पहली ढाल

-मंगलाचरण-

(सोरठा)

तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता।
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुं त्रियोग सम्हारिकैं।।1।।

अन्वयार्थ:- (वीतराग) राग-द्वेष रहित, (विज्ञानता) केवलज्ञान (तीन भुवन में) तीन लोग में (सार) उत्तम वस्तु (शिवस्वरूप) आनन्दस्वरूप (और) (शिवकार) मोक्ष प्राप्त करानेवाला है, उसे मैं (त्रियोग) तीन योग (सम्हारिकैं) सावधानी पूर्वक (नमहुं) नमस्कार करता हूं।

भावार्थ:- राग - द्वेषरहित ’’केवलज्ञान’’ ऊध्र्व, मध्य और अधो - इन तीन लोकों में उत्तम, आनन्दस्वरूप तथा मोक्षदायक है, इसलिये मैं (दौलतराम) अपने त्रियोग अर्थात् मन-वचन-काय द्वारा सावधानी पूर्वक उस वीतराग (18 दोष रहित) स्वरूप केवलज्ञान को नमस्कार करता हूं।।1।।

नोट: - इस ग्रन्थ में सर्वत्र ( )यह चिन्ह मूल ग्रन्थ के पद का है और { } इस चिन्ह का प्रयोग संधि मिलाने के लिए किया गया है।

ग्रन्थ रचना का उद्देश्य और जीवों की इच्छा

जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दुखतैं भयवन्त।
तातैं दुखहारी सुखकार, कहैं सीख गुरू करूणा धार।।2।।

अन्वयार्थ:-(त्रिभुवन में) तीनों लोकों में (जे) जो (अनन्त) अनन्त (जीव) प्राणी {हैं वे} (सुख) सुख की (चाहैं) इच्छा करते हैं और (दुखतैं) दुःख से (भयवन्त) डरते हैं (तातैं) इसलिये (गुरू) आचार्य (करूणा) दया (धार) करके (दुःखहारी) दुःख का नाश करनेवाली और (सुखकार) सुख को देनेवाली (सीख) शिक्षा (कहैं) कहते हैं।

भावार्थ:- तीन लोक में जो अनन्त जीव (प्राणी) हैं, वे दुःख से डरते हैं और सुख को चाहते हैं; इसलिये आचार्य दुःख का नाश करनेवाली तथा सुख को देनेवाली शिक्षा देते हैं।।2।।

गुरू शिक्षा सुनने का आदेश तथा संसार-परिभ्रमण का कारण

ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान।
मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भ्रमत वादि।।3।।

अन्वयार्थ:- (भवि) हे भव्यजीवो! (जो) यदि (अपनो) अपना (कल्यान) हित (चाहो) चाहते हो {तो} (ताहि) गुरू की वह शिक्षा (मन) मन को (थिर) स्थिर (आन) करके (सुनो) सुनो {कि इस संसार में प्रत्येक प्राणी} (अनादि) अनादिकाल से (मोह महामद) मोहरूपी महामदिरा (पिया) पीकर, (आपको) अपने आत्मा को (भूल) भूकर (वादि) व्यर्थ (भरमत) भटक रहा है।

भावार्थ:- हे भद्र प्राणियो! यदि अपना हित चाहते हो तो अपने मन को स्थिर करके यह शिक्षा सुनो। जिसप्रकार कोई शराबी मनुष्य तेज शराब पीकर, नशे में चकचूर होकर, इधर-उधर डगमगाकर गिरता है, उसीप्रकार यह जीव अनादिकाल से मोह में फंसकर, अपनी आत्मा के स्वरूप को भूलकर चारोें गतियों में जन्म-मरण धारण करके भटक रहा है।।3।।

इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता और निगोद का दुःख

तास भ्रमन की है बहु कथा, पै कछु कहूं कही मुनि यथा।
काल अनन्त निगोद मंझार, वीत्यो एकेन्दी तन धार।।4।।

अन्वयार्थ:- (तास) उस संसार में (भ्रमन की) भटकने की (कथा) कथा (बहु) बड़ी (है) है (पै) तथापि (यथा) जैसी (मुनि) पूर्वाचार्यों ने (कही) कहीं है {तदनुसार मैं भी} (कछु) थोड़ी-सी (कहूं) कहता हूं {कि इस जीव का} (निगोद मझार) निगोद में (एकेन्द्री) एकेन्द्रिय जीव के (तन) शरीर (धार) धारण करके (अनंत) अनंत (काल) काल (वीत्यो) व्यतीत हुआ है।

भावार्थ:- संसार में जन्म-मरण धारण करने की कथा बहुत बड़ी है। तथापि जिसप्रकार पूर्वाचार्यों ने अपने अन्य ग्रन्थों में कही है, तदनुसार मैं (दौलतराम) भी इस ग्रन्थ में थोड़ी-सी कहता हूं। इस जीव ने नरक से भी निकृष्ट निगोद में एकेन्द्रिय जीव के शरीर धारण किये अर्थात् साधारण वनस्पतिकाय में उत्पन्न होकर वहां अनंतकाल व्यतीत किया है।।4।।

निगोद का दुःख और वहां से निकलकर प्राप्त की हुई पर्यायें

एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मरयो भरयो दुखभार।
निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो।।5।।

