सत्तमो णिज्जराधियारो
Shedding Of Karmas

द्रव्यनिर्जरा का स्वरूप -

उवभोगमिंदियेहिं दव्वणमचेदणाणमियदाराणं।
जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।।
(7-1-193)

उवभोगमिंदियेहिं दव्वणमचेदणाणमियदाराणं।
जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।।
(7-1-193)

सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा अचेतन और चेतन द्रव्यों का जो उपभोग करता है, वह सब निर्जरा का निमित्त है।

The enjoyment of sense-perceived objects – inanimate or animate – by the right believer leads to the shedding of karmas (nirjara).

भावनिर्जरा का स्वरूप

दव्वे उवभुज्जंते णियमा जायदि सुहं च दुक्खं वा।
तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अध णिज्जरं जादि।।
(7-2-194)

परद्रव्यों का जीव (जीव के द्वारा) उपभोग करने पर नियम से सुख अथवा दुःख होता है। (जीव) उदय में आये हुए उस सुख-दुख का अनुभव करता है; फिर (वह) निर्जरा को प्राप्त हो जाता है (झड़ जाता है)।

The enjoyment (by the Self) of any alien substances inevitably results into pleasure or pain. The Self experiences this rise of pleasure of pain (due to the fruition of karmas) and ten these karmas are shed.

ज्ञानी को कर्म-बन्ध नहीं होता -

जह विसमुवभुज्जंतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि।
पोग्गलकम्मस्सुदयं तह भुंजदि णेव बज्झदे णाणी।
(7-3-195)

जिस प्रकार विषवैद्य विष का उपभोग करता हुआभी मरण को प्राप्त नहीं होता,उसी प्रकार ज्ञानी पुरूष पुद्गल कर्म के उदय को भोगता है, तथापि वह कम्र से नहीं बँधता।

Just as the handling of poison by an expert in toxicology does not lead to his death, in the same way, the knowledgeable person enjoys the fruits of rise of karmas, but does not attract bondages.

वैराग्य की सामथ्र्य -

जह मज्जं पिवमाणो अरदिभावेण ण मज्जदे पुरिसो।
दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदे तहेण।।
(7-4-196)

जिस प्रकार कोई पुरूष मद्य को पीता हुआ तीव्र अरतिभाव की सामथ्र्य से मतवाला नहीं होता,उसी प्रकार ज्ञानी पुरूष भी द्रव्यों के उपभोग में विरक्त रहता हुआ (वैराग्य की सामथ्र्य से) कर्मों से नहीं बँधता।

Just as a person consuming alcoholic during can still remain sober due to his strong sense of non-indulgence, similarly, the knowledgeable person, remaining detached from the enjoyment of alien substances, does not attract bondages.

ज्ञानी और अज्ञानी में अंतर

सेवंतो वि ण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो को वि।
पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होदि।।
(7-5-197)

कोई सम्यग्दृष्टि (रागादि भाव के अभाव के कारण) विषयों का सेवन करता हुआ भी उनका सेवन नहीं करता, (और अज्ञानी विषयों में रागभाव के कारण) उन्हें सेवन न करता हुआ भी सेवन करने वाला होता है। जैसे - किसी पुरूष की कार्यसम्बन्धी क्रिया होती है, किंतु वह कार्य करने वाला नहीं होता।

विशेष - जैसे कोई मुनीम सेठ की ओर से व्यापार का सब कार्य करता है, किंतु उस व्यापार तथा उसकी लाभ-हानि का वह स्वामी नहीं होता। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भोगों का सेवन करता हुआ भी राग न होने के कारण उसका असवेक है और मिथ्यादृष्टि सेवन न करता हुआ भी राग के सद्भाव के कारण उसका सेवक है।

The right believer (due to the absence of attachment etc.), while getting involved in sensualities, really does not indulge in them, but an ignorant person (due to the presence of attachment etc.) even if not involved in sensualities, really indulges in them. This is akin to a person performing certain acts but, in reality, is not responsible for them.

Note: Just as an assistant, on behalf of the owner of a business, performs all duties, but is neither the owner of the business, nor shares its profit or loss. In the same way, the right believer, due to the absence of attachment etc., is non-indulgent, and the wrong believer, due to the presence of attachment etc., is indulgent.

ज्ञानी का स्व-पर विवके -

उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं।
ण हु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को।
(7-6-198)

जिनेन्द्रदेव ने कर्मों के उदय के फल अनेक प्रकार के बताये हैं। वे तो मेरे स्वभाव नहीं हैं। मैं तो एक ज्ञायक भाव हूँ।

The Omniscient Lord has enumerated various outcomes of the fruition of karmas. These outcomes are not my nature. I am just one, the knower.

राग पुद्गल कर्म है -

पोग्गलकम्मं रागो, तस्स विवागोदओ हवदि एसो।
ण हु एस मज्झ भावो जाणगभावो दु अहमेक्को।।
(7-7-199)

राग पुद्गलकर्म है। उसके फलस्वरूप उदय से उत्पन्न यह रागरूप भाव है। यह तो मेरा भाव नहीं हैं। मैं तो एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक भाव हूँ।

Attachment is a physical karmic matter. When it manifests, it gives rise to the emotion of attachment. This is not my true nature. I am just one, the knower.

सम्यग्दृष्टि ज्ञानवैराग्य सम्पन्न होता है -

एवं सम्मादिट्ठी अप्पाणं मुण्दि जाणगसहावं।
उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो।।
(7-8-200)

पूर्वोक्त प्रकारसे सम्यगदृष्टि अपने-आपको (टंकोत्कीर्ण) ज्ञायक स्वभाव जानता है और आत्मतत्व को जानता हुआ कर्मोदय के विपाक से उत्पन्न भावों को छोड़ देता है।

In the aforesaid manner, the right believer knows that he is just the one, the knower, and knowing the true nature of the Self, leaves aside all emotional states caused by the rise of karmas.

रागी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं है -

परमाणुमेत्तयं पिहु रागादीणं तु विज्जदे जस्स।
ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि।।
(7-9-201)

अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो।
विह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतेा।।
(7-10-202)

वास्तव में जिस जीव के रागादि (अज्ञान भावो) का परमाणुमात्र (लेशमात्र) भी विद्यमान है, वह जीव सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता होने पर भी आत्मा को नहीं जानता और आत्मा को न जानता हुआ वह अनात्मा को भी नहीं जानता। इसप्रकार जीव और अजीव को न जानने वाला किस प्रकारसम्यग्दृष्टि हो सकता है?

In reality, the Self who entertains even a very small amount of attachment etc. (wrong dispositions), is not aware of the true nature of the soul, although he may have mastered all scriptures. And since he does not know the soul, he does not know the non-soul too. How can the one who does not know the soul and the non-soul be a right believer?

ज्ञान ही आत्मा का पद है -

आदम्हि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं।
थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण।।
(7-11-203)

आत्मा में द्रव्य और भावों के मध्य में (अतत्स्वभाव से अनुीाव में आने वाले भाव) अपद हैं (क्षणिक होने से आत्मा का स्थान नहीं ले सकते); अतः उन्हें छोड़कर नियत, स्थिर तथा एक स्वभाव से अनुभव करने योग्य इस भाव को (चैतन्यमात्र ज्ञानभाव को) ग्रहण कर।

In the midst of material and psychical karmas, the transitory dispositions that arise in the Self cannot take the place of the soul. Therefore, living aside all such dispositions, embrace only the knowledge-consciousness that is eternal, unchanging, and indivisible unity.

ज्ञान से निर्वाण प्राप्त होता है -

अभिणिसुदोहिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं।
सो एसो परमट्ठो लहिदुं णिव्वुदिं जादि।।
(7-12-204)

मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँचों ज्ञान एक ही पद हैं (एक ज्ञान नाम से जाने जाते हैं)। सो यह (ज्ञान) परमार्थ है (मोक्ष का साक्षात् उपाय है) जिसे प्राप्त करके आत्मा निर्वाण को प्राप्त होता है।

Sensory knowledge, scriptural knowledge, clairvoyance, telepathy, and omniscience, all five, are but one – abode of knowledge. This (knowledge) is the ultimate truth, on whose acquisition the Self attains liberation.

