थ में ऋग्वेद में भी मिलता है, तथापि बिल्कुल स्पष्ट रूप से ‘कठोपनिषद्‘ में योग शब्द का प्रयोग हुआ है-
जब पंच ज्ञानेनिद्रयाँ मन सहित आत्मा मे स्थिर होकर बैठती हैं, बुद्धि भी कोई चेष्टा नहीं करती, तब उस अवस्था को परमागति कहते हैं। उस अवस्था में साधक प्रमादरहित होता है। उत्पत्ति और नाश योग ही है।
उपनिषदों में योग ‘अध्यात्म योग‘ कहा गया है। संहिता ब्राह्मणों में योग अनेक क्रियाकलापों के साथ मिला हुआ है तथा सिद्धियाँ ही उसकी बहुशः लक्ष्य थीं। बहुत सम्भव है मोक्ष प्राप्ति के लिए जब इसका प्रयोग होने लगा, तब इसको अध्यात्मयोग कहने लगे।
वह देव अर्थात् आत्मा जो इतना तेजस्वी है कि देख नहीं सकते, जो गूढ़ गहन स्थान में प्रवेश किए हुए है, गुहा में बैठा हुआ और गव्हर में रहने वाला है, उसको अध्यात्मयोगाधिगम के द्वारा जानकर धीर पुरुष हर्ष और शोक को त्याग देता है।
समाधि का वर्णन भी अनेक स्थलों में मिलता है। श्वेताश्वतर (२/१४-¬१५) में इस प्रकार वर्णन है-
जिस प्रकार कोई तेजोमय बिम्ब धूलि से धूसरित हुआ हो और पीछे स्वच्छ करने पर वही चमकने लगता है, उसी प्रकार उस आत्मतत्व को देखकर देही एकावस्था को प्राप्त होकर कृतार्थ और वीतशोक होता है। परंतु जब देही आत्मतत्व से, ब्रह्मतत्व से परे प्रकाशक दीप की रीति से देखता है, तब वह आत्मदेव को अज, धु्रव, सर्वतत्वविशुद्ध जानकर सब पाशों से मुक्त हो जाता है।
‘नियमासार‘ के परमसमाध्यधिकार में परमसमाधि का विस्तृत वर्णन है और उसे स्थायी सामायिक के रूप में वर्णित किया है। वचनोच्चारण की क्रिया का परित्याग कर वीतरागभाव से जो आत्मा को ध्याता है, उसे परम समाधि है। संयम, नियम और तप से तथा धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान से जो आत्मा का ध्याता है, उसे परम समाधि है। जिसे राग या द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करता, उसे सामायिक स्थायी है, ऐसा केवली के शासन में कहा है।
‘श्वेताश्वतर उपनिषद्‘ में आत्म तŸव को अज, ध्रुव और सर्वतत्वविशुद्ध कहा है। आचार्य कुन्दकुन्द समयसार के प्रारम्भिक मंगलाचरण में ही ध्रुव और अमल परमात्मा की वंदना करते हैं-
अविनाशी, निर्मल और उपमारहित गति में विराजमान सब सिद्धों को नमस्कार करके हे भव्यजीवों मैं श्रुतकेवलियों के द्वारा वर्णन किए हुए ‘समयसार‘ ग्रन्थ को कहूँगा।
जैनधर्म में योग शब्द मन, वचन, काय की प्रवत्ति के लिए भी प्रयुक्त होता है। पंचास्तिकाय में कहा है कि जिसे मोह और राग-द्वेष नहीं है तथा योगों (मन, वचन, काय) का सेवन नहीं हैं, उसे शुभाशुभ को जलाने वाली ध्यानमय अग्नि प्रगट होती है।
योग शब्द उपर्युक्त अर्थ से भिन्न अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। ‘नियमसार‘ में कहा है - विपरीत अभिनिवेश का परित्याग करके जो जैनकथित तŸवों में आत्मा को लगाता है, उसका निजभाव योग है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में योगी के लिए जोई शब्द अनेकशः प्रयुक्त हुआ है। जिन कथित परम सूत्र में प्रतिक्रमणादिक की स्पष्ट परीक्षा करके मौन सहित योगी को निजकार्य साधना चाहिए।
जिनेन्द्र भगवान् ने जो सूत्र कहा है, उसे व्यवहार और निश्चयरूप जानो। उसे जानकर योगी आत्मसुख को प्राप्त होते हैं तथा पाप-पंुज को नष्ट करते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों को उत्कृष्ट रुचि पूर्वक जानो, क्योंकि इन्हें जानकर योगी (मुनिराज) थोडे़ ही समय में सर्वकर्म क्षय रूप मोक्ष रूप मोक्ष को पा लेते हंै।
मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य को मन, वचन, काय रूप त्रिविध योगांे से जोड़कर जो योगी मौन व्रत से ध्यानस्थ होता है; वही आत्मा को द्योतित करता है। तीन के द्वारा तीन को धारण कर, निरंतर तीन से रहित, तीन से रहित और दो दोषों से मुक्त रहने वाला योगी परमात्मा का ध्यान करता है।
तीन के द्वारा अर्थात् मन, वचन, काय के द्वारा तीन को अर्थात् वर्षाकाल योग, शीताकाल योग और उष्णकाल योग को धारण कर निरन्तर अर्थात् दीक्षाकाल से लेकर तीन से रहित अर्थात् माया, मिथ्या और निदान इन शल्यों से रहित, तीन से सहित अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से सहित और दो दोषों से विप्रमुक्त अर्थात् राग, द्वेष इन दोषों से सर्वथा रहित योगी-ध्यानस्थ मुनि परमात्मा अर्थात् सिद्ध के समान उत्कृष्ट निजस्वरूप का ध्यान करता है।
जो देव और गुरु का भक्त है, सहधर्मी भाई तथा संयमी जीवों का अनुरागी है तथा सम्यक्त्व को ऊपर उठाकर धारण करता है अर्थात् अत्यंत आदर से धारण करता है; ऐसा योगी ही ध्यान में तत्पर होता है।
जब तक मनुष्य विषयों में प्रवृत्ति करता है, तब तक आत्मा नहीं जानी जाती अर्थात् आत्मज्ञान नहीं होता है। विषयों से विरक्तचित्त योगी ही आत्मा को जानता है।
पुरुषाकार अर्थात् मनुष्य शरीर में स्थित जो आत्मा योगी बनकर उत्कृष्ट ज्ञान और दर्शन से पूर्ण होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है, वह पापों को हरने वाला तथा निद्र्वन्द्व होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द के योगी का लक्ष्य आत्मत्व की उपलब्धि करना है। यही अभिप्रेत उपनिषदों का है। जैसा कि ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्‘ मंे कहा है-
जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ जो प्रकाशयुक्त रत्न है, वही भली भाँति धुल जाने पर चमकने लगता है। उसी प्रकार शरीरधारी आत्मतत्व को प्रत्यक्ष करके कैवल्य अवस्था को प्राप्त, सब प्रकार के दुःखों से रहित तथा कृतकृत्य हो जाता है।
उस परमदेव का निरंतर ध्यान करने से उस प्रकाशमय परमात्मा को जान लेने पर समस्त बन्धनों का नाश हो जाता है। क्लेशों का नाश हो जाने के कारण जन्म, मृत्यु का सर्वथा अभाव हो जाता है। शरीर का नाश हो जाने पर तीसरे लोक (स्वर्ग) तक के समस्त ऐश्वर्य का त्याग करके सर्वथा विशुद्ध पूर्णकाम हो जाता है।
जो शब्द रहित, स्पर्शरहित, रूपरहित, रसरहित और बिना गंध वाला है तथा जो अविनाशी, नित्य, अनादि, अनंत, महान्, आत्मा से श्रेष्ठ एवं सर्वथा सत्य तत्व है, उस परमात्मा को जानकर मृत्यु के मुख से सदा के लिए छूट जाता है।
‘समयसार‘ में इसी भाव को निम्नलिखित गाथा में व्यक्त किया है-
शुद्ध जीव तो ऐसा है कि जिसमें न रस है, न रूप है, न गंध ही है और इन्द्रियों के गोचर हैं, केवल चेतना गुणवाला है। शब्द रूप भी नहीं है, जिसका किसी भी चिन्ह द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता और जिसका कोई निश्चित आकार भी नहीं है।
इस प्रकार उपनिषदों में जिस अध्यात्मयोग का प्रतिपादन है, उसका विस्तार से वर्णन आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म प्रधान ग्रन्थों में मिलता है। ‘समयसार‘ तो अध्यात्मयोग का बहुत बड़ा कोश है।