अन्वयार्थ:- {निगोद में यह जीव} (एक श्वास में) एक सांस में (अठदस बार) अठारह बार (जन्म्यो) जनमा और (मरयो) मरा {तथा} (दुखभार) दुःखों के समूह (भरयो) सहन किये {और वहां से} (निकसि) निकलकर (भूमि) पृथ्वीकायिका जीव (जल) जलकायिका जीव, (पावक) अग्निकायिक जीव (भयो) हुआ तथा (पवन) वायुकायिक जीव {और} (प्रत्येक वनस्पति) प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव (थयो) हुआ

भावार्थ:- निगोद {साधारण वनस्पति} में इस जीव ने एक श्वासमात्र (जितने) समय में अठारह बार जन्म1 और मरण2 करके भयंकर दुःख सहन किये हैं और वहां से निकलकर पृथ्वीकायिक, जलकायिक अग्निकायिक, वायुकायिक तथा प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव3 के रूप में उत्पन्न हुआ।।5।।

तिर्यंचगति में त्रस पर्याय की दुर्लभता और उसका दुःख

दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी।
लट पिपील अलि आदि शरीर, धर धर मरयो सही बहु पीर।।6।।

अन्वयार्थ:- (ज्यों) जिसप्रकार (चिन्तामणि) चिन्तामणि रत्न (दुर्लभ) कठिनाई से (लहि) प्राप्त होता है (त्यों) उसीप्रकार (त्रसतणी) त्रस की (पर्याय) पर्याय {भी बड़ी कठिनाई से (लहि) प्राप्त हुई। {वहां भी} (लट)

1. नया शरीर धारण करना।

2. वर्तमान शरीर का त्याग।

3. निगोद से निकलकर ऐसी पर्यायें धारण करने का कोई निश्चित क्रम नहीं है; निगोद से एकदम मनुष्य पर्याय भी प्राप्त हो सकती है। जैसे कि - भरत के 32 हजार पुत्रों ने निगोद से सीधी मनुष्य पर्याय प्राप्त की और मोक्ष गये।

इल्ली (पिपील) चींटी (अलि) भंवरा (आदि) इत्यादि के (शरीर) शरीर (धर धर) बारम्बार धारण करके (मरयो) मरण को प्राप्त हुअ {और} (बहु पीर) अत्यन्त पीड़ा (सही) सहन की।

भावार्थ:- जिसप्रकार चिन्तामणि रत्न बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, उसीप्रकार उस जीव ने त्रस की पर्याय बड़ी कठिनता से प्राप्त की। उस त्रस पर्याय में भी लट (इल्ली) आदि दो इन्द्रिय जीव, चींटी आदि तीन इन्द्रिय जीव और भंवरा आदि चार इन्द्रिय जीव के शरीर धारण करके मरा और अनेक दुःख सहन किये।।6।।

तिर्यंचगति में असंज्ञी तथा संज्ञी के दुःख

कबहूं पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो।
सिंहादिक सैनी है क्रूर, निबल पशु हति खाये भूर।।7।।

अन्वयार्थ:- {यह जीव} (कबहूं) कभी (पंचेन्द्रिय) पंचेन्द्रिय (पशु) तिर्यंच (भयो) हुआ {तो} (मन बिन) मन के बिना (निपट) अत्यंत (अज्ञानी) मूर्ख (थयो) हुआ {ओर} (सैनी) संज्ञी {भी} (ह्वै) हुआ {तो} (सिंहादिक) सिंह आदि (क्रूर) क्रूर जीव (ह्वै) होकर (निबल) अपने से निर्बल, (भूर) अनेक (पशु) तिर्यंच (हति) मार-मारकर (खाये) खायेे।

भावार्थ:-यह जीव कभी पंचेन्द्रिय असंज्ञी पशु भी हुआ तो मनरहित होने से अत्यंत अज्ञानी, रहा; और कभी संज्ञी हुआ तो सिंह आदि क्रूर-निर्दय होकर, अनेक निर्बल जीवों को मार-मारकर खाया तथा घोर अज्ञानी हुआ।।7।।

तिर्यंचगति में निर्बलता तथा दुःख

कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन।
छेदन भेदन भूख पियास, भार-वहन, हिम, आतप त्रास।।8।।

अन्वयार्थ:- {यह जीव तिर्यंच गति में} (कबहूं) कभी (आप) स्वयं (बलहीन) निर्बल (भयो) हुआ {तो} (अतिदीन) असमर्थ होने से (सबलनि करि) अपने से बलवान प्राणियों द्वारा (खायो) खाना गया {और} (छेदन) छेदा जाना, (भेदन) भेदा जाना, (भूख) भूख (पियास) प्यास, (भार-वहन) बोझ ढोना, (हिम) ठण्ड (आतप) गर्मी {आदि के} (त्रास) दुःख सहन किये।

भावार्थ:- जब यह जीव तिर्यंचगति में किसी समय निर्बल पशु हुआ तो स्वयं असमर्थ होने के कारण अपने से बलवान प्राणियों द्वारा खाया गया तथा उस तिर्यंचगति में छेदा जाना, भेदा जाना, भूख, प्यास, बोझ ढोना, ठण्ड, गर्मी आदि के दुःख भी सहन किये।।8।।

तिर्यंच के दुःख की अधिकता और नरकगति की प्राप्ति का कारण

बध बंधन आदिक दुख घने, कोटि जीभ तैं जात न भने।
अति संक्लेश भावतैं मरयो, घोर श्वभ्रसागर में परयो।।9।।