कर्मकाण्ड से ज्ञान प्राप्त नहीं होता -

णाणगुणेहि विहीणा एदं तु पदं बहू वि ण लहंते।
तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं।।
(7-13-205)

ज्ञानगुण से रहित अनेक पुरूष (अनेक कर्म करते हुए भी) ज्ञान स्वरूप इस पद को प्राप्त नहीं करते; इसलिए (हे भाव्य!) यदि तू कर्मों से मुक्ति चाहता है तो इस नियत पद-ज्ञान को ग्रहण कर।

Bereft of the virtue of knowledge, many people, even though put several efforts, are not able to attain this knowledge. As such (O bhavya – potential aspirant to liberation!) if you wish to be free from karmic bondages, embrace this eternal knowledge.

ज्ञान से उत्तम सुख मिलता है -

एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि।
एदेण होहि तित्तो होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं।।
(7-14-206)

(हे भव्य!) तू इस ज्ञान में सदा प्रीति कर, इसी में तू सदा संतुष्ट रह, इससे ही तू तृप्त रह। (ज्ञान-रति, सन्तुष्टि और तृप्ति से) तुझे उत्तम सुख होगा।

(O bhavya – potential aspirant to liberation!) Always adore this knowledge, in this only always remain contented, and fulfilled. You will attain supreme bliss (through knowledge-adoration, knowledge-contentment, and knowledge-fulfillment).

ज्ञानी अपनी आत्मा को ही स्व मानता है -

को णाम भणेज्ज बुहो परदव्वं मम इदं हवदि दव्वं।
अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो।।
(7-15-207)

अपनी आत्मा को ही निश्चित रूप से अपना परिग्रह जानता हुआ कौन ज्ञानी पुरूष कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है?

After realizing that only the Self, and nothing else, belongs to him, which knowledgeable person will consider any alien substance as his own?

परद्रव्य मेरा नहीं है -

मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज।
णादेव अहं जम्हा तम्हा एण परिग्गहो मज्झं।।
(7-16-208)

यदि परिग्रह (परद्रव्य) मेरा हो तब तो (चैतन्य स्वभाव वाला) मैं अजीवता को पाप्त हो जाऊँ; क्योंकि मैं ज्ञाता ही हूँ, इस कारण परद्रव्यरूप परिग्रह मेरा नहीं है।

If the alien substance is mine, then, I (having the attribute of consciousness) will become inanimate; because I am a knowing Self, therefore, no alien substance can belong to me.

ज्ञानी का निश्चय -

छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं।
जम्हा तम्हा गच्छदु तहावि ण परिग्गहो मज्झं।।
(7-17-209)

चाहे छिद जाए, चाहे भिद जाए, चाहे कोई ले जाए अथवा नष्ट हो जाए, चाहे जिस कारण से चला जाए, तथापि परिग्रह मेरा नहीं है।

The alien substance may be cut, or split, or stolen, or destroyed; whatever the reason of its riddance, it is not my possession.

ज्ञानी के धर्म का परिग्रह नहीं है -

अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे धम्मं।
अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सेा होदिं।।
(7-18-210)

जिसके इच्छा नहीं है, वह अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी धर्म को - पुण्य को नहीं चाहता, इसलिए वह धर्म का परिग्रही नहीं है, (किंतु वह) धर्म का ज्ञायक है।

The one who is devoid of desire is said to be free from attachment, and the knower does not desire virtue or merit, therefore, he is not a possessor of virtue; he is just its knower.

ज्ञानी के अधर्म का परिग्रह नहीं है -

अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदि अधम्मं।
अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि।।
(7-19-211)

जिसके इच्छा नहीं है, वह अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी अधर्म को - पाप को नहीं चाहता, इसलिए वह अधर्म का परिग्रही नहीं है, किंतु ज्ञायक है।

The one who is devoid of desire is said to be free from attachment, and the knower does not desire vice or demerit, therefore, he is not a possessor of vice; he is just its knower.

ज्ञानी के भोजन का परिग्रह नहीं है -

अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो असणं च णेच्छदे णााी।
अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि।।
(7-20-212)

जिसके इच्छा नहीं है, वह अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी भोजन को नहीं चाहत, इसलिए वह भोजन का परिग्रही नहीं है, (किन्तु वह) ज्ञायक है।

The one who is devoid of desire is said to be free from attachment, and the knower does not desire food, therefore, he is not a possessor of food; he is just its knower.

