तीसरी ढाल

नरेन्द्र छनद (जोगीरासा)

आत्महित, सच्चा सुख तथा दो प्रकार से मोख मार्ग का कथन

आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिना कहिये।
आकुलता शिवमांहि न तातैं, शिवमग लाम्यो चहिये।।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन शिव मग सो द्विविध विचारो।
जो सत्यारथ-रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो।।1।।

अन्वयार्थ:- (आतम को) आत्मा का (हित) कल्याण (है) है (सुख) सुख की प्राप्ति, (सो सुख) वह सुख (आकुलता बिन) आकुलता रहित (शिवमाहिं) मोक्ष में (न) नहीं है (तातैं) इसलिये (शिवमग) मोक्षमार्ग में (लाग्यो) लगना (चहिये) चाहिए। (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों की एकता रूप (शिवमग) जो मोक्ष का मार्ग है। (सो) उस मोक्षमार्ग का (द्विविध) दो प्रकार से (विचारो) विचारा करना चाहिए कि (जो) जो (सत्यारथ रूप) वस्तविक स्वरूप है (सो) वह (निश्चय) निश्चय-मोक्षमार्ग है और (कारण) जो निश्चय-मोक्षमार्ग का निमित्तकारण है (सो) उसे (व्यवहारो) व्यवहार-मोक्षमार्ग कहते हैं।

भावार्थ:-

1. सम्यक्चारित्र निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक ही होता है। जीव को निश्चयसम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यक् भावश्रुतज्ञान होता है। अैर निश्चयनय तथा व्यवहारनय ये दोनों सम्यक् श्रुतज्ञान के अवयव (अंश) है; इसलिये मिथ्यादृष्टि को निश्चय या व्यवहारनाय हो ही नही सकते; इसलिये ’’व्यवहार प्रथम होता हे और निश्चयनय बााद में प्रकट होता है’’ - ऐसा माननेवाले को नयों के स्वरूपक ा यथार्थ ज्ञान नहीं है। 2. तथा नय निरपेक्ष नहीं होते। निश्चयसम्यग्दर्शन प्रकट होने से पूर्व यदि व्रूवहारना हो ता निश्चयनय की अपेक्षा रहित निरपेक्षनय हुआ; और यदि पहले अकेला व्यवहारनय हो तो अज्ञानदश में सम्यगनय मानना पड़ेगा; किंु ’’निरपेक्षा नयाः मिथ्या सापेक्ष वस्तु तेऽर्थकृत’’ (आप्तमीमांसा श्लोक-108) ऐसा अगाम का वचन है; इसलिये अज्ञानदश में किसी जीव को व्यवहारनाय नहीं हो सकता, किंु व्यवहाराभस अथवा निश्चयाभासरूप मिथ्यानाय हो सकता ळें 3. जीव निज ज्ञायकस्वभाव के आश्रय द्वारा निश्चय रत्नत्रय (मोक्षमार्ग) प्रकट करे, तब सर्वज्ञकथित सप्त तत्व, सच्चे देव-गुरू-शास्त्र की श्रद्धा सम्बन्धी रागमिश्रित विचार तथा मन्दकषायरूप शुभभाव-जो कि उस जीव को पूर्वकाल में था, उसे भूतनैगमनय से व्यवहारकारण कह जाता है। (परमात्मप्रकाश-अध्याय 2, गाथा 14 टीका)। तथा उसी जीव को निश्चय सम्यग्दर्शन की भूमिका में शुभराग और निमित्त किस प्रकार के होते हैं, उनका सहचारपना बतलाने के लिए वर्तमान शुभराग को व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है। ऐसा कहने का कारण यह है कि उसे भिन्न प्रकार के (विरूद्ध) निमित्त उस दशा में किसी को हो नही ंसकते। - इस प्रकार निमित्त-व्यवहार होता है, तथापि वह यथार्थ कारण नहीं है। 4. आत्मा स्वयं ही सुखस्वरूप है, इसलिये आत्मा के आश्रय से ही सुख प्रकट हो सकता है, किंतु किसी निमित्त या व्यवहार के आश्रय से सुख प्रकट नहीं हो सकता। 5. मोक्षमार्ग तो एक ही है, वह निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकतारूप है। (प्रवचनसार, गाथा 82-199) तथा मोक्षमार्ग प्रकाशक, देहली, पृष्ठ 462)। 6. अब, ’’मोक्षमार्ग तो कहीं दो नहीं हैं, किंतु मोक्षमार्ग का निरूपण दो प्रकार से है। जहां मोक्षमार्ग के रूप में सच्चे मोक्षमार्ग की प्ररूपण की है, वह निश्चय मोक्षमार्ग है; तथा जहां, जो मोक्षमार्ग तो नहीं है, किंतु मोक्षमार्ग का निमित्त है अथवा सहचारी है, वहां उसे उपचार से मोक्षमार्ग कहें तो वह व्यवहार मोक्षमार्ग है; क्योंकि निश्चय-व्यवहार का सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है अर्थात यथार्थ निरूपण वह निश्चय और उपचार निरूपण वह व्यवहार; इसलिये निरूपण की अपेक्षा से दो पकार का मोक्षमार्ग जानना; किंतु एक निश्चय मोक्षमार्ग और दूसरा व्यवहार मोक्षमार्ग है - इसप्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, देहली, पृष्ठ 365-366)

निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का स्वरूप

परद्रव्यनतैं भिन्न आपमें, रूचि सम्यक्तव भला है।
आपरूप को जानपनो, सो सम्यग्ज्ञान कला है।।
आपरूप में लीन रह थिर, सम्यक्चारित सोई।
अब व्यवहार मोक्षमग सुनिये, हेतु नियत को होई।।2।।

अन्वयार्थ:- (आप में) आत्मा में (परद्रव्यनतैं) परवस्तुओं से (भिन्न) भिन्नतव की (रूचि) श्रद्धा करना सो, (भला) निश्चय (सम्यक्त्व) सम्यग्दर्शन हैं; (आपरूप को) आत्मा के स्वरूप को (परद्रव्यनतैं मिन्न) परद्रव्यों से भिन्न (जानपनों) जानना (सो) वह (सम्यग्ज्ञान) निश्चय सम्यग्ज्ञान (कला) प्रकाश (है) है। (परद्रव्यनतैं भिन्न) परद्रव्यों से भिन्न ऐसे (आपरूप में) आत्मस्वरूप मंे (थिर) स्थिरतापूर्वक (लीन रहे) लीन होना सो (सम्यक्चारित) निश्चय सम्यक्चारित्र (सोई) है। (अब) अब (व्यवहार मोक्षमार्ग) व्यवहार-मोक्षमार्ग (सुनिये) सुनो कि जो व्यवहार मोक्ष मार्ग (नियत को) निश्चय-मोक्षमार्ग का (हेतु) निमित्तकारण (होई) है।

भावार्थ:- पर पदार्थों से त्रिकाल भिन्न ऐसे निज-आत्मा का अटल विश्वास करना, उसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं। आत्मा को परवस्तुओं से भिन्न जानना (ज्ञाना करना) उसे निश्चय सम्यग्ज्ञान कहा जाता है तथा परद्रव्यों का आलम्बल छोड़कर आत्मस्वरूप में एकाग्रता से मग्न होना वह निश्चय सम्यक्चारित्र (यथार्थ आचरण) कहलाता है। अब आगे व्यवहार-मोक्षमार्ग का कथन करते हैं; क्योंक जब निश्चय-मोक्षमार्ग हो, तब व्यवहार-मोक्षमार्ग निमित्तरूप में कैसे होता है, वह जानना चाहिए।

व्यवहार सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) का स्वरूप

जीव अजीव तत्व अरू आस्त्रव, बन्ध रू संवर जानो।
निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानौ।।
है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो।
तिनको सुन सामान्य विशेषैं, दिढ़ प्रतीत उर आनो।।3।।

अन्वयार्थ:- (जिन) जिनेन्द्रदेव ने (जीव) जीव, (अजीव) अजीव, (आस्त्रव) आस्त्रव, (बन्ध) बन्ध, (संवर) संवर, (निर्जर) निर्जरा, (अरू) और (मोक्ष) मोक्ष, (तत्व) ये सात तत्व (कहेे) कहे हैं;(तिनको) उन सबकी (ज्यों का त्यों) यथावत् यथार्थव्यप से (सरधनो) श्रद्धा करो। (सोई) इसप्रकार श्रद्धा करना, सो (समकित व्यवहारी) व्यवहार से सम्यग्दर्शन है। अब (इन रूप) इन सात तत्वों के रूप का (बखानो) वर्णन करते हैं; (तिनको) उन्हें (सामान्य विशेषैं) संक्षेप से तथा विस्तार से (सुन) सुनकर (उस) मन में (दिढ़) अटल (प्रतीत) श्रद्धा (आनो) करो।