अन्वयार्थ:- {इस तिर्यंचगति में जीव ने अन्य भी} (वध) मारा जाना, (बंधन) बंधना (आदिक) आदि (घने) अनेक (दुख) दुःख सहन किये; {वे} (कोटि) करोड़ो़ (जीभतैं) जीभों से (भने न जात) नहीं कहे जा सकते। {इस कारण} (अति संक्लेश) अत्यंत बुरे (भावतैं) परिणामों से (मरयो) मारकर (घोर) भयानक (श्वभ्रसागर में) नरकरूपी समुद्र में (परयो) जा गिरा।

भावार्थ:- इस जीव ने तिर्यंचगति में मारा जाना, बंधना आदि अनेक दुःख सहन किये; करोड़ों जीभों से भी नहीं कहे जा सकते और अंत में इतने बुरे परिणामों (आर्तध्यान) से मरा कि जिसे बड़ी कठिनता से पार किया जा सके - ऐसे समुद्र - समान घोर नरक में जा पहुंचा।।9।।

नरकों की भूमि ओर नदियों का वर्णन

तहां भूमि परसन दुख इसो, बिच्छू सहस डसे नहिं तिसो।
तहां राध-श्रोणितवाहिनी, कृमि-कुल-कलित, देह-दाहिनी।।10।।

अन्वयार्थ:- (तहां) उन नरक में (भूमि) धरती (परसत) स्पर्श करने से (इसो) ऐसा (दुख) दुःख होता है {कि} (सहस) हजारों (बिच्छू) बिच्छू (डसे) डंक मारें, तथापि (नहिं तिसो) उसने समान दुःख नहीं होता {तथाा} (तहां) वहां {नरक में} (राधा-श्रोणितवाहिनी) रक्त और मवाद बहानेवाली नदी {वैतरणी नामक नदी} है, जो (कृमिकुललित) छोटे-छोटे क्षुद्र कीड़ों से भरी हैं तथा (देहदाहिनी) शरीर में दाह उत्पन्न करनेवाली है।

भावार्थ:- उन नरकों की भूमि का स्पर्शमात्र करने से नारकियों को इतनी वेदना होती है कि हजारों बिच्छू एक साथ डंक मारें, तब भी उनती वेदना न हो। तथा उस नरक में रक्त, मवाद और छोटे-2 कीड़ों से भरी हुई, शरीर में दाह उत्पन्न करनेवाली एक वैतरणी नदी है, जिसमें शांतिलाभ की इच्छा से नारकी जीव कूदते हैं, किंतु वहां तेा उनकी पीड़ा अधिक भयंकर हो जाती है। (जीवों को दुःख होने का मूल कारण तो उनकी शरीर के साथ ममता तथा एकत्वबुद्धि ही है; धरती का स्पर्श आदि तो मात्र निमित्त कारण है।)।10।।

नरकों के सेमल वृक्ष तथा सर्दी-गर्मी के दुःख

सेमर तरू दलजुत असिपत्र, असि ज्यों देह विदारैं तत्र।
मेरू समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय।।11।।

अन्वयार्थ:- (तत्र) उन नरको में, (असिपत्र ज्यों) तलवार की धार की भांति तीक्ष्ण (दलजुत) पत्तोंवाले (सेमर तरू) सेमल के वृक्ष {हैं, जो} (देह) शरीर को (असि ज्यों) तलवार की भांति (विदारैं) चीर देते हैं {और} (तत्र) वहां {उस नरक में} (ऐसी) ऐसी (शीत) ठण्ड {और} (उष्णता) गरमी (थाय) होती है {कि} (मेरू समान) मेरू पर्वत के बाराबर (लोह) लोहे का गोला भी (गलि) गल (जाय) सकता है।

भावार्थ:- उन नरकों में अनेक सेमल के वृक्ष हैं, जिनके पत्ते तलवार की धार के सामन तीक्ष्ण होते हैं। जब दुःखी नारकी छाया मिलने की आशा लेकर उस वृक्ष के नीचे जाता है, तब उस वृक्ष के पत्ते गिरकर उसके शरीर को चीर देते हैं। उन नरको में इतनी गर्मी होती है कि एक लाख योजन ऊंचे सुमेरू पर्वत के बाराबर लोहे का पिण्ड भी पिघल1 जाता है तथा इतनी ठण्ड पड़ती है कि सुमेरू के समान लोहे का गोला भी गल2 जाता है। जिसप्रकार लोक में कहा जाता है कि ठण्ड के मारे हाथ अकड़ गये, हिम गिरने से वृक्ष या अनाज जल गया आदिं यानि अतिशय प्रचंड ठण्ड के कारण लोहे में चिकनाहट कम हो जाने से उसका स्कंघ बिखर जाता है।।11।।

नरको में अन्य नारकी, असुरकुमार तथा प्यास का दुःख
तिल-तिल करैं दे हके खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड।
सिन्धुनीर तैं प्यास न जाय तो पण एक न बूंद लहाय।।12।।

अन्वयार्थ:- {उन नरकों में नारकी जीव एक-दूसरे के } (देह के) शरीर के (तिल-तिल) तिल्ली के दाने बराबर (खण्ड) टुकड़े (करें) कर डालते हैं {और} (प्रचण्ड) अत्यंत (दुष्ट) क्रूर (असुर) असुरकुमार जाति के देव

1. मेरूसम लोहपिण्डं सीदं उण्हे विलम्मि पक्खितं।
ण लहदि तलप्पदेशं विलीयदे मयणखण्डं वा।।