ज्ञानी के पान का परिगह नहीं है -

अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो पाणं च णेच्छदे णाणी।
अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि।।
(7-21-213)

जिसके इच्छा नहीं है, वह अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी पान को नहीं चाहता, इसलिए चह पान का परिग्रही नहीं है, (किंतु वह) ज्ञायक है।

The one who is devoid of desire is said to be free from attachment, and the knower does not desire drink (or beverage), therefore, he is not a possessor of drink; he is just its knower.

ज्ञानी के परभावों का परिग्रह नहीं है -

एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी।
जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ।।
(7-22-214)

इत्यादिक नाना प्रकार के समस्त भावों को ज्ञानीनहीं चाहता। सर्वत्र निरालम्ब वह प्रतिनियत (टंकोत्कीर्ण) ज्ञायक भाव ही है।

The knower has no psychic dispositions that desire these and other external objects. Independent all over, he is solely of the nature of the knower.

ज्ञानी को त्रिकाल के भोगों की आकांक्षा नहीं है -

उप्पण्णेदय भोगो वियोगबुद्धिए तस्स सो णिच्चं।
कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी।।
(7-23-215)

वह वर्तमान काल के कर्मोदय का भोग ज्ञानी के सदा ही वियोग बुद्धि से होता है और ज्ञानी आगामी काल के उदय की आकांक्षा नहीं करता।

(ज्ञानी तो मोक्ष की भी इच्छा नहीं करता, तब वह अन्य पदार्थों की इच्छा क्यों करेगा?)

The knower always enjoys the consequences of the rise of existing karmas with detached temperament, and does not long for the enjoyment of karmas that would rise in future. (The knower does not long even for liberation, therefore, the question of his having desire for alien substances does not arise.)

ज्ञानी वेद्य-वेदक भाव की आकांक्षा नहीं करता -

जो वेददि वेदिज्जदि समये समये विणस्सदे उहयं।
तंज णगो दु णाणी उहयं पि ण कंखदि कयावि।।
(7-24-216)

जो अनुभव करता है (ऐसा वेदक भाव), जो अनुभव किया जाता है (ऐसा वेद्यभाव,), ये दोनों भावा (अर्थपर्या की अपेक्षा) समय-समय में नष्ट हो जाते हैं। ऐसा जानने वाला ज्ञानी उन दोनों भावें की कदापि आकांक्षा नहीं करता।

The one who experiences (the psychic state of beings a subject), and the experience itself (the psychic state of getting influenced), both dispositions are transitory (in terms of their mode). The knower of this reality never longs for any of these two dispositions.

संसार, शरीर, भोग से विरक्त -

बंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदयेसु णाणिस्स।
संसारदेहविसयेसु णेव उप्पज्जदे रागो।।
(7-25-217)

बन्ध और उपभोग के निमित्तभूत संसार-सम्बन्धी और देह-सम्बन्धी रागादि अध्यवसानों के उदय में ज्ञानी के राग उत्पन्न नहीं होता।

Karmic bondage, and enjoyment of karmas, leads to the rise of worldly and bodily attachments; the knower does not have any desire for such conditions.

ज्ञानी और अज्ञानी में अंतर -

णणी रागप्पजहो हि सव्वदव्वेसु कम्मज्झगदो।
णो लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं।।
(7-26-218)

अण्णाणी पुण रत्तो हि सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो।
लिप्पदि कम्मरयेण दु कद्ममज्झे जहा लोहं।।
(7-27-219)

ज्ञानी सब द्रव्यों में निश्चय ही राग का त्यागी (तीतराग) होता है, कर्मों के मध्य पड़ा हुआ भी कर्मरूपी रज से लिप्त नहीं होता है, जिस प्रकार कीचड़ के मध्य पड़ा हुआ सोना (कीचड़ में लिप्त नहीं होता)।पुनः अज्ञानी सब पर द्रव्यों में निश्चय ही रागी होता है, (अतः ह) कर्मों के मध्य पड़ा हुआ कर्मरूपी रज से लिप्त होता है, जिस प्रकार कीचड़ के मध्य पड़ा हुआ लोहा (कीचड़-जंग से लिप्त होता है)।

The knower surely renounces attachment for all substances; while stationed in the midst of karmas, he is not soiled by the karma-dirt – just like gold in the midst of mire (gold remains uncontaminated). On the other hand, the ignorant surely remains attached to all alien substances; therefore, while stationed in the midst of karmas, he gets soiled by the karma-dirt-just like iron in the midst of mire (iron gets contaminated).

