केतुग्रहारिष्ट निवारक श्रीपाश्र्वनाथ जिनेन्द्र पूजा
स्थापना-गीताछन्द
तर्ज-आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं..............................

चलो सभी मिल पूजन कर लें, पाश्र्वनाथ भगवान की।
केतू ग्रह की बाधा हरने, वाले प्रभू महान की।।
वन्दे जिनवरम्-2, वन्द्र जिनवरम्-2।।टेक.।।

हम सब प्रभु की पूजन हेतू, आह्वनन विधि करते हैं।
स्थपन सन्निधीकरण, करके आतम निधि वरते हैं।।
आओ तिष्ठो प्रभु मुझ मन में, कुछ तो शक्त प्रदान करो।
निज सम धैर्य-क्षमा गुण देकर, मेरा भी उत्थान करो।।
पारस प्रभु की पूजन से, बनते पारस भगवान भी।
केतू ग्रह की बाधा हरने, वाले प्रभू महान की।।
वन्दे जिनवरम्-2, वन्द्र जिनवरम्-2।।टेक.।।

ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट आह्वाहननं।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अष्टक-

तर्ज-हे माँ तेरी सूरत...........................

हे नाथ! तुम्हारी पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान..........भगान् तुम्हारे चरणों, में ग्रहशांती करने आए हैं।।
भव भव में प्रभु हमने, कितना जल पी डाला।
पर शांत न हो पाई, मेरे मन की ज्वाला।।
भव भव के ताप मिटाने को, जलधारा करने आए हैं।
भगवान तुम्हारे चरणों में, ग्रह शांती करने आए हैं।।1।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

हे नाथ! तुम्हारी पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान..........भगान् तुम्हारे चरणों, में ग्रहशांती करने आए हैं।।
मेरे चैतन्य सद में, क्रोधाग्नी जलती है।
अज्ञान के अंचल में, छिप-छिप वह पलती है।।
हम इसीलिए चन्दन लेकर, भवताप मिटाने आए हैं।
भगवान तुम्हारे चरणों में, ग्रह शांती करने आए हैं।।2।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

हे नाथ! तुम्हारी पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान..........भगान् तुम्हारे चरणों, में ग्रहशांती करने आए हैं।।
मेरा जीवन खंडित है, मद मोह व माया में।
अब करना अखंडित है, प्रभु शीतल छाया में।।
भगवान तुम्हारे चरणों में, ग्रह शांती करने आए हैं।।3।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

हे नाथ! तुम्हारी पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान..........भगान् तुम्हारे चरणों, में ग्रहशांती करने आए हैं।।
कितने उद्यानों में जा, पुष्पों की गंध लिया।
कभी घर को सजाया मैंने, कभी जिन श्रृंगार किया।।
अब तेरे पावन चरणों में, हम पुष्प चढ़ाने आए हैं।
भगवान तुम्हारे चरणों में, ग्रह शांती करने आए हैं।।4।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र कामबाणविध्वंसनास पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

हे नाथ! तुम्हारी पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान..........भगान् तुम्हारे चरणों, में ग्रहशांती करने आए हैं।।
हमने कितने भव-भव में, पकवान बहुत खाए।
लेकिन इस नवर तन की, नहिं भूख मिटा पाए।।
क्षुधरोग निवारण हेतु प्रभो! नैवेद्य थाल भर लाए हैं।
भगवान तुम्हारे चरणों में, ग्रह शांती करने आए हैं।।5।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

हे नाथ! तुम्हारी पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान..........भगान् तुम्हारे चरणों, में ग्रहशांती करने आए हैं।।
अज्ञान नगर में मेरा, चिरकाल से है रमना।
नृप मोह के बन्धन में, नहिं पूर्ण हुआ सपना।।
अज्ञान अंधेर मिटाने को, हम दीप जलाकर लाए हैं।
भगवान तुम्हारे चरणों में, ग्रह शांती करने आए हैं।।6।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

हे नाथ! तुम्हारी पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान..........भगान् तुम्हारे चरणों, में ग्रहशांती करने आए हैं।।
हमने कर्मों में निज को, आनन्दित माना है।
अतएव निजातम सुख को, किंचित नहिं जाना है।।
कर्मों के ज्वालन हेतु प्रभो! हम धूप जलाने आए हैं।
भगवान तुम्हारे चरणों में, ग्रह शांती करने आए हैं।।7।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

हे नाथ! तुम्हारी पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान..........भगान् तुम्हारे चरणों, में ग्रहशांती करने आए हैं।।
मैं क्षणिक विनश्वर फल के, स्वादों में फंसा रहा।
जिह्वा की लोलुपता में, उत्तमफल को न लहा।।
तुम सम फल की प्राप्ती हेतू, फल थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान तुम्हारे चरणों में, ग्रह शांती करने आए हैं।।8।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