2. मेरूसम लोहपिण्डं उण्हं सीदं विलम्मि पक्खितं।
ण लहदि तल पदेशं विलीयदे लवणखण्डं वा।।

1. अर्थ:- जिसप्रकार गर्मी में मोम पिघल जाता है (बहने लगता है) उसीप्रकार सुमेरू पर्वत के बराबर लोहे का गोला गर्म बिल में फेंका जाये तो वह बीच में ही पिघलने लगता है।

2. तथा जिसप्रकार ठण्ड और बरसात में नमक गल जाता है (पानी बन जाता है), उसीप्रकार सुमेरू के बारबर लोहे का गोला ठण्डे बिल में फेंका जाये तेा बीच में ही गलने लगता है। पहले, दूसरे, तीसरे और चैथे नरक की भूमि गर्म है; पांचवे नरक में ऊपर की भूमि गर्म तथा नीचे तीसरा भाग ठण्डा है। छठवें तथा सातवतें नरक की भूमि ठण्डी हैं।

{एक-दूरे के साथ} (भिड़ावैं) लड़ाते हैं; {तथा इतनी} {प्यास} प्यास {लगती है कि} {सिन्धुनीर तैं} समुद्रभार पानी पीने से भी {न जाय} शांत न हो, {तो पण} तथापि {एक बूंद} एक बूंदी भी {न लहाय} नहीं मिलती।

भावार्थ:- उन नरको मं नारकी एक-दूसरे को दुःख देते रहते हैं अर्थात् कुत्तों की भांति हमेशा आपस में लडते रहते हैं। वे एक-दूसरे के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं, तथापि उनके शरीर बारम्बार पारे1 की भांति बिखर कर फिर जुड जाते हैं। संक्लिष्ट परिणामवाले अम्बरीष आदि जाति के असुरकुमार देव पहले, दूसरे तथा तीसरे नरक तक जाकर वहां की तीव्र यातनाओं में पड़े हुए नारकियों केा अपने अवधिज्ञान के द्वारा परस्पर वैर बतलाकर अथवा क्रूरता और कुतूहल से आपस में लड़ाते हैं और स्वयं आनन्दित होते हैं। उन नारकी जीवों को इतनी महान प्यास लगती है कि मिल जाये तो पूरे महासागर का जल भी पी जायें, तथापि तृषा शांत न हो; किंतु पीने के लिए जन की एक बूंद भी नहीं मिलती।।12।।

नरकों की भूख, आयु और मनुष्यगति प्राप्ति का वर्णन

तीनलोकको नाज जु खाय मिटे न भूख कणा न लहाय।
ये दुख बहुत सागर लौं सहै, करम जोगतैं नरगति लहै।।13।।

अन्वयार्थ:- {उन नरकों में इतनी भूख लगती है कि} (तीन लोक को) तीनों लोक का (नाज) अनाज (जुखाय) खा जाये तथापि (भूख) क्षुधा (न मिटै) शांत न हो {परंतु खाने के लिए} (कणा) एक दाना भी (न लहाय)

1. पारा एक धातु के रस समान होता है। धरती पर फेंकने से वह अमुक अंश में छार-छार होकरबिखर जाता है और पुनः एकत्रित कर देने से एक पिण्डरूप बन जाता है।

नही मिलता। (ये दुख) ऐसे दुःख (बहु सागर लौं) अनेक सागरोपमकाल तक (सहै) सहन करता है, (कमर जोगतैं) किसी विशेष शुभकर्म के योग से (नरगति) मनुष्यगति (लहै) प्राप्त करता है।

भावार्थ:- न नरकों में इनती तीव्र भूख लगती है कि यदि मिल जाये तो तीनों लोक का अनाज एकसाथ खा जायें, तथापि क्षुधा शांत न हो, परंतु वहां खाने के लिए एक दानाभी नहीं मिलता। उन नरकों में यह जीव ऐसे अपार दुःख दीर्घकाल (कम से कम दस हजार वर्ष और अधिक से अधिक तेतीस सागरोपम काल तक) भोगता है। फिर किसी शुभकर्म के उदय से यह जीव मनुष्यगति प्राप्त करता है।।13।।

मनुष्यगति में गर्भनिवास तथा प्रसवकाल के दुःख

जननी उदर वस्यो नव मास, अंग सकुचतैं पाया त्रास।
निकसत जे दुख पाये घोर, तिलको कहत न आवे ओर।।14।।

अन्वयार्थ:- {मनुष्यगति में भी यह जीव} (नव मास) नौ महीने तक (जननी) माता के (उदर) पेट में (वस्यो) रहा; {तब वहां} (अंग) शरी (सकुचतैं) सिकोड़कर रहने से (त्रास) दुःख (पायो) पाया {और} (निकसत) निकलते समय (जे) जो (घोर) भयंकर (दुख पाये) दुःख पाये (तिलको) उन दुःखों को (कहत) कहने से (ओर) अंत (न आवे) नहीं आ सकता।

भावार्थ:- मनुष्यगति में भी यह जीवनौ महीने तक माता के पेट में रहा; वहां शरीर को सिकोड़कर रहने से तीव्र वेदना सहन की, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कभी-कभी तो माता के पेट से निकलते समय माता का अथवा पुत्र का अथवा दोनों का मरण भी हो जाता है।।14।।

मनुष्यगति में बाल, युवा और वृद्धावस्था के दुःख

बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरूण समय तरूणी-रत रह्यो।
अर्धमृतकसम बूढापनो, कैसे रूप लखै आपनो।।15।।

अन्वयार्थ:- {मनुष्यगति में} (बालपने में) बचपन में (ज्ञान) ज्ञान (न लह्यो) प्राप्त नहीं कर सका {और} (तरूण समय) युवावस्था में (तरूणी-रत) युवती स्त्री में लीन (रह्यो) रहा, {और} (बूढापनो) वृद्धावस्था (अर्धमृतकसम) अधमरा जैसा {रहा, ऐसी दशा में} (कैसे) किस प्रकार {जीव} (अपनी) अपना (रूप) स्वरूप (लखै) देखे - विचारे।

भावार्थ:- मनुष्यगति में भी यह जीव बाल्यावस्था में विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाया; यौवनावस्था में ज्ञान तो प्राप्त किया, किंतु स्त्री के मोह (विषय-भोग) में भूला रहा और वृद्धावस्था में इन्द्रियों की शक्ति कम हो गई अथवा मरणर्यंत पहुंचे - ऐसा कोई रोग लग गया कि, जिससे अधमरा जैसा पडा रहा। इस प्रकार यह जीव तीनों अवस्थाओं में आत्मस्वरूप का दर्शन (पहिचान) न कर सका।।15।।

देवगति में भवनत्रिक का दुःख

कभी अकामनिर्जरा करै, भवनत्रिक में सुरतन धरै।
विषय-चाह-दावानल द्यो मरत विलाप करत दुख सह्यो।।16।।

अन्वयार्थ:- {इस जीव ने} (कभी) कभी (अकाम निर्जरा) अकाम निर्जरा (करै) की {तो मरने के पश्चात्} (भवनत्रिक) भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी में (सुरतन) देवपर्याय (धरै) धारण की, {परंतु वहां भी} (विषय चा) पांच इन्द्रियों के विषयों की इच्छारूपी (दावानल) भयंकर अग्नि में (दह्यो) जलता रहा {और} {मरत} मरते समय (विलाप करत) रो रो कर (दुख) दुःख सहन किया।

भावार्थ:- जब कभी इस जीव ने अकाम निर्जरा की, तब मरकर उस निर्जरा के प्रभव से (भवनत्रिक) भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में से किसी एक का शरीर धारण किया। वहां भी अन्य देवों का वैभव देखकर पंचेन्द्रियों के विषयों की इच्छारूपी अग्नि में जलता रहा। फिर मंदारमाला को मुरझाते देखकर तथा शरीर और आभूषणों की कान्ति क्षीण होते देखकर अपना मृत्युकाल निकट है - ऐसा अवधिज्ञान द्वारा जानकर ’’हाय! अब ये भोग मुझे भोगने को नहीं मिलेंगे।’’ - ऐसे विचार से रो-रोकर अनेक दुःख सहन किये।।16।। अकाम निर्जरा यह सिद्ध करती है कि कर्म के उदयानुसार ही जीप विकार नहीं करता, किंतु चाहे जैसा कर्मोंदय होने पर भी जीव स्वयं पुरूषार्थ कर सकता है।

देवगति में वैमानिक देवों का दुःख

जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुख पाय।
तहंतें चय थावर तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै।।17।।

अन्वयार्थ:- (जो) यदि (विमानवासी) वैमानिक देव (हू) भी (थाय) हुआ {तो वहां} (सम्यग्दर्शन) सम्यग्दर्शन (बिना) बिना (दुख) दुःख (पाय) प्राप्त किया {और} (तहंतैं) वहां से (चय) मरकर (थावर तन) स्थावर जीव का शरीर (धरै धारण करता है; (यों) इसप्रकार {यह जीव} (परिवर्तन) पांच परावर्तन (पूरे करै) पूर्ण करता रहता है।

भावार्थ:- यह जीव वैमानिक देवों में भी उत्पन्न हुआ, किंु वहां इसने सम्यग्दर्शन के बिना दुःख उठाये और वहां से भी मरकर पृथ्वीकायिक आदि स्थावरों1 के शरीर धारण किये; अर्थात् पुनः तिर्यंचगति मे जा गिरा। इसप्रकार यह जीव अनादिकाल से संसार में भटक रहा है और पांच परावर्तन कर रहा है।।17।।

सार

संसार की कोई भी गति सुखदायक नहीं है। निश्चय सम्यगदर्शन से ही पंच परावर्तनरूप संसार समाप्त होता है। अन्य किसी कारण से - दया, दानादि के शुीाराग से संसार नहीं टूटता। संयोग सुख-दुःख का कारण नहीं है, किंतु मिथ्यात्व (पर के साथ एकत्वबुद्धि - कत्र्ताबुद्धि, शुभराग से धर्म होता है, शुभराग हितकर है - ऐसी मान्यता) ही दुःख का कारण है। सम्यग्दर्शन सुख का कारण है।

पहली ढाल का सारांश

तीन लोक में जो अनंत जी हैं, वे सब सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं; किंतु अपना यथार्थ स्वरूप समझें, तभी सुखी हो सकते हैं। चार गतियों के संयोग किसी भी सुख-दुख का कारण नहीं है, तथापि पर में एकत्वबुद्धि द्वारा इष्ट‘-अनिष्टपना मानकर जीव अकेला दुःखी होता है; और वहां भ्रमवश होकर कैसे संयोग के आश्रय से विकार करता है, वह संक्षेप में कहा है।