भावार्थ:- 1. निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ व्यवहार सम्यग्दर्शन कैसे होता है, उसका यहां वर्णन है। जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन न हो, उसे व्यवहार समयग्दर्शन भी नहीं हो सकता। निश्चयश्रद्धा सहित सात तत्वों की विकल्प-रागसहित श्रद्धा को वयवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है। 2. तत्वार्थसूत्र में ’’तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’’ कहा है, वह निश्चयत सम्यग्र्दशन है। (देखों, मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय 9, पृष्ठ 477 तथा पुरूषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 22) है, वह बतलाने के लिए यहां तीसरा द कहा है; किंतु उसका ऐसा अर्थ नहीं है कि - निश्चयसम्यक्त्व बिना व्यवहारसम्यक्त्व हो सकता है।

जीव के भेद, बहिरात्मा और उत्तम अन्तरात्मा का लक्षण

बहिरातम, अन्तर आतम, परमातम जीव त्रिधा है।
देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्वमुधा है।।
उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के अन्तर-आतम ज्ञानी।
द्विविध संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी।।4।।

अन्वयार्थ:- (बहिरातम) बहिरात्मा, (अंतर-आतम) अन्तरात्मा {और} (परमात्मा), {इसप्रकार} (जीव) जीव (त्रिधा) तीन प्रकार के (हैं) हैं; {उनमें जो} (देह जीव को) शरीर ओर आत्मा को (एक गिने) एक मानते हैं, वे (बहिरातम) बहिरात्मा हैं {और वे बहिरात्मा} (तत्तवमुधा) यथार्थ तत्वों से अजान अर्थात तत्वमूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं। (आतमज्ञानी) आत्मा को परवस्तुओं से भिन्न जानकर यथार्थ निश्चय करनेवाले (अंतर आतम) अन्तरात्मा {कहलाते हैं; वे}(उत्तम) उत्तम (मध्यम) मध्याम और (जघन) जघन्य - ऐसे (त्रिविध) तीन प्रकार के हैं। {उनमें} (द्विविध) अंतरंग तथा बहिरंग ऐसे दो प्रकार के (संग बिन) परिग्रह रहित (शुध उपयोगी) शुद्ध उपयोगी (निजध्यानी) आत्मध्यानी (मुनि) दिगम्बर मुनि (उत्तम) उत्तम अन्तरात्मा हैं।

भावार्थ:-जीव (आत्मा) तीन प्रकार के हैं -

1. बहिरात्मा
2. अन्तरात्मा
3. परमात्मा।
उनमें जो शरीर और आत्मा को एक मानते हैं, उन्हें बहिरात्म कहते हैं; वे तत्वमूढ मिथ्यादृष्टि हं। जो शरीर और आत्मा को अपने भेदविज्ञानसे भिन्न-भिन्न मानते हैं, वे अन्तरात्मा अर्थात सम्यग्दृष्टि हैं। अन्तरात्मा के तीन भेद हैं - अत्तम, मध्यम और जघन्य। उनमें अंतरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह से रहित सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक वर्तते हुए शुद्ध-उपयोगी आत्मध्यानी दिगम्बर मुनि उत्तम अन्तरात्मा हें।

जीव के भेद-उपभेद

मध्यम और जघन्य अन्तरात्मा तथा सकल परमात्मा

मध्यम अन्तर-आतम हैं जे देशव्रती अनगारी।
जघन कहे अविरत-समदृष्टि, तीनों शिवमग चारी।।
सकल विकल परमातम द्वैविध तिनमें घाति निवारी।
श्री अरिहन्त सकल परमातम लोकालोक निहारी।।5।।

अन्वयार्थ:-(अनगारी) छठवें गुणस्थान के समय अंतरंग और बहरंग परिग्रह रहित यथाजातरूपधर - भावलिंगी मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा (देशव्रती) दो कषाय के अभाव सहित ऐसे पंचम गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि श्रावक (मध्यम) मध्यम (अन्तर-आतम) अन्तरात्मा (हैं) हैं और (अविरल) व्रतरहित (समदृष्टि) सम्यग्दृष्टि जीव (जघन) जघन्य अंतरात्मा (कहे) कहलाते हैं; (तीनों) ये तीनों (शिवमगचारी) मोक्षमार्ग पर चलनेवाले हैं। (सकल निकल) सकल और निकल के भेद से (परमातम)परमात्मा (द्वैविध) दो प्रकार के हैं (तिनमें) उनमें (घाति) चार घातिकर्मों को (निवारी) नाश करनेवाले (लोकालोक) लोक तथा अलोक को (निहारी) जानने-देखनेवाले (श्री अरिहन्त) अरहन्त परमेष्ठी (सकल) शरीर सहित (परमातम) परमात्मा हैं।

भावार्थ:-(1) जो निश्चय सम्यग्र्दशनादि सहित है; तीन कषाय रहित, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म को अंगीकार करके अंतरंग में तो उस शुद्धोपयोगरूप द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं, किसी को इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष नहीं करते, हिंसादिरूप अशुभपयोग का तो अस्तित्व ही जिनके नहीं रहा है - ऐसी अन्तरंगदशा सहित बाह्य दिगम्बर सौम्य मुद्राधारी हुए हैं और छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान के समय अठ्ठाईस मूलगुणों का अखण्डरूप के पालन करते हैं वे, तथा जो अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानीय - ऐसे दो कषाय के अभाव सहित सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा हैं अर्थात् छठवें और पांचवें गुणस्थानवर्ती जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं।1

(2) सम्यग्दर्शन के बिना कभी धर्म का प्रारम्भ नहीं होता। जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं है, वह जीव बहिरात्मा है।

(3) परमात्मा के दो प्रकार हैं - सकल और निकल। (2) श्री अरिहंत परमात्मा के सकल (शरीरसहित) परमात्मा हैं और (2) सिद्ध परमात्मा वे3 निकल परमात्मा हैं। वे दोनों सर्वज्ञ होने से लोक और अलोक सहित सर्व पदार्थों का त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण स्वरूप एक समय में युगपत् (एकसाथ) जानने-देखनेवाले, सबके ज्ञाता-द्रष्टा हैं, इससे निश्चित होता है कि - जिसप्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान व्यवस्थित है, उसीप्रकार उनके ज्ञान के ज्ञेय-सर्वद्रव्य-छहों द्रव्यों की त्रैकालिक क्रमबद्ध पर्यायें निश्चित-व्यवस्थित हैं, कोई पर्याय उल्टी-सीधी अथवा अव्यवस्थित नहीं होती, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव मानता है। जिसकी ऐसी मान्यता (निर्णय) नहीं होती, उसे स्व-पर पदार्थों का निश्चय न होने से शुभाशुभ विकार और परद्रव्य के साथ कर्ताबुद्धि-एकताबुद्धि होती ही है। इसलिये वह जीव बहिरात्मा है।

1. सावयगुणेहिं जुत्ता पमत्तविरदा य मज्झिमा होंति।
श्रावकगुणैस्तु युक्ताः प्रमत्तविरताश्च मध्यमा भवन्ति।।
अर्थ - श्रावक के गुणों से युक्त और प्रमत्तविरत मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं।
(स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ‘ 196)
2. स = सहित, कल = शरीर, सकल अर्थात् शरीर सहित।
3. नि = रहित, कल = शरीर, निकल अर्थात् शरीर रहित।

निकल परमात्मा का लक्षण तथा परमात्मा के ध्यान का उपदेश

ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल-वर्जित सिद्ध महन्ता।
ते हैं निकल अमल परमातम् भोगैं शर्म अनन्ता।।
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजै।
परमातम का ध्याय निरन्तर जो नित आनन्द पूजै।।6।।

अन्वयार्थ:- (ज्ञानशरीरी) ज्ञानमात्र जिनक शरीर है ऐसे (त्रिविध) ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म मैल से (वर्जित) रहित, (अमल) निर्मल और (महन्ता) महाल (सिद्ध) सिद्ध परमेष्ठी (निकल) निकल (परमातम) परमात्मा हैं। वे (अनन्त) अपरिमित (शर्म) सुख (भोगैं) भोगते हैं। इन तीनों में (बहिरातमता) बहिरात्मपने को (हेय) छोड़ने योग्य (जानि) जानकर अैर (तजि) उसे छोड़कर (अन्तर आतम) अन्तरात्मा (हूजै) होना चाहिए और (निरन्तर) सदा (परमातम को) {निज} परमात्मपद का (ध्याय) ध्यान करना चाहिए; (जो) जिसके द्वारा (नित) अर्थात् अनन्त (आनन्द) आनन्द (पूजै) प्राप्त किया जाता है।

भावार्थ:- औदारिक आदि शरीर रहित शुद्ध ज्ञानमय द्रव्य-भाव-नोकर्म रहित, निर्दोश और पूज्य सिद्ध ’निकल’ परमात्मा कहलाते हैं; वे अक्षय अनन्तकाल तक अनन्तसुख का अनुभव करते हैं। इन तीना में बहिरात्मपना मिथ्यात्वसहित होने के कारण हेय (छोड़ने योग्य) है, इसलिए आत्महितैषियों को चाहिए कि उसे छोड़कर, अन्तरात्मा (सम्यग्दृष्टि) बनकर परमात्मपना प्राप्त करें; क्योंकि उससे सदैव सम्पूर्ण और अनन्त आनन्द (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।

अजीव-पुद्गल धर्म और अधर्मद्रव्य के लक्षण तथा भेद

चेतनाता बिना सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं।
पुद्गल पंच वरन-रस, गंध वो फरस वसू जाके हैं।।
जिय पुद्गल को चलन सहाई, धर्म द्रव्य अनरूपी।
तिष्ठत होय अधर्म सहाई जिन बिन-मूर्ति निरूपी।।7।।

अन्वयार्थ:- जो (चेतनता-बिन) चेतनता रहित है (सो) वह (अजीव) अजीव है; (ताके) उस अजीव के (ंपंच भेद) पांच भेद हैं; (जाके पंच वरन-रसगन्ध दो) जिसके पांच वर्ण और रस, दो गन्ध और (वसू) आठ (फरस) स्पर्श (हैं) होते हैं, वह पुद्गलद्रव्य है। जो (जिय) जीव को {और} (पुद्गल को) पुद्गल को (चलन सहाई) चलने में निमित्त {और} (अनरूपी) अमूर्तिक है, वह (धर्म) धर्मद्रव्य है। तथा (तष्ठत) गतिपूर्वक स्थितिपरिणाम को प्राप्त {जीव और पुद्गल को} (सहाई) निमित्त (होय) होता है, वह (अधम) अधर्म द्रव्य है। (जिन) जिनेन्द्र भगवान ने उस अधर्मद्रव्य को (बिन-मूर्ति) अमूर्तिक, (निरूपी) अरूपी कहा है।

भावार्थ:-जिसमें चेतना (ज्ञान-दर्शन अथवा जानने-देखने की शक्ति) नहीं होती, उसे अजीव कहते हैं। उस अजीव के पांच भेद हैं - पुद्गल, धर्म1 अधर्म, आकाश और काल। जिसमें रूप, रस, गंध, वर्ण और स्पर्श होते हैं, उसे पुद्गलद्रव्य कहते हैं। जो स्वयं (अपने आप) गतिपूर्वक स्थिर रहे हुए जीव और पुद्गल को स्थिर रहने में निमित्तकारण है, वह अधर्मद्रव्य है। जिनेन्द्र भगवान ने इन धर्म, अधर्म द्रव्यों को तथा जो आगे कहे जायेंगे, उस आकाश और काल द्रव्यों को अमूर्तिक (इन्द्रिय-अगोचर) कहा है।।7।।

1. धर्म और अधर्म से यहां पुण्य और पाप नहीं, किन्तु छह द्रव्यों में आने वाले धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक दो अजीव द्रव्य समझना चाहिए। -

आकाश, काल और आस्त्रव के लख्ज्ञण अथवा भेद

सकल द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो;
नियत वर्तना निशिदिन सो, व्यवहारकाल परिमानो।
यों अजीव, अब आस्त्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा;
मिथ्या अविरत अरू कषाय, परमाद सहित उपयोगा।।8।।

अन्वयार्थ:- (जास में) जिसमें (सकल) समस्त (द्रव्य को) द्रव्यों का (वास) निवास है (सो) वह (आकाश) आकाश द्रव्य (पिछानो) जानना; (वर्तना) स्वयं प्रवर्तित हो और दूसरों को प्रवर्तित होने में निमित्त हो वह (नियत) निश्चय कालद्रव्य हैं; तथा (निशिदिन) रात्रि, दिवस आदि (व्यवहारकाल) व्यवहारकाल (परिमानो) जानो। (यों) इसप्रकार (अजीव) अजीवतत्व का वर्णन हुआ। (अब) अब (आस्त्रव) आस्त्रवतत्व (सुनिये) का वर्णन सुनो। (मन-वच-काय) मन, वचन और काय के आलम्बन से आत्मा के प्रदेश चंचल होनेरूप (त्रियोगा) तीन प्रकार के योग तथा (मिथ्यात्व अविरत कषाय) मिथ्यात्व, अविरत, कषाय, (अरू) और (परमाद) प्रमाद (सहित) सहित (उपयोग) आत्मा की प्रवृत्ति, वह (आस्त्रव) आस्त्रवतत्व कहलाता है।

भावार्थ:-जिसमें छह द्रव्यों का निवास है, उस स्थान को 1आकाश कहते हैं। जो अपने आप बदलता है तथा अपने आप बदलते हुए अन्य द्रव्यों

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1. जिसप्रकार किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें भस्म (राख) डाली जाये तो वह समा जाती है; फिर उसमें शर्करा डाली जाये तो वह भी समा जाती है; फिर उसमें सुइयां डाली जाये ंतो वे भी समा जाती है; उसीप्रकार आकाश्ज्ञ में भी मुख्य अवगाहन-शक्ति है; इसलिए उसमें सर्वद्रव्य एकसाथ रह सकते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को रोकता नहीं है। (जैन सिद्धान्त प्रवेशिका) को बदलने में निमित्त है, उसे 2’’निश्चयकाल’’ कहते हैं। रात, दिन, घड़ी, घण्टा आदि को ’’व्यवहारकाल’’ कहा जाता है। - इसप्रकार अजीवतत्व का वर्णन हुआ। अब, आस्त्रवतत्व का वर्णन करते हैं। उसके मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग - ऐसे पांच भेद हैं।।8।। (आस्त्रव और बन्ध दोनों में भेदः- जीव के मिथ्यात्व-मोह-राग-द्वेषरूप परिणाम, वह भाव-आस्त्रव है और उन मलिन भावों में स्निग्धता, वह भाव-बन्ध है)

आस्त्रवत्याग का उपदेश और बन्ध, संवर, निर्जरा का लक्षण

ये ही आतम का दुःख-कारण, तातैं इनको तजिये;
जीवप्रदेश बं विधि सों सो, बंधन कबहुं न सजिये।
शम-दम तैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरिये;
तप-बल तैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये।।9।।

1. अपनी-अपनी पर्यायरूप से स्वयं परिणामित होते हुए जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में जो निमित्त हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं। जिसप्रकार कुम्हार के चाक को घूमने में धुरी (कीली)। कालद्रव्य को निश्चयकाल कहते हैं। लोककाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही कालद्रव्य (कालाणु) हैं। दिन, घड़ी, घण्टा, मास - उसे व्यवहारकाल कहते हैं। (जैन सिद्धान्त प्रवेशिका)

अन्वयार्थ:- (ये ही) यह मिथ्यात्वादि ही (आतम को) अत्मा को (दुःख-कारण) दुःखका कारण हैं (तातैं) इसलिये (इनको) इन मियिात्वादि को (तजिये) छोड़ देनाचाहिए (जीवाप्रदेश) आत्मा के प्रदेशों का (विध् िसों) कर्मों से (बन्धै) बंधना, वह (बंधन) बन्ध {कहलाता है,} (सो) वह {बन्ध} (कबहुं) कभी भी (न सजिये) नहीं करना चाहिए। (शम) कषायों का अभाव {और} (दम तैं) इन्द्रियों तथा मन को जीतने से (कर्म) (न आवैं) नहीं आयें, वह (संवर) संवरतत्व है; (ताहि) उस संवर को (आदरिये) ग्रहण करना चाहिए। (तपबल तैं) तप की शक्ति से (विधि) कमों का (झरन) एकदेश खिर जाना, सो (निरजरा) निर्जरा है। (ताहि) उस निर्जरा को (सदा) सदैव (आचरिये) प्राप्त करना चाहिए।

भावार्थ:- ये मिथ्यात्वादि ही आत्मा को दुःख का कारण हें किंतु पर पदार्थ दुःख का कारण नहीं हैं; इसलिये अपने दोषरूप मिथ्याभावों का अभाव करना चाहिए। स्पर्शों के साथ पुद्गलों का बन्ध, रागादि के साथ जीव का बन्ध और अन्योन्य अवगाह वह पुद्गल जीवात्मक बन्ध कहा है। (प्रवचनसार, गाथा 177) रागपरिणाम मात्र ऐसा जो भावबन्ध है, वह द्रव्यबन्ध हेतु होने से वही निश्चयबन्ध है, जो छोड़ने योग्य है।

(2) मिथ्यात्व और क्रोधादिरूप भाव-उन सबको सामान्यरूप से कषाय कहा जाता है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, देहली - पृष्ठ 40) ऐसे काषाय के अीााव को शम कहते हैं। और दम अर्थात् जो ज्ञेय-ज्ञायक संकर दोष टालकर, इन्द्रियों को जीतकर, ज्ञानस्वभाव द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक (पृथक् परिपूर्ण) आत्मा को जानता है, उसे निश्चयनय में स्थित साधु वास्तव में जितेन्द्रिय कहते हैं। (स.गा. 31)।

स्वभाव - परभाव के भेदभाव द्वारा द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा उनके विषयों से आत्मा का स्वरूप भिन्न है - ऐसा जानना, उसे इन्द्रिय-दमन कहते हैं; परंतु आहारादि तथा पांच इन्द्रिय के विषयरूप बाह्य वस्तुओं के त्यागरूप जो मन्दकषाय है, उससे वास्तव में इन्द्रिय-दमन नहीं होता, क्योंकि वह तो शुभराग है, पुण्य है, इसलिये बन्ध का कारण है - ऐसा समझना।

(3) शुद्धात्माश्रित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव ही संवर है। प्रथम निश्चय सम्यग्दर्शन होने पर स्वद्रव्य के आलम्बनानुसार संवर-निर्जरा प्रारम्भ होती है। क्रमशः जितने अंश में राग का अभाव हो, उतने अंश में संवर-निर्जरारूप धर्म होता है। स्वोन्मुखता के बल से शुभाशुभ इच्छा का निरोध, सो तप है। उस तप से निर्जरा होती है।

(4) संवर:- पापरूप अशुद्ध भाव (आस्त्रव) को आत्मा के शुद्धभाव द्वारा रोकना, सो भावसंवर है और तदनुसार नवीन कर्मों का आना स्वयं - स्वतः रूक जाये, सो द्रव्यसंवर है।

(5) निर्जरा:- अखण्डानन्द निज शुद्धात्मा के लक्ष्य से अंशतः शुद्धि की वृद्धि और अशुद्धि की अंशतः हानि करना, सो भावनिर्जरा है; और उस समय खिरने योग्य कर्मों का अंशतः छूट जाना, सो द्रव्य-निर्जरा है। (लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका पृष्ठ 45-46 प्रश्न 121)।

(6) जीव -अजीव को उनके स्वरूप सहित जानकर स्व तथा पर को यथावत् मानना; आस्त्रव को जानकर उसे हेयरूप, बन्ध को जानकर उसे अहितरूप, संवर को पहिचानकर उसे उपादेयरूप तथा निर्जरा को पहिचानकर उसे हित का कारण मानना चाहिए1 (मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय 9, पृष्ठ 469)।

1. आस्त्रव:- जिसप्रकार किसी नौका में छिद्र हो जाने से उसमें पानी आने लगता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि आस्त्रव के द्वारा आत्मा में कर्म आने लगते हैं।

2. बन्ध:- जिसप्रकार छिद्र द्वारा पानी नौका में भर जाता है, उसीप्रकार कर्मपरमाणु आत्मा के प्रदेशों में पहुंचते हैं (एक क्षेत्र में रहते हैं)।

3. संवरः- जिसप्रकार छिद्र बन्ध करने से नौका में पानी का आना रूक जाता है, उसीप्रकार शुद्धभावरूप गुप्ति आदि के द्वारा आत्मा में कर्मों का आना रूक जाता है।

4. निर्जरा:- जिसप्रकार नौका में आये हुए पानी में से थोड़ा (किसी बर्तन में भरकर) बाहर फेंक दिया जाता है, उसीप्रकार निर्जरा द्वारा थोड़े-से कर्म आत्मा से अलग हो जाते हैं।

5. मोक्षः- जिसप्रकार नौका में आया हुआ सारा पानी निकाल देने से नौका एकदम पानी रहित हो जाती है, उसीप्रकार आत्मा में से समस्त कर्म पृथक् हो जाने से आत्मा की परिपूर्ण शुद्धदश (मोक्षदशा) प्रकट हो जाती है अर्थात् आत्मा मुक्त हो जाता है।।9।।

मोक्ष का लक्षण, व्यवहारसम्यक्त्व का लक्षण तथा कारण

सकल कर्मतैं रहित अवस्था, सो शिव थिर सुखकारी।
इहि विध जो सरधा तत्त्वन की , सेा समकित व्यवहारी।।
देव जिनेन्द्र, गुरू परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो।
येहु मान समकित को कारण, अष्ट-अंग-जुत धारो।।10।।

अन्वयार्थ:- (सकल कर्मतैं) समस्त कर्मों से (रहित) रहित (थिर) स्थिर-अटल (सुखकारी) अनन्त सुखदायक (अवस्था) दशा-पर्याय, सो (शिव) मोक्ष कहलाता है। (इहि विध) इसप्रकार (जो) जो (तत्त्वन की) सात तत्त्वों के भेदसहित (सरधा) श्रद्धा करना, सो (व्यवहारी) व्यवहार (समकित) सम्यग्दर्शन है। (जिनेन्द्र) वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी (देव) सच्चे देव (परिग्रह बिन) चैबीस परिग्रह से रहित (गुरू) वीतराग गुरू {तथा} (सारो) सारभूत (दयाजुत) अहिंसामय (धर्म) जैनधर्म (येहू) इन सबको (समकित को) सम्यग्दर्शन का (कारण) निमित्तकारण (मान) जानना चाहिए। सम्यग्दर्शन को उसके (अष्ट) आठ (अंगजुत) अंगों सहित (धारो) धारण करना चाहिए।

भावार्थ:- मोक्ष का स्वरूप जानकर उसे अपना परमहित मानना चाहिए। आठ कर्मों के सर्वथा नाश पूर्वक आत्मा की जो सम्पूर्ण शुद्ध दशा (पर्याय) प्रकट होती है, उसे मोक्ष कहते हैं। वह दशा अविनाशी तथा अनन्त सुखमय है; - इसप्रकार सामान्य और विशेषरूप से सात तत्त्वों की अचल श्रद्धा करना, उसे व्यवहार-सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) कहते हैं। जिनेन्द्रदेव, वीतरागी (दिगम्बर जैन) गुरू तथा जिनेन्द्रप्रणीत अहिंसामय धर्म भी उस व्यवहार सम्यग्दर्शन के कारण हैं अर्थात् इन तीनों का यथार्थ श्रद्धान भी व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है। उसे निम्नोक्त आठ अंगो सहित धारण करना चाहिए। व्यवहार सम्यक्त्वी का स्वरूप पहले, दूसरे तथा तीसरे छंद के भावार्थ में समझाया है। निश्चय सम्यक्त्व के बिना मात्र व्यवहार को व्यवहार सम्यक्त्व नहीं कहा जाता।।10।।

सम्यक्त्व के पच्चीस दोष तथा आठ गुण

वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो।
शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।।
अष्ट अंग अरू दोष पचीसों, तिन संक्षैपै कहिये।
बिना जानें तैं दोष गुननकों, कैसे तजिये गहिये।।11।।

अन्वयार्थ:- (वसु) आठ (मद) मद का (टारि) त्याग करके, (त्रिशठता) तीन प्रकार की मूढ़ता को (निवारी) हटाकर, (षट्) छह (1अनायतन) अनायतनों का (त्यागो) त्याग करना चाहिए। (शंकादिक) शंकादि (वसु) आठ (दोष बिना) दोषों से रहित होकर (संवेगादिक) संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम में (चित) मन को (पागो) लगाना चाहिए। अब, सम्यक्त्व के (अष्ट) आठ (अंग) अंग (अरू) और (पचीसों दोष) पच्चीस दोषों को (संक्षेपै) संक्षेप में (कहिये) कहा जाता है; क्योंकि (बिन जानें तैं) उन्हें जाने बिना (दोष) दोषों को (कैसे) किस प्रकार (तजिये) छोड़ें और (गुननकों) गुणों को किस प्रकार (गहिये) ग्रहण करें?

भावार्थ:- आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन (अधर्म-स्थान) और आठ शंकादि दोष - इसप्रकार सम्यक्त्व के पच्चीस दोष हैं। संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य और प्रशम सम्यग्दृष्टि को होते हैं। सम्यक्त्व के अभिलाषी जीव को सम्यक्त्व के इन पच्चीस देषों का त्याग करके उन भावानाओं में मन लगाना चाहिए। अब सम्यक्त्व के आठ गुणों (अंगों) और पच्चीस दोषों का संक्षेप में वर्णन कया जाता है; क्योंकि जाने और समझे बिना दोषों को कैसे छोड़ा जा सकता है तथा गुणों को कैसे ग्रहण किया जा सकता है?।।11।।

1. अन्$आयतन = अनायतन = धर्म का स्थान न होना।

सम्यक्त्व आठ अंग (गुण) और शंकादि आठ दोषों का लक्षण

जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख-वांछा भानै।
मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व-कुतत्त्व पिछानै।।
निज गुण अरू पर औगुण ढांके, वा निजधर्म बढ़ावै।
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-पर को सु दिढ़ावै।।12।।

छनद 13 (पूर्वार्द्ध)

धर्मी सों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै;
इन गुणतैं विपरीत दोष वसु तिनकों सतत खिपावै।

अन्वयार्थ:-1. (जिन वचन में) सर्वज्ञदेव के कहे हुए तत्त्वों में (शंका) संशय-संदेह (न धार) धारण नहीं करना {सो निःशंकित अंग है};

2. (वृष) धर्म को (धार) धारण करके (भव-सुख-वांछा) सांसारिक सुखों की इच्छा (भानै) न करे {सो निःकांक्षित अंग है};

3. (मुनि-तन) मुनियों के शरीरादि (मलिन) मैले (देख) देखकर (न घिनावै) घृणा न करना {सो निर्विचिकित्सा अंग है};

4. (तत्त्व-कुतत्त्व) सच्चे और झूठे तत्तें की (पिछानै) पहिचान रखे {सो अमूढ़दृष्टि अंग है};

5. (निजगुण) अपने गुणों को (अरू) और (पर औगुण) दूसरे के अवगुणों को (ढांके) छिपाये (वा) तथा (निजधर्म) अपने आत्मधर्म को (बढ़ावै) बढ़ाये अर्थात् निर्मल बनाये {सो उपगूहन अंग है};

6. (कामादिक कर) काम-विकारादि के कारण (वृषतैं) धर्म से (चिगते) च्युत होते हुए (निज-पर को) अपने को तथा पर को (सु दिढ़ावै) उसमें पुनः दृढ़ करे {सो स्थितिकरण अंग है};

7. (धर्मी सों) अपने साधर्मीजनों से (गौ-वच्छ-प्रीति-सम) बछड़े पर गाय की प्रीति के समान (कर) प्रेम रखना {सो वात्सल्य अंग है} और

8. (जिनधर्म) जैनधर्म की (दिपावै) शोभा में वृद्धि करना {सो प्रभावना अंग है।} (इन गुणतैं) इन {आठ} गुणों से (विपरीत) उल्टे (वसु) आठ (दोष हैं, (तिनको) उन्हें (सतत) हमेशा (खिपावै) दूर करना चाहिए।

भावार्थ:-- 1. तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है, तथा अन्य प्रकार से नहीं है - इसप्रकार यथार्थ तत्त्वों में अचल श्रद्धा होना, सो निःशंकित अंग कहलाता है।

टिप्पणी:- अव्रती सम्यग्दृष्टि जीव भोगों को कभी भी आदरणीय नहीं मानते; किन्तु जिसप्रकार कोई बन्दी कारागृह में (इच्छा न होने पर भी) दुःख सहन करता है, उसीप्रकार वे अपनी पुरूषार्थ की निर्बलता से गृहस्थदशा में रहते हैं, किंतु रूचिपूर्वक भोगों की इच्छा नहीं करते; इसलिये उन्हें निःशंकित और निःकांक्षित अंग होने में कोई बाधा नहीं आती।

2. धर्म सेवन करके उसके बदले में सांसारिक सुखों की इच्छा न करना, उसे निःकांक्षित अंग कहते हैं।

3. मुनिराज अथवा अन्य किसी धर्मात्मा के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना उसे निर्विचिकित्सा अंग कहते हैं।

4. सच्चे और झूठे तत्त्वों की परीक्षा करके मूढ़ताओं तथा अनायतनों में न फंसना वह अमूढ़दृष्टि अंग है।

5. अपनी प्रशंसा करानेवाले गुणों को तथा दूसरे की निंदा कराने वाले दोषों को ढंकना और आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना), सो उपगूहन अंग है।

टिप्पणी:- उपगूहन का दूसरा नाम ’’उपवृंहण’’ भी जिनागम में आता है; जिससे आत्मधर्म में वृद्धि करने को भी उपगूहन कहा जाता है। श्री अमृतचन्द्रसूरि ने अपने पुरूषार्थसिद्धयुपाय के 27वें श्लोक में भी यही कहा है:-

धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया।
परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपवृंहगुणार्थम्।।27।।

6. काम, क्रोध, लोभ आदि किसी भी कारण से (सम्यक्त्व और चारित्र से) भ्रष्ट होते हुए अपने को तथा पर को धर्म में उसमें स्थिर करना स्थितिकरण अंग है।

7. अपने साधर्मी जन पर बछड़े से प्यार रखनेवाली गाय की भांति निरपेक्ष प्रेम रखना, सो वात्सल्य अंग है।

8. अज्ञान-अन्धकार को दूर विद्या-बल-बुद्धि आदि के द्वारा शास्त्र में कहीं हुई योग्य रीति से अपने सामथ्र्यानुसार जैनधर्म का प्रभाव प्रकट करना, वह प्रभावना अंग है।

- इन अंगों (गुणों) से विपरीत

1. शंका

2. कांक्षा

3. विचिकित्सा

4. मूढ़दृष्टि

5. अनुपगूहन

6. अस्थितिकरण

7. अवात्सल्य और

8. अप्रभावना -

ये सम्यक्त्व के आठ दोष है। इन्हें सदा दूर करना चाहिए। (12-13 पूर्वार्द्ध)

छनद 13 (उत्तरार्द्ध)

मद नामक दोष के आठ प्रकार

पित भूप वा मातुल नृप जो, होय न तौ मद ठानै।
मद न रूपकौ मद न ज्ञानकौ, धन बलकौ मद भानै।।13।।
छनद 14 (पूर्वार्द्ध)
तपकौ मन न मद जु प्रभुताकौ, करै न सो निज जानै।
मद धरै तौ यही दोष वसु समकितकौ मल ठानै।।

अन्वयार्थ:- {जो जीव} (जो) यदि (पिता) पिता आदि पितृपक्ष के स्वजन (भूप) राजादि (होय) हों (तौ) तो (मद) अभिमान (न ठानै) नहीं करता, {यदि} (मातुल) मामा आदि मातृपक्ष के स्वजन (नृप) राजादि (होय) हों तो (मद) अभिमान (न) नहीं करता; (ज्ञानकौ) विद्या का (मद न) अभिमान नहीं करता;(धनकौ) लक्ष्मी का (मद भानै) अभिमान नहीं करता; (बलकी) शक्ति का (मद भानै) भिमान नहीं करता; (तपकौ) तप का (मद न) अभिमान नहीं करता; (जु) और (प्रभुता कौ) ऐश्वर्य, बड़प्पन का (मद न करै) अभिमान नहीं करता (सो) वह (निज) अपने आत्मा को (जानै) जानता है। {यदि जीव उनका} (मद) अभिमान (धारै) रखता है तो (यही) ऊपर कहे हुए मद (वसु) आठ (दोष) दोषरूप होकर (समकितकौ) सम्यक्त्व को-सम्यग्दर्शन को (मल) दूषित (ठानै) करते हैं।

भावार्थ:- पिता के गोत्र को कुल और माता के गोत्र को जाति कहते हैं।

(1) पिता आदि पितृपक्ष में राजादि प्रतापी पुरूष होने से (मैं राजकुमार हूं, आदि) अभिमान करना, सो कुल-मद है।

(2) माता आदि मातृपक्ष में राजादि प्रतापी पुरूष होने का अभिमान करना, सो जाति-मद है।

(3) शरीरिक सौन्दर्य का मद करना, सो रूप-मद है।

(4) अपनी विद्या का अभिमान करना, सो ज्ञान-मद है।

(5) अपनी धन-सम्पत्ति का अभिमान करना, सो धन-मद है।

(6) अपनी शरीरिक शक्ति का गर्व करना, सो बल-मद है

(7) अपने व्रत-उपवासादि तप का गर्व करना, सो तप-मद है, तथा

(8) अपने बड़प्पनल और आज्ञा का गर्व करना, सो प्रभुता-मद है। कुल, जात, रूप, ज्ञान, धन, बल, तप और प्रभुता -

ये आठ मद - दोष कहलाते हैं। जो जीव इन आठ का गर्व नहीं करता वही आत्मा का ज्ञान कर सकता है। यदि उनका गर्व करताह तो ये मद सम्यग्दर्शन के आठ दोष बनकर उसे दूषित करते हैं। (13 उत्तरार्द्ध तथा 14 पूर्वार्द्ध)।

छनद 14 (उत्तरार्द्ध)

छह अनायतन तथा तीन मूढ़ता दोष

कुगुरू-कुदेव-कुवृष सेवक की नहिं प्रशंसा उचरै है।
जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हैं न नमन करै है।।14।।