हे नाथ! तुम्हारी पूजन को, हम थाल सजाकर लाए हैं।
भगवान..........भगान् तुम्हारे चरणों, में ग्रहशांती करने आए हैं।।
मैं अष्टद्रव्य ले करके, तव सन्निध आया हूं।
अष्टम वसुधा पाने को, तव सन्निध आया हूं।
’’चन्दना’’ सिद्ध पद प्राप्ति हेतु, कुछ भक्त तेरे दर आए हैं।
भगवान तुम्हारे चरणों में, ग्रह शांती करने आए हैं।।9।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यम् निर्वपामीति स्वाहा।

तर्ज-करती हूँ तुम्हारी भक्ति...........................

जब तक गंगा यमुना में, जलधार बहेगी।
तब तक पारस प्रभु की भक्ती, रसधार बहेगी।।
हे पाश्र्वप्रभू जी, हे पाश्र्वप्रभू जी।
कंचन झारी से चरणों में, त्रयधारा करनी है।
सांसारिक जन्म जरा मृत्यु की, बाधा हरनी है।।
जब तक केतू के कष्टों की, नहिं हानि रहेगी।
तब तक पारस प्रभु की भक्ती, रसधार बहेगी।
हे पाश्र्वप्रभू जी, हे पाश्र्वप्रभू जी।।1।।
शांतये शांतिधारा।

जब तक स्वर्गों में कल्पवृक्ष का, वास रहेगा।
पारसप्रभु के गुणपुष्पों का, इतिहास रहेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा।।
चम्पा चमेली पुष्पों से पुष्पांजलि करना है।
आत्मीक गुणों से अन्तर्मन को, पुष्पित करना है।।
उनका अर्चन केतू की बाधा, ह्रस करेगा।
पारस प्रभु के गुणपुष्पों का, इतिहास रहेगा।।
जय पारस देवा, जय पारस देवा।।2।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

(अब मण्डल पर केतुग्रह के स्थान पर श्रीफल सहित अघ्र्य चढ़ावें)

तर्ज-आए महावीर भगवान...................
कर लो पारस प्रभु का ध्यान, तुम पारस बन जाओगे।
तुम पारस बन जाओग, मुक्ति श्री पा जाओगे।।कर लो.।।टेक.।।
ग्रह केतु अरिष्ट की शान्ती, होवे तब मिटे अशान्ती।
भय भागें सब इस क्षण में, नहिं चोट लगे मेरे तन में।।
’’चन्दना’’ करो गुणगान, तुम पारस बन जाओगे।।कल लो.।।1।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र पूर्णाघ्र्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

जाप्य मंत्र - ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला

तर्ज-तुमसे लागी लगन...........
जय जय पारस प्रभो, भदधितारक विभो, द्वारा आया।
अघ्र्य का थाल मैंने सजाया।।टेक.।।

गर्भ से मास छह पूर्व नगरी, रत्नमय वह बनारस पुरी थी।
इन्द्रगण आ गए, चक्रधर पा एग, तेरी छाया।
अघ्र्य का थाल मैंने सजाया।।1।।

जन्म होते ही कम्पित मुकुट थे, दिव्य बाजे स्वयं बज उठे थे।
जग चकित हो गया, मोह तम खो गया, प्रभु की माया।
अघ्र्य का थाल मैंने सजाया।।2।।

वामानन्दन हो पारस प्रभो तुम, अश्वसेन के प्रिय लाल हो तुम।
धर्मामृत जो बहा, ज्ञानामृत को लहा, जो भी आया।
अघ्र्य का थाल मैंने सजाया।।3।।

केतु ग्रह की सभी बाधा हर लो, उच्च पद यशसहित मुझको कर दो।
विघ्नविजयी हो तुम, मृत्युविजयी हो तुम, सिद्धि पाया।
अघ्र्य का थाल मैंने सजाया।।4।।

तेरी भक्ती का फल मैं यह चाहूं, कंठ अपना अकुंठित बनाऊं।
’’चन्दनामती’’ प्रभो, मांगते सब विभो, तेरी छाया।
अघ् अघ्र्य का थाल मैंने सजाया।।5।।
ऊँ ह्रीं केतुग्रहारिष्टनिवारक श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्र जयमाला पूर्णाघ्र्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।

पाश्र्वनाथ की भक्ति का, जो करते रसपान।
अपनी आतमशक्ति की, वे करते पहचान।।

इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः।