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जिन धर्म विधान
जिनधर्म विधान पूजा
अथ स्थापना-गीताछंद
उत्तम क्षमादी धर्म हैं, और दया धर्म है।
वस्तू स्वभाव सु धर्म है, औ रत्नत्रय गुणखान है।।
जो जीव को ले जाके धरता, सर्व उत्तम सौख्य में।
वह धर्म है जिनराज भाषित, पूजहूं तिहुंकाल मैं।।1।।
-दोहा-
भरतैरावत क्षेत्र में, चैथे पांचवे काल।
शाश्वत रहे विदेह में, धर्म जगत् प्रतिपाल।।2।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्म अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
- अष्टक-चाल-नंदीश्वर पूजा
रेवानदि को जल लाय, कंचल भृंग भरूं।
त्रयधार करूं सुखदाय, आतम शुद्ध करूं।।
जिनधर्म विश्व् का धर्म, सर्व सुखाकर है।
मैं जजूं सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्मा जन्मजरामृत्युविनाशानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
मलयागिरि चंदन गंध, घिस कर्पूर मिला।
जजते ही धर्म अमंद, निज मन कमल खिला।।जिनधर्म0।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्मा संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
शशिकर सम तंदुल श्वेत, खंड विवर्जित हैं।
शिवरमणी परिणय हेत, पुंज समर्पित हैं।।जिनधर्म0।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्मा कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
सित कुमुद नील अरविंद, लाल कमल प्यारे।
मदनारि विजयहित धर्म, पूजूं सुखकारे।।जिनधर्म0।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्मा कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
पूरणपोली पयसार1, पायस मालपुआ।
जिनधर्म सुधासम पूज, आतम सौख्य हुआ।।जिनधर्म0।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्मा क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
मणि दीप कपूर प्रजाल, ज्योत उद्योत करे।
अंतर में भेद विज्ञान, प्रगटे मोह हरे।।जिनधर्म0।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्मा मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
दश गंध अग्नि में जार, सुरभित गंध करे।
निज आतम अनुभवसार, कर्म कलंक हरे।।जिनधर्म0।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्मा अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।7।।
एका केला फल आम्र, जंबू निंबु हरे।
शिवकांता संगम हेतु तुम ढिग भेंट करे।।जिनधर्म0।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्मा मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।8।।
सलिलादिक द्रव्य मिलाय, कंचनपात्र भरें।
जिनवृष को अर्घ चढ़ाय, शिवसाम्राज्य वरें।।जिनधर्म0।।
ऊँ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्मा अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।।9।।
-दोहा-
शांतिधारा मैं करूं, जैन धर्म हितकार।
चउसंघ में शांति करो, हरो सर्व दुःख भार।।10।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि से पूजहूं, श्री जिनधर्म महान!।
दुःख दारिद संकट टले, बनू आत्मनिधिमान।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।