तिर्यंचगति के दुःखों का वर्णन - यह जीव निगोद में अनंतकाल तक रहकर, वहां एक क्ष्वास में अठारह बाार जन्म धारण करके अकथनीय वेदना

1. मिथ्यादृष्टि देव मरकर एकेन्द्रिय होता है, सम्यग्दृष्टि नहीं।

सहन करता है। वहां से निकलकर अन्य स्थावर पर्यायें धारण करता है। त्रसपर्याय तो चिन्तामणि रत्न के समान अति दुर्लभता से प्राप्त होती है।वहां भी विकलत्रय शरीर धारा करके अत्यंत दुःख सहन करता है। कदाचित् असंज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ तो मन के बिना दुःख प्राप्त करता है। संज्ञी हो तो वहां भी निर्बल प्राणी बलवान प्राणी द्वारा सताया जाता है। बलवान जीव दूसरों को दुःख देकर महान पाप का बंध करते हैं और छेदन, भेदन, भूख, प्यास, शीत, उष्णता आदि के अकथनीय दुःखो को प्राप्त होते हैं।

नरकगति के दुःख - जब कभी अशुभ-पाप परिणामों से मृत्यु प्राप्त करते हैं, तब नरक में जाते हैं। वहां की मिट्टी का एक कण भी इस लोक में आ जाये तो उसकी दुर्गंध से कई कोसों के संज्ञाी पंचेन्द्रिय जीव मर जायें। उस धरती को छूने से भी अस्य वेदना होती है। वहां वैतरणी नदी, सेमलवृक्ष, शीत, उष्णता तथा अन्न-जल के अभाव से स्वतः महान दुःख होता है। जब बिलों में औंधे मुंह लटकते हैं, तब अपार वेदना होती है। फिर दूसरे नारकी उसे देखते ही कुत्ते की भांति उस पर टूट पड़ते हैं और मारपीट करते हैं। तीसरे नरक तक अम्ब और अम्बरीष आदि नाम के संक्लिष्ट परिणामी असुरकुमार देव जाकर नारकियों को अवधिज्ञान के द्वारा पूर्वभवों के विरोध का स्मरण कराके परस्पर लड़वाते हैं; तब एक-दूसरे के द्वारा कोल्हू में पिलना, अग्नि मं जलना, आरे से चीरा जाना, कढाई में उबलना, टुकड़े-टुकड़े कर डालना आदि अपरा दुःख उठाते हैं - ऐसी वेदनाएं निरंतर सहना पड़ती हैं। तथापि क्षणमात्र साता नहीं मिलती; क्योंकि टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी शरीर परे की भांति पुनः मिलकर ज्यों का त्यों हो जाता है। वहां आयु पूर्ण हुए बिना मृत्यु नहीं होती। नरक में ऐसे दुःख कम से कम दस हजार वर्ष तक तो सहना पड़ता हैं, किंु यदि उत्कृष्ट आयु का बंध हुआ तो तेतीस सागरोपम वर्ष तक शरीर का अन्त नहीं होता।

मनुष्यगति का दुःख - किसी विशेष पुण्यकर्म के उदय से यह जीव जब कभी मनुष्यपर्याय प्राप्त करता है, तब नौ महीने तक माता के उदर में ही पड़ा रहता है, वहां शरीर को सिकोड़कर रहने से महान कष्ट उठाना पड़ता है। वहां से निकलते समय जो अपार वेदना होती है, उसका वर्णन भी नहीं किया जा सकता। फिर बचपन में ज्ञान के बिना, युवावस्था में विषय-भोगों में आसक्त रहने से तथा वृद्धावस्था में इन्द्रियों की शिथिलता अथवा मरणपर्यंत क्षयरोग आदि में रूकने के कारण आत्मदर्शन से विमुख रहता है और आत्मोद्वारा कामार्ग प्राप्त नहीं कर पाता।

देवगति का दुःख - यदि कोई शुभकार्य के उदय से देव भी हुआ, तो दूसरे बड़े देवों का वैभव और सुख देकर म नही मन दुःखी होता रहता है। कदाचित वैमानिक देव भी हुआ, तो वहां भी सम्यक्त्व के बिना आत्मिक शांति प्राप्त नहीं कर पाता तथा अंत में मंदारमाला मुरझा जाने से, आभूषण और शरीर की कान्ति क्षीण होने से मृत्यु को निकट आया जानकर महान दुःख होता है और आर्तध्यान करके हाय-हाय करके मरता है। फिर एकेन्द्रिय जीव तक होत है अर्थात् पुनः तिर्यंचगति में जा पहुंचता है। इसप्रकार चारों गतियों में जीव को कहीं भी सुख-शांति नहीं मिलती। इस कारण अपने मिथ्यात्व भावों के कारण ही निरंतर संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है।

पहली ढाल का भेद-संग्रह

एकेन्द्रिय :पृथ्वीकायिक जीव, अपकायिक जीव, अग्निकायिक जीव, वायुकायिक जीव और वनस्पतिकायिक जीव।

गति : मनुष्यगति, तिर्यंचगति, देवगति और नरकगति।

जीव :संसारी और मुक्त।

त्रस : द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय।

देव : भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक।

पंचेन्द्रिय : संज्ञी और असंज्ञी।

योग : मन, वचन और काय; अथवा द्रव्य और भाव।

लोक : ऊध्र्व, मध्य, अधः।

वनस्पति : साधारण और प्रत्येक।

वैमानिक : कल्पोतपन्न, कल्पातीत।

संसारी : त्रस और स्थावर; अथवा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय।