शंख के दृष्टान्त द्वारा पूर्वोक्त का समर्थन

भुंजुतस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे।
संखस्स सेदभावों ण वि सक्कदि किण्हगो कादुं।।
(7-28-220)

तह णाणिस्स दु विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे।
भुजंतस्स वि णाणं ण सक्कमण्णाणदं णेदुं।।
(7-29-221)

जइया स एवसंखो सेदसहावं सयं पजहिदूण।
गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे।।
(7-30-222)

तह णाणी विह जइया णाणसहावं सयं पजहिदूण।
अण्णाणेण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे।।
(7-31-223)

अनेक प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्रित द्रव्यों का उपभोग करने वाले शंख का श्वतेभाव कृष्ण नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार अनेक प्रकार के संचित्त, अचित्त और मिश्रित द्रव्यों का उपयोग करते हुए ज्ञानी के ज्ञान को ज्ञानरूप नहीं किया जा सकता।

जब वही शंख अपने श्वेत स्वभाव को स्वयं छोड़कर कृष्णभाव को प्राप्त होता है, तभी वह शुक्लत्व को छोड़ देताहै। इसी प्रकार ज्ञानी भी जब अपने ज्ञानस्वभाव को स्वयं छोड़कर अज्ञानरूप परिणमित होता है, त बवह अज्ञानभाव को प्राप्त हो जाता है।

The whiteness of the shell of a conch, which assimilates all kinds of animate, inanimate and mixed substances, cannot be changed into black; in the same way, the knowledge of the knower, who consumes all kinds of animate, inanimate and mixed substances, cannot be changed into nescience.

The same conch, when it, on its own, discards the whiteness of its shell and adopts blackness, it loses its white character. Similarly, the knower also when he, on his own, discards his knowledge-character and dwells into ignorance, it acquires nescience.

ज्ञानी निष्काम कर्म करता है -

पुरिसो जह को वि इहं वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं।
तो सो वि देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाण्दे।।
(7-32-224)

एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं।
तो सो वि देदि कम्मो विविहे भोगे सुहप्पादे।।
(7-33-225)

जय पुण सोच्चिय पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं।
तो सो ण देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पादे।।
(7-34-226)
एमेव सम्मदिट्ठी विसयत्थं सेवदे ण कम्मरयं।
तो सो ण देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पादे।।
(7-35-227)

जिस प्रकार इस लोक में कोई पुरूष आजीविका के लिए राजा की सेवा करता है, तो वह राजा भी उसे सुख देने वाले नाना प्रकार के भोग देता है; इसी प्रकार जीव पुरूष सुख के लिए कर्मरज की सेवा करता है तो वह कर्म भीउसे सुख देने वाले नाना प्रकार के भोग देता है।

पुनः जैसे वही पुरूष आजीविका के लिए राजा की सेवा नहीं करता, तो वह रजा उसे सुख देने वाले नाना प्रकार के भोग नहीं देता है। इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि विषयों के लिए कर्मरज का सेवन नहीं करता तो वह कर्म उसे सुखा देनेवाले नाना प्रकार के भोग नहीं देता।

Just as a worldly man, for the sake of his livelihood, serves a king, and the king, in return, provides him with various kinds of pleasure-giving objects, in the same way, when the Self, like a worldly man, serves the karmic matter, then karmas also, in return, provide him with various kinds of pleasure-giving objects.

Further, if the worldly man does not serve the king, then the king does not provide him with various kinds of pleasure giving objects. In the same way, when the right believer does not serve the karmic matter for the sake of sensual pleasures, the karmas also do not provide him with various kinds of pleasure-giving objects.

सम्यग्दृष्टि सप्तभय मुक्त होता है -

सम्मादिट्ठी जीवा णिस्संका होंति णिब्भया तेण।
सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका।।
(7-36-228)

सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होते हैं, इसलिए वे निर्भय होते हैं; क्योंकि वे सप्तभय से रहित होते हैं, इसलिए वे निश्चय ही निःशंक होते हैं।

Souls with right belief are free from doubts and, therefore, they are free from fear. Since they are free from seven kinds of fear, therefore, certainly they are free from doubts.

