पंचमो आसवाधियारो
Influx Of Karmas

दो प्रकार के आस्त्रव -

मिच्छतं अविरमणं कसायजोगा सण्णसण्णा दु।
बहुविहभेदा जीवे तस्सेव अणण्णपरिणामा।।
(5-1-164)

णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होंति।
तेसिं पि होदि जीवो रागद्दोसादिभावकरो।
(5-2-165)

मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग (भावप्रत्यय और द्रव्यप्रत्यय के रूप में) चेतन और अचेतन दो प्रकार के होते हैं। (जो चेतन के विकार हैं वे) जीव में अनेक प्रकार के भेद वाले हैं और वे जीव के ही अनन्य परिणाम हैं। जो मिथ्यात्व आदि पुद्गल के विकार है, वे ज्ञानावरण् आदि कर्मों के निमित्त हैं। उन मिथ्यात्व आदि अचेतन विकारों का निमित्त राग-द्वेष आदि भावों का कर्ता जीव होता है।

Wrong belief (mithyatva), non-abstinence (avirati), passions (kasaya), and actions of the body, the organ of speech and the mind (yoga) are of two kinds – psychical (chetana) and material (achetana). Psychical modifications are of various kinds and they are modes exclusively of the Self. Material modifications, like wrong belief, lead to karmas, like knowledge-obscuring karma. The cause of material modifications, like wrong belief, is the Self when he gets involved in psychic states like attachment and aversion.

सम्यग्दृष्टि के आस्त्रवों का अभाव है -

णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो।
संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो।।
(5-3-166)

सम्यग्दृष्टि के आस्त्रवनिमित्तक बन्ध नहीं है; किंतु आस्त्रव का निरोध है। नवीन कर्मों को न बांधता हुआ वह सत्ता में विद्यमान पूर्व में बांधे हुए कर्मों को जानता है।

The right believer has no bondage due to influx of karmas; the influx is blocked. While free from bondage of new karmas, he is aware of the still existing, past bondage of karmas.

रागद्वेष ही आस्त्रव है -

भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो होदि।
रागादि-विप्पमुक्को अबंधगो जाणगो णवरि।।
(5-4-167)

जीव के द्वारा किया हुआ रागादियुक्त भाव तो नवीन कर्मों का बन्ध करने वाला होता है और रागादि से रहित भाव बन्ध नहीं करता। वह मात्र ज्ञायक है।

Psychic modes, like attachment etc., of the Self result into bondage of fresh karmas. However, the Self devoid of such psychic modes is free from bondage; he is of the nature of the knower.

निर्जरित कर्म का पुनः बन्ध नहीं -

पक्के फलम्मि पडिदे जह ण फलं बज्झदे पुणो विंटे।
जीवस्स कम्मभावे पडिदे ण पुणोदयमुवेदि।।
(5-5-168)

जैसे पके हुए फल के (वृक्ष से) गिरने पर वह फल पुनः डंठल में नहीं जुड़ता, उसी प्रकार जीव के पुद्गल कर्मों की निर्जरा होने पर पुनः वे उदय को प्राप्त नहीं होते (पुनः वे जीव के साथ नहीं बँधते)।

As the ripened fruit, once fallen (from tree), does not get not get re-attached to the stalk, similarly, karmas (karmic matter), once dissociated from the Self, do not come to fruition again (do not again get bonded with the Self).

ज्ञानी के द्रव्यास्त्रव का अभाव है -

पुढवीपिंडसमाण पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स।
कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।।
(5-6-169)

उस ज्ञानी के पहले (अज्ञान अवस्था में) बंधे हुए सभी (मिथ्यात्वादि द्रव्य) प्रत्यय तो पृथ्वी के ढेले के समान है (अकिंचित्कर हैं); और वे (अपने पुद्गलस्वभाव से) कार्मण शरीर के साथ बंधे हुए हैं।

In the Self with right knowledge, all previously bonded karmas (wrong belief etc., which got bonded when the Self was in the state of nescience), are like a lump of earth (i.e., practically inconsequential) and these (due to their physical nature), remain incorporated with the karmic body (karmana sarira).