पहली ढाल का लक्षण-संग्रह

अकामनिर्जरा : सहन करने की अनिच्छा होने परभी जीव रोग, क्षुधादि सहन करता है। तीव्र कर्मोदय में युक्त न होकर जीव पुरूषार्थ द्वारा मंदकषायरूप परिणामित हो, वह।

अग्रिन्कायिक : अग्नि ही जिसका शरीर होता है - ऐसा जीव।

असंज्ञी : शिक्षा और उपदेश ग्रहण करने की शक्ति रहित जीव को असंज्ञी कहते हैं।

इन्द्रिय : जिसे एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है - ऐसा जीव।

गति नामकर्म : जो कर्म जीव के आकार नारकी, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव जैसे बनाता है।

गति :जिसके उदय से जीव दूसरी पर्याय (भव) प्राप्त करता है।

चिन्तामणि : जो इच्छा करने मात्र से इच्छित वस्तु प्रदान करता है - ऐसा रत्न।

तिर्यंचगति : तिर्यंचगति नामकर्म के उदय से तिर्यंचों में जन्म धारण करना।

देवगति : देवगति नामकर्म के दय से देवों में जन्म धारण करना।

नरक : पापर्क के उदय में युक्त होने के कारण जिस स्थान में जन्म लेते ही जी असह्य एवं अपरिमित वेदना अनुभव करने लगता है तथा दूसरे नारकियों द्वारा सताये जाने के कारण दुःख का अनुभव करता है तथा जहां तीव्र द्वेष-पूर्ण जीवन व्यतीत होता है - वह स्थान। जहां पर क्षणभर भी ठहरना नहीं चाहता।

नरकगति : नरकगति नामकर्म के उदय से नरक में जन्म लेना।

निगोद : साधारण के उदय से एक शरीर के आस्त्रव से अनंतानंत जीव समानरूप से जिसमें रहते हैं, मरते हैं और पैदा होते हैं, उस अवस्थावाले जीवों को निगोद कहते हैं।

नित्यनिगोद : जहं के जीवेम ने अनादिकाल से आज तक त्रसपयार्याय प्राप्त नहीं की - ऐसी जीवराशि, किंतु भविष्य में वे जीव त्रस-पर्याय प्राप्त कर सकते हें।

परिवर्तन : द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवरूप संसारचक्र में परिभ्रमण।

प्रचेन्द्रिय : जिनके पांच इन्द्रियां होती है - ऐसे जीव।

पृथ्वीकायिक : पृथ्वी ही जिन जीवों का शरीर है - वे।

प्रत्येक वनस्पति : जिसमें एक शरीर का स्वामी एक जीव होता है - ऐसे वृक्ष, फल आदि।

भव्य : तीन काल में किसी भी समय रत्नत्रय प्राप्ति की योग्यता रखनेवाले जीव को भव्य कहा जाता है।

मन : हित-अहित का विचार तथा शिक्षा और उपदेश ग्रहण करने की शक्ति सहित ज्ञान-विशेष को भाव मन कहते हैं। हृदय स्थान में आठ पंखुडियों वाले कमल की आकृति समान जो पुद्गलपिण्ड, उसे जड़-मन अर्थात् द्रव्य-मन कहते हैं।

मनुष्यगति : मनुष्यगति नामकर्म के उदय से मनुष्यों में जन्म लेना अथावा उत्पन्न होना।

मेरूजम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में स्थित एक लाख ये जन ऊँचा एक पर्वत विशेष।

मोह : पर के साथ एकत्वबुद्धि से मिथ्यात्वमोह है; यह मोह अपरिमित है तथा अस्थिरता रागादि सो चारित्रामोह है; यह मोह परिमित है।

लोक: जिसमें जीवादि छह द्रव्य स्थित हैं, उसे लोक अथवा लोकाकाश कहते हैं।

विमानवासी : स्वर्ग और ग्रैवेयक आदि के देव।

वीतराग का लक्षण -

जन्म1, जरा2, तिरखा3, क्षुधा4, विस्मय5, आरत6, खेद7। रोग8, शोक9, मद10, मोह, भय12, निद्रा13, चिन्ता14, स्वेद15। राग16, द्वेष17, अरू मरण18, जुत, ये अष्टदश दोष। नाहिं होत जिस जीव के, वीतराग सो होय।।

श्वास : रक्त की गति प्रमाण समय, कि जो एक मिनट में 80 बार से कुछ अंश कम चलती है।

सागर : दो हजार कोस गहरे तथा इतने चैड़े गोलाकार गड्ढे को, कैंची से जिसके दो टुकड़े न हो सके। ऐसे सके - ऐसे तथा एक से सात दि की उर्म के उत्तम भोगभूमि के मेंढें के बालों से भर दिया जाये। फिर उसमें से सौ-सौ वर्ष के अंतर से एक बाल निकाला जाये। जितने काल में उन सब बालों को निकाल दिया जाये, उसे ’व्यवहार पल्य’ कहते हैं; व्यवहार पल्य से असंख्यातगुने समय को ’उद्धारपल्य’ और उद्धारपल्य से असंख्यातगुने काल को ’अद्धा पल्य’ कहते हैं। इस कोड़ाकोड़ी (10 करोउ़ -- 10 करोड़) अद्धा पल्यों का एक सागर होता है।