निःशंक सम्यग्दृष्टि का स्वरूप -

जो चत्तारि वि पाये छिंददि ते कम्मबंधमोह करे।
सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।
(7-37-229)

जो आत्मा कर्म बन्ध का भ्रम उत्पन्न करनेवाले उन चारो ही (मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूपचारों ही) पायों को काटता है,उसे निःशंक सम्यग्दृष्टि मननपूर्वक जानना चाहिए।

The soul which cuts all the four feet (wrong belief, non-abstinence, passion, and yoga), that create the notion of karmic bondage, must be understood to be a non-doubting right believer.

निर्विचिकित्सा अंग का लक्षण -

जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं।
सो खलु णिव्विदिगिंछो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।
(7-39-231)

जो आत्मा सभी धर्मों के प्रति जुगुप्सा (ग्लानि) नहीं करता हैउसे वस्तुतः निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि मननपूर्वक जानना चाहिए।

The soul which does not exhibit revulsion (disgust) for attributes of physical things must be understood to be a revulsion-free right believer.

अमूढ़दृष्टि का कथन -

जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु।
सो ख्लु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।
(7-40-232)

जो आत्मा समस्त भावों में अमूढ़ और यथार्थ दृष्टि वाला होता है, उसे वस्तुतः अमूढ़दृष्टि मननपूर्वक जानना चाहिए।

The soul which exhibits, in all dispositions, a view that is free from errors, and conforming to reality, must be understood to be a non-deluded right believer.

उपगूहन का स्वरूप -

जो सिद्धभत्ति जुत्तो उवगूहणगो दु सव्वधम्माणं।
सो उवगूहणगारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।
(7-41-233)

जो आत्मा (शुद्धात्म भावनारूप) सिद्धभक्ति से युक्त है और समस्त रागादिविभाव धर्मों काउपगूहक (नाश करने वाला) है, उसे उपगूहनकारी सम्यग्दृष्टि मननपूर्वक जानना चाहिए।

The soul which is full of contemplation and devotion to the Omniscient Lord and is the annihilator of all contrary dispositions such as attachment etc., must be understood to be an annihilator right believer.

स्थितिकरण अंग -

उम्मग्गं गच्छंतं सगं पि मग्गेठवेदि जे चेदा।
सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।
(7-42-234)

जो आत्मा उन्मार्ग में जाते हुए स्वयं अपनी आत्मा को भी शिवमार्ग में स्थापित करता है, उसे स्थितिकरण युक्त सम्यग्दृष्टि मननपूर्वक जानना चाहिए।

The soul which, when going astray, re-established firmly on the path to liberation, must be understood to be an unwavering right believer.

वत्सल्य अंग की परिभाषा

जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्मि।
सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठभ् मुणेदव्वो।।
(7-43-235)

जो आत्मा मोक्षमार्ग में तीन - सम्यग्दश्ज्र्ञन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीन साधनों अथवा मोक्षमार्ग के साधक तीन साधुओं - आचार्य, उपाध्याय और साधुओं - के प्रति वात्सल्य करता है, उसे वात्सल्यभाव से युक्त सम्यग्दृष्टि मननपूर्वक जानना चाहिए।

The soul which shows tenderness and affection toward the three cornerstones of the path to liberation – right faith, right knowledge, and right conduct – and the three explorers of the path to liberation – chief preceptor, preceptor, and ascetic – must be understood to be a right believer endowed with tenderness.

आत्मज्ञानविहारी जिनज्ञानी प्रभावी है -

विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमदि जो चेदा।
सो णिणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।।
(7-44-236)

जो आत्मा विद्या (ज्ञान) रूपी रथ में आरूढ़ हुआ मनोरथ-मार्ग में भ्रमण करता है, उसे जिनेन्द्रदेव के ज्ञान की प्रभावना कने वाला सम्यग्दृष्टि (मननपूर्वक) जानना चाहिए।

The soul which, mounted on the ‘chariot’ of learning (knowledge), moves on course to the desired goal must be understood to be a right believer, promulgating the teachings of the Omniscient Lord.

इदि सत्तमो णिज्जराधियारो समत्तो