ज्ञानगुण से कर्म-बन्ध -

चहुविह अणेयभेयं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं।
समये समये जम्हा तेण अबंधो त्ति णाणी दु।।
(5-7-170)

क्योंकि (मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग), ये चार प्रकार के द्रव्यास्त्रव ज्ञान-दर्शन गुणों के द्वारा प्रतिसमय अनेक प्रकार के कर्मों को बांधते हैं, अतः ज्ञानी तो अबन्ध ही है।

Since the four kinds of karmic influxes (wrong belief, non-abstinence, passions, and actions of the body, the organ of speech and the mind), due to the impure qualities of knowledge and faith in the Self, cause bondages of various kinds of karmas every instant, therefore, the Self with right knowledge is free from bondage.

ज्ञानगुण कर्म-बन्ध का कारण क्यों है -

जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि।
अण्णत्तं णाणगुणों तेण दु सो बंधगो भणिदो।।
(5-8-171)

क्योंकि ज्ञानगुण ज्ञानगुण के जघन्य भाव (क्षायोपशमिक ज्ञान) के कारण पुनः अन्र्मुहूर्त के पश्चात अन्य रूप से परिणमन करता है, इसी कारण वह (ज्ञानगुण का जघन्य भाव - यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति से पूर्व तक) कर्म का बन्ध कराने वाला कहा गया है।

Since the quality of knowledge, due to its lowest stage of disposition (destruction-cum-subsidence), re-emerges, within on muhurta*, in alternative modes, therefore, this cognitive quality (from the level of destruction-cum-subsidence to the level just before perfect conduct) has been said to be the cause of bondage of karmas.

रत्नत्रय का जघन्य भाव कर्म-बन्ध का कारा है -

दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण।
णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलम्मेण विविहेण।।
(5-9-172)

दर्शन, ज्ञान और चारित्र जघन्य भाव से जो परिणमन करते हैं, उसके कारण ज्ञानी जीव अनेक प्रकार के पुद्गन कर्मों से बन्ध को प्राप्त होता है।

The knowledgeable jiva, due to the modification of knowledge, faith, and conduct, in their lowest stage of disposition (destruction-cum- subsidence), get bondages of various kinds of karmic matter.

सम्यग्दृष्टि के कर्मबन्ध नहीं होता -

सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया संति सम्मदिट्ठिस्स।
उवओगप्पाआगं बंधंते कम्भावेण।।
(5-10-173)

संता दु णिरूवभोज्जा बाला इत्थी जहेव पुरिसस्स।
बंधदि ते उवभोज्जे तरूणी इत्थी जह णरस्स।
(5-11-174)

होदूण णिरूवभोज्जातह बंधदि जह हंवति उवभोज्जा।
सत्तट्विहा भूदा णाणावरणादि भावेहिं।।
(5-12-175)

एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिदो।
आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा।।
(5-13-176)

सम्यग्दृष्टि जीव के पूर्व की सराग दशा में बांधे हुए सभी द्रव्यास्त्रव सत्ता में विद्यमान हैं। वे उपयोग के प्रयोगानुसार कर्म भाव के द्वारा (रागादि भाव प्रत्ययेां के द्वारा) बन्ध को प्राप्त होते हैं। सत्ता में विद्यमान हरते हैं फिरभी उदय सेपूर्व वे भोगने योग्य नहीं होते। जैसे बाल स्त्री पुरूष के लिए भोग्य नहीं होती । वे ही कर्म उदयकाल में भोगने योग्य हाने पर नये कर्मों को बांधते हैं; जिस प्रकार तरूणी स्त्री पुरूष के लिए (भोग्य) होती है और पुरूष को रागभाव में बांध लेती है)। वे पूर्वबद्ध कर्म भोगने के अयोग्य होकर जैसे भोगने योग्य होते हैं,उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि रूप से (आयु कर्म के बिना) सात प्रकार के और (आयु कर्म सहित) आठ प्रकार के कर्मों को बांधते हैं। इसी कारण से सम्यग्दृष्टि जीव अबन्धक (कर्म-बन्ध न करने वाला) कहा गया है। रागादि भावास्त्रव के अभाव में द्रव्य प्रत्यय बन्धकारकर नहीं होते हैं।