संज्ञाी : शिक्षा तथा उपदेश ग्रहण कर सकने की शक्तिवाले मनसहित प्राणी।

स्थावर : स्थावर नामकर्म के उदय सहित पृथ्वी -जल-अग्नि-वायु तथा वनस्पतिकायिक जीवा।

अन्तर-पद्रर्शन

(1) त्रस जीवों को त्रस नामकर्म का उदय होता है, परंतु स्थावर जीवों को स्थावर नामकर्म का उदय होता है। - दोनों में यह अन्तर है।

नोट - त्रस और स्थावरों में, चल सकते हैं और नहीं चल सकते - इस अपेक्षा से अन्तर बतलाना ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने से गमन रहित अयोगीकेवली में स्थावर का लक्षण तथा गमन सहित पवन आदि एकेन्द्रिय जीवों में त्रस का लक्षण मिलने से अतिव्याप्ति दोष आता है।

(2) साधारण के आश्रय से अनन्त जीव रहते हैं, किंतु प्रत्येक के आश्रय से एक ही जीव रहता है।

(3) संज्ञी तो शिक्षा और उपदेशा ग्रहण कर सकता है, किंतु असंज्ञी नहीं।

नोट : किन्हीं का भी अंतर बतलाने के लिए सर्वत्र इस शैली का अनुकरण करना चाहिए, मात्र लक्षण बतलाने से अंतर नहीं निकलता।

पहली ढाल की प्रश्नावली

(1) असंज्ञी, ऊध्र्वलोक, एकेन्द्रिय, कर्म, गति, चुरिन्द्रिय, त्रस, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, अधो लोक, पंचेन्द्रिय, प्रत्येक, मध्यलोक, वीतराग, वैक्रियिक शरीर, साधारण और स्थावर के लक्षण बतलाओ।

(2) साधारण (निगोद) और प्रत्येक में, त्रस और स्थावर में, संज्ञी और असंज्ञी में अन्तर बतलाओ।

(3) असंज्ञी तिर्यंच, त्रस, देव, निर्बल, निगोद, पशु, बाल्यावस्था, भवनत्रिक, मनुष्य, यौवन, वृद्धावस्था, वैमानिक, सबल संज्ञाी, स्थावर, नरकगति, नरक सम्बन्धी भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, भूमिस्पर्श तथा असुरकुमारों के दुःख, अकाम निर्जरा का फल, असुरकुमारों का कार्य तथा गमन; नारकी के शरीर की विशेषता और अकाल मृत्यु का अभाव, मंदारमाला, वैतरणी तथा शीत से लोहे के गोले का गल जाना - इनका स्पष्ट वर्णन करो।

(4) अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण, भवनत्रिक में उत्पन्न होना तथा स्वर्गों में दुःख का कारण बतलाओ।

(5) असुरकुमारों का गमन, सम्पूर्ण जीवाराशि, गर्भनिवास का समय, यौवनावस्था, नरक की आयु, निगोदवास का समय, निगोदिया की इन्द्रियां, निगोदिया की आयु, निगोद में एक क्ष्वास में जन्म-मरण तथा क्ष्वास का परिणाम बतलाओ।

(6) त्रस पर्याय की दुर्लभता 1-2-3-4-5 इन्द्रिय जीव तथा शीत से लोहे का गोला गल जाने को दृष्टांत द्वारा समझाओ।

(7) बुरे परिणामों से प्राप्त होने योग्य गति, ग्रन्थ रचयिता, जीव-कर्म सम्बन्ध, जीवों की इच्छित तथा अनिच्छित वस्तु, नमस्कृत वस्तु, नरक की नदी, नरक में जानेवाले असुरकुमार, नारकी का शरीर, निगोदिया का शरीर, निगोद से निकलकर प्राप्त होनेवाली पर्यायें, नौ महीने से कम समय तक गर्भ में रहनेवाले, मिथ्यात्वी वैमानिक की भविष्यकालीन पर्याय, माता-पिता रहित जीव, सर्वाधिक दुःख का स्थान और संक्लेश परिणाम सहित मृत्यु होने के कारण प्राप्त होने योग्य गति का नाम बतलाओ।

(8) अपनी इच्छानुसार किसी शब्द, चरण अथवा छद का अर्थ या भावार्थ कहो। पहली ढाल का सारांश समझाओ, गतियों के दुःखों पर एक लेख लिखो अथवा कहकर सुनाओ।

भजन

बन्दो अद्भुत चन्द्रवीर जिन भविचकोर चित हारी।
चिदानन्द अबुधि अब उछरेयो भव तप नाशन हारी।।टेक।।
सिद्धारथ नृप कुल नभ मण्डल, खण्डन भ्रम-तम भारी।
परमानन्द जलधि विस्तारन, पाप ताप छय कारी।।1।।
उदित निरन्तर त्रिभुवन अन्तर, कीरत किरन पसारी।
दोष मलंक कलंक अखकि, मोह राहु निरवारी।।2।।
कर्मावरण पयोध अरोधित, बोधित शिवमगचारी।
गणधरादि मुनि उडुगन सेवत, नित पूनम तिथि धारी।।3।।
अखिल अलोकाकाश उलंघन, जासु ज्ञान उजयारी।
’दौलत’ तनसा कुमुनिमोदन, ज्यों चरम जगतारी।।4।।