अन्वयार्थ:- {सम्यग्दृष्टि जीव} (कुगुरू-कुदेव-कृवृष सेवक की) कुगुरू, कुदेव और कुधर्म की तथा उनके सेवक की (प्रशंस) प्रशंसा (नहिं उचरै है) नहीं करता। (जिन) जिनेन्द्रदेव (मुनि) वीतरागी मुनि {और} (जिनश्रुत) जिनवाणी (विन) के अतिरिक्त {जो} (कुगुरादि) कुगुरू, कुदेव, कुधर्म हैं (तिन्हें) उन्हें (नमन) नमस्कार (न करै है) नहीं करता।

भावार्थ:- कुगुरू, कुदेव, कुधर्म; कुगुरू, कुदेव सेवक तथा कुधर्म सेवक - ये छह अनायतन (धर्म के अस्थान) दोष कहलाते हैं। उनकी भक्ति, विनय और पूजानादि तो दूर रही, किंतु सम्यग्दृष्टि जीव उनकी प्रशंसा भी नहीं करता; क्योंकि उनकी प्रशंसा करने से भी सम्यक्त्व में दोष लगता है। सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्रदेव, वीतरागी मुनि और जिनवाणी के अतिरिक्त कुदेव और कुशास्त्रादि को (भय, आशा, लोभ और स्नेह आदि के कारण भी) नमस्कार नहीं करता; क्योंकि उन्हें नमस्कार करने मात्र से भी सम्यक्त्व दूषित हो जाता है। कुगुरू-सेवा, कुदेव-सेवा तथा कुधर्म-सेवा - ये तीन भी सम्यक्त्व क ेमूढ़ता नामक दोष हैं।।14।।

अव्रती सम्यग्दृष्टि की देवों द्वारा पूजा और गृहस्थपने में अप्रीति

दोषरहित गुणसहित सुधी जे, सम्रुयग्दरश सजै हैं।
चरितमोह वश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं।।
गेही, पै गृह में न रचैं ज्यों, जलतैं भिन्न कमल है।
नगर नारिकौ प्यार यथा, कादे में हेम अमल है।।15।।

अन्वयार्थ:-(जे) जो (सुधी) बुद्धिमान पुरूष {ऊपर कहे हुए} (दोष रहित) पच्चीस दोषहिरत {तथा} (गुणसहित) निःशंकादि आठ गुणों सहित (सम्यग्दरश) सम्यग्दर्शन से (सजै हैं) भूषित हैं। {उन्हें} (चरितमोह वश) अप्रत्याख्यानावरणीय चारित्रमोहनीय कर्म के उदयवश (लेश) किंचित् भी (संजम) संयम (न) नहीं है (पै) तथापि (सुरनाथ) देवों के स्वामी इन्द्र {उनकी} (जजै हैं) पूजा करते हंै; {यद्यपि वे} (गेही) गृहस्थ हैं (पै) तथापि (गृह में) घर में (न रचैं) नहीं राचते। (ज्यों) जिसप्रकार (कमल) कमल (जलतैं) जल से (भिन्न) भिन्न है, {तथा} (यथा) जिसप्रकार (कादे में) कीचड़ में (हेम) सुवर्ण (अमल है) शुद्ध रहता है, {उसीप्रकार उनका घर में} (नगर नारिकौ) वैश्या के (प्यार यथा) प्रेम की भांति (प्यार) प्रेम {होता है}।

भावार्थ:-जो विवेकी पच्चीस दोष रहित तथा आठा अंग (आठ गुण) सहित सम्यग्दर्शन धारण करते हैं, उन्हें अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के तीव्र उदय से युक्त होने के कारण, यद्यपि संयमभाव लेशमात्र नहीं होता; तथापि इन्द्रादि उनकी पूजा (आदर) करते हैं। जिसप्रकार पानी में रहने पर भी कमल पानी से आलिप्त रहता है, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि घर में रहते हुए भी गृहस्थदशा में लिप्त नहीं होता, उदासीन (निर्मोह) रहता है। जिसप्रकार 1वेश्या का प्रेम मात्र पैसे से भी होता है, मनुष्य पर नहीं होता; उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि का प्रेम सम्यक्त्व में ही होता है, किंतु गृहस्थपने में नहीं होता। तथा जिसप्रकार सोना कीचड़ में पड़े रहने पर भी निर्मल रहता है, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि गृहस्थदशा में रहने पर भी उसमें लिप्त नहीं होता, क्योंकि वह उसे 2त्याज्य (त्यागने योग्य) मानता है।3 सम्यक्त्व की महिमा, सम्यग्दृष्टि के अनुत्पत्ति स्थान तथासर्वोत्तम सुख और सर्व धर्म का मूल

प्रथम नरक विन षट् भू ज्योतिष वान भवन षंड नारी।
थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत सम्यक् धारी।।
तीनलोक तिहुंकाल माहिं नहिं, दर्शन सो सुखकारी।
सकल धर्म को मूल यही, इस विन करनी दुखकारी।।16।।

अन्वयार्थ:-(सम्यक्धारी) सम्यग्दृष्टि जीव (प्रथम नरक विन) पहले नरक के अतिरिक्त (षट् भू) शेष छह नरकों में - (ज्योतिष) ज्योतिषी देवों

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1. यहां वेश्या के प्रेम से मात्र अलिप्ता की तुलना की गई है।

2. विषयासक्तः अपि सदा सर्वरम्भेषु वर्तमानः अपि।
मोहविलासः एषः इति सर्वः मान्यते हेयम्।।341।। (स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा)

3. रोगी का औषधिसेवन और बन्दी का कारागृह भी इसके दृष्टान्त है।

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में, (वान) व्यंतर देवों में, (भवन) भवनवासी देवों में (षंड) नपुंसकों में, (नारी) स्त्रियों में, (थावर) पांच स्थावरों में, (विकलत्रय) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चुरिन्द्रिय जीवों में तथा (पशु में) कर्मभूमि के पशुओं में (नहिं उपजत) उत्पन्न नहीं होता। (तीन लोक) तीनलोक (तिहुंकाल माहिं) तीनकाल में (दर्शन सो) सम्यग्दर्शन के समान (सुखकारी) सुखदायक (नहिं) अन्य कुछ नहीं है, (यही) यह सम्यग्दर्शन ही (सकल धरम को) समस्त धर्मों का (मूल) मूल है; (इस विन) इस सम्यग्दर्शन के बिना (करनी) समस्त क्रियाएं (दुःखकारी) दुःखदायक हैं।

भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि जीव आयु पूर्ण होने पर जब मृत्यु प्राप्त करते हैं, तब दूसरे से सातवें नरक के नारकी, ज्योतिषी,व्यन्तर, भवनवासी, नपुंसक, सब पकार की स्त्री, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कर्मभूमि के पशु नहीं होते; (नीचे कुल वाले, विकृत अंगवाले, अल्पायुवाले तथा दरिद्री नहीं होते) विकामनवासी देव, भोगभूमि के मनुष्य अथवा तिर्यंच ही होते हैं। कर्मभूमि के तिर्यंच भी नहीं होते। कदाचित् 1नरक में जाये ंतो पहले नरक से नीचे नहीं जाते। तीनलोक और तीनकाल में सम्यग्दर्शन के समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं है। यह सम्यग्दर्शन ही सर्व धर्मों का मूल है। इसके अतिरिक्त जितने क्रियाकाण्ड हैं, वे दुःखदायक हैं।

सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र का मिथ्यापना।

मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान चरित्रा।
सम्यकता न लहै,सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा।।
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1. ऐसी दशा में सम्यग्दृष्टि प्रथम नरक के नपुंसकों में भी उत्पन्न होता है; उनसे भिन्न अन्य नपुंसकों में उसकी उत्पत् होने का निषेध है।

टिप्पणी - जिसप्रकार श्रेणि राजा सातवें नरक की आयु का बन्ध करके, फिर सम्यक्त्व को प्राप्त हुए थे; उससे यद्यपि उन्हें नरक में तो जाना ही पड़ा, किंतु आयु सातवें नरक से घटकर पहले नकर की ही रही। इसप्रकार जो जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करने से पूर्व तिर्यंच अथवा मनुष्य आयु का बन्ध करते हैं, वे भेगभूमि में जाते हैं; किंतु कर्मभूमि में तिर्यंच अथवा मनुष्यरूप में उत्पन्न नहीं होते।

’’ढौल’’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै।
यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवे।।17।।