In the right believer, all previously bonded karmas, which got bonded when the Self was in the state of attachment, remain existent. They get bonded due to the manifestation of conscious dispositions of the Self, involving attachment etc. They are existent but are not fit for enjoyment till they mature; just as a child-wife is not fit for enjoyment by the husband. The same bonded karmas, when they mature, are fit for enjoyment and, in the process, give rise to fresh bondages; just as an adult wife is fit for enjoyment by the husband and, in the process, generates his attraction. The previously bonded karmas transform from being unfit for enjoyment, to fit for enjoyment. On becoming operative, they give rise to bondages of seven kinds of karmas like knowledge-obscuring karma (but not the life-determining karma), or eight types of karmas (including the life-determining karma) The right believer, due to this very reason, is said to be a non-perpetrator of bondages; because of the absence of attachment etc. in him, the existent karmic matter cannot cause fresh bondages.

भावप्रत्यय के बिना द्रव्यप्रत्यय नहीं होता -

रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स।
तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति।।
(5-14-177)

हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं हवदि।
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।।
(5-15-178)

राग, द्वेष और मोह ये आस्त्रव सम्यग्दृष्टि के नहीं होते। इसलिए रागादि भावास्त्रव के बिना द्रव्य प्रत्यय कर्म-बंध के कारण नहीं होते। मिथ्यात्व आदि चार प्रकार के हेतु आठ प्रकार के कर्मों के कारण होते हैं और उनचार प्रकार के हेतुओं के कारण जीव के रागादि भाव हैं। उन रागादि भावों का अभाव होने के कारण सम्यग्दृष्टि के कर्म-बन्ध नहीं होता।

In the right believer, there are no influxes of attachment, aversion, and delusion. Therefore, without these psychic states pertaining to attachment etc., the existent karmic matter cannot cause fresh bondages. Four kinds of karmic influxes, such as wrong belief, cause bondages of eight kinds of karmas, and these four kinds of karmic influxes are due to the psychic states of the Self, pertaining to attachment etc. Because of the absence of these psychic states pertaining to attachment etc., the Self with right belief does not get fresh karmic bondages.

शुद्धनय से च्युत जीव के बन्ध होता है -

जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं।
मंसवसारूहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्तो।।
(5-16-179)

तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं।
बज्झंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा।।
(5-17-180)

जैसे पुरूष के द्वारा ग्रहण किया हुआ आहार उदराग्नि का संयोग पाकर वह मांस, मज्जा, रूधिर आदि के रूप से अनेक रूप में परिणमन करता है; उसी प्रकार ज्ञानी के पूर्व में बद्ध जो द्रव्यास्त्रव थे, वे अनेक प्रकार के कर्मों को बांधते हैं। वे जीव शुद्धनय से च्युत हैं (शुद्धनय से च्युत होने पर ही ज्ञानी जीव रागादि भावास्त्रव करता है। उससे द्रव्यास्त्रव और कर्म-बंध होता है।)

Just as food eaten by a man, and acted upon by his digestive system, gets metabolized into flesh, bone-marrow, bold etc., in the same way, the earlier influxes of karmic matter associated with the Self of the knowledgeable, cause various kinds of fresh karmic bondages. Such a knowledgeable Self is away from the pure, transcendental point of view. (Only when the knowledgeable Self is away from the pure, transcendental point of view, he gets caught up in psychic states pertaining to attachment etc., which cause influxes and karmic bondages.)

इदि पंचमो आसवाधियारो समत्तो