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जिन धर्म विधान
चैबीस तीर्थंकर पूजा
-अथ स्थापना-शंभु छंद-
पुरूदेव अदि चैबित तीर्थंकर, धर्मतीर्थ करतार हुये।
इस जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के, आर्यखंड में नाथ हुये।।
इन मुक्तिवधू परमेश्वर का, हम भक्ती से आह्वान करें।
इनके चरणाम्बुज को जजते, भव भव दुःखों की हानि करें।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-गीता छंद-
हे नाथ! मेरी ज्ञानसरिता, पूर्ण भर दीजे अबे।
इस हेतु जल से आप के, पदकमल को पूजूं अबे।।
चैबीस तीर्थंकर जिनेश्वर, की करूं मैं अर्चना।
इन पूजते निजसौख्य पाऊं यम की तर्जना।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मा में सम्पूर्ण शीतल, सलिल धारा पूरिये।
तुम चरण युगल सरोज में, चंदन चढ़ाऊं इसलिए।।चैबीस।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षय अखंडित सौख्य निधि, भंडार भर दीजे प्रभो।
इस हेतु अक्षत पुंज से, मैं पूजहूं तु पद विभो।।।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मुझ आत्मगुण सौगंध्य सागर, पूर्ण भर दीजे प्रभो।
इस हेतु मैं सुरभित सुमन ले, पूजहूं तुम पद विभो।।
चैबीस तीर्थंकर जिनेश्वर, की करूं में अर्चना।
इन पूजते निजसौख्य पाऊं, करूं यम की तर्जना।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरी करो परिपूर्ण तृप्ती, आत्म सुख पीयूष से।
भगवन्! अतः नैवेद्य से, पूजूं चरण युग भक्ति से।।।।5।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ज्ञान ज्योती मुझ हृदय में, पूर्ण भर दीजे अबे।
मैं आरती रूचि से करूं, अज्ञानता तुरतहिं भगे।।6।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मुझ आत्मयश सौरभ गगन में, व्याप्त करदीजे प्रभो।
इस हेतु खेऊं धूप मैं, कटुकर्म भस्म करो विभो।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मगुण संपत्ति को, अब पूर्ण भर दीजे प्रभो।
इस हेतु फल को मैं चढ़ाऊं, आपके सान्निध विभो।।8।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अनमोल गुण निज के अनंते, किसे विधी से पूर्ण हों।
बस अध्र्य अर्पण करत ही, निज ’’ज्ञानमति’’ सुख पूर्ण हो।।9।।
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः अनध्र्यपदप्राप्तये अध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
तीर्थंकर चरणाब्ज में, धारा तीन करंत।
त्रिभुवन में भी शांति हो, निजगुण मणि विलसंत।।10।।
शांतये शांतिधारा।
जिनवर चरण सरोज में, सुरभित कुसुम धरंत।
सुख संवति संपति बढ़े, आत्म सौख्य विलसंत।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य - ऊँ ह्रीं वृषभादिवर्धमानान्तेभ्यो नमः।
जयमाला
-चैबोल छंद-
आवो हमस ब करें वंदाना, चैबीसों भगवान की।
तीर्थंकर बन तीर्थ चलाया, उन अनंत गुणवान की।।
जय जय जिनवंर - 4
आदिनाथ युग आदि तीर्थंकर, अजितनाथ कर्मारि हना।
संभवजिन भव दुःख के हर्ता, अभिनंदन आनंद घना।।
सुमतिनाथ सद्बुद्धि प्रदाता, पद्मप्रभु शिवलक्ष्मी दें।
श्री सुपाक्ष्र्व यम पाश्ज्ञ विनाशा, चन्द्र निज रमी दें।।
केवलज्ञान सूर्य बन चमके, त्रिभुवन तिलक महान की।।तीर्थं।।1।।
जय जय जिनवंर - 4
पुष्पदंत भव अंत किया है, शीतल प्रभु के वच शीतल।
श्री श्रेयांस जगत हित कर्ता, वासुपूज्य छवि लाल कमल।।
विमलनाथ ने अघ मल धोया, जिन अनंत गुण अन्तातीत।
धर्म नाथ वृषतीर्थ चलाया, शांतिनाथ शांतिप्रद ईश।।
शांतीच्छुक जन शरण आ रहे, ऐसे करूणावान की।।तीर्थ. ।।2।।
जय जय जिनवंर - 4
कुंथुनाथ करूणा के सागर, अर जिन मोह अरी नाशा।
मल्लिनाथ यममल्ल विजेता, मुनिसुव्रत व्रत के दाता।।
नमिप्रभु नियम रत्नत्रय धारी, नेमिनाथ शिवतिय परणा।
पाश्र्वनाथ उपसर्ग विजेता, महावीर भविजन शरणा।।
इनने शिव की राह दिखाई, जन-जन के कल्याण की।।तीर्थं. ।।3।।
जय जय जिनवंर - 4
तीर्थकर के जन्म समय से दश अतिशय श्रुत में गाये।
केवलज्ञान प्रगट होते ही, दश अतिशय गणधर गायें।।
देवोंकृत चैदह अतिशय हों, सुंदर समवसरण रचना।
इन्द्र-इन्द्राणी देव-देवियां, गाते रहते गुण गरिमा।।
सभी भव्य गुण कीर्तन करते, अभयंकर जिननाम की।।तीर्थं. ।।4।।
जय जय जिनवंर - 4
तरू अशोक सुरपुष्पवृष्टि, भामंडल चामर सिंहासन।
तीन छत्र सुरदुंदुभि बाजे, दिव्यध्वनी है अमृतसम।।
आठ महा ये प्रातिहार्य हैं, गंधकुटी में प्रभु शोभें।
विभव वहां का सुर नर पशु क्या, मुनियों का भी मन लोभे।।
गणधर गुरू भी संस्तुति करते, अविनश्वर भगवान की।।तीर्थं. ।।5।।
दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज ये, चार अनंत चतुष्टय हैं।
ये छयालिस गुण अर्हंतों के, फिर भी गुणरत्नाकर हैं।।
क्षुधा तृषादिक दोष अठारह, प्रभु के कभी नहीं होते।
वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर, हित उपदेशी ही होते।।
परम पिता परमेश्वर स्वामिन्! पूजा कृपानिधान की।।तीर्थं. ।।6।।
जय जय जिनवंर - 4
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यः जयमाला पूर्णाध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
-सोरठा-
धर्मचक्र के नाथ, द्विविध धर्मकर्ता प्रभो।
नमूँ नमाकर माथ, ’’ज्ञानमती’’ कलिका खिले।।1।।
।।इत्याशीर्वादः।।