अन्वयार्थ:-{यह सम्यग्दर्शन} (मोक्षमहल की) (मोक्षरूपी महल की (परथम) (सीढ़ी) सीढ़ी है; (या बिन) इस सम्यग्दर्शन के बिना (ज्ञान चरित्रा) ज्ञान और चारित्र (सम्यक्ता) सच्चाई (न लहै) प्राप्त नहीं करते; इसलिये (भव्य) हे भव्य जीवों! (सो) ऐसे (पवित्रा) पवित्र (दर्शन) सम्यग्दर्शन को (धारो) धारण करो। (सयाने ’दोल’) हे समझदार दौलतराम! (सुन) सुन, (समझ) समझ और (चेत) सावधान हो, (काल) समय को (वृथा) व्यर्थ (मत खावै) न गंवा; {क्योंकि} (जो) यदि (सम्यक्) सम्यग्दर्शन (नहिं होवै) नहीं हुआ तो (यह) यह (नर भव) मनुष्य पर्याय (फिर) पुनः (मिलन) मिलना (कठिन है) दुर्लीा है।

भावार्थ:- यह 1सम्यग्दर्शन ही मोक्षरूपी महल में पहुंचाने की प्रथम सीढी है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पने को प्राप्त नहीं होते अर्थात् जब तक सम्यग्दर्शन न हो, तब तक ज्ञान वह मिथ्याज्ञान और चारित्र वह मिथ्याचारित्र कहलता है, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र नहीं कहलाते। इसलिये प्रत्येक आत्मार्थी को ऐसा पवित्र सम्यग्दर्शन अवश्य धारण करना चाहिए। पण्डित दौलतरामजी अपने आत्मा को सम्बोध कर कहते हैं कि - हे विवेकी आत्मा! तू ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शन के स्वरूप को स्वयं सुनकर अन्य अनुभवी

1. सम्यग्दृष्टि जीव की, निश्चय कुगति न होय।
पूर्वबन्ध तैं होय तो सम्यक् दोष न कोय।।

ज्ञानियों से प्राप्त करने में सावधान हों; अपने अमूल्य मनुष्य जीवन को व्यर्थ न गंवा। इस जन्म में ही यदि सम्यक्त्व प्राप्त न किया तो फिर मनुष्यपर्याय आदि अच्छे योग पुनः पुनः प्राप्त नहीं होते।।17।।

तीसरी ढाल का सारांश

आत्मा का कल्याण सुख प्राप्त करने में है। आकुलता का मिट जाना, वह सच्चा सुख है। मोक्ष ही सुखस्वरूप है; इसलिए प्रत्येक आत्मार्थी को मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करना चाहिए।

सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारि- इन तीनों की एकता, सो मोक्षमार्ग है। उसका कथन दो प्रकार से है। निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो वास्तव में मोक्षमार्ग है और व्यवहार-सम्यग्दर्शन-चारि वह मोक्षमार्ग नहीं है, किंतु वास्तव में बन्धमार्ग है; लेकिन निश्चयमोक्षमार्ग में सहचर होने से उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है।

आत्मा की परद्रव्यों से भिन्नता का यथार्थ श्रद्धान, सो निश्चयसम्यग्दर्शन है और परद्रव्यों से भिन्नता का यथार्थ ज्ञान, सो निश्चयसम्यग्ज्ञान है। परद्रव्यों का आलम्बन छोड़कर आत्मस्वरूप में लीन होना, सोक निश्चयसम्यक्चारित्र है। सातों तत्वों का यथावत् भेदरूप अटल श्रद्धान करना, सो व्यवहारसम्यग्दर्शन कहलाता है। यद्यपि सात तत्वों के भेद की अटल श्रद्धा शुभराग होने से वह वास्तव में सम्यग्दर्शन नहीं है, किंतु निचली दशा में (चैथे, पांचवे और छठवें गुणस्थान में) निश्चयसम्यक्त्व के सथ सहचर होने से वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहलाता है।

आठ मद तीन मूढ़ता, छह अनायतन और शंकादि आठ दोष - ये सम्यक्त्व के पच्चीस दोष हैं तथा निःशंकितादि आठ सम्यक्त्व के अंग (गुण) हैं; उन्हें भलीभांति जानकर दोष त्याग तथा गुण का ग्रहण करना चाहिए।

जो विवेकी जीव निश्चयसम्यक्तव को धारण करता है; उसे जब तक निर्बलता है, तब तक पुरूषार्थ की मन्दता के कारण यद्यपि किंचित् संयम नहीं होता, तथापि वह इन्द्रादि के द्वारा पूजा जाता है। तीनलोक और तीनलोक में निश्चयसम्यक्त्व के समान सुखकारी अन्य कोई वस्तु नहीं है। सर्व धर्मों का मूल, सार तथा मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी यह सम्यक्त्व ही है; उसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पन को प्राप्त नहीं होते होते, किन्तु मिथ्या कहलाते हैं।

आयुष्य का बन्ध होने से पूर्व सम्यक्त्व धारण करनेवाला जीव मृत्यु के पश्चात् दूसरे भव में नारकी, ज्येतिषी, व्यंतर, भवनवासी, नपुंसक, स्त्री, स्थावर, विकलत्रय, पशु, हीनांग, नीच गोत्रवाला, अल्पायु तथा दरिद्री नहीं होता। मनुष्य और तिर्यंच सम्यग्दृष्टि मरकर वैमानिक देव होता है देव और नारकी सम्यग्दृष्टि मरकर कर्मभूमि में उत्तम क्षेत्र में मनुष्य ही होता है। यदि सम्यग्दर्शन होने से पूर्व - 1 देव, 2 मनुष्य, 3 तिर्यंच या 4 नरकायु का बन्ध हो गया तो वह मरकर 1 वैमानिक देव, 2 भोगभूमि का मनुष्य, 3 भोगभूमि का तिर्यंच अथवा 4 प्रथम नरक का नारकी होता है। इससे अधिक नीचे के स्थान में जन्म नहीं होता। इसप्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन की अपार महिमा है।

इसलिए प्रत्येक आत्मार्थी को सत् शास्त्रों का स्वाध्याय, तत्वचर्चा, सत्समागम तथा यथार्थ तत्वविचार द्वारा निश्चयसम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए; क्योंकि यदि इस मनुष्यभव के निश्चयसयक्त्व प्राप्त नहीं किया तो पुनः मनुष्यपर्याय प्राप्ति आदि का सुयोग मिलना कठिन है।

तीसरी ढाल का भेद-संग्रह

अचेतन द्रव्य :पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। चेतन एक, अचेतन पांचों, रहें सदा गुण-पर्ययवान। केवल पुद्गल रूपवान है, पांचों शेष अरूपी जान।।

अंतरंग परिग्रह :1 मिथ्यात्व, 4 कषाय, 9 नोकषाय।

आस्त्रव :5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 25 कषाय, 15 योग।

कारण : उपादान और निमित्त।

द्रव्यकर्म :ज्ञानावरणादि आठ।

नोकर्म : औदारिक, वैक्रियिक और आहारकादि शरीर।

परिग्रह : अन्तरंग और बहिरंग।

प्रमाद : 4 विकथा, 4 कषाय, 5 इन्द्रिय, 1 निद्रा, 1 प्रणय (स्नेह)।

बहिरंग परिग्रह : क्षेत्र, मकान, सोना, चांदी, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र और बर्तन - ये दस हैं।

भावकर्म :मिथ्यात्व, राग, द्वेष, क्रोधादि।

मद : आठ प्रकार के हैं:- जाति लाभ कुल रूप तप, बल विद्या अधिकार। इनको गर्व न कीजिये, ये मद अष्ट प्रकार।।

मिथ्यात्व : विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान।

रस : खारा, खट्टा, मीठा, कड़वा, चरपरा और कषायला।

रूप : (रंग) - काला, पीला, नीला, लाल और सफेद - ये पांच रूप हैं।

स्पर्श :हलका, भारी, रूखा, चिकना, कड़ा, कोमल, ठण्डा गर्म - ये आठ स्पर्श हैं।

तीसरी ढाल का लक्षण - संग्रह

अनायतन : कुगुरू, कुदेव, कुधर्म और तीनों के सेवक - ये छहों अधर्म के स्थानक।

अनायतन दोष : सम्यक्त्व का नाश करनेवाले कुदेवादि की प्रश्ंसा करना।

अनुकम्पा :प्राणी मात्र पर दया का भाव।

अरिहन्त : चार घातिकर्मों से रहित, अनन्तचतुष्टय सहित वीतराग और केवलज्ञानी परमात्मा।

अलोक : जहां आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य नहीं है, वह स्थान।

अविरति : पापों में प्रवृत्ति अर्थात्

1. निर्विकार स्वसंवेदन से विपरीत अव्रत परिणाम,

2. छह काया (पांचों स्थावर तथा एक त्रसकाय) जीवों की हिंसा के त्यागरूप भाव न होना तथा पांच इन्द्रिय और मन के विषयों में प्रवृत्ति करना - ऐसे बारह प्रकार अविरति है।

अविरति सम्यग्दृष्टि : सम्यग्दर्शन सहित, किन्तु व्रतरहित - ऐसे चैथे गुणस्थानवर्ती जीव।

आस्तिक्य :जीवादि छह द्रव्य, पुण्य और पाप, संवर, निर्जरा, मोक्ष तथा परमात्मा के प्रति विश्वास, सो आस्तिक्य कहलाता है।

