द्वादशांगरूप णमोकार मन्त्र
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आचार्यों ने द्वादशांग जिनवाणी का वर्णन करते हुए प्रत्येक की पद संख्या तथा समस्त श्रुतज्ञान के अक्षरों की संख्या का वर्णन किया है। इस महामन्त्र में समस्त श्रुतज्ञान विद्यमान है। क्योंकि पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त अन्य श्रुतज्ञान कुछ नहीं है। अतः यह महामन्त्र समस्त द्वादशांग जिनवाणी रूप है। इस महामन्त्र का विश्लेषण करने पर निम्न निष्कर्ष सामने आते हैं-

इस मन्त्र में 35 अक्षर हैं। 5 पद हैं। णमो अरिहंताणं: = 7, अक्षर, णमो सिद्धाणं = 5, णमो आइरियाणं = 7, णमो उवज्झायाणं = 7, णमो लोए सव्वसाहूणं = 9 अक्षरण् इस प्रकार इस मन्त्र में कुल 35 अक्षर है। स्वर और व्यंजनों का विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि ‘णमो अरिहंताण’ = 6 व्यंजन, णमो सिद्धाणं = 5 व्यंजन, णमो आइरियाणं = 5 व्यंजन, णमो उवज्झायाणं = 6 व्यंजन; णमो लोए सव्वसाहूण् = 8, इस प्रकार इस मन्त्र में कुल 6 $ 5 $ 5 $ 6 $ 8 = 30 व्यंजन हैं। स्वर निम्न प्रकार हैं-

इस मन्त्र में सभी वर्ण अजन्त हैं, यहाँ हलन्त एक भी वर्ण नहीं है। अतः 35 अक्षरों में 35 स्वर मानने चाहिए। पर वास्तविकाता यह है कि 35 अक्षरों के हाने परभी वहाँ स्वर 34 हैं। इसका प्रधानकारण यह है कि ‘णमो अरिहंताणं’ इस पद में 6 ही स्वरमाने जाते हैं। मन्त्रशास्त्र े व्याकरण के अनुसार ‘णमो अरिहंताणं’ पद के ‘अ’ का लोप हो जाता है। यद्यपि प्राकृत में ‘एड’-नेत्यनुवर्तते। एडत्येदोतौ। एदोोः संस्कृतोक्तः सन्धिः प्राकृते तु न भवित। यथा देवो अहिणंदणों, अहो अच्चरिअं, इत्यादि। सूत्र के अनुसार सन्धि न होने के कारण ‘अ’ क अस्तित्व ज्यों का त्यों रहता है, अ का लोप या खण्डाकार नहीं होता है; किन्तु मन्त्रशास्त्र में ‘बहुलम्’ सूत्र की प्रवृत्ति मानकर ‘स्वरयारव्यवधाने प्रकृतिभावों लोपो वैकस्य’ इससूत्र के अनुसार ‘अरिहंताणं’ वाले पद के ‘अ’ का लोप विकल्प से हो जाता है, अतः इस पद में छह ही स्वर माने जाते हैं। इस प्रकार कुल मन्त्र में 35 अक्षर हेने पर भी 34 ही स्वर रहते हैं। कुल स्वर और व्यंजनों की संख्या 34 $ 30 = 64 है। मूल वर्णों की संख्या 64 ही है। प्राकृत भाषा के नियमानुसार अ, इ, उ औरए मूल स्वर तथा ज झ ण त द ध य र ल व स औरह ये मूल व्यंजन इस मन्त्र में निहित हैं। अतएव 64 अनादि मूल वर्णों को लेकर समस्त श्रुतज्ञान के अक्षरों का प्रमाा निम्न प्रकार निकाला जा सकता है। गाथासूत्र निम्न प्रकार है:

चउसट्ठिपदं विरलिय दुर्ग च दाउण सगुणं किच्चा।
सऊणं च कए पुण् सुदणाणरसक्खरा होंति।।
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अर्थात - उक्त चैंसठ अक्षरों का विरलन करके प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर सम्पूर्ण दो के अंकों का गुणा करने से लब्धराशि में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है, उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं।
यहाँ 64 अक्षरों का विरलन कर रखा तो-
2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1..................... 1 1 = 18446744073709551616-1 = 18446744073709551615 समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर । इन अक्षरों का प्रमाण गाथा में निम्न प्रकार कहा गया है:

एकट्ठ च च य छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततियासत्त।
सुण्णं णव पण पंच च एक्कं छक्केक्कगो य पणयं च।।

अर्थात - एक आठ चार-चार छह सात चार-चार शून्य सात तीन सात शून्य नव पंच-पंच एक छह एक पाँच समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर हैं।

इस प्रकार णमोकार मन्त्र में समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर निहित है। क्योंकि अनादि निधन मूलाक्षरों पर से ही उक्त प्रमाण निकाला गया है। अतः संक्षेप में समस्त जिनवाणीरूप यह मन्त्र है। इसका पाठ या स्मरण करने से कितना महान् पुण्य का बन्ध होता है। तथा केवल ज्ञान-लक्ष्मी की प्राप्ति भी इस मन्त्र की आराधना से होती है। ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य ने इस मन्त्र की आराधना का फल बताते हुए लिखा है:

श्रियमात्यन्तिकीं प्राप्ता योगिने येऽत्र केचन।
अमुमेव महामन्त्रं ते समाराध्य केवलम्।।
प्रभावमस्य निःशेषं योगिनामप्यगोचरम्।
अनभिज्ञो जनो ब्रूते यः स मन्येऽनिलार्दितः।।
अनेनैव विशुद्ध्यान्ति जन्तवः पापपंडिताः।
अनेनैव विमुच्यन्ते भवक्लेशन्मनीषिणः।।

अर्थात् इस लोक में जितने भी योगियों ने आत्यन्तिकी लक्ष्मी-मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया है, उन सबों ने श्रुतज्ञानभूत इस महामन्त्र की आराधना करके ही। समस्त जिनवाणीरूप इस महामन्त्र की महिमा एवं इसका तत्काल होनेवाला अमिट प्रभाव योगी मुनीश्वरों के भी अगोचर हैं। वे इसके वास्तविक प्रभाव का निरूपण करने में असमर्थ हैं। जो साधारण व्यक्ति इस श्रुतज्ञानरूप मन्त्र का प्रभाव कहना चाहता है, वह वायुवश प्रलाप करनेवाला ही माना जाएगां इस णमोकार मन्त्र का प्रभाव केवली ही जानने में समर्थ हैं। जो प्राणी पाप से मलिन हें, वे इसी मन्त्र से विषुद्ध होते हैं और इसी मंत्र के प्रभाव से मनीषीगण संसार के क्लेशों से छूटते हैं।

स्वाध्याय और ध्यान का जितना समबन्ध आत्मशोधन के साथ है, उतना ही इस मन्त्र का भी सम्बन्ध आत्मकल्याण के साथ है। इस मन्त्र का 108 बार जाप करने से द्वादशांग जिनवाणी के स्वाध्याय का पुण्य होताहै तथा मन एकाग्र होता है। इस मन्त्र के प्रति अटूट श्रद्धा या विश्वास होने से ही मन्त्र कार्यकारी होता है। द्वादशांग जिनवाणी का इतना सरल, सुसंस्कृत एवं सच्चा रूप कहीं नहीं मिल सकता है। ज्ञानरूप आत्मा को इसका अनुभव होते ही श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा या क्षयोपशम यप शक्ति इस मन्त्र के उच्चारण से आती है तथा आत्मा से महान् प्रकाश उत्पन्न हो जाता है। अतएव यह महामन्त्र समस्त श्रुतज्ञान रूप है, इससे जिनवाणी का समस्त रूप निहित है।