कषाय : जो आत्मा को दुःख दे, गुणों के विकास को रोके तथा परतंत्र करे, वह। यानी मिथ्यात्व तथा क्रोध, मान, माया और लोभ - कषायभाव है।

गुणस्थान : मोह और योग के सद्भाव या अभाव से आत्मा के गुणों (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की हीनाधिकतानुसार होनेवाले अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। (वारांगचरित्र, पृष्ठ 362)

घातिया : अनन्त चतुष्टय को रोकने में निमित्तरूप कर्म को घातिया कहते हैं।

चारित्रमोह : आत्मा के चारित्र को रोकने में निमित्त, सो मोहनीयकर्म।

जिनेन्द्र : चार घातिया कर्मों को जीतकर केवलज्ञानादि अनन्त-चतुष्टय प्रकट करनेवाले 18 दोषरहित परमात्मा।

देवमूढ़ता : भय, आशा, स्नेह, लोभवश रागी-द्वेषी देवों की सेवा करना अथवा वंदन-नमस्कार करना।

देशव्रती :श्रावक के व्रतों को धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि, पांचवें गुणस्थान में वर्तनेवाले जीव।

निमित्तकारण :जो स्वयं कार्यरूप परिणमित न हो, किंतु कार्य की उत्पत्ति के समय उपस्थित रहे, वह कारण।

नोकर्म :औदारिकादि पांच शरीर तथा छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणु नोकर्म कहलाते हैं।

पाखंडी मूढ़ता : रागी-द्वेषी और वस्त्रादि परिग्रहधारी, झूठे तथा कुलिंगी साधुओं क सेवा करना अथवा वंदन-नमस्कार करना।

पुद्गल : स्वरूप में असावधानीपूर्वक प्रवृत्ति अथवा धार्मिक कार्यों में अनुत्साह।

मद : अहंकार, घमण्ड, अभिमान।

भावकर्म :मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि जीव के मलिन भाव।

मिथ्यादृष्टि : तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा करनेवाले।

लोकमूढ़ता : धर्म समझकर जलाशयों में स्नान करन तथा रेत, पत्थर आदि का ढेर बनाना - आदि कार्य।

विशेष धर्म : जो धर्म अमुक विशिष्ट द्रव्य में रहे, उसे विशेष धर्म कहते हैं।

शुद्धोपयोग : शुभ और अशुभ राग-द्वेष की परिणति से रहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित चारित्र की स्थिरता।

साामान्य गुण :सर्व द्रव्यों में समानता से विद्यमान गुणों को सामान्य कहते हैं।

सामान्य : प्रत्येक वस्तु में त्रैकालिक द्रव्य-गुणरूप, अभेद एकरूप भाव को सामान्य कहते हैं।

सिद्ध : आठ गुणों सहित तथा आठ कर्मों एवं शरीर रहित परमेष्ठी। (व्यवहार से मुख्य आठ गुण और निश्चय से अनन्त गुण प्रत्येक सिद्ध परमात्मा में हैं।)

संवेग :संसार से भय होना और धर्म तथा धर्म के फल में परम उत्साह होना। साधर्मी और पंचपरमेष्ठी में प्रीति को भी संवेग कहते हैं।

निर्वेद : संसार, शरीर और भोगों में सम्यक् प्रकार से उदासीनता अर्थात् वैराग्य।

अंतर - प्रदर्शन

1. जीव के मोह-राग-द्वेषरूप परिणाम, वह भाव-आस्त्रव है और उस परिणाम में स्निग्धता, वह भावबन्ध है।

2. अनायतन में तो कुदेवादि की प्रशंसा की जाती है, किन्तु मूढ़़ता में तो उनकी सेवा, पूजा और विनय करते हैं।

3. माता के वंश को जाति और पिता के वंश को कुल कहा जाता है।

4. धर्मद्रव्य तो छह द्रव्यों में से एक द्रव्य है और धर्म वह वस्तु का स्वभाव अथवा गुण है।

5. निश्चयनय वस्तु के यथार्थस्वरूप को बतलाता है। व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य का अथवा उनके भाावों का अथवा कारण-कार्यादिक का किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है। ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है, इसलिये उसका त्याग करना चाहिए। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, अध्याय 7)

6. निकल (शरीर रहित) परमात्मा आठों कर्मों से रहित हैं और सकल (शरीर सहित) परमात्मा को चार अघातिकर्म होते हैं।

7. सामान्य धर्म अथवा गुण तो अनेक वस्तुओं में रहता है, किंतु विशेष धर्म या विशेष णु तो अमुक खास वस्तु में ही होता है।

8. सम्यग्दर्शन अंगी है और निःशंकित अंग उसका एक अंग है।

तीसरी ढाल की प्रश्नावली

1. अजीव, अधर्म, अनायतन, अलोक, अन्तरात्मा, अरिहन्त, आकाश, आत्मा, आस्त्रव, आठ अंग, आठ मद, उत्तम अन्तरात्मा, उपयोग, कषाय, काल, कुल, गन्ध, चारित्रमोह, जघन्य अन्तरात्मा, जाति, जीव, मद देवमूढ़ता, द्रव्यकर्म, निकल, निश्चयकाल, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, मोक्षमार्ग, निर्जरा, नोकर्म, परमात्मा, पाखंडी मूढ़ता, पुद्गल, बहिरात्मा, बन्ध, मध्यम अन्तरात्मा, मूढ़ता, मोक्ष, रस, रूप लोकमूढ़ता, विशेष, विकलत्रय, व्यवहारकाल, सम्यग्दर्शन, शम, सच्चे देव-गुरू-शास्त्र, सुख, सकल परमात्मा, संवर, संवेग, सामान्य, सिद्ध तथा स्पर्श आदि के लक्षण बतलाओ।

2. अनायतन और मूढ़ता में, जाति ओर कुल में, धर्म और धर्मद्रव्य में, निश्चय और व्यवहार में, सकल और निकल में, निःकांक्षित ओर निःशंकित अंग में तथा सामान्य गुण और विशेष गुण आदि में क्या अन्तर है?

3. अणुव्रती का आत्मा, आत्महित, चेतन द्रव्य, निराकुल दशा अथवा स्थान, सात तत्त्व, उनका सार, धर्म का मूल, सर्वोत्तत धर्म, सम्यग्दृष्टि को नमस्कार के अयोग्य तथा हेय-उपादेय तत्त्वों के नाम बतलाओ।

4. अघातिया, अंग, अजीव, अनायतन, अन्तरात्मा, अन्तरंग-परिग्रह, अमूर्तिक द्रव्य, आकाश, आत्मा, आस्त्रव, कर्म, कषाय, कारण, कालद्रव्य, गंध, घातिया, जीवतत्त्व, द्रव्य, दुःखदायक भाव, द्रव्यकर्म, नोकर्म, परमात्मा, परिग्रह, पुद्गल के गुण, भावकर्म, प्रमाद, बहिरंग परिग्रह, मद, मिथ्यात्व, मूढ़ता, मोक्षमार्ग, योग, रूपी द्रव्य, रस, वर्ण, सम्यक्त्व के दोष और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के भेद बतलाओ।

5. तत्त्वज्ञान होने पर भी असंयम, अव्रती की पूज्यता, आत्मा के दुःख, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा सम्यग्दृष्टि का कुदेवादि को नमस्कार न करना - आदि के कारण बतलाओ।

6. अमूर्तिक द्रव्य, परमात्मा के ध्यान से लाभ, मुनि का आत्मा, मूर्तिक द्रव्य, मोक्ष का स्थान और उपाय, बहिरात्मपने के त्याग का कारण; सच्चे सुख का उपाय और सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति न होनेवाले स्थान - इनका स्पष्टीकरण करो।

7. अमुद पद, चरण अथवा छनद का अर्थ तथा भावार्थ बतलाओ; तीसरी ढाल का सारांश सुनाओ। आत्मा, मोक्षमार्ग, जीव, छह द्रव्य और सम्यक्त्व के दोष पर लेख लिखो।

दर्शन-स्तुति

निरखत जिनचन्द्र-वदन स्व-पद सुरूचि आई।
प्रकटी निज आन की पिछान ज्ञान भान की।

कला उद्योत होत काम-जामनी पलाई।।निरखत।।
शाश्वत आनन्द स्वाद पायो विनसयो विषाद।

आन में अनिष्ट-इष्ट कल्पना नसाई ।।निरखत।।

साधी निज साध की समाधि मोह-व्याधि की।
उपाधि को विराधि कैं आराधना सुहाई।।निरखत।।

धन दिन छिन आज सुगुनि चिन्तै जिनराज अबै।
सुधरो सब काज ’दौल’ अचल रिद्धि पाई।।निरखत।।
- पं. दौलतराम